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________________ स्या क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २२३ [ अनेकान्तवाद में अनवस्थादि दोष का निराकरण ] किन्तु ये सारे दोष परस्परानुविद्ध भेदाभेव पक्ष को स्वीकार करने पर उपस्थित नहीं होते । क्योंकि भेदाभेदात्मक वस्तु की एकत्र स्थिति स्वभाव से ही नियत है तथा भेवाभेव में उत्पत्ति और शप्ति का नियम न मानने से अनवस्था आदि दोष सम्भव नहीं है। जैसा कि कहा गया है किभेदाभेव का एकत्र अस्तित्व मानने में अनवस्था वोष नहीं है, क्योंकि भेद और अभेद दोनों अन्य निरपेक्ष अपने स्वरूप से हो एकत्र अवस्थित होते हैं।' अन्य विद्वानों ने भी कहा है कि 'वहो अनवस्था दोष है जिससे मूल हानि को आपत्ति हो । संकर दोष को भी आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि एकान्तयादी द्वारा स्वीकृत भेद और प्रभेद अनुभवप्राप्त स्वभाव से भिन्न होने के कारण सम्भव नहीं है। अभिप्राय यह है कि अनवस्था प्रावि कोष उत्पत्ति और ज्ञप्ति के प्रसंग में ही नियत है जैसे किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए यदि किसी कारण को अपेक्षा है और उस कारण की उत्पत्ति के लिए अन्य कारण की तथा अन्य कारण की उत्पत्ति के कारणान्तर धादि को अपेक्षा हो तो अनवस्था आदि वोष की प्रसक्ति होती है, एवं किसी वस्तु के ज्ञान के लिए यदि किसी वापफ की अपेक्षा है और वह ज्ञापक मो यदि शात होकर के ही ज्ञापक होता है तो उसके ज्ञान के लिए ज्ञापकान्तर की अपेक्षा होने पर अनवस्था दोष सम्भव है। किन्तु यह बात स्थिति के सम्बन्ध में नहीं लागू होतो क्योंकि बस्तु अपने स्वतन्त्र स्वभाव से ही अवस्थित हो सकती है। इसी प्रकार वस्तु में किसी एक ही रूप . से भेद अभेद मान्य न होने से भेदाभेद में सफर को भी प्रसक्ति नहीं होती।। ३८ ।। किश्च, परेण प्रसङ्ग एवं कर्तुं न शक्यते, भेदादिपदाना केवलभेदादेरदर्शनात्तत्र शक्तिमहासंभवेन प्रयोगस्यैवानुषपत्तः इत्यभिप्रेत्याह---- मूलम्---नाभेदो भेदरहितो भेदो वाऽभेदवर्जितः। केवलोऽस्ति यतस्तेन कुतस्तत्र विकल्पनम् ॥ ३९ ॥ नाभेदो भेदरहितः, भेदो वाऽभेदवर्जितः केवलोऽस्ति, 'ज्ञायते वा' इति शेषः, यतस्तेन कुतस्तत्र केत्रले भेदेऽभेदे वा विकल्पनं-प्रसङ्गापादनं परस्य युज्यते, आश्रयस्यैबासिद्धेः। सिद्धौ वा शवलस्वभावस्य तस्य व्याघातेन परविकल्पानवतारान् , आमाससिद्धरणेन च वस्त्वदूपणादिति भावः ॥ ३६॥ [ केवल भेद में शक्तिग्रह का असम्भव ] ३९वों कारिका में यह बताया गया है कि एकान्तवावो द्वारा अनेकान्त मत में विरोध-प्रनवस्था आदि वोषों का मापादन शक्य ही नहीं है क्योंकि भेद आदि पद से केवल भेद आवि बोध न होने से केवल भेव आदि में भेद आदि पद का शक्तिमह सम्भव नहीं है प्रतः केवल भेद आदि को लेकर कोई भी प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता । कारिका का अर्थ अत्यन्त सुस्पष्ट है, जैसे-भेदरहित अभेद और प्रभेवरहित भेद, पर्यात केवल भेद अथवा प्रभेद ज्ञात नहीं है । अत: केवल भेद अथवा अभेद कोई भी विकरुप को लेकर किसी भी प्रसङ्ग का आपादन एकान्तवादी के लिए सम्भव नहीं है क्योंकि केवल भेद अथवा अभेद को आश्रय बनाकर जो भी प्रयोग होगा उसमें आश्रमासिद्धि होगी और पवि केवल
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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