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[ शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो० ३३
जायगी तो घटस और ममा उभयकी अनभितिका उदो आयगा, क्योंकि घटत्व और सत्ता उभय को अनुमिति उसी धर्मों में होगी जिसमें दोनों का अस्तित्व हो, और ऐसा व्यक्ति उन दोनों की अनुमिति के पूर्व असिद्ध है।
[साध्य अप्रसिद्धि दोष का निवारण ] भेवाभेख के अनुमान के सम्बन्ध में भेदाभेद को उक्त रूप से साध्य मान लेने पर यह कहना भी कि-"भेदाभेद यदि एकान्तभेव और एकान्त अभेद के अन्यतर के अभाव रूप में साध्य होगा अथवा भेव विशिष्ट अमेव के रूप में साध्य होगा तो दोनों ही दशा में साध्य को अप्रसिद्धि होगी, क्योंकि वस्तु में किसी न किसी का एकान्तभेद अथवा एकान्त प्रभेव होता ही है और भेदाभेद के एकनिष्ठ सिद्ध होने के पर्व भेद विशिष्ट अभेद सम्भव नहीं है। यदि भेद-प्रभेद प्रत्येक को साध्य माना जायगा तो उसका साधक हेतु असाधारण हो जायगा क्योंकि प्रत्येक को साध्य मानने का अर्थ होगा साध्य कहीं सिद्ध नहीं है। फलतः हेतु के पक्षमात्र वृत्ति होने से उसका असाधारण होना अनिवार्य है"-यह निरस्त हो जाता है।
[ उमयत्व रूप से साध्य करने पर कोई दोष नहीं ] यदि यह शङ्का की जाय कि भेदाभेव को भेदाभेदोमयस्व रूप से साध्य मानने पर भी साध्याs. प्रसिद्धि दोष की निवृत्ति नहीं होगी क्योंकि उभयत्व एकविशिष्टापरत्व रूप होने से भेदाभेदोभयत्व भी भेदविशिष्ट अभेदत्व रूप होगा. और वह एकनिष्ठ भेदाभेद की सिद्धि के पूर्व प्रसिद्ध है।'-तो यह उचित नहीं है क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर वैशिष्ट्य नहीं होता उन वस्तुओं में भी उभयत्व की प्रतीति होती है जैसे गोत्व और अश्वत्व में। अतः उभयत्व को एकविशिष्टापरत्व रूप न मान कर संख्या रूप कि वा बुद्धिविशेषविषयत्व रूप ही मानना होगा।
[अर्थान्तर की आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि- भेदाभेद को उभयत्वरूप से साध्य मानने पर स्वतन्त्र रूप से मेव और अभेद को सिद्धि होने पर भी भेवमिलितअभेद किंवा प्रभेद मिलितभेद की सिद्धि न होने से उद्देश्य को सिद्धि न होने के कारण अर्थान्तर होगा'-लो यत ठीक नहीं है। क्योंकि अन्तर्मुख व्याप्ति से भेव-अभेद में परस्पर मिलितत्व की सिद्धि हो जायगी । अन्यथा अन्तर्मुखव्याप्ति की उपेक्षा करते पर धूम हेतु से पर्वत में वह्निसामान्य की सिद्धि होने पर भो पवतीय वह्नि को सिद्धि न हो सकेगी। कहने का आशय यह है कि जैसे पाकशाला आदि में 'यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र चन्ति' इस दृष्ट बहिमुखध्याप्ति से धूम सामान्य से चह्निसामान्य का अनुमान हाता है उसी प्रकार-यन पर्वतीयो धमः तत्र पर्वतीयो वह्निः' इस 'पक्ष में दर्शनयोग्य अन्तर्मुख व्याप्ति' से पर्वतीय धम से पर्वतीय बलि की सिद्धि मी होतो है । उसी प्रकार बहिर्मुखव्याप्ति से स्वतन्त्र रूप से भेद-अभेद उभय को सिद्धि के समान अन्तर्मुखध्याप्ति से भेवमिलित अभेद की भी सिद्धि हो सकती है। इस विषय का और विस्तार अन्यत्र द्रष्टव्य है।
न च व्यतिरेकच्याप्तौ व्यायाऽप्रसिद्धिः, प्रतियोगिमति तदभावाऽयोगादिति वाच्यम् तेन रूपेण प्रतियोगिमति तेन रूपेण तदभावस्यवाऽयोमात् । एतेन 'तत्रैव तत्-तदभातौं भिन्ना