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[ गावातलो.
तथैकस्य महशब्दथ्यपदेशनिदानं विभागजातोऽपि स कि नाभ्युपेयः १ । उपत्रहरन्ति वि भग्ने पटे 'बहूनि कपालान्युत्पन्नानि' इति । एवं परमाणूमामध्येफनाशे युक्तो बहुत्वेनोत्पादः । तदाह:
'महुआग को संजोगा जो उपाओ' नणु एगर्षिभागम्मि वि जुज्जइ पहुआण उप्पाओ॥ [ सम्मति–१३७] ॥ इति ।
[ अवयव-अवययी भेद पल में दूपणमाला ] उपर्युक से अतिरिक्त यह भी सातव्य है कि-प्रवयवी को पत्रयों से मभिन्न न मानने पर कई वरेष उपस्थित होते हैं से-"मवेवेयं घटतया परिणता=यह मत्तिका ही घटस्वरूप में परिणत हो गई",-'तन्तम एष एते पटतया परिणता-ये सन्द ही पटस्वरूप में परिणत हो गये"-ये व्यवहार अवयव ले अवयची को भिन्न मानने पर नहीं उपपन्न हो सकते। इसी प्रकार पररूप में प्रतीत होनेपाले तन्तुओं के परस्पर विभक्त शो आने पर, "ये तन्तु वही है जो पहात्मना परिणत वीस रहे थे".. इस प्रकार की जो पहात्मा परिणत तथा विभक्त तन्तुओं में अमेव को प्रत्यभिक्षा होती है वह भी अवयव अयपवी के मेव पक्ष में नहीं पपन्न हो सकती। इसी प्रकार अवमष-अषयोमेद पक्ष में अवयव-गुरुरव में अवमयीगुरुटव के अधिोष यानी साम्य की उपपत्ति भी मही हो सकती ।। क्योंकिअवयवी में अश्मयों का भी संनिधान रहने से असमय और पषषषी का पिभिसगुषरय केवल अवयव गुणस्य से अधिक सकता है। उसी प्रकार अपयव-समवयवी अंमेद पक्ष में अवपथ के रुपाविगुणों के समुदाय से ही एक अवयवी में कपादि को जो उत्पत्ति होती है उतको अपेक्षा करके अवयवों से अतिरिक्त भवपवी के अनुरोध से अवयवीगत पानि के प्रति अवयवगत रूपाविको कारण मानमे पर अनेक कार्यकारणभाष की कल्पना के गौरव पति का भी परिहार नहीं हो सकता।
[पृथक् उत्पाद-विनाश प्रतीति से भेद शंका का निवारण ] कुछ लोगों का यह कहना है कि-"प्रचयबों के विलक्षणसंस्थान से उत्पन्न विशिष्ट अवयवी में बासेनिशर्ष से जिस मध्य में घरस्वादि का प्रत्यक्ष होता है उस व्यक्ति के पाव-चिताश की प्रतीति होती है और उसके उत्पाद विनाश के साथ उत्पाव-विनाश से मुक्त रहनेवाले उसके अषयों से उसमें भेद की भी प्रसीति होती है। यह प्रतीति घटत्वाविप से प्रत्यक्ष होनेवाले द्रष्य को उसके प्रत्यय से पृथक न मानने पर नहीं हो सकती । अतः अवयी अवयवों से भिन्न ही होता है यह बात सिद्ध होती है।" किन्तु यह कथन भी इसलिये निरस्त हो जाता है कि 'यवस्मो अवयवों से सर्वथा भित्र ही होता है। यह बाल असिम है क्योंकि उत्पाद और धिनायर प्रोग्य से संवलित तथा मेवादि अमेदावि से संबलित होता है, क्योंकि प्रोष्य से संचालित उत्पावधिमाला को प्रतोति तथा प्रमेव से संबलित मेदादिको प्रतीति हो अमारण होती है । इस प्रकार वस्तु कपिद नित्यानित्य उभयात्मक होने रो-'परमाणुस्वरूप पृष्षी आधि चार द्रव्य नित्य ही होते हैं और कार्यस्वरूप पृथ्वो भावि मिश्य ही होते है ।'-यह अतिरिक्त अवयचीवाधियों की प्रक्रिया भी निरस्त हो जाती है। क्योंकि कार्य से अभिन्न होने के नाते परमाणुमों के भी प्रान्तरस्वरूप में गमनरूप नाश और विभागजस्य उत्पाद का समर्थन किया आ चुका है। १ बहकानामेकशन्दे मदि सयोगाद् हि भवत्युत्पादः । नन्हविभागेऽपि युपसे बहकानामुत्पाद: ।।१।।