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________________ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ श्लो० ३३ है और यह अभेद प्रभिषेय व्यक्ति जितने हैं उन सभी व्यक्तियों के भेदसमुदाय के अभाव रूप है । यह प्रभेद अभिधेय के भेदसामान्याभाव रूप नहीं है, क्योंकि अभिधेयत्व केवलान्वयी होने से अभिधेय भेद अप्रसिद्ध होने के कारण श्रभिधेय भेदाभाव अप्रसिद्ध है। अतः तत्तत् अभिधेय व्यक्ति के मेवकूट के प्रभाव रूप तादात्म्य से ही प्रमेय में अभिधेय के अभेद व्यवहार की उपपत्ति मान्य है । २१० प्रमेय में अभिय का यह अभेश्व्यवहार ठीक उसी प्रकार है जैसे वन में वनाभेद का व्यवहार होता है । आशय यह है कि वन का अर्थ होता है 'वृक्षों का समूह' समूह का भेद एक-एक वृक्ष में रहने से वृक्ष समुदाय स्वरूप वन में वन का मेद रहने के कारण वन में वनभेद के अभाव रूप अभेद का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । अत एव यही मानना होता है कि धनाभेद का अर्थ है एक-एक वृक्ष व्यक्ति के मेद समुदाय का प्रभाव। यह अभाव वन में रह सकता है, क्योंकि वृक्ष व्यक्तियों का भेदकूट किसी भी वृक्ष में न रहने से वृक्ष समुदायात्मक वन में भी नहीं रह सकता । अतः खन में वृक्ष offee के कूट का अभाव रूप वनाभेद का होना निष्कंटक है । [ भेदाभेद के विना प्रमेय-अभिधेय का तादात्म्य दुर्घट ] यदि ऐसा न माना जायगा तो प्रमेय और अभिधेय का तादात्म्य भी अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि प्रमेय में अभिधेय का अत्यन्त मेद और अत्यन्त अभेद, दोनों ही विकल्पों में प्रमेय में अभिषेय का तादाम्य नहीं बन सकता, क्योंकि जिसमें जिस वस्तु का अत्यन्त भेद होता है उसमें उस वस्तु का तादात्म्य नहीं होता है, जैसे घट और पट में एवं जिस वस्तु का जिसमें अत्यन्त अभेद होता है उसमें मो उस वस्तु का तावात्म्य नहीं होता, इसीलिए 'घटो घटः यह प्रयोग नहीं होता । "अभिधेयत्व हो अभिषेकासात्म्य है तथा 'प्रमेयमभिधेयम्' इस बुद्धि में प्रमेयमभिधेयवत् इस बुद्धि का वैलक्षण्य है क्योंकि 'प्रमेयमभिधेयम्' इस बुद्धि में तादात्म्य संसर्ग है और 'प्रमेयमभिधेयवत्' इस बुद्धि में ताबातम्य संसर्ग नहीं है, किन्तु स्वरूप सम्बन्ध हो संसर्ग है" यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभिधेयत्व और अभिधेय के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, अतः अभिधेयत्व को 'अभिधेय के तादात्म्यरूप मानने पर उक्त बुद्धियों में लक्षण्य नहीं हो सकता | एतेन तादात्म्यत्वादिना संसर्गतादिना विशेषः' इत्यपि निरस्तम् । अतिरिक्तमेव तादात्यत्वम्, इत्थमेव 'भूतलं संयोगि-भूतलं संयोगिमत्' इति ज्ञानयोर्वैलक्षण्यम्' आद्ये तादात्म्यत्वेन, अन्त्ये संयोगत्वादिना संयोगादेः प्रकारतावच्छेदकत्वस्वीकारात । " तादात्म्यमेव वाधिकम् तत्तत्तादात्म्यत्वस्य तद्वृत्तिनानागुणादौ कल्पने, तंत्र कारणतावच्छेदकत्वादिकल्पने च गौरवात् ।" इत्यपि न पेशलम्, अतिरिक्तादात्म्य संबन्धानुपपत्तेः शबलवस्तुविशेषं चिना विशेषानुपपत्तेः संयोग-संयोगिमतोरेव कथञ्चिद्विशेषानुभवाच्चेति दिग् [ भिन्न भिन्न संसर्ग की कल्पना अयुक्त ] मेद यह कहना कि "अभिधेयत्व और अभिधेय स्वरूप में स्वरूपतः भेद न होने पर भी यह माना जा सकता है कि 'प्रमेयमभिधेयम्' इस प्रतीति में अभिधेयत्व तादात्म्यत्व रूप से सम्बन्ध होता है और 'प्रमेयमभिधेयवत्' इस प्रतीति में श्रभिधेयत्व स्वरूपश्य रूप से संसगं होता है" - निरस्त हो जाता है। क्योंकि तादात्म्यत्व अतिरिक्त ही है। इसी प्रकार 'सूतलं संयोगि' और 'भूतलं संयोगि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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