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स्मा० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
शक्तिक पद से अन्या का बोध नहीं हो सकेगा। अस्प विशेष यानी वस्तु का अन्तिम च्यावत्तक धर्म स्वमात्रवृत्ति होने से वस्तु का स्व रूप है, यह भी मनत्वयो होने से प्रवाच्य होता है । अतः व्यक्त्यन्तररूपात्मक 'पर' रूप और अन्त्य विशेष यानी अन्तिमट्यावर्त्तवर्मात्मक 'स्व' रूप, ये दोना
वाच्य एगे से मन को दो से पातु को एक पद से युगपद विवक्षा करने पर भी वस्तु अवाच्य हो होगी। किन्तु अनेकान्तवाव में स्वरूप और पररूप कथंचिद अन्वयी होने से उनसे परवाच्यता सम्भव होने के कारण उक्त रूपों से वस्तु कपंचिद् ही प्रवक्तव्य होगी। ___अथवा, 'सद्रुतरूपाः सत्त्वादयो घट' इत्यत्र दर्शने सत्त्वादयः पररूपं, संदूनरूपं स्वं, तान्यामादिष्टो पटोऽवक्तव्यः, यतः संद्रतरूपस्य सत्त्व-रज-तमस्सु सच्चे सत्त्व-रजा-तमसामभावप्रसक्तिः, तेषां परस्परवैलवण्येनैव सत्त्वादित्वात् , संद्रतरूपन्वे च वैलक्षण्याभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः। असत्त्वे चाऽसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः। न चैतदभ्युपगम्यते । अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभाषादवाच्यः । अनेकान्ते तु कथञ्चित्तथा ।
[१३-मंद्रुतरूपादि से भंगत्रय का प्रतिपादन ] 'संवृतरूप अर्याद गौण-प्रधानभाव से परस्पराऽविविक्त हो कर एकात्मना परिणत-सत्यादि ही घट है-यह सांख्यदर्शन का मत है। इस मत के अनुसार असंदूतसत्त्वादि अर्थात परस्परविविक्त सस्वादि घट का पर रूप है और संदूतरूप परस्पराऽविविक्त सत्त्वादि घट का स्वरूप है। इन रूपी से एक साथ विवक्षित होने पर घट अवक्तव्य-सवथा अवक्तव्य हो जाता है क्योंकि यदि सत्त्व-रजस्तमस् में सन्नुतरूप मानने पर अर्थात् सत्त्य-रजस्-तमस् को परस्पर अधिविक्तस्वरूप मानने पर सत्त्वरजस्-तमस् का अभाव हो जायगा-यो कि सत्त्वादि की सिद्धि परस्परविविक्तरूप में ही होती है। प्रतः उन्हें यवि सन्मृतरूप माना जायगा तो उन में वैलक्षण्य न हो सकेगा, फलतः परस्पर-विलक्षण सत्त्व-रजस्-तमस् का प्रभाव होने से 'सन्द्रत सत्त्व-रजस्-तमस हो घट है' यह नहीं कह सकते क्योंकि इस उक्ति में विशेष्य रूप में प्रतीत होने वाले सन्द्रत सत्त्व-रजस-तमस् का प्रभाव होने से सन्द्रतसस्थाघात्मक घर का मो अभाष हो जायगा। अतः घट अवाच्य होगा । और सद्भुत सस्वादि का अभाव होने पर घट उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति के पूर्व असत होगा अतः उसकी उत्पत्ति मानने से असत्कार्यबाद को आपत्ति होगी। जो कि सांस्यमत में इष्ट नहीं है। यदि घटादिरूप असत्कायं का अम्युपगम किया जायगा तो 'सन्द्रुत अमुक वस्तु घट है' यह कहना सम्भव न होगा । फलतः सन्नुतत्वरूप. विशेषण का अभाव होने से सन्त घट का प्रभाव होगा। इस प्रभाव के कारण घट भी अवाच्य होगा। किन्तु अनेकान्तवाद में अर्थात् घटादि की उत्पत्ति के पूर्व सत्यादि असंद्रुतरूप है और घटादि काल में सन्नृतरूप है-इस प्रकार सत्वादि में कश्चित् सन्ताऽसन्दुतोभयरूपता होने से उक्त रोति से विशेष्याभाव या विशेषणाभाव न होने के कारण घट का अभाव नहीं होगा, अतः अनेकान्तवाव में घट असन्तसत्त्वाद्यात्मक पररूप से और सन्त सस्थाहात्मक स्वरूप से कश्चिद अवक्तव्य हो सकता है!
यद्वा, रूपादयः पररूपम् , असंद्रुतरूपत्वं स्वरूपम् , ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः, यतोऽरूपादिव्यावृत्ता रूपादयः, एवं च रूपादीनां घटताऽवाच्यः, अरूपादित्वात् घटस्य । न हि परस्पर