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________________ स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २०९ न पथक्' इन दोनों प्रतीतियों की उपपत्ति होती है। अन्यत्वरूप भेद और पृथक्त्वरूप भेदाभाव एक दूसरे से अनुविद्ध होकर ही उपपन्न होते हैं। तव्य गायिकों के समान हम जैनों की यह एकान्त मान्यता नहीं है कि पृथक्त्व अन्यत्व रूप हो है, अतएव जैन मत में उक्त दोनों प्रतीतियों की अनुपपत्ति की सम्भावना नहीं है। यदि यह कहा जाय कि नव्य नैयायिकों के मत में भी 'न पथक' शब्द का 'तत्तद्-व्यक्तित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक मेवाभाववान् तत्तद्व्यक्ति के भेवकटामाव का प्राश्रय' अर्थ होने से रक्तो घटः श्यामात् न पृथक्' इस प्रतीति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि श्यामरूप और रक्तरूप के आश्रयभूत घट व्यक्ति के एक होने से रक्त घट में श्यामघट व्यक्ति का मेव न होने के कारण श्यामघरव्यक्ति के भेद का अभाव है"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'श्यामाव न पृथक' शब्द से 'श्यामघटव्यक्तेन पथक' इस बोध से 'रक्तघटः श्यामात पृथक् न वा' इस सामान्य संशय की निवृसि नहीं हो सकती। इसको निवृत्ति तो श्याम से पृथक्त्वामाव अर्थात् श्याममेवाभाव के बोध से ही हो सकती है, जो नष्यन्याय के मत में सम्भव नहीं है, और दूसरी बात यह है कि यदि 'श्यामात् न पृथक्' इस वाक्य से तद्व्यक्तित्व रूप से श्याम के भेद के अभाव का बोध माना जायगा तो यह तद्व्यक्ति में 'श्याम' पद की लक्षणा के विना नहीं हो सकेगा, जब कि उसके बिना भी 'श्यामात् न पृथक्' इस वाक्य से यथाश्रुत अर्थ का बोध होता है। एतेन 'भेदाऽभेदयोरेकदैकत्र विरोध एव | न च भेदोऽन्योन्याभाव एव, अभेदस्तु तादात्म्यमिति न विरोधः, तादात्म्यस्याऽभेदश्यवहारे हेतुत्वात्' इति गङ्गेशाकूतं निरस्तम्; तादात्म्येनापि प्रकृते 'न पृथक' इत्यभेदाभिलापरूपस्याभेदव्यवहारस्य जननादेवः 'प्रमेयमभिधेयम्' इत्यादावपि प्रमेयसामान्येऽभिधेयभेदस्तोमाभावविवक्षायां तदभेदव्यवहारोपपत्तेः, बने वनाभेदव्यवहारवत् । न चेदेवम् , प्रमेया-ऽभिधेययोस्तादात्म्यमपि दुर्घटं स्यात्, भेदाभेदविकल्पग्रासात् । 'अभिधेयनादात्म्यमभिधेयत्वमेव, अभिधेयवत् इत्यादिधियां विशेषश्च तत्र तादात्म्यस्यासंसर्गत्वात् , स्वरूपसंबन्धस्यैव संसर्गत्वादिति तु तुच्छम् , अभिधेयत्वा-ऽभिधेपस्वरूपाऽविशेषात् । [एक वस्तु में भेद-अभेद के विरोध का निरसन ] प्रस्तुत सम्बन्ध में गड़श का यह अभिप्राय है कि एक काल में एक वस्तु में भेद और अभेद का विरोध ही है, जो वस्तु जिस समय जिससे भिन्न है यह वस्तु उसी समय उससे अभिन्न नहीं हो सकती। "भेद अन्योन्याभाय रूप है और अभेद भेद का अभाव न होकर तादात्म्य रूप है. प्रतः अन्योन्याभावात्मक भेद और तादात्म्य रूप अभेद में कोई विरोध नहीं है" यह नहीं कहा जा सकता है, षयोंकि तादात्म्य अभेद ध्यवहार का हेतु नहीं होता, अतः भेव और तादात्म्य को लेकर वस्तु में भेदाभेदव्यवहार का समर्थन नहीं किया जा सकता'-किन्तु यह गंगेश का अभिप्राय उक्त रीति से वस्तु में भेदाभेव का उपपादन शक्य होने से निरस्त हो जाता है। और 'तादात्म्य प्रभेद व्यवहार का हेतु नहीं है' गङ्गश का यह कथन भी निराकृत हो जाता है क्योंकि जिस वस्तु में जिमका तादात्म्य होता है उस वस्तु में उस वस्तु के अमे का भी 'यह इससे पृथक नहीं है इस रूप में व्यवहार निविपाय है। यह भी स्पष्ट है कि प्रमेयमभिधेयम्' इस प्रकार प्रमेय में अभिधेय का अभेव व्यवहार होता
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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