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________________ स्या०० टीका एवं हिन्चो विवेचन ] १७६ प्राचीन, समर्थ, असमर्थ, देवदतस्वामिक, देववत्तलब्ध, चैत्रलब्ध, देवदत्तकृत, चैत्रहत आदि अनेक रूपों में अवगत होता है । इस प्रकार यह अत्यन्त सुस्पष्ट है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई वस्तु किसी एक ही रूप में दृष्ट न होकर अनेक रूप में दृष्टिगोचर होती है। यत्पुनरुज्यते मण्डनेन"पित्रादिविषयेऽपेक्षा जननादिप्रभाविता । एकक्रियाविशेषेण व्यपेक्षा हस्व-दीघयोः ॥१५॥ इति । तत्तु दृष्टान्न-दाष्टान्तिकयोरापेक्षिकपर्यायत्वपर्यवसानाद् नातिचतुरस्त्रम् । यदप्येतद् विवृण्वतोक्तम्-'शब्दार्थस्तत्र सापेक्षो न वस्तु' इति । तदप्यशब्दार्थस्य वस्तुनः सिद्धौ शब्दस्य च कल्पनामात्रपर्यवसितत्वे शोभते । येषामपि मतम्-'पितृत्वपुत्रत्वादयो धर्मा एव तत्तन्निरूपिता मिद्यन्ते, धर्मा त्वेकस्वभाव एव'-शेषामपि 'एतदपेक्षयाऽयं पिता, एतदपेशया च न पिता' इत्यादिप्रतीन्यननुरोध एव । धर्मिभेदप्रतीतेर्धर्माभावावगाहितायां 'घटः पटो न' इत्यादावपि तथात्वापत्त्या च भेदकथैवोत्सीदेदिति । येऽपि 'नगर-त्रैलोक्यादिवत् पित-पुत्रादिभावभाग ज्ञानाकार एवं' इति प्रतिपन्नवन्तः तेऽपि शवलार्थानुपपत्तिभीताः शबलज्ञानमाश्रयन्तो व्याघ्रात त्रस्यन्तः कूपान्तःपातिन इति दिग् । [पितृत्त्वादि धर्म केवल प्रातीतिक-मण्डनमिश्र ] इस सन्दर्भ में मण्डन मिथ ने यह कहा है कि "पिता-पुत्र आदि रूप में ज्ञात होने वाला पुरुष वास्तव में एकान्त रूप ही होता है उसमें अनेकरूपता की प्रतीति, उत्पत्ति उत्पादन आदि विभिन्न क्रियानों के कारण होतो है । अतः अनेकरूपता उसका वास्तविकरूप नहीं है किन्तु अनेकों के सम्बन्ध के कारण केवल व्यावहारिकरूप है। क्रियाविशेष रूप से एक में अनेकरूपता को बुद्धि ठोक उसी प्रकार ज्ञातव्य है जैसे ह्रस्थ, दोघंरूप में अन्य को प्रतीति के द्वारा किसी वस्तु में हस्व, वीर्घरूपता ज्ञात होती है। कहने का आशय यह है कि कोई वस्तु स्वयं अपने ही व्यक्तित्व के आधार पर ह्रस्व या वीर्घ नहीं होती किन्तु अपने से दीर्घ प्रतीत होने वाली वस्तु को अपेक्षा ह्रस्व और अपने से ह्रस्व प्रतीत होने वाली अन्य वस्तु को अपेक्षा दीर्घ प्रतीत होती हैं तो जैसे वस्तु का ह्रस्वत्व और वीर्घस्व उसका वास्तवरूप न होकर मात्र प्रातीतिक या व्यावहारिक हो होता है ठीक उसी प्रकार पितृत्व, पुत्रत्व आदि भी एक पुरुष का वास्तविक रूप न होकर केवल प्रातोतिक एवं व्यावहारिक ही रूप है। प्रतः वास्तव में वस्तु अनेकान्त रूप न होकर एकान्त रूप ही होती है।" [ मण्डन मिथ के कथन का निराकरण ] व्याख्याकार की दृष्टि में मिश्र का उक्त कथन समीचीन नहीं है क्योंकि जैसा विवेचन किया गया है उसके अनुसार दृष्टान्त -हस्व, दीर्घ रूप में प्रतीत होने वाली वस्तु और दार्टान्तिक-दृष्टान्त द्वारा समर्थनीय पिता-पुत्र आदि रूप में प्रतीत होने वाला एक पुरुष, तथा पूर्व पर आदिरूप में प्रतीत होने वाला एक घट, एवं पुरुष और उक्त दृष्टान्त तथा अन्य वस्तु के सम्बन्ध से अनेकरूपों में प्रतीत होने वाली वस्तु रूप दार्दान्तिक का पर्यवसान उनकी अपेक्षिक पर्यायरूपता में होता है। आशय यह
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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