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[ शास्त्रमा
स्त.७ श्लो० ३७
गि मादि कार की उपलमिल न होने से मदव्य और पिण्ड आदि की परस्पर निरपेक्षता-परस्पर भिन्नता असिद्ध है, क्योंकि दोनों में परस्पर निरपेक्षता का अनुमब नहीं होता। मृद्रव्य और पिण्ड आदि एक ही हैं, उनमें कुछ भी भेद नहीं हैं यह बात मी प्रसिद्ध है क्योंकि उन दोनों में भेद और अभेद दोनों की उपलब्धि होती है । 'मृत qिug:' इस प्रकार मत् द्रव्य और पिण्ड आकार दोनों में सामानाधिकरण्य का प्रनुभव निर्विवाद है इसीलिए मेदामेव पक्ष से भिन्न केवल भेव पक्ष तथा केवल प्रमेव पक्ष में द्रव्यपर्याय के प्रभाव को आपत्ति रूप विरोध का होना अनिवार्य है ।
[भेद-अभेद के सामानाधिकरण्य में विरोध का अभाव ] स्पष्ट है कि एक वादी के अनभिमप्त अर्थ का उपलम्भ अन्य यात्री को जो होता है उसे अनभिमतवादी असविषयक नहीं कह सकता। और इसी प्रकार एकवादी के अभिमत अर्थ का उपलम्भ जो उसे होता है अन्य वादी उसको असद्विषयक नहीं कह सकता है। फलतः अमेवोपलम्भ और मेवोपलम्भ किसी को असद्विषयफ नहीं कहा जा सकता। अतः द्रव्यपर्यायाभाव की आपत्ति केवल भेद पक्ष और केवल अमेव पक्ष में ही होती है। वैशेषिक आदि जो धर्म और धर्मी में स्वातन्त्र्यभेद मानते हैं घे भेव और अभेद को विषय करने वाली बुद्धि को यदि प्रभेद अंश में भ्रम कहेंगे तो तुल्यरीति से उसे भेद अंश में भी भ्रम कहा जा सकेगा। फलतः भेव-अमेव किसी को भी सिद्धि न हो सकेगी। अतः निर्विवादरूप से यह सिद्ध होता है कि भेव और प्रभेद में जो सामानाधिकरण्य का अनुभव होता है उसमें अनुभवयाधरूप विरोध नहीं हो सकता है।
___ 'सहानवस्थाननियमादनयो धितमेव सामानाधिकरण्यमिति चेत् १ न, तन्नियमाऽसिद्धेः, बसथादौ रूपस्य गन्धाऽसामानाधिकरण्यदर्शनेऽपि पृथिव्यां तत्सामानाधिकरण्यवत , पर्वतमहानसयोः पर्वतीय-महानसीयवल्यभावयोः परस्पराऽसामानाधिकरण्यदर्शनेऽपि हदे तदुभयसामानाधिकरण्यवद् भेदाभेदयोः प्रतियोगिविशेषितयोरन्यत्राऽसमाविष्टयोदर्शनेऽपि प्रकृते समावेशसंभवात् । नन्वेवं गन्ध-रूपयोरिव' मेदाऽभेदयोरप्यनवच्छिन्नत्वं स्यादिति चेत् ? अनवच्छिन्नयोरनवच्छिन्नत्वमेव, अवच्छिन्नयोश्वाच्छिमत्वमेवेति किं नावयुध्यसे । वस्तुतो न क्वचिदेकान्तः, रूप-गन्धयोरपि भिन्नस्वभावावच्छेदेन पृथिवीवृत्तित्वोपगमात्, अन्यथकत्वा
पातात् । 'रूपस्वभावेन गन्धो न पृथिवीवृत्तिः' इति व्यवहाराच्चेति । एतेन परस्परग्रहप्रतिबन्धकाहविषयत्वरूपो विरोधोऽपि निरस्तः, भेदा-ऽभेदग्रहयोविलक्षणसामग्रीकत्वेनैकाहेऽपराऽग्रहात् , तेन रूपेण च रूपवत्ताग्रहेऽपि गन्धवत्ताऽग्रहादिति द्रष्टव्यम् ।। ३७ ॥
। भेदाभेद में सहानवस्थान का नियम असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-'मेद और अभेद में सहानवस्थान का-एकत्र न रहने का नियम है, अत एव उनका सामानाधिकरण्य बाधित है । अतः बाधित सामानाधिकरण्य की प्रतीति से उनमें अविरोध नहीं माना जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भेदाभेव के सहानवस्थान का नियम असिद्ध है। सच तो यह है कि जैसे अग्नि आदि में रूप और गन्ध के सहानवस्थान का दर्शन होने पर भी पृथ्वी में दोनों का सहानवस्थान होता है, एवं पर्वत और पाकशाला किसी एक में पर्वतीय वह्नयभाव और