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________________ A torch to life style which leads to enlightenment मुनि मनितप्रभसागर जीवन शैली
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________________ प्रिय शिष्य मुनि मनितप्रभ ने संघ को जैन जीवन शैली के रूप में एक अनूठाउपहार दिया है। यह ग्रन्थजैनधर्म दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आचार-विहार, आहार, जाप आदि आवश्यक विषयों को अपने आप में समेटे हुए है। इसमें धर्मदर्शनकीगूढ़पंक्तियों को अत्यन्त सरलता के साथ समझाया गया है।यह जैन धर्म की कुंजी है। अपने अध्ययन, स्वाध्याय और संयम-क्रियाओं की नियमितता के साथ साथ लेखन की प्रवृत्ति में निरन्तरता बनाये रखना, मुनि मनित के अप्रमत्तयोगकी अनूठी विशेषता है।सर्जन उसकास्वाध्याय है। उसकी प्रवृत्ति में निवृत्ति की प्रेरणा है। कामना है कि उसके पुरूषार्थ का परिणाम संघ को निरन्तर प्राप्त होता रहे। मणिप्रभसागर जैन जीवन शैली अपने आप में सम्पूर्ण ग्रन्थ है।इसमें किसी एक विषय की नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन कीमीमांसाकी गयी है, जो जीवन जीने की कला को नया निखार दे, आचार में संस्कार के रंग भर दे, बोलने- चालने का ढंग सिखा दे। जैन दर्शन और जीवन के प्रति बेहतरीन नजरिया देने वाली इस अद्वितीय पुस्तक के लेखक आत्मीय बंधुमुनिश्रीमनितप्रभसागरजीम. ढेर सारी बधाईयों के पात्र है। शीघ्र ही इस ग्रन्थ का द्वितीय खण्ड प्रकाशित हो, इसीप्रतीक्षामें...! साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री
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________________ Right Path towards basic life, Rather than glamorous life style. जीवन शैली Jain Life Style agement से पहले कीजिये agement Business Managem Life Managemer मुनि मनितप्रभसागर
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________________ जहाज मंदिर प्रकाशन पुष्प 138 'सार्थक जीवन की ओर बढ़ते कदम अपने पास रखिये हरदम JAIN LIFE STYLE नाचार्य जिनकानि मशताब्दी वर्ष गान्तसागरसरिज आशी: पू. उपाध्याय प्रवर श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. लेखन : मुनि मनितप्रभसागर संपादन : पू. साध्वी डॉ. नीलांजनाश्रीजी म. प्रति : 1000 (2012) 2000 (2012) प्रिंटिंग मूल्य : 130 रुपये विक्रय मूल्य : 100 रुपये (पुनः प्रकाशनार्थ) प्राप्ति स्थल : श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट जहाज मन्दिर माण्डवला-343042 (जालोर-राज.) फोन : 02973-256107
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________________ समर्पण PM आत्म-भूमि में संस्कारों का बीजारोपण किया जिन्होंने, जीवन-प्रतिमा को साधना की छैनी से तराशा जिन्होंने , मोह छोड़कर संयम्-पथ की आज्ञा दी जिन्होंने , उन... परम् आदरणीय पिताश्री बाबूलालजी लूंकड़ एवं मातुश्री सौ. कमलादेवी लूंकड़ को सादर मुनि मनितप्रभसागर
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________________ जब कभी आप अकेलापन महसूस कर रहे हो :- आवास में अथवा प्रवास में - उत्सव में अथवा उद्यान में - परिवार में अथवा बाजार में - यात्रा में अथवा मित्रों के बीच तब आपके अकेलेपन और उदासी को बांट लेगी JAIN LIFE STYLE - जो जीवन को दे सही दिशा ! - मस्तिष्क को दे सकारात्मक चिन्तन ! - होठों पर सजा दे सुन्दर मुस्कान ! बाल, युवा और वृद्ध सभी के लिये उपयोगी, एक अनूठा-मीठा उपहार ...! इस Life Style की Sweet Smile को हरदम् अपने पास रखिये! रखिये तो पढ़िये भी सही ! पढ़िये तो समझिये भी सही ! समझने - समझाने के साथ जीवन में उतारिये भी सही !
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________________ अर्थ सौजन्य पूजनीया बहिन म. साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा. की सुशिष्या पू. साध्वी श्री नीलांजनाश्रीजी म.सा. पू. साध्वी श्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी म.सा. पू. साध्वी श्री विभाजनाश्रीजी म.सा. के शासन प्रभावक चातुर्मास (2069) के उपलक्षा में उनकी प्रेरणा से बाड़मेर जैन समाज भवन 10 वीं ए रोड़, सरदारपुरा जोधपुर - 343042 (राज.)
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________________ कृपया Is पुस्तक को जमीन पर न रखें। // पुस्तक को फाड़े-बिगाड़े नहीं। Is पुस्तक का झूठे मुँह स्वाध्याय न करें। Is पुस्तक को झूठे व गंदे हाथ न लगाये। Is पुस्तक को रद्दी में न बेचे। Is पुस्तक का दुरुपयोग न करें। Is पुस्तक के प्रति सदैव श्रद्धाशील रहे। सूचना प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन ज्ञान-खाते की राशि से हुआ है अत: मूल्य चुकाकर ही श्रावक-श्राविका इसका उपयोग करें, अन्यथा ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है।
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________________ हमारे प्रकाशन प्रवचन साहित्य (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) 15 रुपये 30 रुपये 30 रुपये 30 रुपये 30 रुपये उठ जाग मुसाफिर भोर भई अमर भये ना मरेंगे बीती रजनी जाग जाग पाथेय/ आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि अनुगूंज / आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि मप्पि मंथन / मणिप्रभसागर जागरण / मणिप्रभसागर विद्युत् तरंगें / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा नवप्रभात / मणिप्रभसागर अहं कोऽस्मि / मणिप्रभसागर वक्त की आवाज/ मणिप्रभसागर मन के घोड़े की थामे लगाम / मणिप्रभसागर जैन धर्म और विज्ञान / मणिप्रभसागर प्रवाह (खण्ड-1)/ मुनि मनितप्रभसागर प्रवाह (खण्ड-2)/ मुनि मनितप्रभसागर पूज्य उपाध्याय श्री हैदराबाद चातुर्मास के संपूर्ण प्रवचन डीवीडी पर्युषण प्रवचन सीडी 0000 25 रुपये 5 रुपये 5 रुपये 5 रुपये 5 रुपये 50 रुपये 50 रुपये 100 रुपये 50 रुपये काव्य साहित्य चिंतन चक्र अमीझरणा पूजन सुधा वंदना बज उठी बांसुरी समर्पण (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य)
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________________ 00000000000000 (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) 10 रुपये 20 रुपये 50 रुपये 40 रुपये 10 रुपये 10 रुपये 5 रुपये चौबीशी शत्रुजय स्तवनावली जय सिद्धाचल तीर्थंकर तारणहार रे संगीत के स्वर स्तुति स्तवन सज्झाय संग्रह ऋषिदत्ता रास / मणिप्रभसागर मलयसुंदरी रास / मणिप्रभसागर पूजन वाटिका / मणिप्रभसागर नाच उठा मन मोर / मणिप्रभसागर सुधारस / मणिप्रभसागर प्रतिध्वनि / मणिप्रभसागर पल दो पल / मणिप्रभसागर कथा साहित्य राही और रास्ता अधूरा सपना इनसे शिक्षा लो दिशा बोध गुरुदेव की कहानियाँ भाग-1/ मणिप्रभसागर गुरुदेव की कहानियाँ भाग-2 / मणिप्रभसागर भीगी भीगी खुशबू / विद्युत्प्रभाश्री जटाशंकर / मणिप्रभसागर सेठ श्री मोतीशा / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा खुश्बू कहानियों की / मुनि मनितप्रभसागर प्रिय कहानियाँ / मुनि मनितप्रभसागर मधुर कहानियाँ / मुनि मनितप्रभसागर दिव्य कथा किरण / साध्वी विश्वज्योतिश्री इतिहास IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य) 20 रुपये 20 रुपये 20 रुपये 25 रुपये 60 रुपये PorOOROCODSOCTOOO 80 रुपये 20 रुपये 20 रुपये 20 रुपये दादा चित्र संपुट नाकोड़ा तीर्थ का इतिहास अनुभूति अभिव्यक्ति (अप्राप्य) (अप्राप्य) (अप्राप्य)
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________________ क्षमाकल्याण चरित्रम् (अप्राप्य) करूणामयी माँ (अप्राप्य) * जैन तीर्थ परिचायिका 100 रुपये तस्मै श्री गुरवे नमः / मणिप्रभसागर 50 रुपये गुरुदेव / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा 30 रुपये कुशल गुरुदेव / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा 30 रुपये जहाज मंदिर का इतिहास / मणिप्रभसागर 5 रुपये गच्छ गौरव गाथा / मुनि मनितप्रभसागर 20 रुपये आवश्यकसूत्र पंच प्रतिक्रमण विधि सहित 50 रुपये पंच प्रतिक्रमण अर्थ सहित 80 रुपये पंच प्रतिक्रमण सूत्र 20 रुपये दो प्रतिक्रमण सूत्र 10 रुपये दो प्रतिक्रमण विधि सहित भेंट दो प्रतिक्रमण सूत्र अंग्रेजी / अनु. मुनि मनितप्रभसागर 30 रुपये तत्त्वज्ञान प्यासा कंठ मीठा पानी / मुनि मनितप्रभसागर 200 रुपये जीव विचार प्रकरण सार्थ / मुनि मनितप्रभसागर 50 रुपये जीव विचार प्रश्नोत्तरी / मुनि मनितप्रभसागर 50 रुपये नवत्तत्त्व प्रकरण सार्थ / साध्वी डॉ. नीलांजनाश्री 40 रुपये नवत्तत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी / साध्वी डॉ. नीलांजनाश्री 60 रुपये चैत्यवंदन भाष्य सार्थ / साध्वी विज्ञांजनाश्री र 50 रुपये प्रत्याख्यान भाष्य सार्थ-प्रश्नोत्तरी / मुनि मनितप्रभसागर 80 रुपये प्रथम कर्मग्रंथ सार्थ / मुनि मनितप्रभसागर, 50 रुपये प्रथम कर्मग्रंथ प्रश्नोत्तरी / मुनि मनितप्रभसागर 50 रुपये द्वितीय कर्मग्रन्थ सार्थ / साध्वी डॉ. नीलांजनाश्री 100 रुपये दण्डक प्रकरण सार्थ-प्रश्नोत्तरी/मुनि मनितप्रभसागर 90 रुपये दण्डक प्रकरण सार्थ-प्रश्नोत्तरी / साध्वी प्रियस्नेहांजनाश्री 60 रुपये जैन जीवन शैली / मुनि मनितप्रभसागर 100 रुपये प्रीत की रीत / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा 20 रुपये ज्ञानसार अर्थ (पद्यानुवाद) / मणिप्रभसागर 40 रुपये स्वाध्याय माला / संकलन 30 रुपये संस्कृत चैत्यवंदन स्तुति संग्रह / संकलन 10 रुपये प्रीत प्रभु से कीजिये / साध्वी विज्ञांजना श्री 5 रुपये
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________________ शोधप्रबन्ध द्रव्य विज्ञान / साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री 50 रुपये सूत्रकृतांग का दार्शनिक अध्ययन / साध्वी डॉ. नीलांजनाश्री 50 रुपये विविध विहार डायरी / मणिप्रभसागर 80 रुपये स्तोत्र वाटिका / संकलन 20 रुपये प्रव्रज्या योग विधि / सं. मणिप्रभसागर 30 रुपये विज्ञान के आलोक में जैन धर्म / डॉ. एम. आर. गेलड़ा 50 रुपये दीक्षा रंगशाला (भाग 1 से 8) / मिश्रीमल बोथरा 20 रुपये प्रत्येक सुप्रभातम् / संकलन भेंट भव आलोचना / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये श्रमण आलोचना / मुनि मनितप्रभसागर भेंट क्षमापना / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये मिच्छामि दुक्कडम् / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये मित्ती मे सव्वभूएसु / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये खामेमि सव्व जीवे / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये खमिअव्वं खमाविअव्वं / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये खमतखामणा / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये मिथ्यादुष्कृतम् / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये खमाऊँ सा / मुनि मनितप्रभसागर 5 रुपये लाईफ मेनेजमेन्ट/मुनि मनितप्रभसागर 10 रुपये जहाज मंदिर पत्रिका का मासिक-प्रकाशन पंचांग का प्रतिवर्ष प्रकाशन प्राप्ति स्थल: व्यवस्थापक, श्री जिनकांतिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट जहाज मंदिर, मांडवला-343042, जिला-जालोर (राजस्थान) दूरभाष : 02973-256107 व्यवस्थापक, श्री जिन हरि विहार धर्मशाला तलेटी रोड़, पालीताणा-364270 (गुजरात) दूरभाष : 02848-252653 190
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________________ अनुक्रमणिका 1. मंमलम् 2. अभिनंदनम् 3. स्वकथनम् जैन जीवन शैली (जैन आराधना मीमांसा) 1. नवकार : जिसकी महिमा अपरम्पार 2. तीर्थंकर और समवसरण . 3. चौबीस तीर्थंकर एवं महाश्रमण महावीर 4. त्रिषष्ठिशलाका पुरूषों का परिचय 5. सिद्ध परमात्मा का स्वरूप 6. मुनि जीवन की पहचान 7. पंच परमेष्ठि के रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण ( जैन क्रिया मीमांसा ) 8. अतिक्रमण का प्रतिक्रमण 9. समत्व की उपासना : सामायिक 10. चतुर्विंशतिस्तव और वंदनक . 11. पापों की आलोचना : प्रतिक्रमण 12. संवर की साधना : प्रत्याख्यान (जैन तत्त्व मीमांसा ) 13. तत्त्वत्रयी : सुदेव, सुगुरू, सुधर्म 14. रत्नत्रयी : सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्र 15. अष्ट प्रवचन माता : समिति और गुप्ति 16. नवतत्त्व : जिनवाणी का सार
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________________ ( जैन जीव मीमांसा 17. निगोद से मोक्ष की यात्रा 18. जीव सृष्टि का परिचय 19. नरक : दुःखों का महासागर 20. देवलोक : सुख का कल्पवृक्ष 21. प्राण एवं पर्याप्ति का विवेचन ( जैन दर्शन मीमांसा 22. जैन धर्म क्या है? 23. जगत क्या है? 24. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी 25. लोक का स्वरूप 26. जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त 103 109 115. ,117 122 ( जैन कर्म मीमांसा 27. जैन कर्मवाद 28. कर्म के भेद व प्रभेद 29. कर्म का फल 30. बंध के कारण : मुक्ति के उपाय 31. चौदह गुणस्थानक (जैन विचार मीमांसा 32. मिथ्यात्व का त्याग : सम्यक्त्व का राग 33. संज्ञा का शमन 34. कषाय : जन्म-मरण की आय 35. विकथा की विकटता 36. लेश्या-विज्ञान 37. सम्बोधि के सोपान 125 131 133 135 137 140.
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________________ 145 148 160 163 165 173 177 181 183 (जैन आचार मीमांसा) 38.- प्रातः जागरण विधि 39. जिन मंदिर दर्शन एवं पूजन विधि 40. कैसे सुने प्रवचन? 41. उपाश्रय में कैसा हो आचरण हमारा? 42. सुपात्रदान की विधि 43. श्रावक जीवन की साधना 44. धर्म के चार प्रकार 45. तप के बारह भेद 46. रात्रि शयन' से पूर्व आत्म-चिन्तन (जैन आहार मीमांसा 47. कैसे करें भोजन? 48. अभक्ष्य का भक्षण : बढे .जन्म-मरण 49. सप्त व्यसन : नरक का द्वार 50. द्विद्वल अर्थात् पापों का दल दल 51. रात्रि भोजन : दुर्गति का कारण 52. चलित रस का करें निषेध / 53: अनन्तकाय का भोजन : अशाता का सर्जन 54. मजेदार (?) पदार्थों का परिहार 55. जितनी जयणा, उतनी शाता 187 191 191 196 199 202 204 207 212 217 220 (जैन जीवन मीमांसा) 56. बने हमारा जीवन...खुशियों का मधुबन 57. समझ का उपयोग : शान्ति के प्रयोग 58. नीति-न्याय से करें व्यवसाय 59. कैसा हो घर-गाँव हमारा? 60. मृत्यु कैसे बने महोत्सव? 224 228 233
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________________ ( जैन पर्व मीमांसा ) 61. जैन पर्व-साधना 62. पर्व तिथि में करणीय एवं अकरणीय 63. त्यौहार कैसे मनाये? 237 239 241 (जैन इतिहास मीमांसा) 64. आत्म-कल्याणी : जिनेश्वर वाणी 65. जिनशासन के चमकते सितारे 66. खरतरगच्छ का स्वर्णिम इतिहास 245 252 254 265 269 ( जैन ध्यान मीमांसा ) 67. जाप से कटते हैं पाप 68. माला-जाप के प्रयोग 69. हस्तांगुली जाप 70. ध्यान का विधान 71. नवकार मंत्र की साधना 72. नवग्रह दोष निवारण विधि 272 279 284 289 293 297 ( स्वास्थ्य मीमांसा ) 73. प्राणायाम 74. मुद्रा-विज्ञान 75. ध्यान-आसन 76. बन्ध, नाडी और चक्रों का वर्णन परिशिष्ट पारिभाषिक शब्दकोष 305 310
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________________ प्रथम संस्करण से मंगलम् जैन दर्शन अपने आप में जीवन जीने की कला है। इसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य का संतुलन है। जो व्यक्ति जैन दर्शन का रहस्य समझ लेता है, वह व्यक्ति वर्तमान में दुख मिलने पर भी दुखी नहीं हो सकता और सुख मिलने पर उछल भी नहीं सकता। अद्भुत और अनूठा है परमात्मा का दर्शन! यह अतीत का प्रायश्चित्त, वर्तमान का आनंद और भविष्य का महोत्सव है। जैन दर्शन के रहस्य को समझाने वाले ग्रन्थ बहुत प्रकाशित हुए हैं। पर एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता सदा महसूस की जा रही थी, जो सरलता से जैन दर्शन के समस्त पहलुओं को समझा सके। प्रिय मुनि मनितप्रभ ने विषयबद्ध इस ग्रन्थ की रचना करके एक कमी की पूर्ति तो की ही है, समाज को जैसे एक उपहार अर्पण किया है। अपनी विशिष्ट दृढ़ संयम साधना और स्वाध्याय का वातावरण... लम्बे और थका देने वाले विहार... फिर भी वह लेखन के लिये भी पर्याप्त समय निकाल लेता है, यह अपने आप में अनुमोदनीय अचरज है। ब्यावर चातुर्मास में प्रारंभ इस ग्रन्थ को अगले तलोदा चातुर्मास से पहले ही पूर्ण कर लिया / अल्पकाल में ही उसने तत्वज्ञान आदि विषयों पर उत्कृष्ट ग्रन्थों की श्रृंखला प्रस्तुत कर दी है। जान ___उसके वर्तमान से भविष्य का यथार्थ अनुमान लगाया जा सकता है। ___ मैं उसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ। निश्चित ही यह ग्रन्थ सभी के लिये समादरणीय बनेगा। म/game मणिप्रभसागर
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________________ प्रथम संस्करण से अभिनन्दनम् राग-द्वेष का जिन्होंने सर्वथा विलय कर दिया, वे 'जिन' हैं और उनके द्वारा / प्ररूपित/प्रतिपादित आचार-विचार के सिद्धांतों को जो अपने जीवन-व्यवहार में क्रियान्वित करता है, वह 'जैन' है। कोई व्यक्ति केवल जन्म से जैन होता है, तो कोई व्यक्ति केवल कर्म से। कोई जन्म और कर्म, दोनों अपेक्षा से जैन होता है। केवल जन्म से जैन होना सद्भाग्य का परिणाम है तो केवल कर्म से जैन होना सद् पुरूषार्थ का परिणाम है। जहाँ जन्म तथा कर्म, उभयापेक्षया व्यक्ति जैनत्व की गरिमा से परिपूर्ण बनता है, वह अनंत पुण्य का परिणाम है। जीवन जीना एक बात है। कैसे व कैसा जीवन जीना, यह सर्वथा भिन्न बात है। जीवन तो पेड-पौधे, पशु-पक्षी भी जीते हैं, पर आज तक उनके जीवन-लक्ष्य निर्धारण अथवा जीवन शैली पर न कोई समीक्षा हुई, न नीति-नियम बने, क्योंकि पशु में न ज्ञान है, न विवेक है, न धर्म। मनुष्य का जीवन सर्वोत्कृष्ट जीवन है, क्योंकि स्व के साथ-साथ संपूर्ण सृष्टि का हित/कल्याण साधने की क्षमता केवल मानव में ही संभव है। आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन, ये चारों ही संज्ञाएँ मनुष्य तथा पशु में समान रूप से पाई जाती हैं। केवल विवेक एवं धर्म दृष्टि ही मनुष्य जीवन की विशिष्टता है, अन्यथा मनुष्य और पशु के जीवन में कोई अंतर नहीं रह जाता। मनुष्य जीवन तो जीता है पर जीवन क्यों जीये, कैसे जीये? आदि प्रश्नों पर कभी विचार नहीं करता। पर कुछ ऐसे महापुरूष होते हैं, जो निश्चित उद्देश्य के साथ विशिष्ट जीवन शैली से जीते हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवन आने वाली कई सदियों के लिए मील का पत्थर, आदर्श का दीप व प्रेरणा का स्तम्भ बन जाता है। ऐसे महापुरूष केवल समय को नहीं जीते, उनके जीवन में जीती-जागती। संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों की परंपरा होती है, जो पीढी दर पीढी संक्रांत होती रहती है। जैन धर्म अपने आप में बहुत ही विलक्षण है। चूंकि यह धर्म आप्त पुरूषों द्वारा प्रणीत है अतः इसका आध्यात्मिक पक्ष जितना मजबूत और सुदृढ है, वैज्ञानिक पक्ष भी उतना ही युक्तियुक्त और तर्कसंगत है। इस धर्म का अपना दर्शन है; अपना
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________________ विज्ञान है, अपनी तकनीक है और अपनी जीवन शैली है। जैन धर्म के प्रत्येक सिद्धांत में अहिंसा और करूणा की पावन गंगोत्री बहती है। इस अपेक्षा से इसे 'अहिंसा धर्म' भी कहा जा सकता है। अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण एवं आचरण ही जैन धर्म को जनधर्म के रूप में प्रतिष्ठित करता है। ___ अहिंसा प्राणीमात्र के लिये क्षेमंकरी है। अहिंसा समस्त सद्गुणों एवं शक्तियों की अधिष्ठात्री है। परंतु वह हमारे जीवन का अंग कैसे बने, हमारे आचरण का विषय कैसे बने, हम अपना जीवन अहिंसक शैली से कैसे जीयें, ये प्रश्न बहुत ही विचारणीय हैं। जीवन और जीवन शैली, दो भिन्न तत्त्व हैं। जो जीया जाता है, वह जीवन है परंतु जिस तरीके से जीया जाता है, वह जीवन शैली है। कोई भी कार्य यदि विधिवत्, निश्चित शैली के साथ किया जाय तो उसका परिणाम बहुत शुभ और सुखद आता है। जीवन जीने की कला ही एक जीवन शैली है, जो व्यक्ति के चिंतन और आचरण दोनों को प्रभावित करती है। जीवन शैली कोई जादू नहीं है कि डंडा घुमाया और सब कुछ बदल जाये / यह एक पद्धति है, एक प्रयोग है और एक अनूठा पुरूषार्थ हैं। . चिंतन के झरोखे से एक प्रश्न उभरता है- क्या भगवान महावीर के युग में कोई निश्चित जीवन शैली थी? इसका उत्तर सकारात्मक होगा। बारह व्रत श्रावक की जीवन शैली का प्रारूप है। उस शैली से जीने वाले श्रावकों की जीवन-गाथा अनेक शास्त्रों में गुंफित है। परमात्मा महावीर के प्रतिमाधारी आनंदादि दस विशिष्ट श्रावकों की व्रत-साधना उपासकदशा नामक अंग आगम में विस्तृत रूप से वर्णित है। आगम वर्णित श्रावक जीवन शैली गंभीर व एकनिष्ठ साधना से परिपूर्ण है। वर्तमान में इतनी कठोर एवं चुस्त जीवन चर्या यद्यपि संभव नहीं है तथापि प्रशस्त जीवन जीने के लिये धार्मिक व व्यावहारिक अथवा आध्यात्मिक व वैज्ञानिक मूल्यों को साथ-साथ जीना जरूरी है। इसी बात को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत जैन जीवन / शैली ग्रंथ का सर्जन किया गया है। "जैन जीवन शैली' ग्रंथ पूर्णतया आगमिक सिद्धांतों से अनुप्राणित है। इसे जैन दर्शन का संक्षेप, सार-तत्त्व कहा जाये तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैनत्व की आभा से परिपूर्ण बनने के लिये प्रस्तुत पुस्तक अपने आप में एक
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________________ संकलन कोष है। इसमें नवकार मंत्र की मीमांसा से लेकर उन विभिन्न पहलूओं की सहज/सरल भाषा में विवेचना की गयी है, जो व्यक्ति को धार्मिक बनाने के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक , व्यावहारिक भी बनाते हैं। आर्ट ऑफ लिविंग के रूप में अध्ययन करते हुए हम पाते हैं कि जैन जीवन शैली वैयक्तिक जीवन जीने की कला है। इससे मनुष्य व्यक्तिगत जीवन को कलात्मक, सुसंस्कृत एवं गुणात्मक रूप से जीता हुआ आत्म-विकास के अनेक सोपानों को तय कर विकास की पराकाष्ठा पर भी पहुँच जाता है। जैन जीवन शैली में व्यसनवर्जित है, मांसाहार त्याज्य है। वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य को सुंदर, स्वस्थ एवं दीर्घायु रहना है तो तामसिक और राजसिक आहार छोड़ना ही होगा। फलस्वरूप आज पाश्चात्यवर्ती देशों में शाकाहारियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैन जीवन पद्धति में सूर्यास्त से पूर्व ही भोजन तथा शुद्ध जल ग्रहण का विधान है। आज विज्ञान भी सहमति दे रहा है कि सूर्य की रोशनी में ग्रहण किया गया आहार सुपाच्य एवं स्वास्थ्यवर्द्धक होता है। रात्रिभोजन से कब्ज, गैस, आलस्य, अनिद्रा, मोटापा, यहाँ तक कि हृदय रोग का भी खतरा है। एक बार प्रयोग के तौर पर आप इन नियमों, व्रतों को अपना कर देखें। चमत्कार स्वतः जीवन में घटित होगा। स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ-साथ आत्म सुरक्षा देने वाले ये नियम हमारे जीवन का कायाकल्प कर देंगे। जैन जीवन शैली ग्रंथ में वर्णित एक-एक विषय हमारे जीवन को नया पाथेय, नया प्रकाश, नयी प्रेरणा और नयी ऊर्जा देता है। इसमे आध्यात्मिक चेतना , के साथ-साथ दर्शन, तत्व, कर्म, इतिहास, आचार, विचार, आहार, ध्यान, योग, स्वास्थ्य आदि अनेक बिंदुओं का भी विमर्श हुआ है, जो व्यक्ति के तन-मन-जीवन को आराधना, साधना, संयम, प्रेम, मैत्री, करूणा आदि सद्गुणों की खुश्बू से सुवासित एवं संस्कारित करते हैं। मन स्वस्थ है तो शरीर स्वस्थ है। शरीर की स्वस्थता धर्मसाधना का प्रमुख आधार है। वर्तमान के अर्थप्रधान युग में योगा सेंटर, प्राणायम, ध्यान एवं आर्ट ऑफ लिविंग के प्रति लोगों का विशेष आकर्षण बढा है।। दौडती - भागती जिंदगी को अल्पकालीन सुकून देने वाले ये योगा केन्द्र शरीर को स्लिम बना सकते हैं परंतु आहार, विचार, व्यवहार संयम के बिना परिणाम बहुत दूरगामी नहीं हो सकते। आधुनिक बनने की होड में आज की युवा पीढी नाईट क्लब, किटि पार्टी,
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________________ फाईव स्टार होटल, ब्यूटी पार्लर, शॉपिंग, ड्रिंकिंग आदि पैमानों से अपने जीवन का स्तर तय कर रही है। इस भोग-उपभोग की संस्कृति से जीवन मूल्यों का तेजी से ह्रास हुआ है। बाह्य दिखावट और सजावट से आंतरिक सौन्दर्य को न केवल कुचला गया है अपितु उसकी आभा की गिरावट में दिनोंदिन इजाफा हुआ है। स्टेण्डर्ड ऑफ लाईफ की बजाय स्टेण्डर्ड ऑफ लिविंग की मानसिकता ने हमारे 'उजले संस्कारों की खुल्लेआम होली जलाई है। ऐसे में भगवान महावीर के जीवन-मूल्य और जैनत्व के संस्कार कैसे और कहाँ जीवंत रख सकेंगे? एक यक्ष प्रश्न है। जैन-जीवन शैली में उन समस्त तथ्यों का सम्मेलन है, जो हमारे आचार-बिचार में संस्कारों को आंज कर जीवन को परिष्कृत और सुसंस्कृत करते हैं 'विचारों को जो बांध दे रेखाओं में, उसे आचार कहते है। रेखाओं में जो भर दे रंग, उसे संस्कार कहते है।।' प्रज्ञाशील स्वाध्याय प्रेमी अनुज मुनि मनितप्रभसागरजी म. ने अथक पुरूषार्थ साधकर जन-जन के लिये उपयोगी इस ग्रंथरत्न का आलेखन किया है। उनकी परिष्कृत लेखनी से जैनत्व से संबंधित कोई भी विषय इस पुस्तक में अछूता नहीं, रहा है। प्रत्येक बिंदु पर प्रश्नोत्तरी शैली में सधी हुई भाषा में उन्होंने बहुत सहज/ सरल विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होंने इससे पूर्व भी अनेक विषयों पर विस्तृत लेखन किया है। अब तो उन्हें किसी भी विषय पर लिखने की जैसे महारत हासिल हो गयी है। मेरा हृदय भाव विभोर है अपने अनुज मुनि की स्वाध्याय प्रियता एवं लेखन पटुता को निहारकर। उनकी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना सिद्धत्व प्राप्ति तक निरंतर इसी प्रकार ऊँचाईयों का स्पर्श करती रहें। प्रस्तुत 'जैन जीवन शैली' ग्रंथ समग्र मानव समाज के लिये पगडंडी बने, जिस पर चलकर प्रत्येक व्यक्ति 'जैनत्व' की गरिमा से अभिषिक्त होकर जिनत्व' की महिमा का वरण कर सके। जैन धर्म को विश्व धर्म की अर्हता तभी मिल सकेगी, जब ऐसी विशिष्ट जीवन शैली विश्व मानव की जीवन शैली बनेगी। यह ग्रंथराज इसी दिशा में अपने कदम बढाये। इसी शुभभावना के साथ..... साध्वी नीलांजनाश्री साध्वी नीलांजनाश्री.
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________________ प्रथम संस्करण से स्वकथनम् जन्म और मृत्यु, जीवन के दो अभिन्न किनारे हैं। जन्म स्वर्णिम भविष्य की संभावनाओं भरी आहट है और मृत्यु जीवन का अंतिम आलेख। जीवन का अपना एक सहज प्रवाह है। उस रौ में बहकर जीना महानता का सूचक नहीं हो सकता। सबसे हटकर, प्रवाह के विरोध में जाकर ही जीवन को स्वर्णिम दस्तावेज बनाया जा सकता है। जीवन का अर्थ ही है- जानबूझकर प्रतिकूलता में जाना और प्रसन्नता को वैसा का वैसा बनाये रखना। कोरी अनुकूलता और सुखशीलता का जीवन सफलता का लक्षण नहीं हो सकता। उसे तो सामान्य पुरूष भी जी सकता है। 1 महान और विराट व्यक्तित्व का लक्षण यदि सरल शब्दों में कहा जाये तो वे कार्य नहीं करना, जो सारी दुनिया करती है। तो क्या खाना-पीना, उठना-बैठना, हँसना-रोना आदि क्रियाओं को छोड़ दिया ___जाये? नहीं ! मेरे कथन का अभिप्राय यह नहीं है, प्रत्युत उन प्रवृत्तियों को छोड़ने से है, जिनसे जीवन का पैमाना ही गिर जाये। क्षमा, मृदुता, आत्म-निरीक्षण, समय-प्रबन्धन, सद्भावना, नैतिकता, ये वे पैमाने हैं जो जीवन को ऊँचा उठाते हैं और छल-कपट, संग्रह, स्वार्थ, अविश्वास जीवन को नीचे गिराने वाले पैमाने हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे प्रतिस्रोत और प्रतिकूलता में जाकर के ही हुए हैं। सोने को चमकने के लिये अग्नि-परीक्षा से गुजरना ही होता है। हम जन्म से अन्तिम श्वास तक मृगछोने की भाँति भौतिक सुखों के पीछे भागते हैं, ___ महापुरूष उन्हें व्यर्थ और बोझ समझकर पहले ही छोड़ देते हैं। हम जिन रास्तों को बीहड़, अनजान और दुर्गम समझकर छोड़ देते हैं, महापुरूष , हजार कष्ट सहते हुए भी उस राह पर चल पड़ते हैं और अपने लक्ष्य को साध लेते हैं।
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________________ महावीर जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने कठिनाइयों को झेला, कष्टों की आग में स्वयं को तपाया तभी तो निखरकर जगत के सम्मुख प्रस्तुत हुए और प्रेरणा की ऊँची मीनार बन गये। जैन धर्म की यह मौलिक अवधारणा है कि व्यक्ति जो कुछ बनता है, अपने प्रयत्नों से बनता है। हाँ ! निमित्त कोई भी हो सकता है। मनुष्य यदि प्रच्छन्न व सुषुप्त शक्तियों को जगाकर उनका सम्यक नियोजन करे तो अवश्य ही सिद्धि के चरम शिखर को छू सकता है पर पुरूषार्थ तो स्वयं को ही करना पड़ेगा। कोई भी ईश्वर या पुरूष सिद्धि के द्वार नहीं खोल सकता। वे रास्ता दिखा सकते हैं। चलना सीखा सकते हैं। रास्ते में उजाला कर सकते हैं पर चलना तो स्वयं को ही होगा। हम यदि आगे बढ़कर धक्का लगाये तो सफलता और शान्ति के द्वार स्वयमेव उद्घाटित हो जाते हैं। हमारा जीवन ठीक बांसुरी जैसा है। बांसुरी भीतर से रिक्त और शून्य होने पर भी अपूर्व माधुर्य और संगीत से परिपूर्ण है। यह तो बजाने वाले पर निर्भर करता है कि वह उससे सुरीली स्वरलहरियाँ छेड़ता है या शोर शराबा करता है। जन्म से ज्यादा मूल्यवान जीवन है और जीवन से ज्यादा मूल्यवान जीवन-कला है। इसलिये जीवन की लम्बाई पर कम और गहराई पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। जिन्दगी एक कहानी जैसी है। कहानी की लम्बाई नहीं अपितु उसकी सरसता और सजीवता विचारणीय होती है। लम्बे समय तक धआँ करने की बजाय अगरबत्ती बनकर थोडी देर सगन्ध बिखेरना अच्छा है। मोमबत्ती थोड़ी देर ही जलती है पर उतना जलना भी सार्थक है क्योंकि प्रकाश तो फैलाती है। फूल ज्यादा देर नहीं खिलता पर कुछ समय के लिये ही सही, वातावरण को खुशनुमा तो बनाता है। जयद्रथ की अपेक्षा अभिमन्यु ने और सोमिल की अपेक्षा गजसुकुमाल ने कम उम्र पायी थी फिर भी वे अपने श्रेष्ठ आचरण से आदर्श के स्तूप बन गये। इसलिये जीवन 'कितना जीये' इस सोच से कैसे जीये' यह सोच बेहतर है। लम्बे जीवन की कोई अपेक्षा नहीं है। यदि छोटा पर अच्छा जीवन जीया जाये तो निश्चित ही अपनी क्षमताओं का उच्चतम प्रयोग करके श्रेष्ठताओं को साकार , रुप दिया जा सकता है।
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________________ सच पूछिये तो व्यक्ति व्यवसाय प्रबन्धन से ज्यादा ध्यान यदि जीवन-प्रबन्धन पर दे और आकर्षक संभाषण शैली से ज्यादा ध्यान श्रेष्ठ जीवन-शैली पर दे तो अधिक सुखी हो सकता है - क्योंकि व्यवसाय-प्रबन्धन, सुन्दर संभाषण, नूतन परिधान-धारण से व्यक्ति सफल हो सकता है पर सुखी हो, यह जरूरी नहीं है जबकि जीवन और समय प्रबन्धन से व्यक्ति अवश्य ही सुखी हो सकता है और हर सुखी इंसान सफल व्यक्तित्व का निर्माता अवश्य होता है। फटे हुए दूध से भी जब रसगुल्ला बनाया जा सकता है तो इस सर्वोत्तम मानव जीवन से सर्वश्रेष्ठ सत्ता को अवश्य ही उपलब्ध किया जा सकता है। बस ! जरूरत है जीवन को सुन्दरतम तरीके से जीने की। मूल्य जीवन का नहीं, जीवन-शैली का होता है। मशीन को ठीक करने के लिये हथोड़ा लगाने का मूल्य एक रूपया है जबकि हथोड़ा कैसे और कहाँ लगाना, ., इसका मूल्य 999 रुपये हैं। यह कला ही तो है तो अनगढ़ प्रस्तर को तराश कर उसे पूजनीय प्रतिमा बना देती यह कला ही है जो शब्दों का समुचित संयोजन करके उसे मंत्र बना देती है। यह जीवन कला ही तो है जो नश्वर जीवन में शाश्वत प्रभुता को प्रतिष्ठित करती है अन्यथा व्यक्ति दिन भर पशु की भाँति बोझ ढोता है और रोटी की खोज में जीवन को पूरा कर देता है। किसी ने बहुत सुन्दर कहा है कला बहत्तर जगत में, जामे दो सरदार ! एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार।। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति प्रथम कला है, मन और बुद्धि की इच्छाओं की पूर्ति मध्यम कला है एवं आध्यात्मिक विकास की कला उत्तम कला है। यह कितनी बडी विडम्बना है कि समस्त पदार्थों / सुविधाओं के उपयोग से अवगत / होने पर भी व्यक्ति जीवन-कला से सर्वथा अनभिज्ञ है। जब पानी, बिजली, धन का तनिक भी अपव्यय व्यक्ति को सह्य नहीं होता तब व्यर्थ जाती जिन्दगी को सार्थक बनाने की पहल क्यों नहीं होती? भौतिकता की अंधी दौड़ में सुख-शान्ति मिले, असंभव है। जिस सम्पदा की प्राप्ति में सिकन्दर ने जीवन पूरा कर दिया, उसके बदले एक पल भी नहीं मिल पाया
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________________ तो आखिर इस तुच्छ भौतिक सम्पदा का मूल्य क्या है? अतः बाह्य सम्पदा को बटोरने की बजाय जीवन के असली धन की ओर ध्यान दिया जाना चाहिये। आज तक कोई भी व्यक्ति सौन्दर्य, सत्ता और समृद्धि के लिये नहीं पूजा गया। जो वंदनीय बने हैं, वे अपने जीवन की श्रेष्ठता, चिंतन की मौलिकता और आचरण की पवित्रता से ही बने हैं। फकीर होकर भी महावीर पूजे जा रहे हैं और ऋद्धिसम्पन्न होकर भी रावण फूंका जा रहा है। इसका कारण केवल और केवल प्रेरक जीवन और चिन्तन शैली ही है। अपना जीवन इतना प्रेरक, सुन्दर और मधुर बना लो जिस पर आने वाली पीढ़ी कुछ लिख सके अथवा तो कुछ नया लिख जाओ जिसे पढ़कर लोग सुन्दर व मधुर जीवन की प्रेरणा ले सके। जीयो तो ऐसे जीयो कि मरते समय तुम्हारे होंठो पर हँसी और दुनिया की आँखों में आँसू हो। "जैन जीवन शैली' जन से जैन और जैन से जिन बनने की क्रमिक साधना है। जिनेश्वरों द्वारा प्रतिपादित "जैन जीवन शैली" की अपनी विशिष्टता है कि इसे कोई भी व्यवहार के धरातल पर जीता हुआ आत्मसात् कर सकता है। इसका कारण भी है-इस शैली में कहीं भी किसी का विरोध नहीं है, वैसे ही जैसे सागर छोटी-बड़ी, कड़वी-मीठी, हर धारा को स्वयं में समाविष्ट कर लेता है। जिन्होंने राग-द्वेष का समूल क्षय करके जीवन विकास के चरम शिखर को छु लिया, वे जिन हैं और उनमें आस्थावान् जैन। 'जैन' शब्द किसी जाति, समूह और धर्म-पंथ का प्रतीक न होकर स्वसत्ता का / स्वाभाविक दिग्दर्शन है। परमात्मा महावीर आध्यात्मिक बाद में थे, व्यावहारिक पहले। भगवान बाद में थे, वैज्ञानिक पहले। उन्होंने उपदेश देने से पहले जीवन में उसे आत्मसात् किया, | आत्म-मंथन करने के बाद जो अमृत पाया, वह जन-जन के बीच बांट दिया। महाश्रमण महावीर आध्यात्मिक तो है ही, उनमें वैचारिक पवित्रता, सामाजिक एकता, पारिवारिक निष्ठा, व्यावसायिक नीतिमत्ता, शारीरिक स्वस्थता, सैद्धान्तिक वैज्ञानिकता, मानसिक एकाग्रता के सूत्रों की भी अनुगूंज है। यदि उन्हें ईमानदारी से जीवन में उतारा जाये तो व्यक्ति कभी भी अवसादग्रस्त और चिन्ताक्रान्त नहीं हो सकता। परम श्रद्धेय आचार्य देव श्री जिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के जन्म शताब्दी वर्ष (1968-2068) के पावन प्रसंग पर प्रकाशित होना इस ग्रन्थ के
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________________ लिये परम पुण्योदय का प्रतीक है। पूज्य आचार्यश्री के चरणों में मेरी वंदनाएँ सादर समर्पित है। पूज्य गुरुदेव उपाध्याय प्रवर श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. के चरणों में मैं सादर विनयावनत हूँ। उनके कृपापूर्ण वरदहस्त और वात्सल्य-सिक्त सानिध्य में अनेक कार्य सहज ही सम्पन्न हो जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन उनकी कृपादृष्टि के बिना संभव नहीं था। उनके चरणों की छाँव तले बाह्य और आन्तरिक विकास के सोपान चढ़ते रहना ही काम्य है। परम आदरणीया भगिनी साध्वी डॉ. नीलांजनाश्रीजी म. का प्रस्तुत कार्य में महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। उनके पुरूषार्थ के बिना इस कार्य पर पूर्णता का कलश कैसे चढ़ता। उन्होंने अपनी उर्वर प्रज्ञा और तीक्ष्ण मेधा से इसे देखा, परखा, जांचा और आवश्यक संशोधन किये। उनका आत्मीयभाव अभिव्यक्ति का नहीं अपितु स्वानुभूति का विषय है। परम आत्मीय मुमुक्षु गौतमजी बोथरा (बाड़मेर) का प्रूफ रीडिंग में महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है। उनके समुज्ज्वल भविष्य की अपेक्षा रखता हूँ। 1 जिनके अनुरोध पर प्रस्तुत पुस्तक के लेखन का श्रीगणेश हुआ, उन ब्यावर निवासी श्री यशवंतजी रांका एवं जुगनू कांकरिया का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है। उनके प्रति शुभकामनाएं हैं। 1 प्रस्तुत लेखन में 'मुद्रा विज्ञान' की लगभग सामग्री मुद्रा विज्ञान पुस्तक से ली है एवं जिन आगमों, ग्रन्थों एवं पुस्तकों ने मेरे लेखन कार्य की राह आसान की, उस पाथेय-सामग्री के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञ हूँ। प्रस्तुत प्रकाशन से प्रेरणा लेकर हम जीवन के इर्दगिर्द बिखरी हुई श्रेष्ठताओं का चयन करके अपनी जीवन कला को निखारे एवं स्वर्णिम, सुन्दर एवं समुज्ज्वल भविष्य के रचयिता बने / जैन-जीवन-शैली का यही आह्वान है। प्रमादवश जिनवाणी विरूद्ध कुछ भी लिखा हो तो सादर क्षमाप्रार्थी हूँ। मणि चरण रज Horgenfina मुनि मनितप्रभसागर
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________________ द्वितीय आवृत्ति मेरे हृदय के स्वर मेरे जैन गुरु प्रेरणास्पद आदरणीय उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. के पवित्र कर कमलों से मुझे 'जैन जीवन शैली' ग्रन्थ मिला / मैं स्वयं ऐसे ही ग्रन्थ की तलाश में था जिससे मुझे संक्षिप्त में जैन फलसफा समझ में आ जाये। जैन तत्त्वज्ञान का विस्तृत दर्शन इस किताब ने मुझे करवाया है। सम्पूर्ण वाचन-मनन के पश्चात् मेरी ज्ञान के प्रति रुचि बढ़ी, अनेक प्रश्नों के उत्तर भी मिले और अनेक प्रश्नों के उत्तर जानने की उत्सुकता प्रकट हुई। आदरणीय मुनि मनितप्रभसागरजी ने इस ग्रन्थराज में न सिर्फ जैन धर्म की दैनंदिन क्रियाओं को सरल एवं सुचारु ढंग से समझाया है अपितु हर क्रिया का हेतु व फल भी बताया है। वह भी इतनी सधी कलम से कि सामान्य श्रावक को भी आसानी से समझ में आ जाये। आज हमारी पीढी को मीमांसा बताना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। ऐसा क्यों?' इस सवाल के जवाब इस पुस्तक में मिल जाते हैं। मुनिश्री ने सुन्दर व सहज ढंग से दर्शन मीमांसा, कर्म मीमांसा, विचार मीमांसा, आचार मीमांसा, आहार मीमांसा आदि लिखे हैं। साथ में इन्होंने जैन तत्त्वज्ञान-दर्शन को अहिंसा, सत्य आदि मूल सिद्धांतों से जोड़ दिया है। इससे हमारी जीवन शैली जैन तत्त्वों से संलग्न हो जाती है। जिस प्रकार हमारे न्यायदान क्षेत्र में न्याय का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हमें दीवाणी प्रक्रिया संहिता (CPC) व भारतीय साक्ष्य अधिनियमों (Law of Evidence) की आवश्यक सीढ़ियाँ चढ़नी ही पड़ती हैं, उसी प्रकार जैन धर्म का सर्वोच्च शिखर पाने के लिये हर श्रावक को चाहिये कि वह सर्वप्रथम 'जैन जीवन शैली' को आत्मसात करें, दिल में संजोये व जीवन में जीये।
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________________ इस अनोखे ग्रन्थ में न केवल आत्म-शुद्धि का मार्ग है अपितु स्वास्थ्य का विज्ञान भी है। और एक विशेष बात कि उसमें कोई कठोरता नहीं है, परिस्थिति के अनुसार Flexible भी है। मेरे गुरु ने मुझे दो शब्द' लिखने की प्रेरणा दी, तदर्थ मैं अपने आपको भाग्यशाली समझता हूँ | मेरे समस्त श्रावक भाई-बहिनों से 'जैन जीवन शैली' का वाचन व आचरण करने का हार्दिक निवेदन / मुम्बई न्यायाधीश राजन जोधराज कोचर (निवृत्त) 13.10.2012 द्वितीय आवृत्ति 'जैन जीवन शैली' जीवन जीने की कला सीखाने वाला ग्रन्थ है। मात्र चार महिने की अल्पावधि में द्वितीय आवृत्ति का प्रकाशन प्रस्तुत पुस्तक की उपादेयता और उपयोगिता का पुष्ट प्रमाण है। यह मेरे लिये प्रसन्नता का विषय है कि पाठकों ने इसे अत्यन्त चाक से पढ़ा है। प्रस्तुत संस्करण के अन्त में 'पारिभाषिक शब्दकोष' भी जोड़ा है जिससे कठिन शब्दों के अर्थ समझ में आ सके / पूर्व नियोजित योजनानुसार यह पुस्तक दो भागों में रंगीन चित्रों के साथ प्रकाशित हो रही है, इसके साथ-साथ इसका द्वितीय खण्ड के आलेखन का विषय - क्रम भी निर्धारित किया जा रहा है। जैन जीवन शैली में निर्दिष्ट तत्त्व हमारे जीवन के अभिन्न अंग बने, यही हार्दिक अपेक्षा। मामलामा मणि चरण रज विकालमा मनshsure मुनि मनितप्रभसागर
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________________ जैन जीवन शैली *ION जैन दिनचर्या CORO0 श्रावक के तीन स्तर (1) प्रथम स्तर (i)नमस्कार मंत्र की नियमित जाप–साधना। (ii) प्रतिदिन नवकारसी का प्रत्याख्यान। (i) जिन मन्दिर-दर्शन-वंदन-पूजन। (iv) मद्य-मांस-शिकार आदि सप्त व्यसनों का परित्याग। (5) कन्दमूल (आलू-प्याज) आदि का निषेध / (2) मध्यम स्तर () कुलाचार, सदाचार और जैनाचार से अनुशासित जीवन-शैली। (ii)रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य-भोजन का परित्याग। (iii) स्वाध्याय एवं सत्संग की अभिरुचि। (iv) बारह व्रतों की यथाशक्ति धारणा एवं अनुपालना। (V) प्रवचन-श्रवण एवं श्रमण-पर्युपासना में अहोभाव / (3) उत्तम स्तर (i) सचित्त का सर्वथा परित्याग / (ii) प्रतिदिन एकासन तपश्चरण | (ii) परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का नियम / (iv) नीति और न्याय से धन का उपार्जन / (v) रात्रि में चतुर्विध आहार का त्याग / (1) प्रतिदिन आसन, जाप एवं ध्यान से मन का शुद्धिकरण / (2) पंच अभिगमपूर्वक प्रभु-पूजन / (3) सत्साहित्य के वांचन से आत्म पवित्रता का विकास / (4) सामायिक के द्वारा समत्व में अभिवृद्धि / (5) वाक्-शक्ति के लिये प्रतिदिन एक घण्टा मौन की उपासना / (6) गुरुजनों का वैयावृत्य, वंदना, सुपात्र दान एवं सत्संग / (7) माता-पिता के चरणों का स्पर्श, आज्ञा-पालन एवं सेवा–भक्ति / (8) प्रामाणिक एवं न्याय-नीति से जीवन का निर्वाह। (9) बारह भावनाओं से ममत्व का अल्पीकरण। (10) सोते समय सुकृत की अनुमोदना एवं दुष्कृत की आलोचना /
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________________ GRO.C SAR COOLA GROR COM RA.ORE जैनत्व के प्रतीक (1) पारस्परिक मिलन के अवसर पर 'जय जिनेन्द्र' अथवा प्रणाम' से अभिवादन करना। (2) 'श्री महावीराय नमः' से पत्र का प्रारम्भ एवं 'जय जिनेन्द्र' से बहुमान-अभिवादन। (3) गृह-सज्जा में जैन जीवन शैली के बोधक यथा अरिहंत, आचार्य आदि के चित्र, शो-केस में पातरा, 'तरपणी, ओघा आदि मुनि-प्रतीक चिह्न, दुकान-मकान के द्वार पर अष्ट मंगल, चौदह स्वप्न की सजावट अथवा जय जिनेन्द्र, नवकार मंत्र, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्, जैनम् जयति शासनम् आदि का आलेखन / (4) जनगणना में अपने नाम के साथ 'जैन' शब्द का प्रयोग एवं धर्म के कॉलम में 'जैन' लिखने में जागरूकता / (5) जन्म, विवाह, उत्सव, मृत्यु आदि में जैन संस्कार विधि का प्रयोग करना। इसके साथ दीपावली आदि में नये बहीखातों के प्रयोग में जैन संस्कार विधि का प्रयोग | (6) जैन विधि से दीपावली आदि त्यौहारों को मनाना। (7) जैन पर्व एवं विशेष आयोजन पर जैनत्व के प्रतीक पंचरंगी जैन ध्वज आदि का उपयोग करना / (8) सरकारी दस्तावेज, रेल–वायुयान आदि टिकट, कॉलेज-प्रवेश फार्म आदि में नाम के साथ 'जैन' शब्द का उल्लेख करना / यदि आप अपने नाम के स्वगोत्र का भी उल्लेख करना चाहते हैं तो नाम के पहले जैन और नाम के बाद गोत्र को अंकित करना। (9) शादी, गृह-प्रवेश, दुकान की ओपनिंग आदि की आमन्त्रण पत्रिका में सबसे पहले परमात्मा का नाम अंकित करना / (10) दुकान की Letter-Pad पर परमात्मा, दादा गुरुदेव आदि का नाम अंकित करना। (11) दुकान के देव-पूजा स्थान में अथवा अन्य स्थान पर परमात्मा, जैन तीर्थ आदि के फोटो लगाना। (12) ललाट पर जिनाज्ञा शिरोधार्य करने के प्रतीक रुप चन्दन-केसर का तिलक लगाना। (13) अपनी चार पहिया गाड़ी में प्रभु या गुरुदेव का फोटो या मूर्ति लगाना / उसके आगे-पीछे कहीं भी अरिहंत-गुरु का नामांकन करना अथवा जैनम्, जय जिनेन्द्र, जय महावीर, जय दादा गुरुदेव आदि लिखवाना /
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________________ जैन संकल्प परिपत्र G GORANGILOSO (1) मैं अरिहंत देव, पंचमहाव्रती सुगुरु एवं केवलीभाषित धर्म / (जिन धर्म) के प्रति सदैव श्रद्धावान् रहूंगा / (2) मुझे आत्मा, कर्म एवं मोक्ष तत्त्व में परिपूर्ण श्रद्धा है, अतः स्वकृत कर्मों का उत्तरदायी भी मैं स्वयं ही हूँ / मैं कर्म मुक्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहूंगा / (3) मैं आहार शुद्धि के प्रयोगों में विश्वास करता हूँ, अतः मद्य, मांस, उत्तेजनावर्द्धक कन्दमूल, दुर्गतिकारक बीडी, सिगरेट, गुटखा, तम्बाकू, गांजा, अफीम, चरस आदि मादक पदार्थों का उपयोग नहीं करूंगा। (4) प्रतिवर्ष संवत्सरी महापर्व की साधना करता हुआ जीव मात्र के प्रति करुणा, मैत्री, समभाव और क्षमा से अपनी आत्मा को भावित करूंगा। (5) जिनशासन की उन्नति, प्रगति हेतु सदैव प्रयत्नशील रहूंगा / (6) साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका की निंदा, टीका-टिप्पणी नहीं करूंगा। (7) मेरे जिस कृत्य से जिनशासन के गौरव में कमी हो, धर्म कलंकित हो, वैसा कार्य कदापि नहीं करूंगा। (8) धर्म-संघ से निष्कासित व्यक्तियों को प्रश्रय नहीं दूंगा / (9) शासन की अखण्डता, आज्ञा-अनुशासना एवं सिद्धान्तों के प्रति सदैव समर्पित रहूंगा। (10) जिनाज्ञानुसार खान-पान, आचार-विचार, वेश-परिवेश की शुद्धि पर पूरा ध्यान दूंगा। (11) व्यापार में प्रामाणिकता, नीतिमत्ता एवं न्याय को स्थान दूंगा। अनीति, शोषण, कालाबाजारी, फरेब, झूठ, अन्याय, रिश्वतखोरी, मिलावट का न आचरण करूंगा, न उसे प्रोत्साहन दूंगा। (12) किसी भी साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका में दोष दर्शन होने पर उसका बाजार, रिश्तेदार आदि में प्रचार-प्रसार नहीं करूंगा। बहुत संभव है कि दृष्टिभ्रम के कारण भी मुझे इस प्रकार लगा हो / अतः गुरुदेवों के प्रति श्रद्धा, बहुमान और अहोभाव के संरक्षण-संवर्धन के लिये जरुरी लगने पर उनसे एकान्त में स्पष्टीकरण करूंगा। (13) मन-मस्तिष्क और आत्मा की शुद्धि के लिये थियेटर, टेलीविजन, मोबाइल, इन्टरनेट आदि पर गंदे, अभद्र, अश्लील दृश्यों को देखना व संगीत सुनना मेरे लिये सर्वथा निषिद्ध है।
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________________ RG LO. 3. O OGIC GOOD | स्वभाव परिवर्तन के संकल्प सूत्र' सोते समय इन सूत्रों का पुनः पुनः उच्चारण करें जिससे दूषित, विकृत एवं कषायग्रस्त स्वभाव बदल जायेगा। (i) मुझे पवित्र जीवन जीना है, मैं त्याग सम्पन्न बनूं / कसौटी आपकी... स्वयं से पूछो दस सवाल (ii) मुझे उच्च जीवन जीना है, मैं ज्ञान 1. आपको संसार में भय, दुःख, चिन्ता सताती है, तब सम्पन्न बनूं / उसको दूर करने के लिये क्या आप ध्यान, जाप | (iii) मुझे सरल जीवन जीना है, मैं आनन्द करते हैं? सम्पन्न बनूं। 2. क्रोध-लोभ आदि कषाय-शमन के लिये क्या आप | ये क्या आप (iv) मुझे भयमुक्त जीवन जीना है, मैं जागरूक हैं? शक्ति सम्पन्न बनूं / 3. क्या आपको तत्त्वत्रयी पर पूर्ण आस्था है ? 4. क्या आपको बुरे निमित्त भटकाते हैं? (v) मुझे,शान्त जीवन जीना है, मैं ध्यान | 5. 'मैं कौन हूँ' इसकी आपने खोज शुरु कर दी है? सम्पन्न बनूं। 6. संसार के सुख, साधन एवं सम्मान में शान्ति का अनुभव करते हैं या उससे मुक्त होकर निर्वेद-भावों आत्म विकास कीपंचसूत्री से स्वयं को आप्लावित एवं प्रभावित करते हैं? 7. आप संतोष, नीतिपूर्ण व्यापार एवं सादगी से परिपर्ण |(1) अप्पा सो परमप्पा-आत्मा ही परमात्मा जीवन शैली में विश्वास करते हैं? 8. जब आपका मन, हृदय चिन्ताक्रान्त होता है, तब | | (2) पुद्गल से पुद्गल तृप्त होते हैं, आत्मा आप कर्म-फल समझकर प्रायोगिक विधान का __नहीं। उपक्रम करते हैं अथवा निमित्त पर रूष्ट होकर |(3) मैं शरीर से भिन्न हूँ, शरीर मुझसे भिन्न आर्तध्यान-रौद्रध्यान ध्याते हैं? 9. क्या शरीर, सुख, परिवार, धन, सत्ता आदि के वियोग (4) मैं आनंद का अक्षय कोष हूँ,बाहर का का आपको भय सताता है अथवा आप पूर्णतया सुख कोरा भ्रमजाल है निर्भय हैं? (5) मैं स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता व 10. क्या संसार में पराधीनता की अनुभूति करते हुए। भोक्ता हूँ और स्व-प्रयत्न से ही स्वयं की स्वतन्त्र सत्ता की ओर आपके चरण उससे मुक्त हो सकता हूँ। गतिमान हैं?
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________________ जैन आराधना मीमांसा 1. नवकार : जिसकी महिमा अपरम्पार 2. तीर्थंकर और समवसरण 3. चौबीस तीर्थंकर एवं महाश्रमण महावीर 4. त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों का परिचय 5. सिद्ध परमात्मा का स्वरूप 6. मुनि जीवन की पहचान 7. पंच परमेष्ठी के रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण
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________________ नवकार : जिसकी महिमा अपरम्पार क्या है? म प्र. 1. नवकार मंत्र का शास्त्रीय नाम क्षय कर मोक्ष-धाम को उपलब्ध कर लिया है, वे सिद्ध कहलाते हैं। उ. नमस्कार-सूत्र एवं पंचमंगल (3)आचार्य-गण, कुल और शिष्यों को महाश्रुतस्कंध। जिनाज्ञापूर्वक संयममार्ग में गतिशील प्र. 2. नवकार मंत्र में 'नमो' शब्द रखने वाले आचार्य कहलाते हैं। किसका प्रतीक है? (4)उपाध्याय-जिनोक्त प्रवचन की शिक्षा एवं उ. नमन, विनय और कृतज्ञता का। ज्ञान रूपी चक्षु देने वाले उपाध्याय प्र. 3. नवकार मंत्र का अर्थ बताईए। कहलाते हैं। .. उ. अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं (5)साधु-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और लोक में स्थित समस्त मुनि भगवंतों को अपरिग्रह, इन पंच महाव्रतों का पालन नमस्कार / इन पंच परमेष्ठी को किया करने वाले साधु कहलाते हैं। गया नमस्कार समस्त पापों का नाश प्र. 6. नवकार मंत्र के स्मरण से कितने करने वाला है तथा समस्त मंगलों में पापों का विनाश होता है? यह मंत्र प्रथम मंगल है। उ. 1. नवकार मंत्र के एक अक्षर का प्र. 4. पंच परमेष्ठी में देव और गुरू कितने उच्चारण करने से सात सागरोपम (असंख्य वर्ष) जितने .उ. 1. देव-अरिहंत तथा सिद्ध / पाप नष्ट हो जाते हैं। 2. गुरू-आचार्य, उपाध्याय और 2. नवकार मंत्र के एक पद का स्मरण करने से पचास सागरोपम जितने प्र. 5. पंच परमेष्ठी को स्पष्ट कीजिए। अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं। उ. (1)अरिहंत-अरि यानि शत्रु। 3. सम्पूर्ण नवकार मंत्र का एक बार जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं का हनन जाप करने से पांच सौ सागरोपम कर दिया है, वे अरिहंत कहलाते हैं। जितने पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। (2)सिद्ध-जिन्होंने समस्त कर्मों का 4. 'नमो अरिहंताणं' इस पद का विधि **-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*_07 ***************** मुनि।
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________________ विधान एवं सम्पूर्ण श्रद्धा से जाप करने अरिहंताणं' से पहले स्थान क्यों वाला तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन नहीं दिया गया? करता है। उ. 1. प्रत्येक अरिहंत संपूर्ण कर्मों का क्षय प्र. 7. नवकार मंत्र का कितनी बार जाप करके अवश्यमेव सिद्ध होते हैं, अतः करने से जीव तीन भवों में वे अरिहंत तथा सिद्ध, दो पदों को मोक्षगामी होता है? धारण करते हैं जबकि हर सिद्ध पूर्व उ. 8 करोड़ 8 लाख 8 हजार 8 सौ 8 बार में अरिहंत नहीं होने से एक पद ही नवकार का जाप करने वाला तीन भवों धारण करते हैं। में मोक्षगामी होता है। 2. अरिहंत भव्य जीवों का उद्धार करने प्र. 8. नवकार मंत्र कितने पूर्वो का सार के लिये सम्यक मार्ग दिखाते हैं अतः कहा गया है? गुरू पदधारी होने से अरिहंत को उ. चतुर्दश पूर्वधर भी अन्त समय में / सिद्ध से पूर्व में स्थान दिया गया। नवकार मंत्र का जाप करते हैं, अतः इसे 3. अद्यावधि पर्यन्त जितने भी सिद्ध हुए चौदह पूर्यों का सार कहा गया है। हैं, वे अरिहन्त की देशना श्रवण प्र. 9. नवकार मंत्र का संक्षिप्त रूप क्या करके ही हुए हैं। प्र.12.नवकार की माला में 108 मणके उ. असिआउसा। क्यों होते हैं? प्र.10. नवकार मंत्र में शरीरी-अशरीरी एवं उ. 1. अरिहंत आदि पंच परमेष्ठी के आहारी-अनाहारी के कितने भेद क्रमशः 12,8,36,25 एवं 27 गुण होते हैं? होते हैं, इन गुणों का कुल योग 108 उ. नवकार मंत्र में सिद्ध पद अशरीरी एवं - होने से नवकार की माला में 108 अनाहारी है, शेष चार पद सशरीरी तथा मणके होते हैं। आहारी हैं। 2. 108 प्रकार से होने वाले पाप कर्मों प्र.11.सिद्ध परमात्मा के आठों कर्मों का का क्षय करने लिये नवकार की क्षय हो चुका है और अरिहंत माला में 108 मणके होते हैं। परमात्मा के चार कर्मों का, तो फिर प्र.13.108 प्रकार से पाप कर्म का बंध 'नमो सिद्धाणं' को 'नमो किस प्रकार होता है? है?
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________________ "उ. 1. संरंभ-पाप का विचार करना। अ+अ= आ+आ = आ+उ = * 2.समारंभ-पाप करने हेतु तैयार ओ+म् = ओम्। होना। प्र.15.पंच परमेष्ठी का किन स्थानों पर 3. आरंभ- पाप करना। जाप करना चाहिए तथा इनसे ये तीन प्रकार के पाप तीन कौनसे केन्द्र जागृत होते हैं? योग (मन, वचन, काया) से करना, उ. 1. 'नमो अरिहंताणं' पद का जाप 'माथे करवाना तथा अनुमोदना करना। की चोटी' पर करना चाहिए। यह पाप कार्य में चार भाव हो सकते हैं - ज्ञान केन्द्र को जागृत करता है। क्रोध, मान,माया तथा लोभ। 2. 'नमो सिद्धाणं' पद का जाप भृकुटि 3 (संरंभ आदि) x3 (योग) = 9 के मध्य भाग पर करना चाहिए। यह 9X3 (करण) = 27 दर्शन केन्द्र को स्फुरायमान करता 27X4 (क्रोधादि कषाय) = 108 है। इन 108 प्रकार के पापों का क्षय 3. 'नमो आयरियाणं' पद का ध्यान कंठ करने के लिये माला में 108 मणके के मध्य भाग पर करना चाहिए। यह रखे गये हैं। विशुद्धि केन्द्र को प्रभावशाली बनाता प्र.14.नवकार मंत्र में 'ओम्' का निर्माण किस प्रकार होता है? 4. 'नमो उवज्झायाणं' पद का जाप उ. पंच परमेष्ठी के प्रथम अक्षरों की सन्धि हृदय पर करना चाहिये। यह आनंद (जोड़) करने से ओम् निर्मित होता है, केन्द्र को गतिशील करता है। जो कि इस प्रकार है 5. 'नमो लोए सव्वसाहूणं' पद का ध्यान (i) अरिहंत का अ नाभि पर करना चाहिए। यह स्वास्थ्य केन्द्र को सबल एवं (ii) सिद्ध का अ (सिद्ध अशरीरी/अरूपी परिपुष्ट करता है। होते हैं) प्र.16. नवकार मंत्र का जाप किस दिशा में (iii) आचार्य का आ करना चाहिए? (iv) उपाध्याय का उ उ. संपूर्ण नवकार मंत्र का जाप उत्तर, पूर्व (V) साधु का म् (मुनि) अथवा पूर्वोत्तर (ईशान कोण) दिशा में
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________________ करना चाहिए। यदि किसी विशेष एक पद का ध्यान करना हो तब नमो अरिहंताणं एवं नमो सिद्धाणं का पूर्व दिशा में, नमो आयरियाणं का दक्षिण दिशा में, नमो उवज्झायाणं का पश्चिम दिशा में एवं नमो लोए सव्वसाहूणं का उत्तर दिशा में जाप करना चाहिए। प्र.17.नवकार मंत्र में पाँच महातीर्थ किस प्रकार समाहित होते हैं? उ. नमो अरिहंताणं से अष्टापद, नमो सिद्धाणं से सिद्धाचल, नमो आयरियाणं से आबू, नमो उवज्झायाणं से उज्जयंतगिरि (गिरनार) और नमो लोए सव्वसाहूणं से सम्मेत शिखर / प्र.18. नवकार मंत्र की विशेषताएँ बताओ। उ. 1. नवकार मंत्र के हर शब्द पर एक करोड़ देवों का निवास है। 2. नवकार मंत्र के प्रत्येक अक्षर पर 1008 महाविद्याएँ, नव निधान एवं अष्ट सिद्धियाँ प्रतिष्ठित हैं। 3. नवकार शाश्वत मंत्र है। यह अनादिकाल से है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। प्र.19.नवकार मंत्र के शब्द संयोजन का रहस्य समझाओ। उ. 1. 68 अक्षर अडसठ तीर्थों के प्रतीक रूप हैं। 2. पंचपरमेष्ठी में 24 गुरू अक्षर 24 तीर्थंकरों के तथा 11 ह्रस्व अक्षर ग्यारह गणधरों के प्रतीक हैं। 3. 'अ' अक्षर चार बार होने से क्रोध आदि चार आश्रवों को रोकने वाला मंत्र है। 4. 'इ' अक्षर एक बार होने से इसमें इष्ट देव-गुरू का स्मरण किया गया है। . 5. 'ग' अक्षर दो बार होने से मनुष्य एवं देव गति प्रदायक है। 6. 'र' अक्षर तीन बार होने से यह रत्नत्रयी प्रदाता है। 7. 'ह' अक्षर दो बार होने से राग व द्वेष ____ का हनन करने वाला है। 8. “स' अक्षर आठ बार होने से अष्ट सिद्धि प्रदाता है। 9. 'म' अक्षर नौ बार होने से पंच महाव्रत और चार मंगल का पवित्र स्थान है। 10.'य' अक्षर तीन बार होने से तीनों योगों को शुभ-अनुष्ठान में सक्रिय करने वाला मंत्र है। 11.'च' अक्षर दो बार होने से जन्म व मरण रूपी दोनों कुचक्रों को भेदने वाला शक्तिशाली मंत्राधिराज है। प्र.20. नवकार मंत्र को मंत्रशिरोमणि क्यों कहा जाता है? ****************
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________________ उ. नवकार मंत्र विघ्न विनाशक, प्रसन्नता प्र.21.नवकार मंत्र का कब-कब जाप -प्रदायक एवं संपत्तिकारक मंत्र है। करना चाहिये? इसके जाप से न केवल पाप- उ. 1.सोते और जागते समय / ताप-संताप नष्ट होते हैं अपितु मुक्ति 2. किसी भी अन्य मंत्र का जाप शुरू करने रूपी शाश्वत सुख की भी प्राप्त होती से पहले। है। इस मंत्र के स्मरण से 3. किसी भी कार्य की शुरुआत करने से 1. सुभद्रा सती ने चंपानगरी के द्वार पहले। __ खोले। 4. यात्रा हेतु प्रस्थान करने से पहले। 2. सीता सती ने अग्निकुण्ड शीतल 5. दुकान, स्कूल के लिये प्रस्थान करने ___ जलकुण्ड में बदला। से पहले। 3. श्रीमती के हाथ में रहा हुआ सर्प पुष्प 6. दुःख, दुर्घटना और पीडा के क्षणों में। ___ माला में परिवर्तित हुआ। 7. मानसिक तनाव, घुटन, हीनभाव 4. इस महामंत्र के प्रभाव से अमर कुमार आदि संतापजनक स्थितियों में। की शूली सिंहासन बन गयी। 8. सांसारिक कार्य यथा विवाह, जन्म 5. नवकार मंत्र के प्रभाव से सिंहस्थ आदि उत्सव के पलों में। राजा से अनन्तमति ने अपने शील .. 9. आपसी कलह, कषाय और की रक्षा की। क्लेशजनक स्थिति में। 6. पार्श्वकुमार के मुख से नवकार का 10.शुभ अथवा अशुभ समाचार श्रवण के श्रवण कर अग्नि में जलता हुआ क्षणों में। सर्पयुगल मरकर धरणेन्द्र देव और 11.मानसिक विकास, राग-द्वेष, ईर्ष्या, पद्मावती देवी बना। मनमुटाव, वासना, आक्षेप, उत्तेजना, श्रीपाल, मयणासुंदरी, शिवकुमार, शोक, भय, अरति, माया आदि नर्मदासुंदरी, अंजना सती आदि आन्तरिक रोगों की उत्पत्ति के अनन्त आत्माओं ने इस मंत्र का समय। श्रद्धा एवं शुद्धिपूर्वक जाप करके आत्म कल्याण किया।
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________________ तीर्थंकर और समवसरण उ. प्र. 22. तीर्थंकर किसे कहते हैं? अथवा अतिशय युक्त प्राचीन प्रतिमा उ. वे महापुरूष जो. साधु, साध्वी, हो, उसे स्थावर तीर्थ कहते है। श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ प्र.25.तीर्थंकर परमात्मा के कितने (तीर्थ) की स्थापना करते हैं, वे कल्याणक होते हैं? तीर्थंकर कहलाते हैं। जो संसार- उ. पाँच - 1. च्यवन (गर्भ) 2. जन्म 3. दीक्षा सागर से तिराता है, उसे तीर्थ 4. केवलज्ञान और 5. निर्वाण। कहते है। आश्चर्य स्वरूप परमात्मा महावीर के प्र. 23. तीर्थंकर के पर्यायवाची क्या क्या गर्भापहार कल्याणक सहित छह हो सकते हैं? कल्याणक हुए, जिनका उल्लेख 1. परमात्मा-परम ज्ञानादि गुणों को कल्पसूत्र में प्राप्त होता है। प्राप्त होने से तीर्थंकर को परमात्मा प्र.26.तीर्थंकर किस गति से आते हैं एवं कहा जाता है। किस गति में जाते हैं? 2. जिन-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को उ. कोई भी तीर्थंकर देव अथवा नरक गति जीतने के कारण तीर्थंकर को जिन, से आते हैं तथा समस्त कर्मों का जिनराज और जिनेश्वर कहा जाता आत्यन्तिक क्षय कर मोक्ष गति को प्राप्त है। करते हैं। 3. वीतराग-भवभ्रमण के मूल राग, द्वेष आदि दुर्गुणों का संपूर्ण क्षय होने प्र.27.तीर्थंकर की माता कितने महासे वीतराग कहा जाता है। स्वप्न देखती है? 4. भगवान-परम तेजस्वी, अनत्तर उ. चौदह महास्वप्न - 1. हाथी 2. वृषभ ज्ञानी एवं दिव्य स्वरूपी होने से 3. केसरी सिंह 4. लक्ष्मी 5. पुष्पमाला तीर्थंकर भगवान कहलाते हैं। 6. चंद्र 7. सूर्य 8. ध्वज 9. कलश प्र. 24. तीर्थ कितने प्रकार के होते हैं? / 10.पद्मसरोवर 11. क्षीर समुद्र 12. उ. 1. जंगम तीर्थ- चतुर्विध संघ को देवविमान 13. रत्नराशि 14. निर्धूम जंगम तीर्थ कहते है। अग्नि / 2. स्थावर तीर्थ- जहाँ तीर्थंकर यदि तीर्थंकर का जीव नरक गति से परमात्मा के कल्याणक, चातुर्मास हुए आता है तो माता देवविमान के स्थान हो अथवा उनका विचरण हुआ हो पर भवन का स्वप्न देखती है। **************** 12 ********** *****
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________________ “प्र.28.अरिहंत प्रभु को जन्माभिषेक हेतु ले जाते समय इन्द्र कितने रूप बनाता है? उ. पाँच रूप1. एक रूप में अरिहंत परमात्मा को हाथ में लेते हैं। 2-3.दूसरे-तीसरे रूप में उनके दोनों तरफ चामर दुलाते हैं। 4. चौथे रूप में उनके ऊपर छत्र स्थापित करते हैं। 5. पाँचवें रूप में परमात्मा के आगे वज्र घुमाते हुए चलते हैं। प्र.29.अरिहंत परमात्मा के जन्माभिषेक में , चौसठ इन्द्र कौन कौन होते हैं? ... उ. 1. बीस भवनपति 2. सोलह व्यंतर 3. सोलह वाणव्यंतर 4. दो ज्योतिष्क 5. दस वैमानिक। . प्र. 30. अरिहंत परमात्मा कितना दान देते हैं? उ. प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं का और संपूर्ण वर्ष में 3 अरब 88 करोड़ 80 लाख स्वर्णमुदाओं का दान देते हैं। उनके दान को संवत्सर दान कहते है। प्र.31.अरिहंत परमात्मा किन अठारह दोषों से मुक्त होते हैं? उ. 1. मिथ्यात्व 2. अज्ञान 3. क्रोध 4. मान 5. माया 6. लोभ 7. रति 8. अरति 9. निद्रा 10. शोक 11. असत्य 12. चोरी 13. मत्सरता 14. भय 15. हिंसा 16. मोह 17. क्रीडा 18. हास्य। प्र.32.अरिहंत परमात्मा की विशेषताएँ बताओ। उ. 1. गर्भ में मति - श्रुत - अवधि, तीन ज्ञान धारक होते हैं। दीक्षा लेते ही चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति होती है एवं घाती कर्मों के क्षय के बाद केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना करते हैं। . 2. छद्मस्थ अवस्था में चार कारणों से बोलते हैं - 1. स्थान की याचना के लिये 2. मार्ग पूछने के लिये 3. आज्ञा लेने के लिये 4. प्रश्न का उत्तर देने के लिये। 3. तीर्थकर प्रभु की भिक्षा के समय पांच दिव्य प्रकट होते हैं- 1. सुगंधित जल-वृष्टि 2. पुष्प वर्षा 3. 'अहोदानम्' की उद्घोषणा 4. दिव्य ध्वनि घोष 5. साढे बारह करोड स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि / 4. परमात्मा का शरीर रोग रहित एवं ___ रक्त दूध की भाँति श्वेत होता है। 5. उनके श्वासोच्छवास से पद्म नीलकमल की सुगंध आती है। 6. उनका आहार-निहार प्रछन्न होता है। 7. दीक्षा के बाद मस्तक, दाढी, एवं मूंछ के केश बढते नहीं हैं। 8. जब भगवान विचरण करते हैं, तब ऋतुएँ सुखद बन जाती हैं। अमनोज्ञ (अप्रिय) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श शब्द नहीं रहते हैं। उपद्रव नहीं होते हैं। अतिवृष्टि-अनावृष्टि नहीं होती हैं, नई व्याधि उत्पन्न नहीं .
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________________ होती है तथा पूर्वोत्पन्न व्याधि नष्ट अशोक वृक्ष, छत्र, चामर आदि व्यंतर हो जाती है। देव स्थापित करते हैं। पूर्व दिशा में 9. विहार के समय काँटे अधोमुखी हो परमात्मा बिराजते हैं एवं शेष तीन जाते हैं, आगे आगे धर्मचक्र दिशाओं में व्यंतर देव प्रभु के सुशोभित होता है। वे देवनिर्मित नव प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं। उनके स्वर्ण कमलों पर चलते हैं। ऊपर तीन-तीन छत्र शोभायमान प्र.33.समवसरण के संदर्भ में आवश्यक होते हैं। जानकारी दीजिये। 8. अर्धमागधी भाषा में तथा मालकोश उ. 1. सर्वप्रथम वायुकुमार देव भूमि को राग में प्रभु पैंतीस गुणों से अलकृत कंकर, कांटे आदि से रहित करते हैं। चौमुखी देशना फरमाते हैं जो कि 2. मेघकुमार देव सुगन्धित नीर की वर्षा करते हैं। एक योजन (13 कि.मी.) तक सुनाई 3. व्यंतर देव स्वर्ण रत्नमयी शिलाओं देती है। से भूमि को शोभित करते हैं एवं जानु 9. समवसरण के प्रथम वलय में प्रमाण खुश्बूमय पुष्पों की वृष्टि करते देवविमान, रथ, पालखी इत्यादि, दूसरे वलय में पशु, पक्षी आदि तथा 4. समवसरण में रजतमय, स्वर्णमय एवं तीसरे वलय में बारह पर्षदा होती हैं। रत्नमय तीन वलयों की संरचना बारह पर्षदा यानि साधु, साध्वी, क्रमशः भवनपति देव, ज्योतिष्क देव पुरूष, स्त्री, वैमानिक-ज्योतिष्कतथा वैमानिक देव करते हैं। भवनपति-व्यंतर देव तथा देवी। 5. तीनों वलयों की चारों दिशाओं में प्र.34.जघन्यतः और उत्कृष्टतः कितने एक-एक द्वार, इस प्रकार कुल तीर्थंकर होते हैं? बारह द्वार होते हैं। प्रत्येक दिशा में उ. 1. महाविदेह क्षेत्र पाँच हैं तथा प्रत्येक एक-एक योजन प्रमाण ध्वज महाविदेह में 32 विजय हैं। उनमें से लहराता है। 6. प्रथम गढ की प्रत्येक दिशा में 8वीं, 9वीं , 24वीं एवं 25वीं विजय में दस-दस हजार सीढियाँ होती हैं। तीर्थंकर परमात्मा का शाश्वत दूसरे व तीसरे गढ की हर दिशा में विचरण होने से जघन्यतः बीस पाँच-पाँच हजार सीढियाँ होती हैं। तीर्थंकर होते हैं। बीस हजार सीढियाँ परमात्मा के 2. पाँच महाविदेह की कुल 160 विजय, अतिशय से व्यक्ति थकान के बिना पाँच भरत एवं पाँच ऐरावत, इनमें अल्प समय में चढ जाता है। एक-एक तीर्थंकर की अपेक्षा से 7. समवसरण में स्वर्ण सिंहासन, उत्कृष्टतः 170 तीर्थंकर होते हैं।
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________________ "चौबीस तीर्थंकर एवं महाश्रमण महावीर प्र.35.चौबीस तीर्थंकरों के नाम अंकित कीजिये। उ. 1.ऋषभदेव 2. अजितनाथ 3. संभवनाथ 4. अभिनंदन स्वामी 5. सुमतिनाथ 6. पद्मप्रभु 7. सुपार्श्वनाथ 8. चन्द्रप्रभु 9. सुविधिनाथ 10. शीतलनाथ 11. श्रेयांसनाथ 12. वासुपूज्य स्वामी 13. विमलनाथ 14. अनन्तनाथ 15. धर्मनाथ 16. शान्तिनाथ 17. कुंथुनाथ 18. अरनाथ 19. मल्लिनाथ 20. मुनिसुव्रत स्वामी 21. नमिनाथ 22. नेमिनाथ 23. पार्श्वनाथ 24. महावीर स्वामी। प्र.36. सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद चौबीस तीर्थंकरों ने कितने भव किये? __1. ऋषभदेव ने तेरह 2. शांतिनाथ ने बारह 3. अरिष्टनेमि ने नौ 4. पार्श्वनाथ ने दस 5. महावीर स्वामी ने सत्ताईस 6. शेष उन्नीस तीर्थंकरों ने तीन-तीन भव किये। प्र.37.चौबीस तीर्थंकरों के संदर्भ में जानकारी दीजिये। उ. 1. सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् एक मात्र महावीर नरक में गये। 2. समस्त तीर्थंकर देवलोक से आये थे। 3. चौबीस तीर्थंकरों में से मल्लिनाथ एवं अरिष्टनेमि बाल ब्रह्मचारी थे, शेष सभी ने विवाह किया था। 4. चौबीस तीर्थंकरों में से 12वें, 19वें, 22वें, 23वें, 24वें तीर्थंकर ने राज शासन नहीं किया, शेष राजा बने। 5. चौबीस तीर्थंकरों में से 19वें एवं 20वें तीर्थंकर हरिवंश के थे, शेष सभी इक्ष्वाकुवंशीय थे। 6. चौबीस तीर्थंकरों में से ऋषभदेव को दीक्षा के 400 दिन बाद, शेष 23 तीर्थंकरों को दूसरे दिन भिक्षा उपलब्ध हुई। 7. चौबीस तीर्थंकरों में से ऋषभदेव, वासुपूज्य, अरिष्टनेमि एवं महावीर स्वामी क्रमशः अष्टापद, चंपापुरी, गिरनार और पावापुरी में, शेष 20 तीर्थंकर सम्मेतशिखर में निर्वाण पद को प्राप्त हुए। 8. ऋषभ, नेमि और महावीर, ये तीनों परमात्मा पद्मासन में एवं शेष 21 तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन में मोक्ष पधारे। प्र.38. चौबीस तीर्थंकरों के कुल कितने साधु साध्वी थे? उ. साधु- 28 लाख 48 हजार / साध्वियाँ - 48 लाख 70 हजार 8 सौ।
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________________ प्र.39.परमात्मा महावीर ने किस भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया था? उ. नयसार के भव में। प्र.40.परमात्मा महावीर ने किस भव में कुल मद किया था? उ. मरीचि के भव में। प्र.41.परमात्मा महावीर किस नाम से चक्रवर्ती एवं वासुदेव बने? उ. प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती तथा त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव। प्र.42.परमात्मा महावीर के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिये। उ. 1. नंदन मुनि के भव में 11 लाख 80 हजार 645 मासक्षमण . करके तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। 2. प्रथम माता - पिता ऋषभदत्त ब्राह्मण एवं देवानंदा ब्राह्मणी थे। 3. द्वितीय माता - पिता सिद्धार्थ ___ महाराजा और त्रिशला महारानी थे। 4. क्षत्रियकुण्ड नगर में चैत्र शुक्ला __ त्रयोदशी को जन्म कल्याणक हुआ। 5. जन्म राशि कन्या, स्वर्णवर्णीय काया, सिंह लांछन, सात हाथ प्रमाण शरीर तथा काश्यप गोत्रीय थे। 6. चाचा-सुपार्श्व, ज्येष्ठ भ्रातानंदीवर्धन, बहिन-सुदर्शना, पत्नीयशोदा, पुत्री-प्रियदर्शना, दामाद जमाली। 7. नाना-नानी राजा केक एवं यशोमती रानी तथा सास-श्वसुर समरवीर राजा एवं यशोदया रानी। 8. मिगसर वदि दशमी को तीस वर्ष की वय में छठ (बेले) तप में अशोक वृक्ष के नीचे दीक्षा ली। 9. ग्वाले, चंडकौशिक सर्प, संगम देव, शूलपाणि यक्ष, कटपूतना व्यंतरी आदि के महान् उपसर्ग समतापूर्वक सहे। 10. साधना काल के साढे बारह वर्षों में मात्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निद्रा ली। 11. साढे बारह वर्ष के छद्मस्थ काल में मात्र 349 पारणे किये। 12. 30 वर्ष पर्यन्त तीर्थंकर अवस्था में विचरण किया। प्र.43. परमात्मा महावीर के तपोमय जीवन उ. 12 वर्ष 6 माह 15 दिन के छद्मस्थ साधनाकाल में प्रभु द्वारा आचरित तपस्या का विवरण इस प्रकार है1. एक बार छह मास का तप / 2. एक बार पाँच माह पच्चीस दिन का . तप। 3. नौ बार चार मास का तप / 4. दो बार तीन मास का तप। 5. दो बार ढाई मास का तप। 6. छह बार दो मास का तप। 7. दो बार डेढ मास का तप / 8. बारह बार एक मास का तप। . 9. बहत्तर बार पन्द्रह दिन का तप।
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________________ 10. एक बार दस दिन का तप। साध्वी चंदनबाला, प्रथम श्रावक 11. एक बार चार दिन का तप। शंख और प्रथम श्राविका सुलसा 12. बारह बार तीन दिन का तप। थी। 13. तेईस बार दो दिन का तप / 4. प्रभु के इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, प्र.44. परमात्मा महावीर के तेरह बोल का व्यक्त, सुधर्मा, मंडित, मौर्यपुत्र, अभिग्रह कौनसा था? अकम्पित, अचलभ्राता, मैतार्य और उ. तेरह बोल के अभिग्रह वाला तप प्रभास नामक ग्यारह गणधर थे। चंदनबाला के द्वारा सम्पन्न हुआ। तेरह 5. प्रभु के हस्तदीक्षित साधु 14000, साध्वी बोल इस प्रकार थे 36000, श्रावक 1,59,000 और 1. राजकुमारी 2. अविवाहित 3. निर्दोष श्राविकाएँ 3,18,000 थी। 4. हाथों में हथकड़ी 5. पाँवों में बेडी 6. प्रभु के आनंद, कामदेव, चुलनीपिता, 6. मुंडित मस्तक 7. बंदी खाने में पड़ी सुरादेव, चुल्लग शतक, कुंडकौलिक, 8. तेले का तप 9. एक पाँव दहलीज के सद्दाल पुत्र, महाशतक, नंदिनीपिता एवं बाहर एवं एक पाँव भीतर 10. दिन के तेतलीपिता नामक दस प्रमुख श्रावक दो प्रहर बीत चुके हो.11. बिकी हुई हो थे। 12. अश्रुपूरित नयन 13. सुपड़े में उडद 7. परमात्मा महावीर के श्रेणिक सम्राट्, के बाकुले हो। शतानीक, उदयन, चण्डप्रद्योत, प्र.45.परमात्मा महावीर के केवलज्ञान प्रसन्नचन्द्र, शाल, महाशाल, कल्याणक के बारे में लिखो। नंदीवर्धन, चेडा आदि प्रमुख भक्त उ. 1. मुंभक ग्राम के बाहर ऋजुबालिका राजा थे। नदी के किनारे शालवृक्ष के तले प्र.46. परमात्मा महावीर के निर्वाण गोदूहासन में वैशाख शुक्ला दशमी कल्याणक पर प्रकाश डालिये। को केवलज्ञान हुआ। उ. 1. सोलह प्रहर की अखण्ड देशना में 2. प्रभु की प्रथम देशना खाली गयी सुख-दुःख विपाक एवं उत्तराध्ययन क्योंकि किसी ने भी व्रत एवं महाव्रत सूत्र फरमाते हुए प्रभु निर्वाण पद को धारण नहीं किया। प्राप्त हुए। 3. चतुर्विध संघ (तीर्थ) की स्थापना 2. कार्तिक वदि अमावस को बहत्तर वर्ष ___ वैशाख शुक्ला एकादशी को हुई। की आयु में पावापुरी में स्वाति नक्षत्र प्रथम साधु गौतम स्वामी, प्रथम में प्रभु निर्वाण पद को उपलब्ध हुए।
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________________ त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों का परिचय प्र.47.त्रिषष्ठिशलाका पुरूष से क्या / (5)चौरासी-चौरासी लाख हाथी, घोड़े अभिप्राय है? __ और रथों के मालिक / उ. 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव 9 (6) 96 करोड़ पैदल सैनिक / वासुदेव एवं 9 प्रतिवासुदेव, इन विशिष्ट (7) 99 लाख अंगरक्षक | महापुरूषों को त्रिषष्ठिशलाका पुरूष (8) 16 हजार मंत्री / कहा जाता है। उत्तम, श्लाघनीय एवं (9) 64 हजार रानियाँ / धर्म-कर्म- भोग में सर्व श्रेष्ठ होने से (10) 72 हजार श्रेष्ठ नगर / इन्हें शलाका पुरूष कहते हैं। एक (11) 96 करोड़ गाँव / अवसर्पिणी अथवा एक उत्सर्पिणी में 63 (12)99 करोड़ दास-दासी / की संख्या में ही होने से ये (13) आठ हजार पण्डित / त्रिषष्ठिशलाका पुरूष कहलाते हैं। (14) एक करोड़ वैद्यराज / तीर्थंकर परमात्मा का विवेचन प्रारंभ में (15) तीन करोड़ आयुधशाला / किया जा चुका है। (16) बीस-बीस हजार स्वर्ण-रजत की प्र.48.चक्रवर्ती किसे कहते है ? खानें। ' उ. मनुष्य लोक के सर्वश्रेष्ठ राजा को (17) सोलह हजार रत्नों की खानें / चक्रवर्ती कहा जाता है। वे सम्पूर्ण भरत (18) चालीस लाख अष्टापदों जितने क्षेत्र के अथवा ऐरावत क्षेत्र के अथवा महाविदेह क्षेत्र की एक विजय के ___ बलशाली। . (19)64 हजार रत्नमय महल / अधिपति होते हैं। चक्रवर्ती की माता चौदह महास्वप्न देखती है। चक्रवर्ती वर्तमान में भरतादि बारह चक्रवर्ती हुए / यानि प्र.49.वासुदेव की व्याख्या कीजिये। (1) बत्तीस हजार देशों के स्वामी / उ. (1) वासुदेव नियाणे (निदान) के फल स्वरूप बनते हैं। (2) बत्तीस हजार राजाओं के अधिपति / (3) सोलह हजार देवों के अधिपति। (2) उनकी माता सात महास्वप्न (4) नव निधान एवं चौदह रत्नों के देखती है। स्वामी / (3) कृष्णवर्णीय /
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________________ (4) बीस लाख अष्टापद जितने उ. (1)समस्त शलाका पुरूष देवलोक या शक्तिशाली / नरक से ही आते हैं। (5)सोलह हजार देशों एवं सोलह (2)तीर्थंकर नियमतः मोक्षगामी होते हैं। हजार नरेशों के अधिपति / (3)चक्रवर्ती दीक्षा लेता है तो स्वर्ग (6)सोलह हजार रानियाँ / अथवा मोक्ष में जाता है। दीक्षा न ले (7)तीन खण्डों के अधिपति / तो अवश्यमेव नरकगामी होता है। (8)सात रत्नों के स्वामी / (4)वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव अन्तराय प्र.50. बलदेव की व्याख्या कीजिये / कर्मोदय से छोटा प्रत्याख्यान भी उ. (1) बलदेव और वासुदेव, दोनों भाई होते हैं। नहीं कर पाते हैं और मरकर उनके पिता एक एवं माता नियमतः नरक में ही जाते हैं। अलग-अलग होती है। (5)वासुदेव की मृत्यु के उपरान्त (2) माता चार महास्वप्न देखती है। वैराग्यवासित होकर बलदेव दीक्षा (3)बलदेव का छोटे भाई वासुदेव से लेता है और मोक्ष अथवा देवलोक में अतिशय प्रेम होता है कि मरने के जाता है। बाद भी उसे जीवितं समझकर छह (6)तीर्थंकर से तीर्थंकर, चक्रवर्ती से माह तक अपने पास रखते हैं। चक्रवर्ती, चक्रवर्ती से वासुदेव एवं * (4)बलदेव की चार हजार देव आज्ञा वासुदेव से वासुदेव कभी नहीं शिरोधार्य करते हैं। मिलते हैं। (5)इनके हल, मूसल आदि शस्त्र होते (7)तीर्थंकर और चक्रवर्ती मिलते हैं, जैसे-ऋषभ और भरत। प्र.51. प्रतिवासुदेव की कौनसी विशिष्टताएँ (8)तीर्थंकर और वासुदेव मिलते हैं, होती है? यथा-नेमिनाथ और श्रीकृष्ण। उ. (1) निदानपूर्वक होता है। (9) तीर्थंकर उसी भव में चक्रवर्ती भी बन (2)तीन खण्ड से कुछ कम का सकते हैं, यथा-शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, ___ अधिपति होता है। अरनाथ। (3) उसकी मृत्यु निश्चित् रूप से वासुदेव (10) एक समय में एक साथ एक के द्वारा होती है। तीर्थंकर एवं एक चक्रवर्ती होते हैं प्र.52. त्रिषष्ठिशलाका पुरूषों की पूर्व भव .. अथवा एक तीर्थंकर, वासुदेव, ___ एवं परभव की विशेषता बताओ। बलदेव एवं प्रतिवासुदेव होते हैं।
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________________ सिद्ध परमात्मा का स्वरूप प्र.53.सिद्ध किसे कहते है? शरीर ही नहीं है तो उसकी लम्बाई उ. जिन्होंने आठों कर्मों का सर्वथा नाश का कथन असंगत प्रतीत होता है। कर दिया हैं एवं जन्म-मरण के कुचक्र तो क्या सिद्ध सशरीरी होते हैं? से मुक्त हो चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहा उ. नामकर्म, जो शरीर का कारण है, जाता है। उसका सम्पूर्ण क्षय हो जाने के कारण प्र.54.सिद्ध परमात्मा कहाँ रहते हैं? शरीर नहीं होता है परन्तु यहाँ उ. उर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्ध विमान से आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से शरीर कहा बारह योजन ऊपर पैंतालीस लाख गया है। योजन लम्बी-चौड़ी, गोल तथा मध्य में प्र.57.ठीक है, यह बात तो समझ में आ आठ योजन मोटी अर्जुन-सुवर्णमय गयी, परन्तु इतने छोटे से स्थान में छत्राकार शिला है, वहाँ सिद्ध आत्माएँ अनन्त जीव भला कैसे समा सकते स्थित रहती हैं। इसके मुक्ति, मोक्ष, मुक्तालय, सिद्धक्षेत्र, निर्वाण, उ. जिस प्रकार ज्योति में ज्योति निःसंकोच सिद्धशिला आदि अनेक नाम शास्त्रों में समा जाती हैं, एक-दूसरे में बाधक वर्णित हैं। नहीं बनती हैं, उसी प्रकार सीमित क्षेत्र प्र.55.सिद्धों का संस्थान-आकार कैसा में अनन्त आत्माएँ समा जाती हैं। कहा गया है? प्र.58. क्या जैन धर्मी ही सिद्ध बन सकते उ. बैठे, सोये, खड़े जैसी स्थिति में जीव हैं अथवा अजैन भी? का निर्वाण होता है, सिद्ध रूप में भी उ. वह हर जीव सिद्ध बन जाता है, जो वैसा ही आकार रहता है। उनकी आठों कर्मों का क्षय कर देता है। जैन जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ दर्शन अनेकान्तवादी है। यहाँ अंगुल प्रमाण एवं उत्कृष्ट रूप से 303 जैन-अजैन का कोई प्रश्न नहीं है। धनुष 1 हाथ 8 अंगुल प्रमाण कही गयी जीवाभिगम आदि सूत्रों में सिद्धों के पन्द्रह भेद कहे गये हैं, जिसमें एक भेद प्र.56. परन्तु महाराज श्री ! जब सिद्धों के अन्यलिंग सिद्ध है। इसका अर्थ है कि *****************_ 20 **** ** ***
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________________ जिसके जिनेश्वर प्ररूपित वेश, (7) किसी ज्ञानी से ज्ञान पाकर सिद्ध . रजोहरण आदि न हो, वल्कल, गेरुआ बने हो, वे बुद्धबोधित सिद्ध जैसे वस्त्र हो, फिर भी आत्म भावों में रमण अतिमुक्तक / करके सिद्ध बन सकते हैं। जैसे (8) पुरुष के रूप में सिद्ध होने वाले वल्कलचिरी / पुरूषलिंग सिद्ध जैसे पुण्डरीक प्र.59.सिद्ध भगवंतों के ज्ञान-दर्शनादि स्वामी। समान होते हैं या नहीं, यदि समान (9) स्त्री के रूप में सिद्ध होने वाले होते हैं तो पन्द्रह भेद क्यों? स्त्रीलिंग सिद्ध जैसे मृगावती / उ. उनके ज्ञानादि अनन्त गुण समान होते हैं -- (10) कृत्रिम नपुंसक के रूप में सिद्ध होने उसमें बिल्कुल भी भेद नहीं होता है परन्तु वाले नपुंसकलिंग सिद्ध जैसे पन्द्रह भेद निर्वाण काल की अवस्था के गांगेय अणगार / आधार पर किये गये हैं जैसे (11) जैन साधु के वेष में सिद्ध होने वाले (1) तीर्थ की स्थापना के बाद सिद्ध स्वलिंग सिद्ध जैसे सुधर्मास्वामी / होने वाले तीर्थ सिद्ध जैसे गौतम (12) अन्य वेश में सिद्ध होने वाले गणधर / अन्यलिंग सिद्ध जैसे वल्कलचिरी। (2) तीर्थ-स्थापना से पूर्व सिद्ध होने (13) गृहस्थ के वेश में सिद्ध होने वाले वाले अतीर्थ सिद्ध जैसे मरूदेवी गृहलिंग सिद्ध जैसे मरुदेवी माता। माता / (3) तीर्थंकर बनकर सिद्ध होने वाले (14) अकेले सिद्ध होने वाले एक सिद्ध तीर्थंकर सिद्ध जैसे ऋषभादि। जैसे महावीर। (4) तीर्थंकर नहीं परन्तु केवली के रूप (15)अनेक जीव एक साथ सिद्ध होने में होने वाले अतीर्थंकर सिद्ध वाले अनेक सिद्ध जैसे ऋषभ, जैसे चन्दनबाला। पार्श्वनाथ / (5) जो स्वयं ही बोध प्राप्त करके सिद्ध प्र.60. जब आठों कर्मों का क्षय हो जाता है, बने, वे स्वयंबुद्ध सिद्ध जैसे तब उनमें कौनसे गुण प्रकट होते हैं? अनन्त तीर्थंकर | उ. (1) ज्ञानावरणीय कर्म क्षय से (6) किसी विशेष निमित्त को पाकर केवलज्ञान। प्रतिबुद्ध होकर सिद्ध बने, वे (2) दर्शनावरणीय कर्म क्षय से केवल प्रत्येकबुद्ध सिद्ध जैसे दुर्मुख / ___ दर्शन /
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________________ (3) वेदनीय कर्म क्षय से अनन्त सुख। (4) मोहनीय कर्म क्षय से क्षायिक चारित्र / (5) आयुष्य कर्म क्षय से अक्षय स्थिति। (6) नाम कर्म क्षय से अरूपीत्व / (7) गोत्र कर्म क्षय से अगुरुलघुत्व। (8) अन्तराय कर्म क्षय से अनन्त शक्ति / प्र.61.कर्म-मुक्त होने पर जीव सीधा उपर की ओर ही क्यों जाता है? उ. तुम्बे की तरह निर्लेप होने से, एरण्ड बीज की तरह निर्बंध होने से तथा उर्ध्वगमन जीव का स्वभाव होने से आत्मा दायें-बायें-नीचे न जाकर सीधे उपर,लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) पर स्थित हो जाता है। उसके आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से नहीं जाता है। प्र.62. यदि जीव इस प्रकार मोक्ष में जाते रहेंगे तो क्या संसार खाली नहीं हो जायेगा? उ. नहीं। संसार में मोक्षगामी भव्य जीव अनन्त हैं। अनन्त का अन्त असंभव है। यदि अन्त होना सम्भव होता तो अब तक हो चुका होता क्योंकि अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी से जीव निरंतर मोक्ष में जा रहे हैं। निगोद के एक शरीर में जो अनन्त जीव है, वह भी आज तक खाली न हुआ, न होगा तो फिर संसार के जीव-रहित होने की कल्पना ही कैसे की जा सकती है! 22
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________________ मुनि जीवन की पहचान प्र.63.मुनि जीवन की संक्षिप्त व्याख्या प्र.64.साधु के लिये श्रमण, माहण, क्या है? ___ अणगार आदि अनेक शब्द सुनते उ. जो पंच महाव्रतों एवं विविध उत्तर व्रतों हैं, इनका अर्थ वैशिष्ट्य समझाईए। की आराधना करते हैं, वे मुनि कहलाते उ. (1)साधु-पंच महाव्रतों की साधना हैं। करने वाला। पंच महाव्रत-(1) अहिंसा- किसी भी (2)श्रमण- स्वावलम्बी / छोटे-बड़े, सूक्ष्म-बादर, त्रस-स्थावर __ (3)अणगार-निजी घर का अभाव / जीव की विराधना का तीन योग (4)माहण-किसी भी जीव का हनन न (मन-वचन-काया) से एवं तीन करण करने वाला। (करना-करवाना-अनुमोदना करना) (5)मुनि- मौन को धारण करने वाला। से त्याग करते हैं। (6) भिक्षु - निर्दोष भिक्षा से जीवन (2) सत्य- हास्य, भय, क्रोध, मान, निर्वाह करने वाला। माया, लोभ युक्त असत्य का तीन योग (7) निर्ग्रन्थ- जिसमें राग-द्वेष की ग्रन्थि एवं तीन करण से त्याग करते हैं। . न हो। (3-5)अचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रहजो तीन करण एवं तीन योग से चोरी. प्र.65.जैन साधु स्नान क्यों नहीं करते हैं? अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह का त्याग करते - उ. सोलह शृंगारों में स्नान पहला शृंगार 7. है। स्नान करने से राग भाव बढ़ता है। उत्तर गुण (1) रात्रि भोजन का त्यागकरना। अन्यों के मन में विकार जगाने में प्रबल (2) बयालीस दोषों से रहित कल्पनीय निमित्त होने से साधु स्नान का त्याग एवं प्रासुक आहार लेना / करते हैं। (3)ब्रह्मचर्य की नववाडों का पालन प्र.66. जैन साधु के कौन-कौनसे उपकरण करना / होते हैं? (4)शरीर की शोभा-विभूषा का त्याग उ. 1. रजोहरण (ओघा)- किसी भी करना। स्थान पर बैठने से पहले साधु ओघे से (5)लोच, पद-विहार आदि कष्ट सहन स्थान की प्रमार्जना करते हैं / करना। ___2. मुँहपत्ति- बोलते समय मुँहपत्ति
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________________ लगाते हैं ताकि उड़ने वाले संपातिम अधिक सामग्री स्वीकार नहीं करता है जीव-कीट, पतंग, मच्छर आदि और उसमें मोह रहित होने से मुँह में न जाये, थूक न उछले, अपरिग्रही ही है। वायुकाय के जीवों को किलामना प्र.68.गौचरी किसे कहते हैं एवं गौचरी (पीड़ा) न हो। के बारे में क्या-क्या नियम हैं? 3. आसन– बैठते समय उपयोगी उ. जिस प्रकार गाय अलग-अलग स्थानों उपकरण / से थोड़ा-थोड़ा आहार लेती है, उसी 4. पात्र- आहार लाने व करने का प्रकार साधु अनेक घरों से, उपकरण। उच्च-नीच-मध्यम, सभी कुलों से 5. डंडासन- रात्रि में दीपक के समान थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है अतः इसे संयम पालन हेतु उपयोगी गौचरी कहते है। गौचरी को माधुकरी, उपकरण। गर्तपूर्णिका आदि भी कहा जाता है। 6.7. चद्दर-चोलपट्टक (पहनने का साधु निमित्त की, सामने लायी हुई, वस्त्र) (8) डंडा (9) ठवणी (10) सचित्त-संयुक्त आदि बयालीस दोषों पुस्तक (11) नवकारवाली (माला) का त्याग करके एवं दातार की शक्ति, (12) पूंजणी (पात्र प्रतिलेखन हेतु) भक्ति, स्थिति आदि देखकर आहार (13) कामली आदि। ग्रहण करता है। नहीं तो पुनः बनाने से प्र.67.जब साधु को अपरिग्रही कहा गया उसे दोष लग सकता है अथवा वह है तब इतनी वस्तुएँ रखने से कुपित, खिन्न, अश्रद्धान्वित हो सकता उनको परिग्रह का दोष नहीं लगता? साधु अतिभोजन गरिष्ठ, विकारवर्द्धक, उ. नहीं! यह सब जिनाज्ञानुसार ही है। बाजार में बनी एवं स्वादपोषक सामग्री साधु इन्हें संयम पालन के लिये रखता से दूर रहते हैं। है, परन्तु वह यदि इनका व्यवस्थित प्र.69.क्या जैन साधु जैन घरों से ही उपयोग न करें और इनमें मूर्छित हो आहार ले सकते हैं अथवा अन्य जाये तो उसे परिग्रह का दोष लगता घरों से भी? है। शास्त्रों में कहा गया कि साधु वस्त्र, उ. जैन-अजैन कोई भी घर हो, साधु उस पात्र पर तो क्या, शरीर पर भी ममत्व हर घर से आहार ले सकते हैं,जहाँ शुद्ध नहीं रखता है। निर्दोष, प्रासुक (अचित्त) आहार मुनि मूल्यवान्, मर्यादा एवं जरुरत से उपलब्ध हो / केवल उन घरों से
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________________ व गौचरी लेने का निषेध हैं, जो लोक में वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि गृहस्थ को निंद्य एवं घृणित हो। देने वाले साधु के लिये प्रायश्चित्त का प्र.70.क्या गौचरी में लायी हुई वस्तु विधान किया गया है। क्योंकि इससे गृहस्थ को वापस दे सकता है? असंयती का पोषण और असंयम की सामान्यतया साधु के पात्र में आने के अनुमोदना होती है। बाद आहार उसका हो जाता है, अतः प्र.72.साधु का आहार करना, कर्म बंधन वापस देना निषिद्ध है परन्तु जोर - का कारण है अथवा कर्म निर्जरा जबरदस्ती कोई पदार्थ पात्र में। का? रख देता है और जिसका कोई भी साधु उपयोग नहीं करता है तो उसे तत्काल उ. साधु की हर क्रिया कर्म निर्जरा का वापस किया जा सकता है। कारण बनती है बशर्ते वह शास्त्रानुसार चूर्ण, गोली, मरहम आदि दवा में प्रयुक्त हो। साधु आहार करता है तब भी कर्म होने वाली वस्तुएँ आवश्यकतानुसार निर्जरा होती है क्योंकि वह काम में लेकर शेष वापस दी जा सकती स्वाद-पोषण के लिये नहीं, अपितु हैं। शरीर को टिकाकर संयम साधना में वस्त्र और पात्र के लिये यह नियम है अभिवृद्धि के लक्ष्य से आहार करता है। कि वे काम नहीं लिए जाये, तब तक प्र.73.क्या शास्त्रों में साधु के आहार लौटाये जा सकते हैं, काम में लेने के करने अथवा छोड़ने के कारण बाद नहीं। बताये गये हैं? काष्ठपट्ट, बाजोट, सुई, कैंची, उ. कोई भी साध स्वाद-पोषणार्थ गौचरी नेलकटर, पेन-पेन्सिल आदि संयम नहीं करता और कोई भी साधु क्रोधादि साधना में उपयोगी वस्तुएँ काम में कारणों से गोचरी नहीं छोड़ता अपितु लेकर वापस दी जा सकती हैं। ऐसी काम में लेकर वापस की जा दोनों में संयम शुद्धि व वृद्धि का ही भाव सकने वाली वस्तुओं को जैन-ग्रन्थों में रहता है। 'पडिहारी' और नहीं दी जा सकने कोई भी साधु छह कारणों से आहार वाली वस्तुओं को 'अपडिहारी' कहा लेता हैगया है। (1) भूख को शांत करने के लिये। प्र.71.क्या साधु अपनी वस्तु गृहस्थ को दे (2) आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी आदि सकते हैं? ___ की वैयावच्च (सेवा) करने के लिये। उ. नहीं! आगमों में अपनी खाद्य सामग्री, (3) ईर्या समिति का पालन-आहार **************** 25 ****************
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________________ नहीं करने से आँखों में अंधेरा आने लगता है। (4) संयम का पालन / (5) प्राण-जीवन की रक्षा / (6) स्वाध्याय-ध्यान की साधना / साधु आहार छोड़ता है, तब भी छह कारणों से(1) रोगोत्पत्ति / (2) नृप, स्वजन-परिजन, देव, तिर्यंच आदि का उपसर्ग उपस्थित होने पर। (3) ब्रह्मचर्य-पालन / (4) जीव-दया / (5) तपश्चर्या | (6) अन्तिम संथारा करके शरीर को छोड़ने के लिये। प्र.74.साधु का जीवन खुली पुस्तक के समान एवं स्फटिकवत् पारदर्शी कहा गया है, तो फिर वे आहार गृहस्थों से छिपकर क्यों करते हैं? उ. साधु के पात्र में सरस-नीरस, रूखे-सूखे, विविध भोज्य पदार्थ आते हैं। गृहस्थ सरस, स्वादिष्ट आहार देखकर अश्रद्धान्वित हो सकता है कि देखो! यह जीवन कैसा? न परिश्रम करना, न कमाना। अच्छी सामग्री लाना/खाना, यही साधु का कार्य है। दूसरी तरफ नीरस, फीके, रूखे-सूखे पदार्थ देखकर सोच सकता है कि मैं तो दीक्षा नहीं लूंगा। ऐसे पदार्थ मैं तो नहीं खा सकता। अतएव सरस या नीरस पदार्थ देखकर संयम एवं श्रद्धा भावों में हानि एवं किसी की कुदृष्टि से भोजन का अपाचन, उदरशूलादि की संभावना के कारण गृहस्थों के सम्मुख साधु को गौचरी करने की प्रभु की मनाही है। प्र.75.महाराजश्री! - हमने सुना है कि कदाचित् गौचरी ज्यादा होने से साधु उसे परठ देते हैं पर वह आहार किसी भूखे, गरीब को दे दिया जाये तो क्या आपत्ति हो सकती है? इसमें जिनाज्ञा कारण है और उसमें वैज्ञानिकता की रोशनी है। पहली बात कि गृहस्थ, जो अविरति में है, उसे साधु आहार देगा तो असंयम का पोषण होगा। दूसरी बात यह कि भोजनदाता के विश्वास का खण्डन एवं चोरी होगी क्योंकि वह पंचमहाव्रतधारी के लिये ही देता है। तीसरी बात-इस प्रकार तो साधु प्रतिदिन अधिक-अधिक लाकर परिवार एवं गरीबों का पोषण करने लग जायेगा। प्र.76.प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के पाँच एवं शेष बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के चार महाव्रत होते हैं, ऐसा फर्क किस कारण है? उ. आदिनाथ एवं महावीर के साधु पंचमहाव्रती होते हैं, शेष बाईस
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________________ तीर्थंकरों के साधुओं के चतुर्थ उ. एक ही स्थान में रहने से आलस्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत को पंचम परिग्रह प्रमाद एवं राग-भाव बढ़ता है। शनैः महाव्रत में शामिल किया शनैः संयम में शिथिलता आ जाती है गया है क्योंकि स्त्री भी एक प्रकार ‘एवं साधु सुखशील बन जाते हैं। कदाच का परिग्रह ही है। उसको पंचम मंगू आचार्य की भाँति दुर्गति भी हो महाव्रत में शामिल करने से चार सकती है। ग्रामानुग्राम विचरण करने महाव्रत ही होते हैं। से संयम में जागरूकता बनी रहती है प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड़ एवं उपदेश, धर्मकथा आदि से धर्म का अर्थात् सरल एवं भोले होने से उनसे प्रचार होता है। संयम का जगत में गलती होनी संभवित हैं एवं महावीर के गुणगान होता है। साधु तर्कबाज होने से कुतर्क करके प्र.79.यदि विहार करने की जिनाज्ञा है तो स्खलना कर सकते हैं, अतः इन चातुर्मास किस कारण? साधुओं के पंच महाव्रत होते हैं। उ. परमात्मा महावीर ने नवकल्पी विहार मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों के साधु का आचरण फरमाया है। चार माह एक सरल एवं प्रज्ञायुक्त होने से प्रायः जगह, शेष आठ महिनों में साधु एक गलती नहीं करते हैं, अतः उनके चार स्थान पर एक माह से अधिक नहीं रूक महाव्रत कहे गये हैं। सकता है। रुग्णता, अध्ययन आदि इसी प्रकार आदिनाथ एवं महावीर के विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक साधुओं के लिये दोष लगे अथवा न स्थिरवास कर सकता है / लगे, प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है चातर्मास में वर्षा के कारण जीवोत्पत्ति * जबकि अजितनाथ से पार्श्वनाथ के विशेष रूप से होती है अतः हिंसा की साधु दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते संभावना अधिक होने से साधु चातुर्मास में विहार नहीं करते हैं। प्र.77.क्या पडिलेहण करनी जरूरी है ? प्र.80.महाराजश्री ! आप पद-विहार क्यों उ... अहिंसा-पालन एवं जीव दया के लिये करते हैं? निजी वाहन में तो हिंसा वस्त्र, पात्र आदि समस्त उपकरणों को होती है पर सार्वजनिक बस, रेल विधिपूर्वक देखने की प्रक्रिया को आदि में कोई बैठे या न बैठे,वह पडिलेहण कहा जाता है। यह दो बार चलती ही है तो क्या उसका अवश्य करणीय है। उपयोग आप नहीं कर सकते? प्र.78. साधुओं को विहार क्यों करना चाहिये? उ. पद - विहार साधु-चर्या का अनिवार्य
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________________ है। अंग है। यदि आप ऐसा कहते हैं कि महावीर प्रभु का हर सिद्धान्त बस, ट्रेन आदि आपके निमित्त वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है जबकि नहीं चलती है अतः उपयोग करना पद-यात्रा में तो ऐसी कोई बात श्रमण-आचार के विरुद्ध नहीं है तो भी नजर नहीं आती। गलत ही है क्योंकि गाड़ी में बैठने से उ. बिल्कुल! पद-यात्रा का सिद्धान्त साधु उसके द्वारा होने वाली हिंसा का संयम की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है, अनुमोदक अवश्य होता है जबकि वह वैज्ञानिक दृष्टि से भी उतना ही विशिष्ट तीनों करण से हिंसा का त्यागी है। दूसरा कारण-पद-विहार करने से 1. वर्तमान का प्रमादी व्यक्ति पद ग्रामानुग्राम विचरण होने के साथ विहारी न होकर सर्वथा वाहन साथ अप्रमत्तता का पोषण होता है विहारी हो गया है। दस-बीस कदम अन्यथा छोटे छोटे गांवों में होने वाला जाना हो तब भी वह वाहन की विहार बंद हो जायेगा। सहायता लेता है, ऐसी स्थिति में तीसरा कारण –साधु स्वावलम्बी होता शारीरिक अवयवों का उपयोग है, वह किसी के आश्रय से जीवन न होने से व्यक्ति अल्पावधि में ही . निर्वाह नहीं करता है। निष्क्रिय हो रहा है। चौथा कारण-पद विहार करना 2. चलने से घुटने, पांव आदि का जिनाज्ञा की उपासना है और वह व्यायाम होता है, शरीर में स्फूर्ति बनी महान् फल देने वाली है। यह कहना भी रहती है। अप्रमाद आदि गुणों का अनुचित ही है कि भगवान महावीर के समय बस, ट्रेन, प्लेन आदि नहीं थे अतः 3. पद-विहार से मोटापा नहीं आता। प्रभु के त्याग था पर उस समय अश्व, मोटापा विविध रोगों को आमंत्रण बैल, ऊँट, रथ आदि तो थे ही। साधु देने वाली पत्रिका है। मोटापे का जीवन त्यागमय होता है। वह शब्द से आलस आता है और आलस से से ही नहीं, आचरण से भी अहिंसा एवं डायबिटीज, अपाचन आदि करुणा का संदेश-उपदेश देता है। बीमारियां उग्ररुप धारण कर लेती कबीर ने बहुत अच्छा कहा है हैं। फलतः व्यक्ति रूग्ण हो जाता है। कोई चाले हाथी घोडा, पालखी मंगाय के आज डॉक्टर प्रातः भ्रमण (Morning साधु चाले पैया-पैया, कीडी को बचाय के !! Walk) को विविध रोगों का प्रभावक प्र.81.पर महाराजश्री! आप कहते हैं कि उपाय मानते हैं जिसकी प्ररुपणा *************** 28 **************** रक्षण होता है।
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________________ भगवान महावीर 2500 वर्ष पूर्व कर उ. रात्रि में नहीं दिखने से मार्ग की चुके हैं। प्रमार्जना करते हुए चलना असंभव है, 4. मिट्टी व भूमि में चुम्बकीय ऊर्जा एवं उस समय हिंसक पशु एवं दुष्ट विद्यमान है। इस ऊर्जा से व्यक्ति लोगों का उपद्रव हो सकता है। इन प्राणवान्, स्वस्थ व रोग मुक्त रहता कारणों से जिनेश्वर परमात्मा ने हैं। इसीलिए साधु बिना चप्पल आदि रात्रि-विहार का निषेध किया है। के विहार करता है। प्र.84.क्या साधु चातुर्मास में विहार कर प्र.82.साधु पद विहारी न होकर वाहन सकते हैं? विहारी हो जाये तो जनकल्याण उ. विशेष परिस्थिति में विहार करने का अधिक हो सकता है। क्या काल स्थानांग सूत्र में कथन किया गया है। परिवर्तनानुसार यह सुविधा उचित जैसे राजविरोध उत्पन्न हो जाये, दुर्भिक्ष नहीं है? होने से भिक्षा न मिले, गाँव/नगर से उ. नहीं! बिल्कुल नहीं! साधु आत्म कोई बाहर निकाल दे, बाढ आ जाये, साधक है, न कि प्रचारक / जीवन और चारित्र का नाश करने वाले स्वकल्याण के बाद जनकल्याण है। दुष्ट लोगों का उपद्रव उपस्थित हो जिनाज्ञा, अहिंसा एवं. अपरिग्रह को जाये। इन पाँच कारणों से साधु ताक पर रखकर न स्वकल्याण संभव चातुर्मास के पहले पचास दिनों में है, न परकल्याण। विहार कर सकते हैं। शास्त्रज्ञानार्जन, वाहनधारी के अहिंसा एवं अपरिग्रह आचार्य-उपाध्याय सेवा, चारित्रमहाव्रत खण्डित होने से साधुत्व नहीं रहेगा। राग, प्रमाद आदि दोष बढ़ेंगे, संरक्षण आदि कारणों से शेष 70 दिनों गाँव-गाँव में विहार न होने में भी विहार किया जा सकता है। से जनकल्याण के मार्ग अवरुद्ध हो प्र.85.साधु-साध्वी को किस क्षेत्र में जायेंगे। इन सबके परिणामस्वरूप चातुर्मास करना चाहिये? क्या आपकी प्रीति, श्रद्धा एवं आपका उ. 1. जहाँ अध्ययन–अध्यापन एवं समर्पण अखण्ड रह पायेगा? स्वाध्याय-ध्यान-साधना हेतु हमेशा यह बात याद रखना कि साधु उचित स्थान हो / के लिये स्वकल्याण पहले है और 2. लघुनीति-बड़ीनीति विसर्जन हेतु परकल्याण बाद में है। निरवद्य स्थान उपलब्ध हो / .. प्र.83. रात्रि में विहार की जिन-आज्ञा 3. निर्दोष एवं प्रासुक गौचरी सुलभ हो। क्यों नहीं है? * ************ 29 * *
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________________ 4. साधुओं के प्रति श्रद्धा एवं आदर की प्रवाह सन्तुलित हो जाता है / ज्ञान __ भावना हो। तन्तु सक्रिय होते हैं। इसे एक्युपंक्चर प्र.86. साधु को शास्त्रों में निर्भय कहा है भी कहा जा सकता है। यदि कोई तो फिर वे डण्डा क्यों रखते हैं? साधुता की हर उपासना करने में समर्थ उ. डण्डा किसी को डराने, पीटने अथवा हो पर उससे लोच न हो सके तो वह मारने के लिये नहीं अपितु नदी पार मुण्डन भी करवा सकता है, यह करते समय उसकी गहराई जानने के कल्पसूत्र में कहा गया है। लिये रखते हैं। प्र.90. आगमों में कौन-कौनसे विशेष पद प्र.87. तो क्या साधु चलकर नदी पार कर कहे गये हैं? सकते हैं? उ. 1. गणधर- तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य उ. हाँ! कर सकते हैं परन्तु तब, जब कोई अथवा मुनियों की दैनिक दूसरा मार्ग न हो। परन्तु इसमें भी साधनाओं का ध्यान रखने वाले। शास्त्रीय नियम है कि पानी गहरा हो, 2. आचार्य-पंचाचार के पालक, डूबने का भय हो तब नाव का संघ-शासन में जिनाज्ञा का प्रवर्तन आगम-प्रमाण से उपयोग किया जा करने वाले। सकता है। उस समय चलकर नदी पार 3. उपाध्याय- सूत्र-अर्थ की वाचना करना शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना देने वाले। है। 4. प्रवर्तक- साधुओं को योग्यतानुसार प्र.88. साधु कामली का उपयोग क्यों करते तप, वैयावच्च, संयम आदि में प्रवृत्त करने वाले। उ. भगवती सूत्रानुसार सूक्ष्म अप्कायिक 5. स्थविर- संयम से डिगते हुए जीवों की वृष्टि होने से ऊनी कामली ___साधुओं को स्थिर करने वाले। का उपयोग करते हैं ताकि उन जीवों 6. गणी- गण (साधु-समुदाय) की को किलामणा (पीडा) न हो। सार संभाल करने वाले। प्र.89.जैन साधु लोच क्यों करते हैं? प्र.91. दस प्रकार के यतिधर्म कौनसे हैं ? उ. जैन साधु स्वयं पर आश्रित है। यदि उ. मोक्ष मार्ग में यत्न करने वाला यति और मुण्डन आदि करें तो अन्यों पर निर्भर उसका धर्म यतिधर्म कहलाता है, जिसके रहना होगा, जिससे उसकी साधुता दस भेद शास्त्रों में वर्णित हैखंडित होगी। लोच करने से रक्त 1. क्षमा- प्राणी मात्र के प्रति मैत्री रखते हुए क्रोध, अपमान, प्रहार, *************** 30 * ********* **
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________________ वैर-विरोध करने वाले के प्रति प्र.92. साधु के बाईस परीषह कौनसे हैं ? करूणा रखना क्षमा है। उ. (1) क्षुधा (भूख) (2) पिपासा (प्यास) (3) 2. मार्दव- नम्रता रखना। जाति, शीत (4) उष्ण (5) दंशमशक (मच्छरों का कुलादि का अभिमान नहीं करना। उपद्रव) (6) अचेल (वस्त्र त्याग) (7) अरति 3. आर्जव - आर्जव यानि सरलता। (8) स्त्री (9) चर्या (10) निषद्या (11) शय्या माया, प्रपंच, दम्भ का सर्वथा त्याग (12) आक्रोश (13) वध (14) याचना (15) करना। अलाभ (16) रोग (17) तृण-स्पर्श (18) 4. मुक्ति- निर्लोभी होना। किसी मल (मेल) (19) सत्कार (20) प्रज्ञा (21) प्रकार का लोभ न रखना। 5. तप- इच्छाओं पर नियमन करना। अज्ञान (22) सम्यक्त्व। 6. संयम- हिंसा, चोरी आदि से निवृत्त प्र 93. साधु के तीन मनोरथ कौनसे हैं ? होकर मूल एवं उत्तर गुणों का उ. (1) विपुल श्रुतज्ञान सीखना (2) एकल विहारी बनना (3) पण्डित मरण को प्राप्त पालन करना। 7. सत्य- हित, मित, निर्दोष, सत्य, करना। निरवद्य एवं मधुर वचनों का प्रयोग प्र.94. साधु की चार प्रकार की करना। सुखशय्या कौनसी हैं ? 8. शौच- मन, वचन, काया व आत्मा उ. सुखशय्या यानि सुख देने वाले स्थान - - से पवित्र होना। (1) जिनवाणी में श्रद्धा (2) परलाभ की 9. आकिंचन्य- परिग्रह व आसक्ति अनिच्छा (3) काम-भोग की अकामना (4) रहित होना। स्नान आदि की अनाकांक्षा / 10.ब्रह्मचर्य-मैथुन/कामभोग से विरत होना। * ************* ****************
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________________ पंच परमेष्ठी के रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्र.95.जैन ध्वज में कितने रंग होते हैं? अमल गुण प्रकट होने से अरिहन्त उ. पांच रंग- 1. श्वेत. 2. रक्त 3. पीत परमात्मा का श्वेत वर्ण कहा गया 4. हरा 5. काला। है। प्र.96. उपरोक्त पांच रंग किसके प्रतीक हैं? 5. चारों घाती कर्मों का सर्वथा क्षय होने उ. ये पांच रंग पंचपरमेष्ठी के प्रतीक हैं - से विश्व के समस्त चराचर, सूक्ष्म1.श्वेत वर्ण अरिहंत परमात्मा का स्थूल पदार्थों को हस्त आमलकवत् प्रतीक है। जानते हैं और स्फटिक की भांति 2.रक्त वर्ण सिद्ध परमात्मा का प्रतीक है। पारदर्शी, पवित्र एवं विशुद्ध परिणति को प्राप्त होने से अरिहंत का श्वेत 3.पीत वर्णआचार्यभगवंत का प्रतीक है। वर्ण कहा गया। 4.हरित वर्ण उपाध्याय भगवंत का प्रतीक है।। __ प्र.98.सिद्ध परमात्मा का रक्त वर्ण क्यों 5. कृष्ण वर्ण मुनि भगवंत का प्रतीक है। कहा गया? प्र.97. अरिहंत परमात्मा का वर्ण श्वेत क्यों / / खत क्या उ. 1. जो व्यक्ति परम स्वस्थ एंव रोग कहा गया? . रहित होता है, उसकी काया उ. 1. अरिहंत परमात्मा का ध्यान शुक्ल रक्तवर्णीय चमकदार प्रतीत होती है, होता है। उसी प्रकार सिद्ध परमात्मा अष्ट 2. वृषभ (बैल) का वर्ण श्वेत होता है कर्म रूपी रोग से मुक्त होकर परम और उसके द्वारा भूमि में धान्य का निरामय-निरोगी अवस्था को प्राप्त वपन होता है। उसी प्रकार हो चुके हैं, अतः सिद्ध परमात्मा का परमात्मा देशना के द्वारा भव्य वर्ण रक्त कहा गया। जीवात्माओं में सम्यक्त्व/संयम . 2. वशीकरण की साधना में व्यक्ति रूपी बीजारोपण करते हैं। रक्तवर्णीय वस्त्र, आसन, माला 3. अरिहंत परमात्मा का रक्त श्वेत आदि उपकरणों का उपयोग करता वर्णीय होता है। है, उसी प्रकार सिद्ध परमात्मा ने 4. कषाय, काम, अज्ञान आदि अठारह मिथ्यात्व, कषाय आदि समस्त कर्म पाप स्थानों के पाप-मल से सर्वथा शत्रुओं को वश में कर लिया है। शुद्ध उनकी आत्मा में केवलज्ञान, 3. जैसे अशुद्ध स्वर्ण में विविध द्रव्य यथाख्यात चारित्र आदि निर्मल, __ मिश्रित करके अग्नि में सुहागे आदि
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________________ कहा के सहयोग से गलाने पर जब रक्त आत्म विकास में अत्यन्त निपुण एवं अवस्था प्राप्त होती है तब सोना शुद्ध, पारगामी होते हैं। जिस प्रकार हरा चमकदार बन जाता है, उसी प्रकार वर्ण कषाय-क्षय में महत्त्वपूर्ण है और आत्मा तपाग्नि में तपकर द रोग मुक्त कषाय-विजय से समता आती है, होकर तेजोमय लाल वर्ण जैसा रूप उसी प्रकार आगम ज्ञान से समता धारण कर लेता है अतः सिद्धों का आती है और समता से रक्त वर्ण कहा गया। ज्ञान-विज्ञान का विकास होने से प्र.99.आचार्य भगवंत का पीत वर्ण क्यों उपाध्याय का हरा वर्ण कहा गया। कहा गया? प्र.101.मुनि भगवंत का वर्ण कृष्ण क्यों उ. 1. वन का राजा केशरी सिंह जब कहा गया? गर्जना करता है, तब समस्त वन्य उ. 1. जिस प्रकार एक व्यक्ति जब युद्ध प्राणी शांत होकर उसकी आज्ञा को भूमि में जाता हैं तब काले वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार आचार्य धारण करता है, उसी प्रकार साधु प्रवर जब जिनोक्त सूत्रों की आज्ञा कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करने के फरमाते हैं, तब समस्त श्रोता उनकी लिये संयम की रणस्थली में आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं, अतः उपस्थित होता है, अतः उसका केशरी सिंह के वर्णानुरूप आचार्य कृष्ण वर्ण कहा गया है। भगवंत का पीत वर्ण कहा गया। 2. जिस प्रकार काले रंग पर अन्य रंगों 2. आचार्य भगवंत तीर्थंकर की . का प्रभाव नहीं होता, उसी प्रकार अनुपस्थिति में सम्पूर्ण विश्व में साधु पर राग-द्वेष का प्रभाव नहीं स्वोपार्जित ज्ञान-विज्ञान की होनेसे उसका कृष्ण वर्ण कहा गया है। किरणों को प्रसारित करते हैं अतः प्र.102. सम्यज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप का इनका तेजोमय पीत वर्ण कहा गया। श्वेत वर्ण क्यों कहा गया? प्र.100. उपाध्याय भगवंत का वर्ण हरा क्यों उ. रत्नत्रयी एवं तप का वर्ण श्वेत कहा कहा गया? गया क्योंकि ये चारों आत्मा के मूल उ. 1. हरा वर्ण आँखों की रोशनी को बढाता है, गुण-धर्म है। धर्म आत्मा का उसी प्रकार उपाध्याय भगवंत विशुद्ध स्वभाव होने से इनका वर्ण आगम, शास्त्र, तत्त्व आदि का भी श्वेत कहा गया। पठन-पाठन करवाते हैं अतः श्रुत प्र.103. तो क्या महाराजश्री! इन श्वेत, रूपी नयन देने के कारण उपाध्याय रक्तादि वर्गों में कोई वैज्ञानिक भगवंत का हरित वर्ण कहा गया। कारण मौजद है? 2. उपाध्याय स्व-पर ज्ञान, ध्यान एवं उ. हाँ! जैन दर्शन का प्रत्येक सूत्र, मंत्र व * *** 33 ****************
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________________ सिद्धान्त वैज्ञानिकता की विभा से ओतप्रोत है। जरूरी है उस विज्ञान को प्रकट किया जाये। हमारे महान् आचार्यों ने हर सूत्र-सिद्धान्त पर गहरा विश्लेषण एवं मनन किया है। उन्हें अनावत्त कर विश्व साहित्य तथा विज्ञान पर महान् उपकार किया है। वे सिद्धान्त जीवन अभ्युदय एवं मानसिक शान्ति में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं। जैसे रात्रि भोजन का निषेध जीव दया के साथ स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी अत्यन्त उपयोगी है। आज चिकित्सक रात्रि भोजन, तामसिक, अतिभोजन का निषेध करते हैं, जिसे परमात्मा महावीर 2500 वर्ष पूर्व कह चुके हैं। ऐसे अनेकानेक तथ्य हैं जिनके प्रकटीकरण की अनिवार्य आवश्यकता है। इन पांचों वर्गों के संयोजन में विज्ञान की रोशनी भी रही हुई है। 1. हमारे मस्तिष्क तथा पृष्ठरज्जु में धुसर रंग का एक द्रव पदार्थ है, जो कि सम्पूर्ण ज्ञान शक्तियों का संवाहक है।'नमो अरिहंताण' इस परम पद का मस्तिष्क पर श्वेत वर्ण के साथ यदि जाप किया जाये तो ज्ञान तंतुओं को जागृत/विकसित करने वाला द्रव स्रावित होता है। ज्ञान संवाहक ग्रंथियाँ स्वतः सक्रिय होती हैं और अज्ञान आवरण विलीन होते जाते हैं। 2 'नमो सिद्धाणं' का जाप रक्त वर्ण से। **************** 34 यदि भृकुटि पर किया जाये तो तृतीय नेत्र जागृत होता है,पिच्यूटरी ग्लैण्ड (पीयूष ग्रंथि के) स्राव संतुलित होते हैं। आलस्य, प्रमाद और सुस्ती नौ दो ग्यारह हो जाते हैं तथा तन, मन व बुद्धि में नयी स्फूर्ति भर जाती है। 3. 'नमो आयरियाणं' पद के ध्यान से व्यक्ति की प्रवृत्ति, मानसिक स्थिति और आवेग नियन्त्रित होते हैं। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि इस पद का कण्ठ पर तेजोमय पीत वर्ण के साथ ध्यान करने पर मन, संतुलित, स्थिर, एकाग्र, निश्चित और पवित्र बनता है क्योंकि इससे कण्ठस्थ थाइराइड ग्लैण्ड के स्राव नियमित होते हैं। 4. 'नमो उवज्झायाण पद का हरा रंग है। हरा वर्ण शान्ति खुशहाली, समृद्धि का प्रतीक है और इनका स्थान हृदय है। अतः इस पद का हृदय पर जाप करें तो 'स्वतः स्वस्थता, शान्ति एवं आनंद से परिपूर्ण स्थिति बन जाती है। 5. पंचम पद का वर्ण है-काला। काला रंग बाह्य प्रभावों को रोकता है इसलिये छाता व न्यायाधीश एवं वकील का काला कोट होता है। इस पद का नाभि पर ध्यान करने पर राग-द्वेष के प्रभाव दूर हो जाते ****************
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________________ जैन क्रिया मीमांसा 1. अतिक्रमण का प्रतिक्रमण 2. समत्व की उपासना : सामायिक 3. चतुर्विंशतिस्तव और वंदनक 4. पापों की आलोचना : प्रतिक्रमण 5. संवर की साधना : प्रत्याख्यान
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________________ अतिक्रमण का प्रतिक्रमण प्र.104.प्रतिक्रमण किसे कहते है? उ. पापों से पीछे हटने की प्रक्रिया को प्रतिक्रमण कहते है। पूर्वकृत अपराधों एवं अतिचारों का मिच्छामि दुक्कडम् देकर प्रायश्चित्त करने को प्रतिक्रमण कहते है। प्र.105. प्रतिक्रमण को शास्त्रों में आवश्यक क्रिया क्यों कहा गया है? उ. दिन और रात्रि के अन्त में साधु और श्रावक के लिये अवश्यमेव करणीय है, अतः प्रतिक्रमण को शास्त्रों में आवश्यक क्रिया कहा गया है। प्र.106.आवश्यक कितने प्रकार के होते हैं? उ. छह प्रकार के-1. सामायिक 2. चतु विंशतिस्तव 3. वंदनक 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग 6. प्रत्याख्यान। प्र.107.आवश्यक जब छह प्रकार के कहे गये हैं तो फिर इसे प्रतिक्रमण क्यों कहा जाता है? उ. छह आवश्यकों में से प्रतिक्रमण आवश्यक सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण है, इसलिये इसे प्रतिक्रमण कहा जाता है। प्र.108.छह आवश्यक के क्रमिक कथन का कारण बताईए। उ. 1. किसी भी रोगी को यदि रोग मुक्त न होना है तो दो बातों का ज्ञान / आवश्यक है- 1. मैं रोगी हूँ। 2. ** ************* 37 मुझे रोग का परिहार करना है। इस हेतु व्यक्ति चिकित्सालय में जाता है। इसी प्रकार राग-द्वेष की बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति स्वस्थ होने के लिये 'मैं आत्मा हूँ और मुझे परमात्मा होना है। यह निश्चय करके सामायिक रूपी अस्पताल में प्रविष्ट होता है। (सामायिक आवश्यक) 2. रोगी सर्वप्रथम मुख्य चिकित्सक के पास पहुँचता है। चिकित्सक जांच करके सारी बातें परची पर अंकित करता है, उसी प्रकार चौबीस तीर्थंकरों का सानिध्य प्राप्त करके व्यक्ति उनकी स्तुति एवं भक्ति करता है। (चतु र्विंशति स्तव आवश्यक) 3. परची पर लिखित मुख्य बातों को समझने के लिये वह सहयोगी चिकित्सक (कंपाउंडर) के पास पहुँचता है, उसी प्रकार जिन प्ररूपित तत्त्व को समझने के लिए व्यक्ति गुरू महाराज के पास पहुँचता है और वंदना करता है। (वंदनक आवश्यक) 4. कंपाउंडर रोगी को याद करवाता है कि रोग कैसे हआ, फिर ****************
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________________ चिकित्सा करता है, वैसे ही गुरू 4. प्रतिक्रमण- पाप कर्मों से आत्मा महाराज के पास व्यक्ति कर्म की शुद्धि-विशुद्धि। व्याधि को समझकर प्रतिक्रमण के 5. कायोत्सर्ग- शरीर के प्रति ममत्व द्वारा दोषों की शल्य-चिकित्सा का त्याग। करता है। (प्रतिक्रमण आवश्यक) 6. प्रत्याख्यान- पाप कर्म से मुक्ति जैसे शल्य चिकित्सा के बाद रोगी एवं कर्म-निर्जरा। दवाई लेता है वैसे आत्मिक प्र.111. प्रतिक्रमण के पाँच प्रकारों को स्पष्ट स्वास्थ्य लाभ के लिए कायोत्सर्ग करो। रुप औषधि लेता है। (कायोत्सर्ग उ. 1. दिन भर में हुए पापों की आलोचना आवश्यक) के लिये दिवस के अन्त में किया 6. दवाई लेने मात्र से व्यक्ति स्वस्थ जाने वाला देवसिक प्रतिक्रमण। नहीं होता बल्कि परहेज भी जरूरी 2. रात्रि में हुए पापों की आलोचना के होता है। उसी प्रकार कायोत्सर्ग लिये रात्रि के अंत में किया जाने ' की औषधि लेने के उपरान्त वाला रात्रिक (राइ) प्रतिक्रमण। अतिचार, अनाचार आदि पापों का 3. पक्ष (15 दिन) में हुए पापों की त्याग/परहेज किया जाता है। आलोचना के लिये पक्ष के अन्त में (प्रत्याख्यान आवश्यक) किया जाने वाला पाक्षिक प्र.109.छह आवश्यकों को चिकित्सा के प्रतिक्रमण। . रूप में विभक्त करो। 4. चार माह में हुए पापों की 1. सामायिक - हॉस्पिटल आलोचना के लिये चार माह के 2. चतुर्विंशति स्तव - मेन डॉक्टर अन्त में किया जाने वाला 3. वंदनक - असिस्टेंट डॉक्टर चातुर्मासिक़ प्रतिक्रमण। 4. प्रतिक्रमण- ऑपरेशन 5. वर्ष भर में हुए पापों की आलोचना 5. कायोत्सर्ग- ड्रेसिंग - मेडिसीन के लिये वर्ष के अन्त में किये जाने 6. प्रत्याख्यान-प्रिकोशन ___ वाला सांवत्सरिक प्रतिक्रमण। प्र.110. छह आवश्यक के क्या लाभ हैं? प्र.112. प्रतिक्रमण कितने कारणों से किया उ. 1. सामायिक- समता में वृद्धि एवं सावद्य योगों से विरति। पाँच कारणों से2. चतुर्विंशति स्तव-गुणी के गुण- 1. मिथ्यात्व- यदि कुदेव, कुगुरू गान से गुणों की प्राप्ति। और कुधर्म में श्रद्धा रखी हो। 3. वंदनक- नीच र्गात्र का क्षय एवं 2. अविरति - र्जा कुछ सावद्य (पाप उच्च गोत्र की प्राप्ति। युक्त) प्रवृत्ति की हो। *************** 38 जाता है? उ.
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________________ 3. प्रमाद-आत्मकल्याण के लिये उ. नहीं, ऐसा नहीं है। खरतरगच्छ की उचित अवसर एवं समय का उपयोग परम्परा में सुबह प्रतिक्रमण के 'नहीं किया हो। लगभग अन्त में तथा शाम प्रतिक्रमण 4. कषाय-क्रोध-मान-माया- लोभ के प्रारंभ में चार चार स्तुतियों के द्वारा किया हो। एवं दोपहर को एक बार, इस प्रकार 5. योग- मन, वचन और काया की शास्त्रानुसार तीन बार देववंदन किया अशुभ प्रवृत्ति की हो। जाता है। प्र.113. छह आवश्यकों में से देव, गुरू व प्र.116.खरतरगच्छ में सामायिक विधि में धर्म के कितने आवश्यक हैं?. करेमि भंते सूत्र पहले, उ. 1.देव-(एक) चतुर्विंशतिस्तव आव- इरियावहियं बाद में की जाती है श्यक एवं प्रतिक्रमण में अड्ढाइज्जेसु 2. गुरू - (एक) वंदनक आवश्यक। नहीं कहा जाता है तथा सज्झाय 3. धर्म - शेष चार आवश्यक / भी नहीं करते हैं, इनके भी कारण प्र.114. महाराजश्री! प्रतिक्रमण एवं बताने की कृपा कीजिये। सामायिक में चरवले के अभाव में उ. 1. आगमों में सामायिक में पहले खड़े होने का निषेध किया जाता करेमि भंते सूत्र तत्पश्चात् है, इसका क्या कारण है? . इरियावही करने की आज्ञा है। उ. प्रमार्जन प्रतिक्रमण का एक महत्त्वपूर्ण 2. श्री जिनवल्लभसूरि, दादा श्री अंग है। चरवले के अभाव में व्यक्ति जिनदत्तसूरि, श्री जिनपतिसूरि, पृष्ठ भाग की, अग्र भाग की, घुटने समयसुंदरजी आदि द्वारा रचित आदि संधि द्वारों की प्रमार्जना नहीं समाचारी प्रकरणों में अड्ढाइ• 'कर पाएगा। अतः चरवले के अभाव ज्जेसु बोलने का निषेध किया गया में खड़े होने का निषेध किया जाता है। है। यह भेद केवल समाचारी का प्र.115. महाराजश्री! शास्त्रों में उपधान, है। उपवास आदि तपश्चर्या के दौरान 3. खरतरगच्छीय समाचारी प्रकरणों तीन बार देववंदन का कथन में श्रावकों के लिये सज्झाय बोलने किया गया है जबकि खरतरगच्छ का निषेध कहने के पीछे तर्क यह में एक बार ही देववंदन करने की है कि पूर्वकाल में प्रतिक्रमण के परम्परा दिखायी देती है, तो क्या बाद साधु एकत्र होकर आगमों का इसमें शास्त्राज्ञा का उल्लंघन स्वाध्याय करते थे, अतः साधु ही नहीं है? प्रतिक्रमण में सज्झाय बोलते हैं। ** ************ 39
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________________ "प्र.117. प्रतिक्रमण में छह आवश्यक कहाँ- 4. पुस्तक को योग्य स्थान पर कहाँ होते हैं? रखना। उ. सव्वस्सवि से प्रतिक्रमण की स्थापना 5. ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रतिदिन ज्ञान के से प्रतिक्रमण का प्रारम्भ होता है, पाँच खमासमणे देना, यथासंभव उसके बादः पाँच लोगस्स का कायोत्सर्ग 1. करेमि भंते से आठ नवकार के करना। कायोत्सर्ग तक प्रथम आवश्यक। 6. सूत्र का उच्चारण स्पष्ट एवं शुद्ध 2. तत्पश्चात् बोला जाने वाला रूप से करना। लोगस्स द्वितीय आवश्यक। 7. जल्दबाजी में अक्षर पर अक्षर चढ 3. तत्पश्चात् मुँहपत्ति प्रतिलेखन एवं ___ जाये, ऐसे नहीं बोलना। वन्दनक द्वय से तीसरा 8. गुरू भगवंत से गाथा लेने एवं आवश्यक। सुनाने से पूर्व वंदन करना। 4. तत्पश्चात् देवसिअं आलोउं से प्र.119.प्रतिक्रमण के सूत्र प्राकृत में होने आयरिय उवज्झाय तक चौथा से उनका अर्थ तो समझ में आता आवश्यक। नहीं है फिर उनका क्या लाभ है? . 5. तत्पश्चात् दो एवं एक-एक उ. वंदित्तु सूत्र की 38 वीं गाथा में कहा लोगस्स का किया जाने वाला गया है कायोत्सर्ग पाँचवां आवश्यक। जहा विसं कुटुंगयं, मंत मूल विसारया। 6. तत्पश्चात् मुँहपत्ति प्रतिलेखन विज्जाहणन्ति मन्तेहिं, तोतंहवइ निविसं।। द्वारा वंदनक देकर प्रत्याख्यान एक व्यक्ति, जिसे सर्प ने दंश दिया है, करना छट्ठा आवश्यक। वह व्यक्ति यद्यपि गारूडी मंत्राक्षरों प्र.118. सूत्र कंठस्थ करते समय किन का अर्थ नहीं जानता है तथापि उस तथ्यों का विशेष रूप से ध्यान मंत्र से विषमुक्त हो जाता है, वैसे ही रखना चाहिये? प्रतिक्रमण का हर सूत्र मंत्र स्वरूप है। उ. 1. पुस्तक को जमीन अथवा आसन उसका अर्थ नहीं आता है, फिर भी पर न रखकर ठवणी का उपयोग चेतन, मन एवं विचारों पर प्रभाव करना। अवश्यमेव पड़ता है। यदि अर्थ आता 2. पुस्तक को थूक नहीं लगाना। है तो और अधिक आनंद की प्राप्ति 3. पढते समय अवश्यमेव मुँहपत्ति का होती है। अतः अर्थ - बोध का प्रयत्न उपयोग करना। अवश्य करना चाहिये। ****** * *** 40 ****************
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________________ समत्व की उपासना : सामायिक उ. प्र.120.सामायिक किसे कहते है? प्र.123. करेमि भंते में छह आवश्यक किस उ. जिस क्रिया से समता रूपी प्रकार अभिव्यक्त होते हैं? लाभ-आय की प्राप्ति होती है, उसे उ. 1. (करेमि) सामाइयं - सामायिक सामायिक कहते है। 2. (करेमि) भंते - चतुर्विंशति स्तव कम से कम 48 मिनट तक समस्त 3. (तस्स) भन्ते - वंदनक पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करके 4. पडिक्कमामि- प्रतिक्रमण आत्म कल्याण हेतु स्वाध्याय, ध्यान 5. अप्पाणं वोसिरामि- कायोत्सर्ग आदि कार्य करना. सामायिक 6. पच्चक्खामि - प्रत्याख्यान कहलाता है। प्र.124.तपागच्छ में करेमि भंते एक बार प्र.121.महाराजश्री! हमने लोगों के मुख ही बोला जाता है, फिर खरतरगच्छ में से सुना है कि 'सामायिक में यदि तीन बार क्यों बोला जाता है? व्यक्ति 48 मिनट से ज्यादा बैठता कोई भी प्रतिज्ञा सूत्र तीन बार दोहराया जाता है। करेमि भंते सत्र है तो दोष लगता है अतः 48 पापकारी कार्यों के त्याग का संकल्प मिनट पूर्ण होते ही सामायिक पार सूत्र है, अतः इसे तीन बार बोला लेनी चाहिये' इस कथन की सत्यता प्रकट करें। छोटी दीक्षा के समय तपागच्छ की सामायिक का न्यूनतम काल 48 परम्परा मे भी तीन बार करेमि भन्ते मिनट का एवं अधिकतम छह माह है, बोला जाता है। साधु की छोटी दीक्षा अत: उससे पहले पारने पर दोष हो अथवा श्रावक की 48 मिनट की लगता है पर बाद में पारने पर नहीं। सामायिक, दोनों का सामायिक वैसे ही जैसे चार माह का वाहन चारित्र कहलाता है। त्यागी यदि उससे अधिक समय तक प्र125. श्रावक की सामायिक कितने योग वाहन का त्याग करता है तो हानि एवं करण से होती हैं? नहीं होती, अपितु लाभ ही होता है। उ. मन, वचन तथा काया, ये तीन योग प्र.122.सामायिक लेने का सूत्र कौनसा कहलाते हैं। करना, करवाना एवं अनुमोदन करना, ये तीन करण उ. करेमि भंते। कहलाते हैं। * ** **** **************** जाता है।
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________________ सामायिक में श्रावक तीन योगों एवं करें और एक व्यक्ति शुद्ध श्रद्धापूर्वक प्रथम दो करण से पाप क्रिया का एक सामायिक करें तो भी सामायिक त्याग करता है। अधिक लाभप्रद है। शुद्ध सामायिक प्र.126. तो क्या महाराज श्री! श्रावक व्रताराधना से जीव जघन्यतः तीन सामायिक में सावद्य (पापकारी) भवों में एवं उत्कृष्टतः 15 भवों में कार्यों की अनुमोदना कर सकता हैं? मोक्षगामी होता है। उ. बिल्कुल नहीं! यहाँ जिस अनुमोदना प्र.129. सामायिक में चार धर्मों का पालन की छूट का कथन किया गया है, वह किस प्रकार होता है? दुकान-मकान आदि से सम्बन्धित उ. 1. समस्त पाप क्रियाओं का त्याग होने होने वाले हिंसाकारी कार्यों का से व सकल सृष्टि को अभयदान से अत्याग होने से है, क्योंकि उनकी दानधर्म पलता है। . .. सूक्ष्म रूप से अनुमोदना चालू है। 2. विजातीय स्पर्श-संपर्क का त्याग परन्तु श्रावक सामायिक में चलाकर __ होने से शील धर्म पलता है। हिंसा, चोरी आदि की अनुमोदना 3. चारों आहारों का त्याग होने से तप कदापि नहीं कर सकता। धर्म पलता है। प्र. 127.सामायिक में करणीय एवं 4. धर्मध्यान होने से भावधर्म पलता है। अकरणीय कार्य बताओ। प्र.130. सामायिक में ऊनी आसन क्यों उ. 1. सामायिक में प्रवचन श्रवण, जाप, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, रखना चाहिए? तत्त्व - चर्चा, पुनरावर्तन आदि उ. ऊनी वस्त्र ऊर्जा को संग्रहित करता धार्मिक क्रियाएँ करनी चाहिये। है, अतः जाप आदि धर्म क्रिया से 2. सामायिक में निंदा, विकथा, उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा भूमि में अखबार अथवा स्कूलों की पुस्तकों जाने से रूक जाती है। उसका संग्रह का पठन आदि कार्य नहीं करने . त्रियोगों को एकाग्र, पवित्र एवं निर्मल चाहिये। इसी तरह सावद्य कार्यों बनाता है। का आदेश-उपदेश भी नहीं देना प्र.131.आसन, मुँहपत्ति और चरवले का चाहिए। कितना प्रमाण होना चाहिये? प्र.128. सामायिक का माहात्म्य बताओ। उ. 1. आसन- स्वयं की बैठक से डेढ उ. एक व्यक्ति एक वर्ष तक प्रतिदिन 20 गुणा (समचौरस)। मण की एक खण्डी और ऐसी एक 2. मुँहपति- एक वेंत चार अंगुल लाख खण्डी स्वर्ण मुद्राओं का दान प्रमाण (समचौरस)।
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________________ 3. चरवला- डण्डी 24 अंगुल प्रमाण प्र.135. सामायिक के कितने दोष कहे। एवं दस्सियाँ 8 अंगुल प्रमाण। गये हैं? प्र.132.एक साथ कितनी सामायिक ली उ. 10 मन के, 10 वचन के और 12 काया जा सकती है? के-कुल 32 दोष। उ. एक साथ दो सामायिक ली जा प्र.136. किनकी सामायिक जिनशासन में सकती है। प्रसिद्ध है? प्र.133.सामायिक में रहा हुआ साधक उ. पूणिया श्रावक एवं केसरी चोर की। बिना पारे और कितनी सामायिक प्र.137 सामायिक में बारह प्रकार के कर सकता है ? . तप किस प्रकार पलते हैं ? बिना पारे दो और सामायिक की जा उ. (1-4) सामायिक में भोजन का सर्वथा सकती है। परन्तु क्रिया में थोड़ा फर्क त्याग होने से अनशन, उणोदरी, होता है। सामायिक पारे बिना पुनः वृत्ति-संक्षेप एवं रस परित्याग, इन सामायिक लेने पर सबसे पहले चार प्रकार के तपों का स्वयमेव पालन मुँहपत्ति पडिलेहण पूर्वक तीन बार होता है। करेमि भंते बोलना चाहिये। (5) काय-क्लेश-पंखे आदि बाह्य इरियावही, बेसणो आदि करने की सुविधाओं का त्याग होता है। जरूरत नहीं होती। सज्झाय के (6) संलीनता-शरीर की क्रियाओं आदेश में 'सज्झाय में हूँ' ऐसा कहना कासंकोच किया जाता है। चाहिये। चौथी सामायिक लेने से (7) आलोचना-पूर्वकृत पापों की पुनः पहले सामायिक पारनी ही होती है। पुनः आलोचना, निंदा, गर्दा की जाती प्र.134. चलती हुई ट्रेन में सामायिक की जा सकती है अथवा नहीं? (8) विनय-गुरु आदि का विनय श्रीपाल-मयणा सुन्दरी के कथानक किया जाता है। में जहाज में सामायिक व्रत करने का (9) वैयावच्च-गुरु भगवंतों की सेवा प्रसंग आता है, उस आधार पर ट्रेन में की जाती है। सामायिक की जा सकती है परन्तु उसमें (10) स्वाध्याय- होता है। विजातीय, सचित्त आदि के संघट्टे का (11) धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान पूर्ण विवेक रखना चाहिये। ध्याया जाता है। (12) कायोत्सर्ग-किया जाता है। है।
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________________ चतुर्विंशतिस्तव और वन्दनक प्र. 138. चतुर्विंशति स्तव से क्या अभिप्राय है? उ. चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति/स्तवना करना चतुर्विंशति स्तव कहलाता है। यह आवश्यक लोगस्स सूत्र के द्वारा किया जाता है। प्र.139.वंदनक से क्या अभिप्राय है? उ. सद्गुरू के चरणों की वंदना एवं उनका गुणोत्कीर्तन करना वंदनक आवश्यक कहलाता है। प्र.140. वंदनक में मुँहपत्ति खुली क्यों रखी जाती है? उ. मुँहपत्ति में गुरू महाराज के चरण युगल की कल्पना करते हुए वंदनक में मुँहपति खुली रखी जाती है। . प्र.141. किसकी वंदना जगत में सुप्रसिद्ध है? उ. वासुदेव श्रीकृष्ण की। प्र. 142. वंदन कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. तीन प्रकार के 1. फेटा वंदन– मार्ग में गुरू भगवंत के दर्शन होने पर मत्थएण वंदामि से किया जानेवाला वंदन। 2. थोभ वंदन- पंचांग प्रणिपात अर्थात् इच्छकार एवं अमुट्ठियो से किया जाने वाला वंदन। 3. द्वादशावत वंदन- वंदनकद्वय (अहो कायं काय) से किया जाने वाला वंदन। प्र.143.अब्भुठ्ठियो का पाठ बोलते समय हाथ खुला रखना चाहिये या बंद? उ. अब्भुट्ठियो बोलते समय व्यक्ति गुरू के प्रति हुए अविनयादि व्यवहार की क्षमायाचना करता है, अतः गुरू महाराज के चरण स्पर्श का भाव धारण करते हुए हाथ खुला रखना चाहिये। प्र.144. ऐसा कौनसा सूत्र है, जिससे भगवान एवं गुरू महाराज, दोनों को वंदना की जाती है? उ. इच्छामि खमासमणो सूत्र। प्र.145. वंदन करते समय क्या . क्या सावधानी बरतनी चाहिये? 1. मार्ग में गुरू महाराज चल रहे हो तो तब मध्य में गुरू वंदन मात्र 'मत्यएणवंदामि कहकर करना चाहिए। 2. गुरू महाराज जब आहार, विहार एवं लघुनीति-बडीनीति हेतु उद्यत हो तब वंदना नहीं करनी चाहिए। 3. 'इच्छामि खमासमणो' बोलते समय 'मत्थएण वंदामि' उच्चारण के साथ सिर का भूमि से स्पर्श . होना चाहिये। 4. जब गुरू प्रशान्त एवं प्रसन्न मुद्रा में हो, आसन पर अप्रमत्त भाव से बिराजमान हो एवं वंदन करने वाले पर उनका ध्यान हो तब गुरू वंदन करना चाहिये। 5. मुनिवर, गुरू आदि से विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त कर रहे हो तो बीच में जाकर वंदन नहीं करके दूर से ही वंदन करना चाहिये।
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________________ . पापों की आलोचना : प्रतिक्रमण प्र.146. प्रतिक्रमण आवश्यक किसे कहते है? निर्मित होती है, उससे वीरतापूर्ण उ. श्रमण के द्वारा पंचमहाव्रत आदि रस स्रावित करने वाली ग्रंथियाँ श्रमणाचार में और श्रावक के द्वारा बारह सक्रिय होती हैं, अतः वंदित्तु सूत्र में व्रत आदि श्रावकाचार में जो अतिचार/ दायां घुटना ऊँचा किया जाता है। अनाचार का सेवन हुआ है, उनकी प्र.148.वंदितु सूत्र बोलते समय उसके आलोचना जिस आवश्यक के द्वारा होती बीच में खड़े क्यों होते हैं? है, उसेप्रतिक्रमण आवश्यक कहते है। उ. बारह व्रतों में लगे अतिचारों की प्र.147.प्रतिक्रमण में कभी बायाँ घुटना आलोचना करने के उपरान्त व्यक्ति और कभी दायाँ घुटना ऊँचा पाप के भार से हल्का हो जाता है, इस किया जाता है, इसका क्या कारण है? कारण वंदितु सूत्र के मध्य में खडा ___उ. 1. जब कभी विनय, नमन आदि भाव हुआ जाता है। प्रकट करने होते हैं, तब बायाँ प्र.149.प्रतिक्रमण आवश्यक के कौनघुटना ऊँचा किया जाता है। इस घुटने को ऊँचा करने से शरीर में वे उ.. * वंदित्तु, इच्छामि पडिक्कमिऊँ, सात ग्रन्थियाँ एवं रस स्रावित होते हैं, लाख, अठारह पाप स्थानक आदि। जिनसे विनय गुण पुष्ट एवं प्रकट प्र.150.ऐसा कौनसा शब्द है, जिससे होता हैं। जं किंचि, नमुत्थुणं आदि बार-बार प्रतिक्रमण किया जाता है? विनय प्रकट करने के सूत्र हैं, अतः उ. मिच्छामि दुक्कडम्। उस समय बायाँ घुटना ऊँचा प्र.151. कायोत्सर्ग से क्या अभिप्राय है? किया जाता है। उ. काया के प्रति आसक्ति का त्याग 2. दायाँ घुटना ऊँचा करके वंदित्तु करके आत्मध्यान में उपस्थित होना सूत्र के द्वारा व्यक्ति स्वयं के कायोत्सर्ग कहलाता है। दुष्कृत्यों की निंदा करने का प्र.152. कायोत्सर्ग के संदर्भ में आवश्यक वीरतापूर्ण कार्य करता है। दायां जानकारी दीजिये। घुटना ऊँचा करने से जो मुद्रा उ. 1. कायोत्सर्ग में दृष्टि नासिका के
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________________ नोनयन बंद अग्रभाग पर स्थापित करनी प्र.153. कौनसा प्रतिक्रमण सम्पूर्ण वर्ष में चाहिए। संभव न हो तो नयन बंद कितनी बार आता है ? कर लेने चाहिए। उ. (1) देवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण 2. कायोत्सर्ग में दोनों पाँवों के प्रतिदिन होता है। अग्रभाग में चार अंगुल एवं पीछे (2) पाक्षिक प्रतिक्रमण इक्कीस बार। चार अंगुल से कुछ कम प्रमाण (3) चातुर्मासिक प्रतिक्रमण तीन बार। अंतर रखना चाहिये। (4) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एक बार। 3. कायोत्सर्ग में चरवला बाये हाथ में प्र.154.प्रतिक्रमण किस-किसका किस होना चाहिये। उसकी डंडी बाहर सूत्र से किया जाता है ? की ओर निकली हुई होनी चाहिए। उ. (1)मिथ्यात्व का अठारह पापस्थानकों मुँहपत्ति दाये हाथ में रखनी के पाठ से। चाहिये। (2)अविरति का-इच्छामि पडिक्कमिउं 4. हाथ-पाँव हिलाये बिना एकाग्र एवं वंदित्तु सूत्र से। चित्त से कायोत्सर्ग करना चाहिये। (3)प्रमाद का-इरियावही, वंदित्तु से। लोगस्स आता हो तो लोगस्स से (4) कषायं का-अठारह पापस्थानक ही कायोत्सर्ग करना चाहिये। एवं इच्छामि पडिक्कमिउं से। नवकार गिनना लोगस्स नहीं आने (5) अशुभ योग का-सात लाख आदि की स्थिति में ही उपयुक्त है। से।
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________________ - संवर की साधना : प्रत्यारव्यान प्र.155.प्रत्याख्यान से क्या अभिप्राय है? बाद आता है। उ. पाप क्रिया का मर्यादा पूर्वक त्याग 5. अवड्ढ- सूर्योदय से तीन प्रहर करना प्रत्याख्यान कहलाता है। बाद आता है। प्र.156. प्रतिक्रमण में कौनसे प्रत्याख्यान 6. बियासना- दिन में दो बार ही लिये जाते हैं? आहार लेना। उ. 1. पाणाहार-गर्म (अचित्त) पानी 7. एकासना- दिन में एक बार ही युक्त यानि उपवास, आयम्बिल, आहार लेना। नीवी, एकासन, बियासन करने 8. नीवी- छह विकृतियों का त्याग वाले के पाणाहार का प्रत्याख्यान करके एक बार आहार लेना। होता है। 9. आयंबिल- छह विकृति, नमक 2. चौविहार- रात्रि में पानी का आदि मसालों से रहित उबला सर्वथा त्याग करने वाले के हुआ शुद्ध आहार लेना। चौविहार का प्रत्याख्यान होता है। 10.तिविहार उपवास - केवल 3. दुविहार- रात्रि में केवल पानी __ उबला हुआ पानी लेना। पीने वालों के दुविहार का प्रत्याख्यान होता है। तपागच्छ में 11.चौविहार उपवास - भोजन व तिविहार का प्रत्याख्यान होता है। पानी का सर्वथा त्याग करना। प्र.157.विविध प्रत्याख्यानों के संदर्भ में प्र.158. एक प्रहर तीन घण्टे का होता है जानकारी दीजिये। अथवा उससे कम-ज्यादा? उ. 1. नवकारसी- सूर्योदय से 48 उ. प्रहर का मान दिन-रात्रि के मान के __ मिनट बाद आती है। अनुसार बदलता रहता है। दिन चार 2. पोरिसी- सूर्योदय से एक प्रहर प्रहर का और रात्रि चार प्रहर की होती बाद आती है। है। जैसे यदि सूर्योदय 6 बजे और 3. साड्ढपोरिसी- सूर्योदय से डेढ सूर्यास्त 7 बजे होता है तो दिन 13 ___ प्रहर बाद आती है। घण्टे का होता है। एक दिन में चार 4. पुरिमड्ढ- सूर्योदय से दो प्रहर प्रहर होने से एक प्रहर 3 घण्टा 15
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________________ मिनट हुआ। इस समय के अनुसार(i) पोरिसी- 6 (सूर्योदय) + 3 घण्टा15 मिनट (1 प्रहर) = 9 बजे 15 मिनट। (ii) साड्ढपोरिसी - 6 (सूर्योदय) + 4 घण्टा 52 मिनट 30 सैकेण्ड (डेढ प्रहर) = 10 बजे 52 मिनट 30 सैकेण्ड़। (ii)पुरिमड्ढ - 6 (सूर्योदय) + 6 घण्टा 30 मिनट (दो प्रहर) = 12 बजे 30 मिनट। (iv)अवड्ढ-6 (सूर्योदय) + 9 घण्टा 45 मिनट = 3 बजे 45 मिनट / प्र.159. नवकारसी, पोरिसी कब लेने चाहिये? उ. नवकारसी, पोरिसी, साड्ढपोरिसी के प्रत्याख्यान सूर्योदय से पूर्व तथा पुरिमड्ढ, अवड्ढ के प्रत्याख्यान दिन के प्रथम प्रहर के अन्दर अन्दर लेने चाहिए। यह शास्त्रोक्त विधि है। कदाच सविधि नहीं हो पाये तो भी प्रत्याख्यान तो लेने ही चाहिये, उसका लाभ अवश्य प्राप्त होता है। प्र.160. महाराज श्री! पूर्व में रात्रि भोजन किया हो तो दूसरे दिन उपवास किया जा सकता है या नहीं? उपवास के संदर्भ में शुद्ध शास्त्रीय परम्परा इस प्रकार है कि उपवास के पूर्व दिन एवं पारणे के दिन एकासन तप करना चाहिए। इस प्रकार की परम्परा वर्तमान में लुप्त प्रायः हो चुकी है पर यह तो स्पष्ट ही है कि उपवास से पहली रात्रि में भोजन का सर्वथा निषेध करना चाहिये। प्र.161.प्रत्याख्यान के परिप्रेक्ष्य में किन किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये? उ. 1. एकासने का प्रत्याख्यान करने वाला प्रत्याख्यान पारने से पूर्व उससे बड़े यानि नीवी, आयंबिल, उपवास का प्रत्याख्यान कर सकता है. परन्तु छोटे प्रत्याख्यान यथा बियासना आदि नहीं कर सकता है। ,. 2. बियासने से उपवास तक के प्रत्याख्यान में अचित्त पानी का उपयोग होता है, कच्चे (सचित्त) पानी का नहीं। तीन बार उबाल आने पर ही पानी पूरी तरह अचित्त होता है। . 3. उपवास के पूर्व दिन गरिष्ठ एवं अधिक नमकीन भोजन का त्याग करना चाहिए। 4. प्रत्याख्यान में क्रोध, अहंकार एवं निंदा का त्याग एवं ब्रह्मचर्य पालन, आत्म चिंतन और स्वाध्याय ********* ***** 48
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________________ अवश्य करना चाहिए। प्रहर, तत्पश्चात् फाल्गुन चातुर्मास . 5. मंजन आदि करके नवकारसी तक चार प्रहर एवं आषाढ मास तक आदि प्रत्याख्यान नहीं किये जा पाँच प्रहर का कहा गया है। सकते हैं। प्र.163. महाराजश्री! खरतरगच्छ और 6. एकासन आदि करते समय पट्ट तपागच्छ की परम्परा में दुविहार स्थिर होना चाहिये / झूठे मुँह नहीं और तिविहार का भेद क्यों दिखायी बोलना चाहिए एवं उठते समय देता है? तिविहार का प्रत्याख्यान करना उ. शास्त्रीय कथन है- 'जत्थ जलं चाहिये। बियासने में दूसरा भोजन तत्थ वणं।' जहाँ जल है, वहाँ करने के बाद तिविहार का वनस्पति है। इसके आधार पर प्रत्याख्यान करना चाहिये। खरतरगच्छ में दुविहार का प्र.162. उपवास आदि में सचित्त जल को प्रत्याख्यान करके दो आहार अशन गर्म करके.अचित्त किया जाता है, और खादिम का त्याग किया जाता है इससे असंख्य जीवों की विराधना और जल एवं उसके अन्तर्गत होती है / प्रत्याख्यान में भला ऐसी वनस्पति की छूट रखी जाती है। जीव–हिंसा का क्या औचित्य है? प्र.164. महाराजश्री! खरतरगच्छ में श्रावकों को पाणस्स के छह उ. सम्भवतः आपको पता नहीं होगा कि आगार 'पाणस्स लेवेणवा अलेवेण पानी में प्रतिपल असंख्य जीव उत्पन्न वा......' बोलने का निषेध किया होते हैं एवं मृत्यु को प्राप्त होते हैं। गया है, जबकि अन्य परम्पराओं में जन्म मरण की इस अन्तहीन परम्परा ये आगार बोले जाते हैं, इस भेद को रोकने के लिये पानी गर्म किया का कारण शास्त्रीय है या जाता है। यद्यपि एक बार जीव हिंसा पारम्परिक? का दोष तो लगता है तथापि कुछ खरतरगच्छ की यह परम्परा घण्टों के लिये वह पानी अचित्त हो शास्त्रोक्त प्रमाणित है। इसके तीन जाता है जिससे जीवों के जन्म-मरण आधार हैकी हिंसा के महा-दोष से भी बचा 1. शास्त्रों में निषेध - श्री वृहद्जाता है। भाष्य में कहा है-'ए ए छ आगारा उष्ण जल का काल चातुर्मास में तीन
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________________ साहूणं न पुण सड्ढाणं / ' उष्ण जल चौविहार एवं एक दिन तिविहार से संबंधित छह आगार साधु के लिये उपवास करना चाहता है, तो वह हैं, श्रावकों के लिये नहीं। कैसे संभव होगा? 2. परम्परा - दादा श्री जिनदत्तसूरि 3. भगवती सूत्र के तृतीय एवं सप्तम ने इसका सूत्रपदोद्घट्टने एवं शतक में, आवश्यक चूर्णि इत्यादि जिनपतिसूरि ने समाचारी ग्रंथ में में एक साथ एक उपवास के इसका निषेध किया गया है। प्रत्याख्यान का कथन किया गया 3. साधु गौचरी जाते हैं अतः वे सभी है। प्रकार के प्रासुक जल ले सकते हैं प्र.166. छह आवश्यकों में से कितने किस पर गृहस्थ गौचरी नहीं जाता है, काल से सम्बंधित है ? .. अतः उसके लिये शुद्ध उष्ण जल उ. (1) अतीत से सम्बन्धित एक - ही ग्राह्य है। प्रतिक्रमण प्र.165. महाराजश्री! खरतरगच्छ में बेले, (2) भविष्य से सम्बन्धित एक - तेले, चोले आदि का एक साथ प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान क्यों नहीं करवाया (3) वर्तमान से सम्बन्धित शेष चार। जाता है? प्र.167.प्रतिक्रमण से किन गुणों की प्राप्ति उ. इसके संदर्भ में विद्वद्वर्य श्री होती है ? समयसुंदरोपाध्याय ने अनेक तर्क एवं उ. (1) सम्यक्त्व की प्राप्ति व उसकी शास्त्रीय प्रमाण समाचारी शतक में विशुद्धि। प्रस्तुत किये हैं यथा (2) विरति एवं विरक्ति। 1. एकाधिक उपवास कर्ता का मध्य (3) अप्रमाद की साधना। में प्रत्याख्यान खण्डित होने पर (4) कषाय - मुक्ति अथवा उसकी पूरा तप खण्डित होगा, जिससे मंदता। महान् दोष लगेगा। (5) शुभ योगों से पुण्यानुबंधी पुण्य का 2. दो उपवास वाला एक दिन संचय।
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________________ जैन तत्त्व मीमांसा 1. तत्त्वत्रयी : सुदेव, सुगुरु, सुधर्म * 2. रत्नत्रयी : सम्यज्ञान-दर्शन-चारित्र 3. अष्ट प्रवचन माता : समिति और गुप्ति 4. नवतत्त्व : जिनवाणी का सार
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________________ तत्त्वत्रयी : सुदेव, सुगुरु, सुधर्म प्र.168. तत्त्वत्रयी से क्या अभिप्राय है? उपद्रव नहीं होते हैं। उ. 1. सुदेव 2. सुगुरु 3. सुधर्म / 2. ज्ञानातिशय - परमात्मा संपूर्ण प्र.169.सुदेव किसे कहते है? लोकालोक को द्रव्य, क्षेत्र, काल, उ. जो मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद भाव से जानते हैं। आदि दोषों से मुक्त हो चुके हैं और 3. वचनातिशय-परमात्मा की वाणी दूसरों को भी मुक्त करने वाले हैं, जो एक योजन (13 कि.मी.) तक तिर गये और दूसरों को भी तारने सुनायी देती है एवं हर भाषा वाला वाले, आत्मबोध देने वाले हैं, उनको उसे समझ जाता है। उनकी सुदेव कहते हैं। अरिहंत एवं सिद्ध पैंतीस गुणालंकृत वाणी से समस्त परमात्मा सुदेव कहलाते हैं। शंकाओं का निवारण होता है। प्र.170.अरिहंत परमात्मा कितने गुणधारी श्रोता को ऐसा प्रतीत होता है कि होते हैं? . परमात्मा मेरी भाषा में कह रहे हैं। उ. अरिहंत परमात्मा के बारह गुण - वर्तमान में संसद भवन में भी इस 1. अशोक वृक्ष 2. सुरपुष्प वृष्टि 3. प्रकार के यंत्र लगे हुए हैं कि कोई दिव्यध्वनि 4. चामर युगल 5. स्वर्ण सांसद मराठी में बोलता है पर सिंहासन 6. भामण्डल 7. देव-दुंदुभि प्रत्येक सांसद को अपनी अपनी 8. छत्रत्रय 9. अंपायापगमातिशय 10. (तमिल, तेलगु, गुजराती आदि) ज्ञानातिशय 11. वचनातिशय 12. भाषा में सुनाई देता है। पूजातिशय। इनमें से प्रथम आठ 4. पूजातिशय- इन्द्र, देव, देवी, प्रातिहार्य और शेष चार अतिशय मनुष्य, तिर्यंच, सभी प्रभु की पूजा कहलाते हैं। करते हैं, यह परमात्मा का प्र.171. चार अतिशय से क्या अभिप्राय है? _पूजातिशय है। उ. 1. अपायापगमातिशय - अपाय प्र.172.सिद्ध परमात्मा के कितने गुण यानि उपद्रव। अपगम-नाश / होते हैं? जहाँ परमात्मा विचरते हैं,वहाँ चारों उ. आठ गुण-1. अनन्त ज्ञान 2. अनन्त दिशाओं में 25 योजन तक एवं दर्शन 3. अनन्तचारित्र 4.अनन्तवीर्य ऊपर नीचे साढ़े बारह योजन तक, (शक्ति) 5. अव्याबाध सुख 6.अक्षय इस प्रकार कुल 125 योजन पर्यन्त स्थिति 7. अगुरुलघुत्व 8. अरूपीत्व / रोग, महामारी, अतिवृष्टि आदि प्र.173.सुगुरू किसे कहते है? ***************** 53 ******* ** *****
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________________ उ. उ. जो पंचमहाव्रतों का एवं समिति-गुप्ति का जिनाज्ञानुरूप पालन करते हैं, वे सुगुरू कहलाते हैं। आचार्य, उपाध्याय और मुनि सुगुरू कहलाते हैं। प्र.174.सुधर्म किसे कहते है? उ. परमात्मा द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को सुधर्म कहा जाता है। मुख्य रूप से धर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैअहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह / प्र.175. महाराजश्री! वर्तमान में हम देख रहे हैं कि एक जीव को बचाने में, रात्रि भोजन के त्याग में धर्म मान रहा है और दूसरा यज्ञ, बलि, रात्रि भोजन आदि में धर्म कह रहा है, ऐसी स्थिति में सच्चा कौन है, यह कैसे तय किया जा सकता है? हिंसा करना अधर्म है। धर्म उसे कहते है जो दुर्गति में गिरते हुए जीव को धारण करता है। आगम हो या वेद और गीता, बाइबिल, कुरान या गुरू ग्रन्थ साहिब हो, हर ग्रन्थ में कहा गया है कि जो तुम्हें अच्छा नहीं लगता, वह दूसरों के साथ मत करो। जैसे तुम्हें दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है, वैसे ही हर जीव को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। जब हमारे पाँव में एक कांटा चुभता है, तब भी सहन नहीं होता तो फिर किसी जीव के प्राण लेना उसे कैसे सह्य हो सकता है। इसलिए सिद्धांत का निर्णय निर्मल बुद्धि के द्वारा करना चाहिये कि वस्तुतः सत्य क्या है? हर बात को आत्मकल्याण के लक्ष्य से देखना चाहिये, यही धर्म और अधर्म का मापदण्ड है। प्र.176.महाराजश्री! हम तो साक्षात् ही देखते हैं कि बलि, यज्ञ आदि से वांछित फल की प्राप्ति होती है, फिर उन्हें अधर्म कैसे माना जा सकता है? माना कि बलि, यज्ञ आदि से वांछित फल की प्राप्ति होती है पर वह भी पुण्याधीन है। पापकारी तथा हिंसक प्रवृत्तियों से कंदाच् मनोरथ सिद्ध हो जाये परन्तु वे भी अन्ततः दुःख के ही कारण बनते हैं। जैसे किंपाक फल का स्वाद प्रथम क्षण में मधुर एवं स्वादिष्ट प्रतीत होता है परन्तु आने वाले क्षणों में वह जीव को यमलोक भेज देता है। धर्म तो उसे ही कह सकते हैं, जो समस्त इच्छाओं के जाल से मुक्त करके भगवान बना देता है। इसलिए अन्तहीन इच्छाओं की पूर्ति के साधनों को नहीं बल्कि इच्छा मुक्त बनाने वाले साधनों को ही धर्म कह सकते हैं। इसी प्रकार सुदेव भी उन्हें कहा जाता है, जो वीतराग बन चुके हैं और सुगुरू उन्हें ही कहा जा सकता है, जो वीतराग बनने की दिशा में गतिशील रहते हुए सभी को वीतराग बनने की प्रेरणा देते हैं।
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________________ रत्नत्रंयी- सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्र.177.रत्नत्रयी से क्या अभिप्राय है? उ. सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रयी कहा जाता प्र.178. सम्यक्दर्शन किसे कहते है? . उ. सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा-आस्था रखना, सम्यक्दर्शन कहलाता है। प्र.179. सम्यक्ज्ञान किसे कहते है? उ. जिसके द्वारा आत्मा को, आत्मा के हित-अहित को जाना जाता है, उसे सम्यक्ज्ञान कहते है। प्र.180. सम्यक्चारित्र किसे कहते है? उ. जो आत्मा में संचित कर्मों को . रिक्त/ खाली करता है, उसे __. सम्यक्चारित्र कहते है। प्र.181. रत्नत्रयी का महत्व समझाईए। उ. 1. सम्यक्दर्शन के कारण जीव को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होता है। मैं शुद्धात्मा हूँ परन्तु मिथ्यात्व, कषाय, प्रमाद आदि कारणों से संसार में भटक रहा हूँ। अब मुझे मुक्ति पद प्राप्त करना है, यह भावना जगाने वाला ************* * 55 सम्यक्दर्शन है। शास्त्रों में इसे ही निर्वाण का मूल कहा गया है। 2. 'पढमं नाणं तओ दया' एवं 'नमो नमः सुयदिवायरस्स' इन सूत्रों में ज्ञान की महिमा गायी गयी है। ज्ञान होने के बाद ही दया तथा संयम धर्म का पालन हो सकता है। श्रुत ज्ञान ही विश्व में धर्म का उद्योत करता है। पूर्वभव में प्रतिदिन पाँच सौ बार पुण्डरिककण्डरिक अध्ययन का आवर्तन करके पालने में ही वज्रस्वामी ने ग्यारह अंगसूत्र कण्ठाग्र कर लिये। ज्ञान की महिमा में यहाँ तक कहा गया है कि प्रतिदिन नया श्रुतज्ञान सीखने वाला जीव तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है। 3. शास्त्रों में कहा गया- चारित्तं खलु धम्मो। वास्तव में चारित्र ही धर्म है। चारित्र बिना कोई भी आत्मा न मोक्ष में गयी है, न जायेगी। यह चारित्र धर्म का ही प्रभाव है, जो ******* ********
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________________ समस्त कर्म क्षय कर जीव को संसार चक्र से मुक्त करता है। प्र.182. रत्नत्रयी के उपकरण बताईए। उ. 1. जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, स्थापना चार्य, सम्यक्दर्शनी आदि सम्यक् दर्शन के उपकरण हैं। 2. आगम, शास्त्र, पुस्तक, ठवणी, नवकारवाली, कलम आदि ज्ञानोपकरण हैं। 3. आसन, मुँहपत्ति, रजोहरण (चरवला), डंडासन, पात्र, वस्त्र आदि चारित्रोपकरण हैं। ** * *** *** * 56 *** * * *****
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________________ अष्ट प्रवचन माता : समिति और गुप्ति प्र.183.अष्टप्रवचन माता से क्या अभिप्राय है? पनिका समिति 6. मनोगुप्ति 7. वचन उ. पाँच समिति और तीन गुप्ति को गुप्ति 8. काय गुप्ति। अष्टप्रवचन माता कहते है। प्र.186. समिति के पाँच प्रकारों को स्पष्ट प्र.184.अष्ट प्रवचन माता को साधु की कीजिये। ___माता क्यों कहा जाता है? . . उ. 1. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विशुद्धि, उ. 1. द्वादशांगी स्वरूप प्रवचन जयणा एवं संयम के लक्ष्य से चार (जिनवाणी) की जन्मदात्री होने से हाथ प्रमाण आगे की भूमि को समिति-गुप्ति को माता कहते है। एकाग्रतापूर्वक देखते हुए गमना2. जिस प्रकार एक माँ संतान के गमन करना ईर्या समिति हित-अहित का ध्यान रखती हुई कहलाती है। उसका लालन-पालन करती है 2. हित, मित, प्रिय, निरवद्य एवं एवं उन्नति की कामना करती है, असंदिग्ध भाषा का प्रयोग करना उसी प्रकार समिति एवं गुप्ति रूप भाषा समिति कहलाती है। अष्ट प्रवचन (जिनाज्ञा) माता 3. शुद्ध, कल्पनीय आहार, वस्त्र, संयमी के हित-अहित का ध्यान पात्र, शय्या आदि की संयमपूर्वक रखती है, उसे दोषों से बचाती है, गवेषणा/खोज करना एषणा गुणों का प्रकटीकरण करती है समिति कहलाती है। तथा सर्वोत्कृष्ट उन्नति रूप 4. वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि सिद्धत्व की आभा से परिपूर्ण उपकरणों को उपयोगपूर्वक बनाती है। देखकर एवं रजोहरण से प्रमार्जना प्र.185.अष्ट प्रवचन माता के कितने भेद करके लेना एवं रखना आदान . होते हैं? भण्डमत्त निक्षेपण समिति उ. आठ भेद- 1. ईर्या समिति 2. भाषा कहलाती है। समिति 3. एषणा समिति 4. आदान 5. मल, मूत्र, कफ, श्लेष्म आदि भंडमत्त निक्षेपण समिति 5. पारिष्ठा अनावश्यक वस्तुओं को निर्दोष **************** 57 ** * ********
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________________ स्थान पर परठना पारिष्ठापनिका प्र.188. समिति और गुप्ति में क्या अन्तर है? समिति कहलाती है। उ. 1. समिति में अशुभ का त्याग प्र.187. गुप्तित्रय के स्वरूप पर प्रकाश किया जाता है जबकि गुप्ति में डालिये। योग संबंधी समस्त शुभाशुभ 1. मनोगुप्ति-शुभ एवं अशुभ मान प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग किया सिक विचारों को अवरूद्ध करके जाता है। मन को आत्ममय बनाना या मन 2. समिति में विवेक एवं जयणा की मुख्यता होती है जबकि गुप्ति में को रोकना। पाँच इन्द्रियों एवं मन का सर्वथा 2. वचनगुप्ति- शुभ-अशुभ भाषा गोपन होता है। का त्याग करके मौन धारण 3. निरवद्य भाषा का प्रयोग करना करना। समिति है परन्तु सर्वथा मौन धारण 3. कायगुप्ति- उठना, बैठना आदि करना गुप्ति है। जयणापूर्वक समस्त कायिक प्रवृत्तियों से निवृत्त चलना समिति है और अप्रकंप एवं होकर कायोत्सर्ग करना। स्थिर होकर ध्यान करना गुप्ति है। ********** * * * 58 ****************
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________________ नवतत्त्व : जिनवाणी का सार प्र.189. तत्त्व नौ ही क्यों कहे गये? शाता, समृद्धि, यश आदि प्राप्त करता उ. इन नवतत्त्वों में सम्पूर्ण सृष्टि है, उसे पुण्य कहते है। इसके समाविष्ट हो जाती है। जीव की बयालीस भेद कहे गये हैं। निगोद से लेकर सिद्ध पद की सारी प्र.194. पुण्य कितने प्रकार का कहा गया यात्रा इसमें आ जाती है। समस्त तत्त्वों का इनमें अन्तर्भाव हो जाने से उ. दो प्रकार कानवतत्त्व ही कहे गये। (1)पुण्यानुबंधी पुण्य- जो पुण्य नये प्र.190. नव तत्त्व कौनसे हैं ? पुण्य के बंध में कारण बनता है, उ.. (1) जीव (2) अजीव (3) पुण्य (4) पाप शुभ तथा अच्छे की ओर प्रेरित (5) आश्रव (6) बंध (7) संवर (8) करता है, जैसे किसी को धन निर्जरा (9) मोक्ष / मिला, यह पुण्य का परिणाम है प्र.191.जीव किसे कहते है? और वह उस धन को परोपकार, उ. जो जीवन जीता है, प्राणों को धारण सुपात्रदान में खर्च करता है तो करता है तथा जिसमें चेतना है, उसे नया पुण्य बंधता है, इसे जीव कहते है। चलना-फिरना, रोना पुण्यानुबंधी पुण्य कहा जायेगा। -हँसना, श्वासोच्छवास आदि क्रियाएँ जैसे - पुण्य के उदय से शालिभद्र जिसमें होती है, वह जीव है। अतुल सम्पत्ति का स्वामी बना और प्र.192.अजीव किसे कहते है? अन्त में उनकी नश्वरता का शाश्वत उ.. जीव तत्त्व से विपरीत जिसमें चेतना बोध प्राप्त करके एकावतारी देव बना। नहीं है एवं जिन्हें सुख-दुःख की (2)पापानुबंधी पुण्य- वह पुण्य, जो अनुभूति नहीं होती है, उन्हें अजीव पाप, अशुभ, अनैतिकता, बुराई, कहते हैं। जैसे गाड़ी, कपड़ा, मकान, हिंसा आदि गलत प्रवृत्तियों की फर्नीचर आदि। ओर ले जाता है। जैसे—धनी प्र.193. पुण्य किसे कहते है? व्यक्ति का दुराचार, मदिरापान, उ. जिसके कारण जीव अनुकूलता, व्यसन, हिंसा, आदि में प्रवृत्त
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________________ उ. 1. होना। जैसे - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने की भाँति कोई व्यक्ति बीमार पुण्य के उदय से षट्खण्ड का पड़ा और वह बीमारी में मन ही मन साम्राज्य पाया पर उसकी आर्तध्यान, क्रोध, खेदादि करके आसक्ति में बंध- कर महापाप नये पाप का बंध करता है उसे कर्मों का संचय किया और मरकर पापानुबंधी पाप कहते है। सातवीं नरक में गया। (2)पुण्यानुबंधी पाप- जो पाप प्र.195. पुण्य कितने कारणों से बन्धता हैं? उदयकाल में पुण्य का बंध 1. अन्न पुण्य-पात्र कोअन्न दान से। करवाता है। जैसे-पाप के उदय 2. जल पुण्य-पात्र को जल दान से। से सनत्कुमार चक्रवर्ती को सोलह 3. लयण पुण्य-पात्र को स्थान- रोगों का उपसर्ग आया परन्तु उस दान से। दुःख में भी समता रखकर वे 4. शयन पुण्य-पात्र को शय्या आदि देवलोक में गये। इसे पुण्यानुबंधी के दान से। पाप कहते है। 5. वस्त्र पुण्य-पात्र को वस्त्र देने से। प्र.198. पाप कितने कारणों से बंधता है? 6. मन पुण्य-शुभ विचार से। अठारह कारणों से- (1) हिंसा (2) 7. वचन पुण्य-शुभ वचन से। असत्य (3) चोरी (4) अब्रह्मचर्य (5) 8. काय पुण्य-शुभ प्रवृत्ति से। परिग्रह (6-9) क्रोध- मान- माया9. नमस्कार पुण्य-देव, गुरु, गुणी लोभ (10-11) राग-द्वेष (12) कलह को नमन-विनय करने से। (झगड़ा) (13) अभ्याख्यान (झूठा प्र.196. पाप किसे कहते है? कलंक लगाना) (14) पैशुन्य (चुगली) उ. जिस कारण जीव दुःख, अपयश, (15) रति-अरति (सुख में आनंद एवं गरीबी, कुरूपता आदि पाता है। दुःख में शोक) (16) परपरिवाद इसके 82 भेद कहे गये हैं। (परनिंदा) (17) माया मृषावाद (कपट प्र.197.पाप कितने प्रकार के कहे गये हैं? युक्त झूठ बोलना) (18) मिथ्यादर्शन उ. दो प्रकार के शल्य (गलत धारणा)। (1)पापानुबंधी पाप- जो पाप नये प्र.199.आश्रव किसे कहते है? पाप का बंध करवाता है। पाप उ. पुण्य-पाप रूप कर्मों के आत्मा में के उदय से कालसौकरिक कसाई आने के द्वार को आश्रव कहते हैं।
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________________ इसके पाँच कारण है- मिथ्यात्व, प्र.204.धर्म और पुण्य में क्या अन्तर है? अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग। उ. धर्म आत्मा का परिणाम है जबकि पुण्य प्र.200.बंध किसे कहते है? शुभ कर्म-पुद्गल रूप है अतः एक उ. आत्मा के साथ कर्मों का जुड़ना/ जीव है और दूसरा अजीव। धर्म मिलना बंध कहलाता है। प्रकृति (समता, सरलता, निर्लोभता आदि) आदि चार प्रकार के बंध का विवेचन आत्मा की पवित्र साधना है। इससे कर्म पदार्थ की व्याख्या में किया गया जीव का कल्याण होता है परन्तु पुण्य की इच्छा से पाप होता है अतः प्र.201.संवर किसे कहते है? सामायिक, प्रतिक्रमण, सुपात्र दान उ. संवर आश्रव का विपरीत तत्त्व है। आदि धर्म की भावना से करने चाहिये, आत्मा में आते हुए नये कर्मों को न कि सत्ता, सम्पत्ति, पुत्र आदि की रोकना संवर कहलाता है। संवर पाँच इच्छा से। प्रकार से होता है (1) सम्यक्त्व (2) व्रत/ प्र.205. नव तत्त्वों में हेय, ज्ञेय एवं उपादेय महाव्रत (3) अप्रमाद (4) * कषाय- तत्त्व कितने हैं? मुक्ति (5) अयोग। उ. (1)हेय- छोड़ने योग्य-पुण्य, पाप, प्र.202.निर्जरा किसे कहते है? . आश्रव, बंध। ___उ. यह बंध का विपरीत तत्त्व है। आत्मा (2) ज्ञेय- जानने योग्य-जीव व से जुड़े कर्मों का कुछ अंशों में नष्ट अजीव। होना निर्जरा कहलाती है। अनशन, (3)उपादेय- अपनाने योग्य-संवर, ऊणोदरी; रस परित्याग, प्रायश्चित्त, निर्जरा और मोक्ष। पुण्यानुबंधी स्वाध्याय आदि बारह प्रकार के तप पुण्य की अपेक्षा से पुण्य को भी करने से निर्जरा होती है। उपादेय कहा गया है। प्र.203. मोक्ष किसे कहते है? प्र.206. नव तत्त्वों को समुद्र एवं नौका के उ. आत्मा से सम्पूर्ण कर्मों का अलग होना। मोक्ष कहलाता है। सम्यक्ज्ञान उदाहरण से समझाईए। दर्शन–चारित्र और तप से मोक्ष की ' ___ उ. (1)जीव- यह नौका स्वरूप है और प्राप्ति होती है। इसकी प्राप्ति के बाद इधर-उधर भटक रहा है। जीव पुनः संसार में नहीं आता है। (2)अजीव- यह सागर स्वरूप है।
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________________ जीव के चारों तरफ अजीव रूपी पानी है। (3)पुण्य- नौका को जब अनुकूल वायु एवं जल प्रवाह मिलता है तब वह सही दिशा में चलती है, वैसे ही पुण्य रूप निरोगी शरीर, अनुकूल सामग्री आदि मिलने पर जीव संसार में सुखपूर्वक जीवन यात्रा करता है। (4)पाप- जिस प्रकार प्रतिकूल वायु, जल-प्रवाह होने पर नौका को खैना कठिन होता है, वैसे ही पाप रूप गरीबी, अपयश, रोग आदि प्रतिकूलता होने पर जीवन यात्रा कठिन हो जाती है। . (5)आश्रव- जैसे नौका में छिद्र होने पर पानी भरने लगता है और वह डूबने लगती है, वैसे ही आत्मा में राग, द्वेष, प्रमाद, कषाय आदि छिद्र हाने पर जीव कर्मों के भार से संसार रूपी सागर में डूबता जाता है। (6)संवर-जिस प्रकार कुशल नाविक छिद्रों को बंद करके नाव को डूबने से बचाता है, वैसे ही सम्यक्त्वी जीव त्याग, प्रत्याख्यान, अप्रमाद के द्वारा दोष रूपी छिद्रों को बंद करके कर्म-नीर का आगमन रोक देता है। (7)निर्जरा- नाव में भरे पानी को निकालने की भाँति जीवात्मा पूर्वकृत पाप कर्मों का जल तप रूपी बाल्टी से बाहर फेंकता है। (8)बंध- जिस प्रकार तट को पाये बिना नाव दिन-रात पानी में रहती है, इसी प्रकार मुक्ति पर्यन्त कर्म भी आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् जुड़े * रहते हैं। (9) मोक्ष-जैसे सुज्ञ नाविक सुरक्षित नाव को अच्छी तरह किनारे तक पहुँचा देता है, वैसे ही अहिंसा, संयम एवं तप से आत्मा मोक्ष रूपी मंजिल तक पहुँच जाता है।
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________________ जैन तत्त्व मीमांसा 1. निगोद से मोक्ष की यात्रा 2. जीव सृष्टि का परिचय 3. नरक : दुःखों का महासागर 4. देवलोक : सुख का कल्पवृक्ष 5. प्राण एवं पर्याप्ति का विवेचन
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________________ निगोद से मोक्ष की यात्रा प्र.207.संसार में जीवात्मा कब से भटक रहा है? उ. अनादिकाल से! इसका कोई प्रारंभिक बिन्दु नहीं है। प्र.208. जीव के कितने भेद कहे जा सकते हैं? उ. दो भेद- (1) अव्यवहार राशि और (2) व्यवहार राशि | प्र.209.अव्यवहार राशि के जीव किसे कहते है? . उ. जीव अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में है। जब तक वह सूक्ष्म निगोद से बाहर निकलकर पृथ्वीकाय आदि अन्य पर्याय में नहीं आता है, तब तक अव्यवहार राशि का जीव कहलाता (1)भव्य जीव- वह जीव, जो निगोद से निकलकर एक दिन मोक्ष में जायेगा। (2)अभव्य जीव- वह जीव, जो निगोद से बाहर निकलता है, यहाँ तक कि द्रव्य साधु बनकर उत्कृष्ट चारित्र का पालन करता है परन्तु यह सब यश, नाम, सत्ता, सम्पत्ति आदि सांसारिक सुखों के लक्ष्य से ही करता है। इस जीव को जिनोक्त तत्त्व पर कभी भी श्रद्धा नहीं होती है।जैसेअंगारमर्दकाचार्य। (3)जातिभव्य जीव-वह जीव, जो है तो भव्य परन्तु निगोद से कभी भी बाहर नहीं आयेगा अतः मोक्ष में भी नहीं जायेगा। प्र.212.इन जीवों के अनन्तज्ञान-दर्शन चारित्रादि गुणों में रंच मात्र भी अन्तर नहीं होता है तो फिर वे सभी मोक्षगमन में समर्थ क्यों नहीं? उ. इसे हम एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते है(1)जैसे एक कन्या शादी के बाद माता बनती है, वैसे ही आराधना करके मोक्ष में जाने वाला जीव भव्य कहलाता है। (2)जैसे एक कन्या शादी के बाद भी प्र.210. व्यवहार राशि किसे कहते है? उ. . . जब एक जीव सिद्ध पद को प्राप्त करता है, तब अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में रहा हुआ एक जीव बाहर आता है, उस जीव को व्यवहार राशि कहा जाता है। इस प्रकार जीव के प्रथम उपकारी सिद्ध परमात्मा है। प्र.211.क्या हर जीव निगोद से अवश्यमेव बाहर आयेगा? उ. नहीं! हर जीव निगोद से बाहर नहीं आयेगा। इसे समझने के लिये जीव के तीन भेदों को समझना जरूरी है।
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________________ अयोग्य होने से माँ नहीं बनती है, उसे वंध्या कहा जाता है। वैसे ही अभव्य जीव चारित्र तक स्वीकार कर लेता है, पर सम्यग् श्रद्धा, मुक्ति की झंखना और आत्मसाधना रूपी योग्यता के अभाव में मोक्ष में नहीं जा सकता है। (3)जैसे एक कन्या साध्वी बन गयी। उसमें माँ बनने की योग्यता है पर अब बन नहीं सकती। वैसे ही जातिभव्य जीव में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है परन्तु जिनदर्शन, प्रवचन, चारित्र, ज्ञान आदि निमित्तों का निगोद में अभाव होने से मोक्ष में कभी नहीं जायेगा। प्र.213.निगोद से निकलने के बाद जीव किस प्रकार मोक्ष तक का सफर तय करता है? उ. निगोद से निकलने के बाद वह बादर, त्रस, पंचेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त करता हुआ भवितव्यता के योग से सम्यक्त्व को प्राप्त कर जिनोक्त तत्त्व पर श्रद्धान्वित बनता है और अनादि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक को छोड़कर चतुर्थ गुणस्थान में प्रविष्ट होता है। क्रमशः श्रावकत्व, श्रमणत्व को प्राप्त करके क्षपक श्रेणीपूर्वक चारों घाती कर्मों का क्षय करके तेरहवें गुणठाणे में आकर केवलज्ञानी बनता है। कितने काल तक जीवों को प्रतिबोध देता हुआ निर्वाण काल में वह अंतिम चौदहवें गुणस्थानक में आता हैं तथा / शेष चार अघाती कर्मों का क्षय करके आत्मा की शुद्ध-विशुद्ध कर्महीन अवस्था को प्राप्त करके परम एवं चरम मोक्ष पद को प्राप्त हो जाता है। प्र.214. क्या एक बार निगोद से बाहर आने के बाद जीव पुनः उसमें उत्पन्न हो सकता है? उ. हाँ! उत्पन्न हो सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि मोक्ष मार्ग रूप सम्यग ज्ञान - दर्शन - चारित्र प्राप्त होने पर भी उसमें प्रमाद करके चौदह पूर्वधर भी पुनः निगोद में उत्पन्न हो जाते हैं। परमात्मा महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में गौतम स्वामी के माध्यम से समस्त जगत को प्रतिबोध दिया-'समयं गोयम मा पमायए।' गौतम! क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इसलिये प्रज्ञावान् आत्मा को मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, इन पाँच प्रकार के प्रमादों का त्याग करके साधना में अप्रमत्त बनना चाहिये। प्र.215. वर्तमान काल में सर्वज्ञ का अभाव है तो फिर यह कैसे जाना जा सकता है कि 'मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य? उ. इस प्रश्न का उत्तर परमात्मा आगमों में फरमाते हैं कि तुम्हारे अन्तर में अन्तर्भाव से यदि यह प्रश्न उठे कि 'मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य?' तो निश्चित रूप से तुम भव्य जीव ही हो।
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________________ जीव सृष्टि का परिचय प्र.216. जीव किसे कहते है? अनुकंपा, मैत्री और संयम का भाव उ. जो सचेतन हो, जो सुख-दुःख का जगाने के लिये सम्पूर्ण जीव सृष्टि का अनुभव करें, जो अनन्तज्ञान-दर्शन- ज्ञान परमावश्यक है। चारित्र आदि गुणों से युक्त हो, उसे प्र.219. माना कि जीव तत्त्व का ज्ञान जीव कहते है। मोक्ष का मुख्य सोपान है परन्तु प्र.217.जीव के लक्षण कौनसे हैं ? महाराजश्री! क्या जीव तत्त्व के उ.. जिससे जीव में जीवत्व की पहचान हो, ज्ञान से परिवार, समाज और वह उसका लक्षण कहलाता है। ज्ञान, विश्व को कोई लाभ हो सकता है? दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य (शक्ति) और उ. बिल्कुल ! जीव सृष्टि का ज्ञान व्यक्ति उपयोग, ये छहों लक्षण हर जीव में को जहाँ जीव मात्र के प्रति प्रेम और अल्प या विशेष रुप अवश्यमेव पाये मैत्री के रस से हरा-भरा एवं जाते हैं, अतः इन्हें लक्षण कहा जाता है। संवेदनशील बनाता है, वहीं प्रकृति, सजातीय का उत्पादन और वृद्धि को वातावरण और पर्यावरण के प्रति प्राप्त होना जीव की खास दो सचेत, करूणाशील और भीगा भीगा पहचान है जिसका वर्णन आचारांग बनाता है। आदि आगमों में उपलब्ध होता है। यदि व्यक्ति जीव तत्त्व को गहनता से प्र.218. जीव सृष्टि के ज्ञान कीअनिवार्यता जानता हुआ आत्मसात् करता है तो क्यों है? वह किसी को न तो अनावश्यक पीड़ा उ. जब तक व्यक्ति को जीव सृष्टि का देगा, न किसी के साथ क्रूरता भरा ज्ञान नहीं होगा, तब तक दया, व्यवहार करेगा। अहिंसा और संयम का जीवन जी. आज प्रकृति सम्पूर्ण विश्व से जिस पाना असंभव ही होगा। अतः प्रेम, प्रकार रूठी हुई है- अतिवृष्टि, अना
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________________ वृष्टि, ज्वालामुखी, उल्कापात, भूकंप, (2)द्वीन्द्रिय- जिन जीवों के स्पर्शन यह सब प्रकृति पर किये गये एवं हो एवं रसन (जीभ), ये दो इन्द्रियाँ रहे अत्याचारों के ही परिणाम हैं। होती हैं, वे द्वीन्द्रिय कहलाते हैं, यदि व्यक्ति पानी, खनिज पदार्थ, जैसे-लट, घुण, कृमि, शंख, जोंक, पैड-पौधे, जलवायु आदि का कोडी, अलसिया, नाहरू, केंचुआ उचित-विवेकानुसार उपयोग करें, आदि। उसके अपव्यय से बचे तो जीव हिंसा (3)त्रीन्द्रिय- जिन जीवों के स्पर्शन, के महान् पाप से बचने के साथ-साथ रसन, घ्राण (नाक), ये तीन विश्व-मैत्री का संदेश भी जन-जन इन्द्रियाँ होती हैं, वे त्रीन्द्रिय तक पहुंचा सकता है। उनके अभाव कहलाते हैं। जैसे- चींटी, कानसे उपजी युद्ध, अराजकता, आतंक खजूरा, मकोड़ा, उदेहि, खटमल, आदि समस्याओं को सहज ही इल्ली, जूं आदि। समाहित किया जा सकता है। (4)चतुरिन्द्रिय- जिन जीवों के चक्षु . विभिन्न जाति, देश, प्रदेश के मध्य जो (आँख) सहित चार इन्द्रियाँ होती तनाव-टकराव की स्थिति बढती जा हैं, उन्हें चतुरिन्द्रिय कहते है। रही है, वह भी जीव मात्र के प्रति मैत्री जैसे–पतंग, मक्खी, मच्छर, बिच्छु, और स्नेह के प्रभावी उपाय से मिटायी भ्रमर,डांस,टिड्डी, जुगनू तितली, जा सकती है। मधुमक्खी आदि। प्र.220.इन्द्रियों के आधार पर जीव के। (5)पंचेन्द्रिय-पांच इंद्रियों वाले जीव कितने भेद होते हैं? पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। जैसेउ. पांच भेद मनुष्य, हाथी, घोड़ा, देव, नारकी (1)एकेन्द्रिय- जिन जीवों के एक आदि / मात्र स्पर्शनेंद्रिय (त्वचा) होती है, वे प्र.221.त्रस और स्थावर में क्या अन्तर है? एकेन्द्रिय कहलाते हैं। जैसे पृथ्वी, उ. (1)त्रस- एक स्थान से दूसरे स्थान पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति। पर आने, जाने वाले जीवों को त्रस
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________________ - a कहते है। इसके चार भेद कहे गये (4)मंद - तीव्र वायु, आंधी, तूफान, हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय चक्रवात आदि वायुकाय कहलाते हैं | और पंचेन्द्रिय। इनका उदाहरण (5)फल, फूल, छाल, काष्ठ, शाखा, सहित विवेचन पूर्व प्रश्न में किया प्रशाखा, पत्ता, जड, बीज आदि जा चुका है। वनस्पतिकाय कहलाते हैं। (2)स्थावर-एक स्थान से दूसरे स्थान प्र.223. पृथ्वीकाय आदि में कितने जीव पर जो जीव आ-जा नहीं सकते कहे गये हैं? हैं, वे स्थावर कहलाते हैं। उ. पृथ्वी की एक डली में, पानी की एक एकेन्द्रिय स्थावर कहलाते हैं। बूंद में, अग्नि की एक चिंगारी में और प्र.222. स्थावर के पाँच भेदों को स्पष्ट वायु के एक झोंके में इतने (असंख्य) कीजिये। जीव हैं कि उन्हें क्रमशः सूक्ष्म धान्य, उ. (1)स्फटिक, सोना, चांदी, जस्ता, सरसों के दाने, खसखस एवं बड़ वृक्ष लोहा आदि धातुएँ, काला-सफेद के बीज जितने बनाये जाये तो संपूर्ण आदि नमक, विभिन्न पाषाण, एक लाख योजन (तेरह लाख कि. लाल, हरी, भूरी, पीली आदि वर्गों मी.) प्रमाण जम्बूद्वीप में भी नहीं समा वाली मिट्टी , मणि, रतन, चूना, सकते। पारा, अभ्रक आदि पृथ्वीकाय साधारण वनस्पतिकाय (आलू, प्याज, कहलाते हैं। लहसुन, मूली, गाजर, शकरकंद (2)वर्षा, तालाब, समुद्र आदि का आदि) में सुई के नोंक प्रमाण भाग में पानी, ओस, शबनम, ओले आदि अनन्त जीव होते हैं। अप्काय (पानी) कहलाते हैं। यह जानकर बुद्धिमान् एवं मोक्षमार्गी (3)अंगार, ज्वाला, चिंगारी, बांस को इनके उपयोग में विवेक रखना पत्थर आदि के आपस में टकराने चाहिये / अनन्तकाय भक्षण का शास्त्रों से उत्पन्न होने वाली अग्नि में निषेध किया गया है। तेउकाय कहलाते हैं। प्र.224. पृथ्वीकाय आदि का इतना छोटा
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________________ शरीर होता है, रसनादि चार हर एक बूंद में जैसे एक लाख इन्द्रियों का अभाव होने से गूंगे, औषधियाँ समा जाती हैं, वैसे ही यहाँ बहरे, अंधे हैं तो फिर उन्हें कष्ट भी समझ लेना चाहिये। का अनुभव किस प्रकार हो सकता है? प्र.226. पृथ्वीकाय आदि में जीव (आत्मा) वे जीव इन्द्रियहीन होने से वेदना को है, यह कैसे माना जाये जबकि कहने, सुनने, देखने में भले ही सक्षम उनमें मनुष्य की भाँति कोई न हो, फिर भी सजीव होने से पीड़ा प्रवृत्ति नजर नहीं आती है, यह अवश्य ही होती हैं। इस संदर्भ में सब कहीं कपोल कल्पना तो नहीं है? आचारांग सूत्र के शस्त्र परिज्ञा नामक उ. नहीं। यह सब आज वैज्ञानिकों के प्रथम अध्ययन मेंउदाहरण दिया गया है- द्वारा प्रमाणित हो चुका हैजन्मतः एक अन्धे, बहरे, गूंगे, रोगी, .. (1)पृथ्वी- मनुष्य का घाव जिस कोमल- मुलायम शिशु के आँख, प्रकार शनैः शनैः वापस भर जाता नाक, मुँह आदि बत्तीस स्थानों का है, उसी प्रकार खोदी हुई खानें भी कोई भाले से तीव्र रूप में छेदन-भेदन भर जाती हैं। पर्वत भी बढते हैं, करे, तब उसे जो पीड़ा होती है, वैसी यह वैज्ञानिकों के द्वारा कहा गयाहै। ही पीड़ा पृथ्वीकाय आदि जीवों को भी वैज्ञानिक एच.टी.बर्सटापेट का छेदन-भेदन से होती है। मानना है कि जैसे बालक का प्र.225. पर यह कैसे सम्भव है कि पानी शरीर शनैः शनैः बढता है, वैसे ही की एक बूंद आदि में असंख्य जीव पर्वत भी बढते हैं। उनका कहना है एवं आलू आदि के सुई के अग्र कि न्यूगिनी के पर्वतों ने अभी भाग जितने स्थान में अनन्त जीव अपनी शैशव-अवस्था पार की है। समा जाये? डॉ. बेल्मेन का मानना है कि उ. कोई व्यक्ति लाख औषधियों को आल्पस पर्वतमाला का पश्चिमी एकत्र करके महिनों तक घिस कर भाग अभी भी बढ़ रहा है। लक्षपाक तेल बनाता है, तब उसकी (2)जल- शीतकाल में मनुष्य के मुख
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________________ . HESH की भाँति कुएँ, समुद्र आदि के छपा है-वह फोटो नीचे देखिये. पानी से भी भाप निकलती है। (3)अग्नि- मनुष्य की भाँति अग्नि भी आहार (ईंधन) पाकर बढ़ती है, उसके अभाव में बुझ जाती है। (4)वायु- अन्य जीवों की तरह वायु के शरीर का संकोच व विकोच होता है। (5)वनस्पति-. मनुष्य की भाँति वनस्पति, जल, वायु, खाद, धूप आदि पाकर वृद्धि को प्राप्त होती है। उनके अभाव में नष्ट हो जाती है। छुई-मुई आदि वनस्पतियाँ स्पर्श डॉ. जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति पाकर भय/लज्जा से संकुचित में जीवत्व की सिद्धि की एवं दूरबीन के माध्यम से विविध प्रयोगों के द्वारा हो जाती हैं। अनेक फल-फूल, उनमें घटित होने वाले हर्ष-शोक पौधे मधुर संगीत से जल्दी को साक्षात् रूप से दिखाया / अंकुरित एवं पुष्पित होते हैं। प्र227 सक्ष्म और बादर से क्या अभिप्रायहै? कोकनद का वृक्ष क्रोध में हुंकार उ जिन जीवों का शरीर इतना छोटा करता है। होता है कि नेत्र अथवा यंत्र के द्वारा सूक्ष्मदर्शक यंत्र से कैप्टन स्कोर्स भी देखा न जा सके, उन्हें सूक्ष्म जीव बी. ने पानी की एक बूंद में 36450 कहते है। चलते-फिरते जीव प्रमाणित किये जिन जीवों को नेत्र, यंत्र आदि के हैं। उसका फोटो इलाहाबाद द्वारा देख पाना संभव हो, वे बादर गवर्नमेंट प्रेस में मुद्रित सिन्ध जीव कहलाते हैं। पदार्थ विज्ञान नामक पुस्तक में एकेन्द्रिय सूक्ष्म/बादर, दोनों प्रकार
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________________ के होते हैं, परन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, उ. चार भेद- (1) तिर्यंच (2) नारकी (3) चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीव बादर मनुष्य (4) देव / ही होते हैं। प्र.231.पचेन्द्रिय तिर्यंच के कितने भेद प्र.228. संज्ञी एवं असंज्ञी में क्या अन्तर है? होते हैं? उ. मन वाले जीवों को संज्ञी एवं बिना मन उ. तीन भेद वाले जीवों को असंज्ञी कहा जाता है। () स्थलचर-इसके तीन भेद एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जीव नियमतः होते हैंअसंज्ञी, देव-नारकी नियमतः संज्ञी (1)चार पाँव वाले चतुष्पद। जैसेतथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य हाथी, घोड़ा आदि। संज्ञी-असंज्ञी, दोनों होते हैं। (2)पेट के बल पर रेंगने वाले प्र.229. प्रत्येक एवं साधारण जीव में क्या उरपरिसर्प। जैसे–सर्प, अजगर भेदहै? आदि / जिस एक शरीर में एक जीव होता है, (3)भुजा के बल पर चलने वाले उसे प्रत्येक कहते है। भुजपरिसर्प। जैसे–चूहा, बंदर, जिस एक शरीर में अनन्त जीव रहते छिपकली आदि / हैं, उसे साधारण कहते है। साधारण (I) जलचर- जल में रहने वाले को निगोद तथा अनन्तकाय भी कहा जलचर जैसे–मछली, मगरमच्छ जाता है। साधारण वनस्पतिकाय आदि / , (कंदमूल-आलू, प्याज आदि) के (ii)खेचर- आकाश में उड़ने वाले सिवाय समस्त जीव प्रत्येक ही होते हैं। जीव खेचर (नभचर) जैसेप्र.230.पचेन्द्रिय जीवों के कितने भेद कहे गये हैं? कबूतर, मैना, तोता, चिड़िया, बाज, गरुड़ आदि /
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________________ - नरक : दुःखों का महासागर प्र.232. नरक किसे कहते है? सारा अन्न-जल मिले तो भी उ. पंचेन्द्रिय वध, महारंभ-समारंभ, पर भूख - प्यास शान्त न हो परन्तु स्त्रीगमन आदि कठोर, पापकारी, क्रूर खाने - पीने को कुछ भी प्राप्त कार्यों का अशुभ फल जीव को जहाँ नहीं होता है। प्राप्त होता है, उसे नरक एवं उसमें (4) भयंकर खुजली, तीव्र ज्वर रहने वाले जीवों को नारकी कहा एवं हजारों रोगों से ग्रस्त और जाता है। नरक के सात भेद कहे गये प्रतिपल भयभीत नारकी जीव हैं- घम्मा, वंशा, सेला, अंजना, रिष्टा, घोर वेदना को भोगते हैं। मघा और माघवती। (3)परस्परकृत वेदना- कुत्ते-बिल्ली, प्र.233. नरक में जीव को किस प्रकार के सांप-नेवले की भांति जन्मजात दुःख प्राप्त होते हैं? वैरी नारकी जीव परस्पर लड़नरक में तीन प्रकार के दुःख कहे गयेहैं झगड़ कर तीव्र वेदना को प्राप्त (1)परमाधामी देवकृत वेदना- पंद्रह करते हैं। परमाधामी देव नारकी जीवों को प्र.234. यह तो समझ में आ गया कि नरक ... विविध घोर यातनाएँ देते हैं। में खतरनाक वेदना है पर क्या (2)क्षेत्रजन्य वेदना-यह दस प्रकार : भावी तीर्थंकर को भी भोगनी की होती हैं जैसे पड़ती है? .. (1) नरक में इतनी सर्दी है कि उ. अवश्यमेव / 'कर्म किसी का सगा कंदाच् नारकी जीवों को नहीं। तीर्थंकर हो चाहे चक्रवर्ती, हिमालय पर्वत पर ले जाये इन्द्र हो चाहे नरेन्द्र। हर जीव को तो भी गर्मी का अहसास होगा। स्वकृत कर्मों का फल भोगना ही (2) नरक में गर्मी इतनी ज्यादा है पड़ता है। कि यहाँ भट्टी में रखें तो भी प्र.235. क्या सभी नारकी जीवों को एक नैरयिकों को शांति का अनुभव समान वेदना प्राप्त होती है ? होगा। उ. प्रथम नरकापेक्षया द्वितीय नरक में (3) प्रतिपल क्षुधा एवं तृषा का वेदना अधिक है, इसी तरह सप्तम ऐसा परीषह कि संसार का नरक पर्यन्त समझना चाहिये। पर
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________________ यह भी ज्ञातव्य है कि एक ही नरक के (8)देव, गुरु, धर्म, माता-पिता एवं भिन्न भिन्न नारकी जीवों की वेदना में सम्माननीय बुजुर्गों की अवज्ञाभी भिन्नता होती है। अनादर करने वाले के हृदय को प्र.236. परमाधामी देव उन्हें किस प्रकार भाले से चीर देते हैं। से वेदना देते हैं? (9)चोरी, माया, प्रपंच, किसी के पैसे परमाधामी देव उन्हें विविध प्रकार से लूटने वाले डकैतों, आतंकवादियों पीड़ित व प्रताड़ित करते हैं यथा को ऊँचे पर्वत से नीचे गिराते हैं (1)मांस खाने वाले को उसी के शरीर एवं वृक्षों से लटकाकर असह्य का मांस काट-काटकर एवं उसे वेदना देते हैं। तल-भूनकर उन्हें जबरदस्ती (10) दूसरों को मारने-पीटने वालों के खिलाते हैं। हाथ-पाँव काट देते हैं। निंदा (2)मदिरा पान करने वाले को उबलते एवं चुगली करने वाले की एवं शीशे, ताम्बे का रस पिलाते हैं। असत्य-अपशब्द बोलने वालों (3)वेश्या एवं परस्त्रीगमन करने वाले की जीभ काट देते हैं, गलत बातें को अग्नि से तप्त रक्तवर्णीय लोहे सुनने वाले, फिल्मी-गंदे गीत की पुतली से जबरदस्ती आलिंगन सुनने वाले के कानों में गर्म शीशा करवाते हैं। . उंडेलते हैं, अश्लील दृश्य देखने (4)जानवर, नौकर, चाकर से अधिक वाले की आँखों को फोड़ देते हैं। काम करवाने वाले को एवं उन पर (11)अज्ञानी, भोले भाले जीवों को अधिक बोझ लादने वाले को बहलाकर गुमराह करने वालों अधिक भार वाली गाड़ी मार को जाज्वल्यमान अंगारों पर पीटकर खिंचवाते हैं। चलाते हैं। (5)स्नान आदि में पानी का अपव्यय प्र.237. नारकी जीवों को परमाधामी देव करने वाले को गर्म उबलती हुई अनेक प्रकार से अनेक बार दारूण खून, शीशे की वैतरणी नदी में यातनाएँ देते हैं तो क्या वे मर तैरने के लिये मजबूर करते हैं। नहीं जाते? (6)सर्प-बिच्छू आदि की हिंसा करने उ. नहीं / उनका शरीर वैक्रिय होता है। वालोंको वैसा रूप बनाकर काटते हैं। वह पारे की तरह पुनः पुनः एकमेक हो (7)शिकार करने वाले के अंगोपांग जाता है। अतः जब तक आयु पूर्ण धनुष-बाण से भेद देते हैं। नहीं होती, तब तक कृतकर्मों का फल भोगना ही होता है। *************** 74 ****************
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________________ "प्र.238. मनुष्य से क्या अभिप्राय है? उ. मत्वा हिताहितं ज्ञात्वा कार्याणि 'सीवन्ति इति मनुष्याः' जो स्वयं के हित एवं अहित का विचार करके कार्य करते हैं, उन्हें मनुष्य कहते हैं। प्र.239. मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं? उ. मुख्यतः तीन प्रकार के (1) कर्मभूमिज- जहाँ असि (शस्त्रादि), मसि (लेखनी) और कृषि से संबंधित कार्य होता है तथा जहाँ जीव मोक्ष. प्राप्त करने का कर्म (पुरूषार्थ) करता है, उसे कर्मभूमि कहते हैं। उनमें रहने वाले मनुष्य कर्मभूमिंज कहलाते हैं। कर्मभूमियाँ पन्द्रह कही गयी हैं-(1) पाँच भरत (2) पाँच ऐरावत . प्र. 240. जीवों के कुल कितने भेद कहे गये हैं ? उ. | जीव (3) पाँच महाविदेह / जम्बूद्वीप में भरतादि तीनों एक-एक भूमि है। धातकीखण्ड एवं अर्द्धपुष्करावर्त द्वीप में भरतादि तीनोंभूमियाँ दो-दो की संख्या मेंहैं। (2–3)अकर्मभूमिज एवं अन्तर्वीपज जिस क्षेत्र में असि-मसिकृषि का कार्य नहीं होता है एवं जहाँ युगलिक मनुष्य होते हैं, उन्हें अकर्मभूमिज एवं अन्तर्वीपज मनुष्य कहते है। हिमवंत, हिरण्यवंत, हरिवर्ष, रम्यक, देवकुरु और उत्तरकुरु, ये पाँचपाँच की संख्या में होने से कुल तीस अकर्मभूमियाँ हैं। 56 अंतर्वीप कहे गये हैं। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यंच नारकी देव मनुष्य 303 कुल 563 इन्हें विस्तार से जानने के लिये जीव विचार प्रकरण का अध्ययन करना चाहिये। /
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________________ देवलोक : सुख का कल्पवृक्ष प्र.241.देव से क्या अभिप्राय है? / अनेक देवता ऐसे होते हैं जो एक ही उ. जिस तरह महापापी जीव नरक में समय में हजार-हजार रूप बनाकर उत्पन्न होकर अतिशय दुःख भोगते पृथक- पृथक् हजार-हजार भाषाएँ हैं, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किये गये बोल सकते हैं। पुण्य-कार्य के परिणामस्वरूप जीव अनेक ऋद्धि सम्पन्न देव मनुष्यों की जहाँ दिव्य-विविध सुखों को भोगते पलकों पर बत्तीस प्रकार के दिव्य हैं, उसे देवलोक कहते है। देवलोकों नाटक दिखा देते हैं पर उन मनुष्यों में उत्पन्न जीव देव कहलाते हैं। कोतनिक भी पीड़ा नहीं होती है। मनुष्यों की अपेक्षा उनका ऐश्वर्य एवं . शक्रेन्द्र की शक्ति के संदर्भ में आगम सुख हजारों-लाखों गुणा ज्यादा कहते हैं कि देव किसी मनुष्य का सिर होता है। काटकर, उसे कूट-पीसकर चूर्ण प्र.242. देवों का रूप-सौंदर्य कैसा होता है? बना दे और तत्काल उससे मस्तक उ. देवों का शरीर मनुष्य एवं तिर्यंच की बनाकर मनुष्य के धड़ से जोड़ने का भाँति मांस, अस्थि आदि से निर्मित न कार्य इतनी दक्षता और शीघ्रता के होकर शुभ पुद्गलों से बनता है। साथ करते हैं कि उसे तनिक भी पीड़ा उनकी काया निरोगी, सुगंधमयी, का अनुभव नहीं होता है। लावण्ययुक्त और द्युतिमयी होती है। प्र.244. देवों की गति तीव्र है अथवा वायु की? मृत्यु के उपरान्त कपूर की भाँति उ. शास्त्रों में कहा गया है कि तीन उनका शरीर बिखर जाता है, मुर्दे के चुटकी बजाने जितने समय में देव रूप में नहीं रहता है। इक्कीस बार जम्बूद्वीप के चक्कर प्र.243. देवों की शक्ति अधिक होती है या लगा सकते हैं। यदि इस गति से देव मनुष्य की? यहाँ आये तो पहुँचने में अनेक वर्ष उ. सामान्य मनुष्य की अपेक्षा उनकी व्यतीत हो जायेंगे। उनके पास ऐसी शक्ति अधिक और आश्चर्यकारी होती दिव्य गति है कि वे स्मरण करते ही है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि यहाँ उपस्थित हो जाते हैं।
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________________ 'प्र.245. क्या कोई ऐसे चिह्न हैं, जिनसे हम उ. देवों को पहचान सकते हैं? उ. क्यों नहीं ! शास्त्रों में चार चिह्न बताये गये हैं(1)उनकी पलकें नहीं झपकती हैं। (2)गले में स्थित पुष्पमालाएँ मुरझाती नहीं हैं। (3)उनको पसीना नहीं होता है। (4)जमीन से चार अंगुल ऊपर अर्थात् अधर रहते हैं। प्र.246. देवों के दिव्य ऋद्धि-समृद्धि होती है तो क्या वे चोरी, युद्ध आदि घृणित कार्य करते हैं? उ. देव भी अपने राज्य, धन की सीमा बढ़ाने के लिए युद्ध करते हैं, दूसरे देवों के मूल्यवान् रत्नों, देवियों आदि को भी चुरा लेते हैं। प्र.247. देव किस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं? उ. देव मनुष्य की भाँति कवलाहार नहीं . * करते हैं। जब भी आहार की इच्छा उत्पन्न होती है, तब शक्ति के द्वारा शुभ, सरस, श्रेष्ठ, उत्तम पुद्गल स्वतः शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं और उन्हें संतुष्टि का अनुभव होता है। प्र.248. देवों को अमर कहा जाता है तो क्या उनकी मृत्यु नहीं होती है? यदि मृत्यु नहीं होती है तब तो वे शाश्वत रूप से उसी स्थिति में रहते होंगे। अधिकांश देव-दवियों का दीर्घायुष्य (असंख्य वर्ष का) होता है, अतः उन्हें अमरा-अमरी कहा जाता है, परन्तु वह असंख्य वर्षों का आयुष्य भी अवश्यमेव पूर्ण होता है। अलग-अलग देवों के मृत्यु के समय मनःस्थिति अलग-अलग होती है। सम्यक्त्वी आत्माएँ 'मनुष्य देह की प्राप्ति होगी और व्रत-महाव्रत की आराधना में प्रवृत्त होंगे। इस हेतु से आनंदित होते हैं परन्तु मिथ्यात्वी एवं अहर्निश भोगोपभोगों में रत रहने वाले देव जब म्लान पुष्पमाला, कांपते कल्पवृक्ष, शोभाविहीन विमान एवं निस्तेज वस्त्राभूषणों को देखते हैं, तब जान जाते हैं कि छह माह के भीतर मेरी मृत्यु होने वाली है। उस समय उनकी आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। दिव्य विमान, महान् ऐश्वर्य एवं कल्पवृक्ष का पुनः पुनः स्मरण करते हुए दुःखी होकर करुण-कातर स्वरों से आक्रन्दन करते हैं- हाय / इस अनुपमेय ऋद्धि को छोड़कर नरक तुल्य स्त्री-गर्भ में वास करना होगा और अमृत-भोजन के बदले अपवित्र रज-वीर्य का आहार करना पड़ेगा। इस प्रकार रूदन तथा अश्रुपात करते हुए उनका जीवनदीप बुझ जाता है।
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________________ प्र.249. देव के भेदों को विस्तार से समझाओ। देव विविध प्रकार के होते हैं6) अधोलोकवर्ती देव(1)भवनपति देव-दस भेद वाले ये देव भवनों में रहते हैं तथा सुकुमार, मंद-मृदुचाल वाले क्रीड़ाशील होते हैं। (2)परमाधामी देव-पन्द्रह प्रकार के ये देव नारकी जीवों को दारूण यातना देकर सताते हैं और आनंदित होते हैं। (ii) मध्यलोकवर्ती देव(1)व्यंतर तथा वाणव्यंतर देव वनों के अन्तरों में रहने वाले इन देवों के आठ-आठ भेद कहे गये हैं। (2)तिर्यग्नुंभक देव- दस प्रकार के ये देव जिस पर तुष्ट होते हैं, उसे मालामाल कर देते हैं तथा जिस पर रूष्ट होते हैं, उसे दुःखी करते हैं। तीर्थंकर परमात्मा के च्यवनजन्म कल्याणक के समय वन, भूमि, गुफा आदि में पड़े धन से उनके खजाने भर देते हैं। .. (3)ज्योतिष्क देव- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा नामक पाँच प्रकार के ये देव प्रकाश करते हैं। (iii)उर्ध्वलोकवर्ती देव(1)वैमानिक देव- सौधर्म, ईशान आदि बारह प्रकार के होते हैं। (2)किल्बिषिक देव- तीन प्रकार के ये देव ढोली, चमार जैसा काम करते हैं, अविवेकवश बार-बार अपमानित होते हैं। (3) नवलोकान्तिक देव-तीर्थंकर प्रभु को दीक्षा लेकर केवलज्ञानपूर्वक चतुर्विध संघ स्थापना की विनंती करने जैसा पुण्यकर्म संपादित करने वाले लोकान्तिक देव नौ प्रकार के होते हैं। (4) नवग्रैवेयक–ये नौ प्रकार के होते हैं। (5)अनुत्तर वैमानिक-पाँच प्रकार के इन देवों में सर्वार्थसिद्ध विमान के देव नियमतः एकावतारी ही होते हैं। ******** ******* 78 ****************
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________________ - प्राण एवं पर्याप्ति का विवेचन प्र.250.प्राण किसे कहते है? एवं विसर्जन की शक्ति को उ. जीवन शक्ति को प्राण कहा जाता है। श्वासोच्छवास प्राण कहा जाता है। इसका संयोग जीवन एवं वियोग मृत्यु (10)आयुष्य प्राण- नियत काल है। जैसे-जैसे प्राण-शक्ति क्षीण पर्यन्त जीवित रहने की शक्ति को होती है, वैसे-वैसे शरीर बूढा, निर्बल आयुष्य प्राण कहा जाता है। एवं क्षीण होता जाता है। जब प्राण प्र.252.पर्याप्ति किसे कहते है? शक्ति नष्ट हो जाती है, तब प्राणान्त उ. पुद्गलों के समूह से आत्मा में प्रकट हो जाता है। प्राण धारण करने से ही शक्ति को पर्याप्ति कहा जाता है। जीव को प्राणी कहा जाता है। प्र.253.पर्याप्तियाँ कितने प्रकार की कही प्र.251.प्राण कितने प्रकार के कहे गये हैं? गयी हैं? उ. दस प्रकार के उ. छह प्रकार की(1-5)पांच इन्द्रिय प्रांण- त्वचा में (1)आहार पर्याप्ति- जिस शक्ति से ठण्डा-गर्म, मृदु-कर्कश, स्निग्ध जीव पदार्थ को आहार में परिणत रूक्ष, भारी-हल्का ये आठ स्पर्श करता है। जानने की, जीभ में स्वाद ग्रहण की, (2)शरीर पर्याप्ति- जिस शक्ति से नाक में सूंघने की, आँख में देखने की जीव आहार को रस, रक्त, अस्थि, तथा कान में सुनने की जो शक्ति है, मज्जा, चर्बी, मांस एवं वीर्य, इन वे स्पर्शनेन्द्रिय आदि प्राण कहलाते सात धातुओं में बदलता है। (3)इन्द्रिय पर्याप्ति- जिस शक्ति से (6-8)तीन योग प्राण- मन-वचन जीव शरीर को पाँच इद्रियों में काया में क्रमशः सोचने, बोलने एवं __ परिणत करता है। . करने की जो शक्ति है, उन्हें मनोबल, (4)श्वासोच्छवास पर्याप्ति- जिस / वचनबल एवं कायबल प्राण कहा शक्ति से जीव श्वासोच्छवास जाता है। योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है (9)श्वासोच्छवास प्राण- श्वास ग्रहण एवं छोड़ता है।
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________________ (5)भाषा पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है एवं भाषा में बदल कर उनका विसर्जन करता है। (6)मनः पर्याप्ति- जिस शक्ति से जीव मन योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके सोचता है। प्र.254.प्राण तथा पर्याप्ति में क्या अन्तर है? उ. प्राण जीव की आन्तरिक शक्ति है जबकि पर्याप्ति पौद्गलिक शक्ति है। जिस प्रकार किसी भी वाहन में दौड़ने की शक्ति होने पर भी उसे डीजल, पेट्रोल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आत्मा परम शक्तिशाली होने पर भी जीवन संचालन हेतु पुद्गलों की सहायता लेनी ही होती है। प्राणी के द्वारा खाना, पीना, चलना, उठना, बैठना, बोलना, सोचना जो भी क्रियाएं की जाती हैं, वह प्राण शक्ति है परन्तु उसमें जो पौद्गलिक शक्ति सहायक बनती है, उसे पर्याप्ति कहते है। ये आपस में जुड़े हुए है। जैसे पाँच इन्द्रियों की प्राण शक्ति का कारण इन्द्रिय पर्याप्ति है, मनोबल, वचन बल, कायबल का कारण क्रमशः मन, भाषा एवं काय (शरीर) पर्याप्ति है। श्वासोच्छवास प्राण का कारण श्वासोच्छवास पर्याप्ति तथा जीवन टिकाने में आहार महत्त्वपूर्ण होने से आयुष्य प्राण का कारण आहार पर्याप्ति है।
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________________ जैन दर्शन मीमांसा 1. जैन धर्म क्या है? 2. जगत क्या है? 3. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी 4. लोक का स्वरूप 5. जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त
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________________ जैन धर्म क्या है? प्र.255.धर्म किसे कहते हैं? ब्राह्मण, जम्बूकुमार वैश्य, हरिकेशी व उ. दुर्गति में गिरते हुए जीव को जो मेतारज मुनि चाण्डाल, आनंद श्रावक धारण करें, उसे धर्म कहते है। पटेल (जाट) थे। जिससे आत्मा कर्म-पंक से मुक्त आपको पता हो तो आज भी अनेक होकर निर्मल व उज्ज्वल अवस्था रूप जाट, रबारी, राजपूत, घांची, दर्जी मोक्ष पद प्राप्त करती है, उसे धर्म आदि अन्यान्य जाति के लोग संयम कहते है। . जीवन की साधना में गतिमान हैं और प्र.256. जैन धर्म किसे कहते है? अपनी आत्मा का कल्याण कर रहे हैं। उ. जिन्होंने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त नवकार मंत्र भी गुण प्रधान है। कर ली, उन्हें जिन कहते है एवं उनके जिन्होंने भी राग-द्वेष रूप शत्रुओं को द्वारा प्ररूपित धर्म को जैन धर्म कहते है। जीत लिया, वे समस्त अरिहंत - प्र.257.क्या जैन कुल में जन्मा व्यक्ति ही पूजनीय है। चाहे उनका नाम महावीर जैन हो सकता है अथवा ब्राह्मण, हो या शिव / कृष्ण हो या बुद्ध / 'वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र भी? प्र.258. जैन धर्म का प्रारंभ कब से हुआ? उ. जैन धर्म जातिवादी एवं व्यक्ति-रागी उ. जैन धर्म अनादि अनन्त काल से चल न होकर गुणानुरागी है। जो भी रहा है एवं अनन्तकाल तक चलता व्यक्ति जिन/तीर्थंकर पर श्रद्धा रहेगा। अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं करता हुआ जिनाज्ञा के अनुरुप और अनन्त तीर्थंकर होंगे। जीवन जीता है, वह जैन कहलाता भरत क्षेत्र की वर्तमान अवसर्पिणी के है। जैन धर्म जाति प्रधान न होकर अनुसार जैन धर्म का प्रारंभ आदिनाथ जिनाज्ञाप्रधान है। यहाँ जाति-पाति से हुआ। का कोई सवाल ही नहीं है। देखिये! उसके बाद अजितनाथादि धर्म को आदिनाथ से महावीर तक बढाते-चलाते रहे। लगभग पच्चीस चौबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय, परमात्मा सौ वर्ष पूर्व महावीर स्वामी हुए, महावीर के गौतमादि ग्यारह गणधर जिनका शासन चल रहा है। *********** ** 83 *** ** ** ***
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________________ उ. महाविदेह क्षेत्र में सर्वदा तीर्थंकरों का विचरण होता रहता है, वहाँ वर्तमान में सीमंधर आदि बीस तीर्थंकर धर्मोद्योत कर रहे हैं। प्र.259.महाराजश्री! लोगों के मुख से सुनते हैं कि जैन धर्म कोई स्वतंत्र धर्म नहीं है, यह हिन्दु अथवा बौद्ध धर्म की शाखा है तथा श्री पार्श्वनाथ एवं महावीर प्रभु ने कुछ वर्षों पूर्व ही चलाया है, इसमें सच्चाई क्या है ? यह बताईये। वास्तविकता यह है कि उन लोगों को जैन इतिहास की जानकारी नहीं है। जिन्होंने जैन धर्म की प्राचीनता के संदर्भ में गहराई एवं बारीकी से अध्ययन-शोधन किया है, उन विद्वानों का कहना है कि जैन धर्म असंख्य वर्ष प्राचीन है एवं आदिनाथ से चला आ रहा है। इस बारे में दो तथ्यों को प्रामाणिक माना जाता है - 1. शास्त्र 2. विद्वानों का मन्तव्य / (i) शास्त्र- यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थंकरों के नाम उपलब्ध होते हैं। भागवत पुराण में ऋषभ जैन धर्म के संस्थापक कहे गये हैं। वायु पुराण, वराहमिहिर संहिता, ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य में 'अर्हत्' शब्द **************** 84 का प्रयोग हुआ है ।ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया - अर्हत् इदं दयसे विश्वमम्बम् ।हे अर्हन्!तुम विश्व पर दया करते हो। और अन्य स्थान पर कहा गया- हे अर्हन् ! आप ऐसी आत्मा है, जो रत्न की भांति प्रकाशित एवं मल विमुक्त है तथा विश्व के समस्त पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानती है। योगवाशिष्ठ में 'जिन' का, अग्नि पुराण में 'अर्हत्' मत का, महाभारत शान्ति पर्व अध्याय में ‘स्याद्वाद' का विवेचन उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योगवाशिष्ठ, महाभारत एवं पुराण से पूर्व भी जैन धर्म प्रचलित था। अमर कोषकार ने अर्हत् को मानने वाले को आर्हत् एवं स्याद्वादिक कहा है। शाश्वत कोष एवं शारदीय नाममाला में 'अर्हत्' को जिन का पर्यायवाची कहा गया है। (ii) प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान् डॉ. हर्मन जेकोबी ने लिखा है कि 'जैन धर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है। लोकमान्य पण्डित बाल गंगाधर तिलक, महोपाध्याय सतीशचन्द्र, डॉ. राधाकृष्णन आदि अनेक ****************
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________________ विद्वानों ने जैन धर्म को प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म के रूप में प्रमाणित किया है। राम, लक्ष्मण, सीता, पाँच पाण्डव, कृष्ण, सत्यभामा, रूक्मिणी, द्रौपदी आदि भी जैन धर्मानुयायी थे। महावीर के बाद अनेक राजा-महाराजा भी जैन हुए-जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट् खारवेल, अशोक * सम्राट्, कुमारपाल, भामाशाह आदि। प्र.260. जैन धर्म नास्तिक है अथवा आस्तिक? . उ. जैन धर्म की आत्मा, परमात्मा, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, कर्म-मोक्ष आदि में आस्था होने से आस्तिक है। प्र.261 कोई कहता है- गौशाला अनाथाश्रम बनाना धर्म है, कोई कहता है - प्रजा का विधिवत् पालन करना धर्म है तो बतायें कि धर्म का वास्तविक अर्थ क्या है? उ. धर्म के मुख्य रूप से तीन अर्थ होते वस्तु का स्वभाव (गुण) धर्म हैं। जैसे आग का स्वभाव उष्णता, पानी का स्वभाव शीतलता ,सूर्य का स्वभाव तेजस्विता आदि। 2. द्वितीय अर्थ- धर्म का दूसरा अर्थ परम्परा, कर्तव्य और व्यवहार होता है। साम, दाम, दंड, भेद के द्वारा शासन चलाना, शत्रुओं को नष्ट कर प्रजा का रक्षण करना, यह सब राष्ट्र धर्म है। भूखे-प्यासे को जलाहार देना, अंधे, . बहरे, गूंगे, लूले आदि असहाय की सहायता करना, ये सब सामाजिक धर्म है। माता-पिता की सेवा करना, संतान का लालन-पालन करना, यह पारिवारिक धर्म है। ये तीनों धर्म सामाजिक व्यवहार में गिने जाते हैं। 3. तृतीय अर्थ-आत्म शुद्धि, कषाय मुक्ति एवं मोक्ष-प्राप्ति के हेतु से किये जाने वाले जप-तप, ज्ञान-ध्यान, संयम-साधना आदि निर्मल अनुष्ठान आत्म धर्म कहे जाते हैं। 1. प्रथम अर्थ-'वत्थु सहावो धम्मो' * ******* * 85 ** *******
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________________ जगत क्या है? प्र.262. ब्रह्मा को विश्व निर्माता कहा 3. यदि कोई कहे कि ईश्वर जीवों को जाता है तो क्या यह संभव है? कर्म फल भुगताने के लिये यह सब उ. इस विश्व को न ब्रह्मा ने बनाया, न करता है तो यह भी उचित नहीं किसी अन्य ईश्वर ने। यह अनादि क्योंकि जब संसार था ही नहीं तो काल से स्वाभाविक रूप से चल रहा जीव ने कर्म कहाँ से किये? और है और अनन्त काल तक चलता जब कर्म नहीं किये तो उनका रहेगा। फल भुगतान कैसा? प्र.263. बहुधा सुना जाता है कि 4. यदि कहा जाये कि ईश्वर ने सोचा सर्वशक्तिमान ईश्वर ही जगत्कर्ता कि मैं अनेक हो जाऊं और जगत् है। क्या यह कथन न्याय संगत है? बनाकर मनोरंजन करूं तो यह भी उ. ईश्वर को जगत्कर्ता नहीं मानना उचित नहीं हैं क्योंकि ईश्वर के चाहिये क्योंकि ऐसा मानने में अनेक मन नहीं है और वह कोई अबोध दोष-आपत्तियाँ उपस्थित हो जाती बाल तो है नहीं कि उसे हैं जैसे1. यदि ईश्वर ने संसार को बनाया तो . खिलौना चाहिये। ईश्वर तो अपने किस साधन से बनाया क्योंकि आत्म गुणों में रमणता से आनंद साधन के बिना वस्तु का निर्माण प्राप्त करता है। असंभव है। कोई भी तन्तुवाय बिना 5. फिर ईश्वर ने ऐसे नास्तिक, चोर, धागे के वस्त्र का निर्माण नहीं कर व्याभिचारी, क्रोधी, मायावी लोगों सकता। से भरा संसार क्यों बनाया। यदि 2. यदि कहे कि प्रभु ने स्वयं ही जगत यह कहा जाये कि सभी अपने की रचना की है यानि स्वयं ही अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव करते हैं, तो फिर ईश्वर को बना है तो फिर प्रश्न होता है कि जगत्कर्ता मानने की आवश्यकता ईश्वरत्व को छोडकर संसार रूप नहीं है। इससे स्पष्ट है कि सृष्टि धारण करके उसे दुःखमय जन्म अनादिकाल से अपने आप मरण, अशान्ति, तनाव और गतिमान है। पीडाओं के झमेले में पड़ने की क्या प्र.264.इससे तो ऐसा लगता है कि जैन जरूरत थी? धर्म ईश्वर की सत्ता नहीं मानताहै? **************** 86 ****** * ****
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________________ ___ जैन दर्शन में ईश्वरीय/परमात्म वापस नहीं लौटा जाता, वही मेरा धाम है। सत्ता की व्याख्या की गयी है परन्तु प्र.267.जब ईश्वर न तो सुख देता है, न उसे जगत्कर्ता-धर्ता एवं नियन्ता शक्ति, फिर उनके कीर्तन, अर्चन नहीं माना गया है। हर आत्मा में व स्मरण से क्या लाभ? परमात्मा छिपा है। जब आत्मा समस्त उ. जैसे दर्पण में देखकर व्यक्ति अपने कर्मों से मुक्त हो जाता है, तब वह मुख पर लगे दाग को साफ कर लेता परमात्मा (सिद्ध) बन जाता है। है, उसी प्रकार हम ईश्वर स्वरूप को परमात्म स्वरूप दो पदों की व्याख्या जानकर एवं उन्हें आदर्श मानकर जैनधर्म में की गयी है आत्मा पर लगे मिथ्यात्व, कषाय, 1. अरिहंत 2. सिद्ध। मर्छा, इच्छा के मेल, गंदगी एवं कचरे इनका आलम्बन लेकर जीव क्रमशः को साफ कर सकते हैं अतः ईश्वर का कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करता हुआ ध्यान वैसा बनने के लिये करना स्वयं निरंजन निराकार सिद्ध/परमात्मा चाहिये, न कि संसार की कामना के बन जाता है। लिये। प्र.265. ईश्वर एक है या अनेक? प्र.268. महाराजश्री ! यह तो अब समझ में उ. जो जीव संसार रूप जन्म-मरण के आ चुका है कि जगत् का कोई बंधन से मुक्त हो जाते हैं, वे ईश्वर कर्ता नहीं है एवं यह अनादिकहलाते हैं / अतः ईश्वर एक न होकर अनन्त एवं स्वभाविक है तो फिर अनन्त हैं। जगत का वास्तविक स्वरूप क्या है? प्र.266.ईश्वर बनने के बाद वे फिर से . उ. सामूहिक छह द्रव्यों का नाम जगत हैसंसार में आते हैं अथवा नहीं? 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, ज़ब तक कर्म बीज रहता है, तब तक 3. आकाशास्तिकाय, 4. पुद्गला- ही संसार रूपी वृक्ष होता है। मोह, स्तिकाय, 5. जीवास्तिकाय, 6. काल माया, अज्ञान, इच्छा, राग-द्वेष आदि 1. जीवास्तिकाय के सिवाय शेष पाँच दोषों के कारण ही जीव संसार में अजीव हैं। जन्म-मरण करता है। ईश्वर में 2. पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त मोहादि का अभाव होने से वे पुनः ___ पाँच अरुपी हैं, उनमें वर्ण, गंध, रस संसार में नहीं आते अर्थात् अवतार आदि गुण नहीं हैं। नहीं लेते। गीता में श्रीकृष्ण धनुर्धर 3. पुद्गलास्तिकाय एवं जीव अनन्त अर्जुन को अपना धाम बताते हुए हैं, शेष चार एक-एक ही हैं। कहते हैं- 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते, 1. धर्मास्तिकाय-जो द्रव्य गति करने तद्धाम परमं मम।' जहाँ जाकर
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________________ में सहज रूप से सहायक बनता है, उनके समान सुख-दुःख जानकर उसे धर्मास्तिकाय कहते है। जैसे उनके प्रति समत्व व आत्म-तुल्य जल मछली के तैरने में सहज का व्यवहार करना चाहिये। सहायक बनता है। वैज्ञानिकों की 6. काल- जो नये को पुराना व पुराने ईथर की मान्यता इस द्रव्य से मेल को नष्ट करता है, वह काल द्रव्य खाती है। है। शिशु को बाल, बाल को 2. अधर्मास्तिकाय-रुकने/ठहरने किशोर, किशोर को युवा, युवा को में जो द्रव्य सहज भाव से सहायक प्रौढ, प्रौढ को वृद्ध एवं वृद्ध को बनता है, उसे अधर्मास्तिकाय मरणासन्न करना कालद्रव्य का ही कहते है। कार्य है। व्यवहार की अपेक्षा से 3. आकाशास्तिकाय-जो अवकाश/ इसके तीन भेद होते हैं - अतीत, स्थान देता है, उसे आकाशा वर्तमान एवं भविष्यकाल। स्तिकाय कहते है। यहाँ नभ- प्र.269.क्या संसार का कभी विनाश होता है? आकाश को नहीं अपित खाली उ. काल के अनुसार संसार की अवस्था स्थान को आकाश समझना है। (पर्याय-स्वरूप) बदलती है परन्तु 4. पुद्गलास्तिकाय - जो पूरण, मूल रूप से उसका सर्वथा विनाश. गलन, सडन, उत्पन्न, नष्ट आदि कभी नहीं होता। गुणों से युक्त है, जिसमें वर्ण प्र.270: द्रव्य और पर्याय में क्या अन्तर है? गंध-रस-स्पर्श एवं रूप पाये उ. द्रव्य मूल रूप से कभी नहीं बदलता जाते हैं, उसे पुद्गलास्तिकाय है, जबकि पर्याय बदलती है। जैसे कहते है। एक सोने के कडे को पिघलाकर शरीर, दुकान, मकान, दुनिया अंगुठी बना दी जाये तो कडा मिटा का हर पदार्थ पुदगल स्परूप है, और अंगूठी उत्पन्न हुई पर दोनों ही उसकी उत्पत्ति व विनाश गुण दशाओं में सोना बरकरार रहा। इसी जानकर उसके प्रति निःस्पृह, प्रकार मनुष्य मरा, देवलोक में उत्पन्न निरपेक्ष व अनासक्त बनना हुआ पर आत्मा/जीव द्रव्य दोनों में चाहिये। रहा अतः स्पष्ट है कि द्रव्य ध्रुव, नित्य 5. जीवास्तिकाय - अनन्त ज्ञानादि होता है और पर्याय परिणमनशील होने से उत्पन्न व नष्ट होती है। यह गुण संयुक्त, सुख-दुःख का अनुभवी, चेतनावान्, प्राणवान् द्रव्य जानकर प्रज्ञावान् को पदार्थ, सत्ता, को जीवास्तिकाय कहते है। चींटी रूप आदि पर राग अथवा द्वेष नहीं और हाथी में समान आत्मा व करना चाहिये।
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________________ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्र.271. समय किसे कहते है? 7. दो पक्ष - एक मास उ. काल का वह अविभाज्य अंश जिसका 8. दो माह - एक ऋतु केवली के ज्ञान में भी विभाग नहीं हो 9. छह ऋतु - एक वर्ष सके, उसे समय कहते है। 10.पाँच वर्ष - एक युग एक दिन को चौबीस घंटों में, एक 11.70 लाख 56 हजार घण्टे को साठ मिनट में, एक मिनट करोड़ वर्ष - एक पूर्व को साठ सैकेण्ड में विभक्त किया जा 12.असंख्य वर्ष - एक पल्योपम सकता है पर समय को नहीं। 13.दस कोडा कोडी (1)एक पलक झपकाने में असंख्य पल्योपम - एक सागरोपम ___ समय बीत जाते हैं। 17. दस कोडा - एक उत्सर्पिणी (2)जीर्ण-शीर्ण कपड़े के दो टुकड़े कोडी अथवा एक कोई बलशाली करें तो उसे सागरोपम अवसर्पिणी लगभग एक सैकेण्ड जितना प्र.273. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी किसे समय लगे। उस वस्त्र के कहते है? निकटतम दो धागों (तन्तुओं) के उ. * उत्सर्पिणी अर्थात् उन्नति -उत्कर्ष टूटने के बीच असंख्य समय का काल। व्यतीत हो जाते है। अवसर्पिणी अर्थात् अवनति-अपकर्ष प्र.272. जैन दर्शनानुसार काल को का काल। विवेचित कीजिये। जिस काल में आयुष्य, धन, बल, धर्म, 1. असंख्य समय- एक आवलिका सौंदर्य आदि बढते जाते हैं, वह 2. 24 मिनट - एक घड़ी उत्सर्पिणी और जिस काल में ये सभी 3. दो घड़ी - एक मुहूर्त क्रमशः हीन होते जाते हैं, वह 4. पन्द्रह मुहूर्त - एक दिन अवसर्पिणी कहलाती है। इन दोनों में (एक रात्रि) छह-छह आरे होते हैं। 5. एक दिन-रात- एक अहोरात्रि प्र.274.आरे से क्या अभिप्राय है? 6. पन्द्रह अहोरात्रि - एक पक्ष उ. जैन ग्रन्थों में काल को चक्र (पहिये) ************** 89 ******** *** *
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________________ की उपमा दी गयी है। जिस प्रकार चक्र में बारह आरे (लकडी के डण्डे) होते हैं, उसी प्रकार कालचक्र के भी बारह आरे माने गये हैं। आरे का अर्थ विभाग समझना चाहिये। प्र.275. यह भी तो बताईये कि बारह आरे कौन-कौन से होते हैं? (1)सुषम-सुषम (2) सुषम (3) सुषमदुषम (4) दुषम-सुषम (5) दुषम (6) दुषम–दुषम। इसी नाम के छह आरे उत्सर्पिणी में होते हैं। परन्तु वे उल्टे क्रम से चलते हैं। सुषम यानि / सुख एवं दुषम यानि दुःख / प्र.276.अवसर्पिणी के प्रथम आरे में क्या-क्या होता है? उ. (1)सुषम-सुषम यानि अतिशय सुख का वातावरण। (2)काल-चार कोडाकोडी सागरोपम का / (3)तीन कोस की अवगाहना / (4)तीन पल्योपम की आयु / (5)राजा-प्रजा का व्यवहार नहीं होता है। सभी स्वतन्त्र जीवन जीते हैं। (6)सवारी का सर्वथा अभाव होता है। ___ मनुष्य पद-विहारी होते हैं। (7)सिंह, अजगर, सर्प, आदि हिंसक पशु किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं करते हैं। मक्खी, मच्छर, आदि शूद्र प्राणी नहीं होते हैं / (8)इस आरे में अत्यन्त रमणीय, सुखद एवं मनोरम वातावरण होता है। मिट्टी का स्वाद गुड़- शक्कर के समान मधुर होता है। काँटें बिल्कुल नहीं होते हैं। (9)सोना, चांदी, रत्न आदि का सद्भाव होता है पर लोग काम में नहीं लेते हैं। (10) मनुष्य अत्यन्त सरल, भद्रिक, मंदकषायी, शान्तिप्रिय एवं कलह रहित होते हैं। (11) उनका शरीर स्वस्थ एवं रोग मुक्त होता है। (12) वे तीन-तीन दिन के अन्तर से तुअर के दाने प्रमाण में भोजन फरते हैं। (13) नगर, दुकान, मकान आदि नहीं होते हैं। कल्पवृक्षों के नीचे लोग रहते हैं। वे कल्पवृक्ष विविध आकृति वाले सुन्दर, मनोहर एवं आरामदायक होते हैं। (14)असि-मसि-कृषि का कार्य नहीं होता है। दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री से युगलिक मनुष्य शांति व आदरपूर्वक जीवन यापन करते हैं। (15) मृत्यु से छह मास पूर्व एक पुत्र-पुत्री युगल का जन्म होता है। उनपचास दिन के उपरान्त
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________________ वह युवा होकर पति-पत्नी में सरस आहार देते हैं। परिणत हो जाता है। एक साथ (8)मण्यंग-स्वर्ण व रत्नमय आभूषण दो-दो का जन्म होने से वे देते हैं। युगलिक कहलाते हैं। (9)गेहाकार-निवास हेतु मनोहर (16) उनकी मृत्यु खांसी, छींक, ___ महल उपस्थित करते हैं। जम्हाई के द्वारा होती हैं तथा (10) वस्त्रांग-बहुमूल्य वस्त्र प्रदान अल्पकषायी होने से मरकर करते हैं। नियमतः देवलोक में जाते हैं। प्र.278. दूसरे आरे के भाव बताओ। प्र.277. कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते हैं उ. सुषम नामक इस आरे में दुःख का परन्तु कौन-कौन से? . सर्वथा अभाव होता है परन्तु सुख कल्प अर्थात् इच्छा। इच्छानुसार प्रथम आरे की अपेक्षा कम होता है। पदार्थ देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते है। तीन कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ये वृक्ष स्वाभाविक वनस्पतिकायमय इस आरे में आयु दो पल्योपम की एवं होते हैं। युगलिकों के पुण्य प्रभाव से अवगाहना दो कोस की होती हैं। दो मन-वांछित सामग्री देते हैं। दिन के अन्तर में बेर फल प्रमाण (1)मातंग-शक्तिवर्द्धक फलों का आहार करते हैं तथा सन्तान का 64 रस देते हैं। दिन तक लालन-पालन करते हैं। (2)भाजनांक-स्वर्ण-रजतमय बर्तन शेष बातें प्रथम आरे के अनुरूप है पर देते हैं। सुख में क्रमशः हानि होती जाती है। (3)त्रुटितांग-उनपचास प्रकार के प्र.279. तीसरे आरे का स्वरूप बताईये। बाजे देते हैं तथा विविध उ. दो कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण राग-रागिनियाँ सुनाते हैं। तीसरे आरे में उत्कृष्ट अवगाहना एक (4)दीपांग-दीपक के समान प्रकाश कोस और आयु एक पल्य प्रमाण होती करते हैं। है। एक-एक दिन के अन्तर में भोजन (5)ज्योतिषांग-सूर्यवत् प्रकाशित करने वाले युगलिक मनुष्य 79 दिनों करते हैं। तक पुत्र-पुत्री का पालन करते हैं। (6) कुसुमांग-सुरभिमयी विविध पुष्प- काल प्रभाव से शनैः शनैः कल्पवृक्ष मालाएँ प्रदान करते हैं। घटने से स्वाधिकार एवं संग्रह की (7)चित्ररसांग-विविध प्रकार के दूषित भावनाएँ मन में घर करने
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________________ लगी। इससे कलह एवं आपसी (4)पूर्व में विवाह प्रथा नहीं थी। एक लड़ाई-झगड़े का जन्म हुआ। स्त्री जिस जोड़े को उत्पन्न करती कुलकरों की हकार-मकार-धिक्कार थी वह उचित समय पर जैसी दण्डनीतियों का भी अतिक्रमण पति-पत्नी में बदल जाता था। होने लगा। तत्पश्चात् नाभिकुलकर आपकी सुमंगला एवं सुनंदा दो की पत्नी मरुदेवी की रत्नकुक्षि से रानियाँ थी, उनसे सौ पुत्र एवं दो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म पुत्रियाँ हुई / ज्येष्ठ पुत्र भरत प्रथम हुआ। चक्री बने। परिग्रह व कलह के निराकरण हेतु (5)आपने पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की ऋषभकुमार ने असि-मसि-कृषि का ___64 कलाओं का प्रवर्तन किया। प्रवर्तन किया। जम्बूद्वीप के इस भरत (6)इससे पूर्व कोई धर्म नहीं था। आप क्षेत्र में आपने ही समय का तकाजा ही प्रथम साधु, प्रथम जिन एवं समझकर परिवर्तन किये जैसे प्रथम तीर्थंकर बने। परमात्मा (1)पूर्वकाल में राजा नहीं होता था। ऋषभदेव का निर्वाण तीसरे आरे इन्द्रादि ने आपको नृपति पद पर में हुआ। उनके निर्वाण के बाद अभिषिक्त किया तब से तीन वर्ष साढ़े आठ माह व्यतीत राजा-प्रजा का व्यवहार चला। होने पर चतुर्थ आरा लगा। (2)पूर्व में कल्पवृक्षों द्वारा यथेष्ट प्र.280. चौथे आरे का स्वरूप समझाईये। सामग्री प्राप्ति होने से भोजन आदि उ. सुख कम और दुःख ज्यादा ऐसा विधियों का लोगों को ज्ञान नहीं दुषम-सुषम नामक चौथा आरा एक था। तब आपने कृषि, अग्नि आदि कोडा-कोडी सांगरोपम में से 42,000 के माध्यम से अन्न उगाना/ वर्ष जितने कम काल का होता है। पकाना/खाना सिखाया। त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों में से 61 (3)पहले कोई पढ़ना, लिखना नहीं शलाका पुरुष इस आरे में हुए- 23 जानता था। काल की मांग तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, नव-नव समझकर आपने पुत्री ब्राह्मी को बलदेव, वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव।। अक्षर (अ,आ,ई आदि) का एवं इस आरे में जीव पांचों गतियों में जाते सुंदरी को अंक (1, 2, 3) का हैं। उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष्य की ज्ञान प्रदान किया। अवगाहना एवं आयु एक करोड़ पूर्व
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________________ की होती है। उद्घोषणा करेंगे- जो धर्म-कर्म प्र.281.पांचवें आरे की विवेचना कीजिये। करना हो, वह कर लो, छट्ठा आरा उ. (1)21 हजार वर्ष के इस दुःखपूर्ण लगने वाला है। दुषम आरे में जन्मा जीव मोक्षगामी यह सुनकर दुप्पसहसूरि, साध्वी नहीं होता है, शेष चार गतियों में फल्गुश्री, नागिल श्रावक एवं जाता है। सत्यश्री श्राविका अनशन करके (2)मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, क्षपक स्वर्गवासी हो जायेंगे। श्रेणी, उपशम श्रेणी, सिद्धि गमन (7)अन्तिम दिन आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा आदि दस बातें पंचम आरे में नहीं को प्रथम प्रहर में जैन मत का, होती हैं। दूसरे प्रहर में अन्य धर्मों का, तीसरे (3)पंचम आरे मैं पच्चीस बातें मुख्य प्रहर में राजनीति एवं चतुर्थ प्रहर रूप से घटित होती है- जैसे शहर में अग्नि का लोप/विच्छेद हो गाँव की तरह और गाँव शमशान जायेगा। श्रावण वदि एकम को जैसे हो जाते हैं, कुलीन लोग अतिशय दुःखपूर्ण षष्ठम आरे का दास-दासी की भाँति होते हैं, प्रारंभ होगा। उनका आदर-सम्मान नहीं होता प्र.282.दुषम दुषम आरे की व्याख्या है, दुष्काल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, कीजिये। रोग, विघ्न बढ़ जाते हैं, उ. (1)21 हजार वर्ष प्रमाण दुःख, अधर्म, झगड़े-मतभेद बढ़ते हैं, गुरु एवं हिंसा और कषाय से परिपूर्ण इस माता-पिता का सत्कार-सेवा घट आरे के प्रारंभ में विष, अग्नि, धूल, जाती है, कुदेवों कुगुरुओं, एवं आदि की भीषण वृष्टियाँ होगी। कुधर्म का अधिक प्रचलन बढ़ जहर से प्राणी मर जायेंगे, अग्नि जाता है, स्त्रियों में लज्जा घट से सब कुछ भस्मीभूत हो जायेगा। जाती है, आदि। प्रलयकारी संवर्तक वायु से भूमि (4)इस आरे के आरंभ में आयु सौ वर्ष अस्त-व्यस्त हो जायेगी। वैताढ्य एवं अवगाहना सात हाथ की थी, पर्वत, ऋषभकूट, गंगा व सिंधुनदी वह घटती हुई अन्त में बीस वर्ष के अलावा समस्त पर्वत, नदी-नाले की एवं एक हाथ की रह जायेगी। महल, घर आदि नष्ट हो जायेंगे। (5)आरे के अन्त में इन्द्र महाराज (2)उस समय चन्द्रमा की किरणें
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________________ अत्यन्त शीतल एवं सूर्य की किरणे __ इच्छा होगी। क्षुधापूर्ति के लिये अतिशय उष्ण होगी। फल, धान्यादि नहीं होने से वे मच्छ, (3)पृथ्वी का स्पर्श तलवार-धार की कच्छ आदि का आहार करेंगे। तरह तीक्ष्ण-वेदनाकारी एवं सूर्योदय के एक मुहूर्त पश्चात् वे नदी अंगारों के समान अत्युष्ण होगा। में स्थित जलचर जन्तुओं को उसमें फूल, वृक्ष आदि की उत्पत्ति पकड़कर धूल में दबा देंगे। शाम नहीं होगी। तक सूर्य के तीव्र ताप में शकरकंद की (4)ग्राम, नगर, पहाड़, समुद्र, तालाब भाँति स्वतः सिक जायेंगे तब सूर्यास्त आदि सब कुछ विनष्ट हो जायेंगे। के एक मुहूर्त बाद निकालकर लायेंगे, गंगा-सिन्धु नामक दो नदियों में काट-काटकर खायेंगे और कठोररथ की धुरी प्रमाण ही पानी रहेगा। घोर पापकर्मों का संचय करके उसमें भी भयंकर मगरमच्छ आदि प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में प्राणी विशेष रूप से उत्पन्न होंगे। . जन्म लेंगे। (5)विष आदि की वृष्टि होने पर यहाँ अवसर्पिणी के छह आरों का भयभीत होकर मनुष्य वैताढ्य वर्णन परिपूर्ण होता है। पर्वत के उत्तर में स्थित प्र.283. उत्सर्पिणी का स्वरूप समझाओ / गंगा-सिन्धु नदियों के आठ किनारों उ. उत्सर्पिणी का स्वरूप अवसर्पिणी के पर जो बहत्तर गुफाएँ हैं, उसमें समान है पर उसका क्रम उल्टा है। निवास करेंगे। अवसर्पिणी में जो बल, आयु, (6)उनकी अवगाहना एक हाथ की, अवगाहना आदि घटते जाते हैं, वे स्त्री की 16 वर्ष की एवं पुरुष उत्सर्पिणी में बढ़ते जाते हैं। की 20 वर्ष की उत्कृष्ट आयु होगी। (1)प्रथम आरा - यह आरा अव(7)वे मनुष्य तीव्र कषायी होने से सर्पिणी के छठे आरे के समान कलह करते रहेंगे। अति होगा / विशेषता यह है कि इसमें काम-लिप्सु होने से उन्हें माँ, क्रमशः आयु, अवगाहना आदि बहिन, बेटी का भी भान नहीं बढ़ती जायेगी। रहेगा। स्त्री पाँच वर्ष की उम्र में (2)दूसरा आरा - इस आरे के प्रारंभ गर्भ धारण कर लेगी। संतान में सात-सात दिन तक पांच अधिक होगी। प्रकार की वृष्टि होगी। . (8) उन जीवों को अपरिमित आहार की (1)पुष्कर संवर्तक मेघ- इससे भूमि
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________________ की. उष्णता, रूक्षता नष्ट हो जायगी। इसके बाद सात दिन तक वृष्टि बंद रहेगी। (2)क्षीर मेघ- इससे पृथ्वी की दुर्गन्ध नष्ट हो जायेगी / इसके पश्चात् सात दिन तक वर्षा नहीं होगी। (3)घृत मेघ- इससे पृथ्वी में स्निग्धता उत्पन्न होगी। (4)अमृत मेघ- इससे पृथ्वी में धान्य, फल, फूल, आदि की उत्पत्ति होगी। (5)इक्षु रस मेघ- इससे वनस्पति रस एवं मधुरता से परिपूर्ण बनेगी। उनपचास दिनों में यह आश्चर्यजनक शुभ परिवर्तन देखकर, रमणीय, मनोरम एवं हरी-भरी सृष्टि को निहारकर सब लोग बिल से बाहर निकलेंगे। नृत्य करके अपना आनंद अभिव्यक्त करेंगे और परस्पर कहेंगे- आज के दिन पुण्योदय-सौभाग्योदय हुआ है। देखो! यह प्रकृति कितनी सुखदायी और शांतियुक्त हो गयी है। तब वे मांसाहार आदि को छोड़कर खाद्य-पदार्थों का भोग करेंगे और प्रेम से मिलकर अनेक सामाजिक मर्यादाओं का निर्माण करेंगे। वह दिन होगा भाद्रपद शुक्ला पंचमी का, जिस दिन को जैनागमों में सांवत्सरिक पर्व माना गया है। लगातार वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि में अनंत गुणी वृद्धि होगी। (3)तीसरा आरा- यह आरा अव सर्पिणी के चतुर्थ आरे के समान होगा। इस आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ माह बीतने पर नरक से च्यवकर श्रेणिक पद्मनाभ नामक तीर्थंकर बनेंगे। तदुपरान्त क्रमशः सुरदेवादि बावीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ-नौ बलदेव वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव जन्म लेंगे। (4)तत्पश्चात् चौथे आरे में अन्तिम तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती होंगे। करोड़ पूर्व वर्षों के बाद कल्पवृक्षों की उत्पत्ति होगी। उनसे आहार आदि की प्राप्ति होने से असि, मसि, कृषि कार्य बंद होंगे। बादर अग्नि और धर्म का विच्छेद हो जायेगा ।उसके बाद मनुष्य धर्म का विच्छेद होगा और युगलिक युग का प्रारंभ होगा। (5-6)फिर 5 वां एवं 6ट्ठा आरा अवसर्पिणी के पहले व दूसरे आरे के समान होगा। इसके बाद फिर अवसर्पिणी का प्रारंभ होगा। इस प्रकार यह कालचक्र अनन्तकाल से चल रहा है तथा अनन्त काल तक चलता रहेगा।
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________________ लोक का स्वरूप प्र.284.लोक और अलोक में क्या अन्तर है? धनुष्य का (गाऊ) उ. जिस क्षेत्र में धर्म, अधर्म, आकाश, 8. चार कोस का - एक योजन पुद्गल, जीव और काल, ये छहों द्रव्य व्यवहार में एक योजन तेरह कि. पाये जाते हैं, उसे लोक कहते है। मी. का होता है। जिस क्षेत्र में आकाशास्तिकाय नामक प्र.288. सम्पूर्ण लोक को कितने भागों में एक मात्र द्रव्य पाया जाता है, उसे बांटा गया है? अलोक कहते है। उ. तीन भागों मेंप्र.285. लोक बड़ा है अथवा अलोक? (1) उर्ध्वलोक- 7 रज्जु में से 900 उ. लोक से अलोक अनन्त गुणा बड़ा है। योजन कम प्रमाण विस्तृत प्र.286. लोक कितने रज्जु प्रमाण है? उर्ध्वलोक में सिद्धशिला एवं उ. चौदह रज्जु प्रमाण / एक रज्जु असंख्य देवलोक स्थित है। कोडाकोडी योजन प्रमाण कहा गया (ii) मध्यलोक- 1800 योजन प्रमाण मध्यलोक में मनुष्य, तिर्यंच, प्र.287.योजन आदि मापदण्डों को ज्योतिष्क, व्यंतर एवं वाणव्यंतर समझाईये। देव स्थित हैं। उ. (1)सुई की नोंक जितने स्थान को (ii)अधोलोक- 7 रज्जु में से 900 घेरती है, उसका असंख्यातवाँ योजन कम क्षेत्र में नारकी, भाग–अंगुल का असंख्यातवाँ भवनपति तथा परमाधामी देव हैं। भाग / प्र.289. मध्यलोक कितना विस्तृत है? 2. छह अंगुल की - एक मुट्ठी उ. (1)1800 योजन मोटा एवं असंख्य 3. दो मुट्ठी की - एक वेंत / योजन लम्बा-चौड़ा है, जिसके 4. दो वेंत का - एक हाथ ठीक मध्य में जम्बूद्वीप है और 5. दो हाथ का - एक दण्ड उसके मध्य में सुदर्शन नामक मेरू 6. दो दण्ड का - एक धनुष्य पर्वत है। 7. दो हजार - एक कोस (2)जम्बूद्वीप के चारों तरफ लवण
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________________ समुद्र * है। उससे आगे-आगे के बिना इससे बाहर नहीं जा सकता है। - वलयाकार में धातकी-खण्ड, प्र.291.ढाई द्वीप में कुल कितने मेरू कालोदधि समुद्र, पुष्करावर्त द्वीप पर्वत हैं? आदि हैं। उनका विस्तार क्रमशः उ. पांच-एक जम्बूद्वीप में, दो धातकीदुगुना-दुगुना है। असंख्य द्वीप- खण्ड में एवं दो अर्द्धपुष्करावर्त द्वीप में समुद्र वाले मध्यलोक के अन्त में हैं। मेरू पर्वत दस हजार योजन स्वयंभूरमण समुद्र है। चौड़ा और एक लाख योजन प्रमाण (3)जम्बूद्वीप थाली के आकार का एवं ऊँचा है। शेष द्वीप-समुद्र चूड़ी जैसी प्र.292. लोक का आकार कैसा कहा गया आकृति के हैं। प्र.290. क्या इन सभी द्वीप-समुद्रों में उ. कटि (कमर) पर दोनों हाथ रखकर मनुष्य होते हैं? पाँव चौड़े किये हुए मनुष्य जैसा उ. जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड एवं अर्द्ध आकार लोक का है। पुष्करावर्त-द्वीप, इन ढाई द्वीपों में प्र.293. जीवों का अल्पबहुत्व बताओ / तथा लवण समुद्र के कुछ भाग में ही उ. इस लोक मेंमनुष्यों का वास है। जहाँ तक मनुष्यों 1. सबसे कम मनुष्य हैं। का वास है, उसे मनुष्य लोक एवं 2. नैरयिक उनसे असंख्य गुणा हैं। समय क्षेत्र कहा जाता है। 3. देव उनसे असंख्य गुणा हैं। जंघाचारण, विद्याचारण मुनियों के 4. सिद्ध उनसे अनन्तगुणा हैं। अलावा कोई भी मनुष्य देव-शक्ति 5. तिर्यंच उनसे अनन्त गुणा हैं।
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________________ जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त प्र.294.अनेकान्तवाद से क्या अभिप्राय है? सोच बदल ले कि मैं उनकी अपेक्षा तो उ. अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु का कथन सुखी ही हूँ जिनको किराये का घर भी करना अनेकान्तवाद कहलाता है। नसीब नहीं हुआ है, फुटपाथ पर इसे स्याद्वाद, विभज्यवाद भी कहा जीवन-गुजारा करते हैं। इसके द्वारा जाता है। जैसे एक व्यक्ति अपने हम हर बात को स्पष्ट, पूर्ण एवं माता-पिता की अपेक्षा से पुत्र है तो व्यवस्थित जानकर जीवन यात्रा को अपनी सन्तान की अपेक्षा से पिता है। आनंदमय बना सकते हैं। .. वह विविध अपेक्षाओं से प्र.295. उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य, इन तीन नाना-दोहिता, चाचा-भतीजा, ससुर- बातों को बताओ। दामाद, साला-बहनोई, शत्रु-मित्र उ. हर वस्तु-पदार्थ तीन गुणों से संयुक्त आदि भी हो सकता है। हैयह अनेकान्तवाद का सिद्धान्त एक 1. उत्पाद- उत्पन्न होना। ही पदार्थ व व्यक्ति में विपरीत गुणों 2. व्यय- नष्ट होना / का कथन करता है। एक पाँच फुट 3. ध्रौव्य-स्थिर होना। इसे त्रिपदी वाला व्यक्ति लम्बा है भी और नहीं कहते है। भी। वह 3, 4 फुट वाले की अपेक्षा से जैसे-दूध से दही बनाया तो दूध लम्बा है तथा 6, 7 फुट वाले की का विनाश एवं दही का जन्म हुआ अपेक्षा बौना है। पर गौरस दोनों में ज्यों का त्यों यह अनेकान्त का सिद्धान्त परिवार से बना रहा। स्वर्ण की अंगूठी को लेकर से राष्ट्र तक, झोंपड़ी से पिघलाकर चेन बनायी तो अंगूठी लगाकर महल तक, कृषक से का नाश और चेन की उत्पत्ति हुई लगाकर राजनेता तक एवं व्यक्ति से पर सोना दोनों में स्थिर रहा। लेकर सम्पूर्ण सृष्टि तक सभी को प्र.296. द्रव्य, गुण और पर्याय से क्या सुखी और शान्तिमय बना सकता है। अभिप्राय है? जैसे एक व्यक्ति दुःखी है क्योंकि वह उ. जिसमें गुण और पर्याय रहते हैं, उसे किराये के मकान में रहता है पर वह द्रव्य कहा जाता है। जो द्रव्य से कभी
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________________ भी अलग नहीं होता है, उसे गुण कहते है। पूर्व आकार, स्थिति आदि का त्याग एवं नये आकारादि की प्राप्ति को पर्याय कहते है। द्रव्य छह प्रकार के हैं, जिनका पूर्व में विवेचन किया जा चुका है। जीवास्तिकाय (आत्मा) एक द्रव्य है, उसमें चेतनता, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, आदि अनन्त गुण नित्य एवं अविनाभावी रूप से स्थित हैं, इस विशिष्टता को गुण कहा जाता है। मनुष्य आदि का मरकर देवादि होना पर्याय कहलाता है। इस प्रकार जीव को द्रव्य, चेतनत्व आदि को गुण तथा देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूपों में परिवर्तित होना पर्याय कहलाता है। प्र.297.निक्षेप किसे कहते है? उ. प्रतिपाद्य वस्तु का व्यवस्थित रूप से बोध प्राप्त करने के लिये उसमें नाम 'आदि की स्थापना करना निक्षेप कहलाता है। निक्षेप चार प्रकार के कहे गये हैं(1)नाम निक्षेप- किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि के गुणअवगुण की विवक्षा किये बिना व्यवहार हेतु नाम रखना नाम निक्षेप कहलाता है। जैसे-पहचान हेतु राम, कृष्ण, मोहन, सोहन आदि नाम रखना। (2)स्थापना निक्षेप- किसी व्यक्ति अथवा वस्तु का चित्र, मूर्ति आदि में आरोपण करना / जैसे महावीर, कृष्ण आदि की मूर्ति अथवा चित्र। (3)द्रव्य निक्षेप- भूतकाल अथवा भविष्य के आधार पर वर्तमान में कथन करना। जैसे-गृहस्थाश्रम में स्थित अव्यक्त तीर्थंकर को अथवा उनके निर्वाण के बाद उनकी काया को तीर्थंकर कहना। (4)भाव निक्षेप- वर्तमान के आधार पर कथन करना। जैसे केवलज्ञान-केवलदर्शन से युक्त ऋषभ, महावीर आदि प्रभु देशना दे रहे हो, तब उनको तीर्थंकर कहना। प्र.298. जैन दर्शन एवं व्यवहार में प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या कीजिये। उ. (1)देव गुरु पसाय- जब साधु साध्वी भगवंतों को सुख शातापृच्छा की जाती है, तब वे देव गुरु पसाय कहते हैं, यानि देव और गुरु की कृपा से शाता है। (2)वर्तमान जोग- गौचरी की प्रार्थना करने पर गुरु भगवंत स्पष्ट रूप से स्वीकृति अथवा निषेध न करके वर्तमान जोग कहा करते हैं अर्थात् उस समय द्रव्यक्षेत्र-काल एवं भाव की जैसी
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________________ अनुकूलता होगी, वैसा देखा जायेगा। (3)तहत्ति - आदेश स्वीकृति को प्रकट करता है 'तहत्ति' शब्द।। (4)आराधना- जिनाज्ञा के अनुरूप होने वाली मन - वचन - काया की प्रवृत्ति। (5)विराधना- जिनाज्ञा के प्रतिकूल होने वाली मन आदि की क्रिया। (6)आगार-किसी भी प्रत्याख्यान में रखी जाने वाली छूट। (7)त्रिकाल वंदना- इससे रात्रि के समय वंदना की अभिव्यक्त होती (9)सुझता- शुद्ध, दोषों से मुक्त, __ अचित्त, कल्पनीय आदि। (10) प्रासुक-अचित्त। (11) जय जय नंदा-जय जय भद्दा- साधु- साध्वी का कालधर्म होने पर बोला जाने वाला शास्त्रीय सूत्र। (12) मत्थएण वंदामि- मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ। (13) मिच्छामि दुक्कडं-जो कुछ मुझसे गलत, बुरा अथवा अंप्रिय हुआ, उसकी क्षमायाचना। (14) जय जिनेन्द्र- जिनेश्वर परमात्मा की जय हो अथवा स्वधर्मी बंधु के अभिवादन हेतु प्रयोग। (8)सचित्त-अचित्त- जीव युक्त पदार्थ सचित्त एवं जीव रहित पदार्थ अचित्त कहलाता है।
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________________ जैन कर्म मीमांसा 1. जैन कर्मवाद 2. कर्म के भेद व प्रभेद 3. कर्म का फल 4. बंध के कारण : मुक्ति के उपाय 5. चौदह गुणस्थानक
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________________ जैन कर्मवाद प्र.299. यदि समस्त जीवों में समान आत्म माना जाये तो प्रश्न होगा कि भगवान शक्ति है तो फिर संसार में किस आधार पर जीवों को मूर्ख-विद्वान्, अमीर-गरीब, राजा- सुखी-दुःखी, विपन्न-सम्पन्न बनाता रंक, रोगी-निरोगी आदि भेद है। उसे सर्वशक्तिसम्पन्न होने से क्यों दिखायी देते हैं? सभी को सुखी, सम्पन्न, विद्वान्, उ. इस विश्व में कर्म नामक एक शक्ति है यशस्वी ही बनाना चाहिये। फिर भला जिसके कारण अनन्त शक्ति, सौन्दर्य, किसी को दुःखी, विपन्न, मूर्ख एवं ज्ञान, साधना सम्पन्न होने पर भी निंदा का पात्र क्यों बनाता है ? जीवों में सुखी-दुःखी, नारकी- इसके उत्तर में यह तर्क दिया जाये तिर्यंच-मनुष्य देव आदि अनेक भेद कि वह जीव के कर्मानुसार दृष्टिगत होते हैं। इसी कर्म शक्ति को सुख-दुःख, बुद्धि, धन, यश, साधन वेदान्त दर्शन में माया या देता है तो स्पष्ट ही है कि ईश्वर/ अविद्या, सांख्य दर्शन में प्रकृति, भगवान भी कर्मानुसार ही जीव को वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, मीमांसक सुख-दुःख देता है और कर्मसत्ता में दर्शन में अपूर्व कहा गया है। विभिन्न वह किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप * 'स्थानों पर इसे भाग्य, दैव, पुण्य-पाप करने में असमर्थ है। के रूप में व्याख्यायित किया गया है। जैन दर्शन में ईश्वरीय सत्ता को मध्य प्र.300. महाराजश्री! हम सुनते हैं और में न लाकर सीधे-सीधे कर्म सत्ता की कहते भी हैं कि परमात्मा/ प्ररूपणा एवं व्याख्या की गयी है। भगवान जैसा चाहते हैं, वही होता प्र.301. कर्म तो अदृश्य तत्त्व है, फिर है तो फिर कर्म का अस्तित्व कैसे __ इसकी सिद्धि किस प्रकार संभव है? उ. संसार में ऐसी अनेक विचित्रताएँ यदि भगवान को विश्व का नियंता, दिखाई देती हैं, जिनका कोई कारण कर्ता, धर्ता और सुख-दुःख में कारण नजर नहीं आता है परन्तु यह भी ***************** 103 ********************* माने? ..
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________________ निश्चित है कि कारण के बिना कोई उ. विविध कर्मों में से कुछ कर्म परिस्थिति' भी कार्य नहीं होता है। वृक्ष नजर विशेष में आत्मा से ज्यादा बलवान आता है पर यह भी निश्चित है कि होते हैं परन्तु अधिकतर कर्म निर्बल इसके मूल में बीज रहा हुआ है, चाहे होते हैं। वह दिखायी न दे। कारण भले ही सबल कर्म जिन्हें शास्त्रों में निकाचित प्रत्यक्षरूपेण दृष्टिगत नहीं होता है कहा गया है, वे कर्म तीर्थंकर, परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से कारण चक्रवर्ती, इन्द्र, हर जीव को भोगने ही अवश्यमेव विद्यमान होता है यथा - होते हैं। वे जप-तप, साधना-संयम, 1. एक ही माता-पिता के दो पुत्रों में किसी भी उपाय से नष्ट नहीं होते हैं से एक मूर्ख होता है और दूसरा जैसे महावीर प्रभु को भी कान में खीले विद्वान् / एक कुरूप होता है और ठुकवाने पडे। परन्तु अधिकतर कर्म दूसरा सुंदर। एक अमीर होता है ऐसे होते हैं, जिन्हें जप-तप-ध्यान और दूसरा गरीब। आदि के द्वारा घटाया-बढ़ाया जा 2. एक ही अध्यापक के सानिध्य में सकता है: अथवा पूर्ण रूप से नष्ट समान रूप से विद्यार्जन करने किया जा सकता है। अशाता को वाले दो बालकों में से एक प्रथम शाता में, अपयश को सुयश में श्रेणी से उत्तीर्ण होता है और दूसरा परिवर्तित किया जा सकता है, लम्बी अनुत्तीर्ण हो जाता है। स्थिति को छोटा किया जा सकता है। प्र.302. पूर्वकृत कर्मानुसार जीव सुख- इससे स्पष्ट है कि प्रयास करके कर्म दुःख प्राप्त करता है और पर विजय प्राप्त की जा सकती है। प्रयत्नशील होने पर भी मुक्त नहीं कदाच् सफलता प्राप्त न हो तो हो पाता है।' कर्मवाद के इस पूर्वकृत कर्म की प्रबलता जानकर धैर्य सिद्धान्त से प्रतीत होता कि जीव धारण करना चाहिये। . से ज्यादा बलवान कर्म है। और इस प्रकार आत्मा साधना के विविध जब जीव से ज्यादा बलवान कर्म अनुष्ठानों से जुडती हुई आश्रव द्वारों है तो फिर कर्ममुक्ति की दिशा में को बन्द करके एवं सम्पूर्ण निर्जरा प्रयत्न क्यों किया जाये? करके परमात्मा बन जाती है।
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________________ प्र.303.आत्मा चैतन्य स्वरूप और कर्म वरदान की शक्ति निहित है। यह .. जडरूप है तो फिर पारस्परिक आँखों देखी और अनुभव की गयी बात संबंध किस प्रकार संभव है? है कि मदिरा निर्जीव होने पर भी उ. घृत या तेल की बूंदों से युक्त वस्त्र पर पीने वाले को बेहोश, बेभान और वायु प्रवाह में उडकर आने वाली धूल उन्मत्त बना देती है। अमृत बेहोश को चेतना रहित होने पर भी चिपक जाती होश में ले आता है, जहर मार डालता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा पर है, दुध-घी पुष्ट बनाता है, उसी राग-द्वेष की स्निग्धता होने से कार्मण प्रकार जड कर्म भी राग-द्वेष आदि वर्गणा के पुद्गल उससे संयुक्त हो संवेदनों के द्वारा आत्मा से जुडकर जाते हैं। . सुख-दुःख की अनुभूति करवाते हैं। प्र.304. कर्मपुद्गल मूर्त, रूपी है तो फिर प्र.306. महाराजश्री! क्षण–मात्र के लिये वे अमूर्त, अरूपी आत्मा से कैसे स्वीकार कर ले कि पूर्वकृत कर्म बंध सकते हैं? शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं उ. प्रत्येक संसारी आत्मा .परं कर्मपुद्गल पर प्रश्न है कि जीव चैतन्यशील चिपके हुए हैं। वास्तव में कर्मपुद्गलों एवं विवेकी है, वह सुख रूपी पर ही, कर्मपुद्गल से युक्त आत्मा से परिणाम को तो स्वीकार कर लेगा ही कार्मण परमाणु बंध सकते हैं। पर दुःख रूप परिणाम को भला सिद्धात्मा कर्म मुक्त होने से उनसे क्यों स्वीकार करेगा? ... कर्मपुद्गल नहीं बंधते हैं। इसलिये उ. यहाँ स्वीकृति व अस्वीकृति का कोई गहराई से देखा जाये तो मूर्त से मूर्त प्रश्न ही नहीं है क्योंकि शुभाशुभ का ही संयोग होता है, मूर्त से अमूर्त कर्मानुसार जीव की बुद्धि स्वतः उस का नहीं। प्रकार की बन जाती है। वह तदनुसार प्र.305. यदि कर्म जड/निर्जीव है तो अच्छा या बुरा कार्य करके सुख फिर जीव को सुख-दुःख आदि अथवा दुःख को प्राप्त कर लेता है। फल कैसे दे सकते हैं? जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने उ. यद्यपि कर्म जड/निर्जीव है तथापि पर छात्र खेल-कूद, गपशप आदि में उनमें अनुग्रह-निग्रह, अभिशाप- वक्त गंवाकर अनुत्तीर्ण हो जाता है।
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________________ अशाता का उदय होता है और व्यक्ति कि समान परिस्थिति, पुरूषार्थ, सत्ता, व्यसनों का एवं प्रतिकूल पदार्थों का सम्पत्ति आदि होने पर भी वह एक के प्रयोग कर दुःखी हो जाता है। लिये वह सुखद और दूसरे के लिये प्र.307.महाराजश्री! जब यह प्रत्यक्षरूप दुःखद बन जाती है। इस भेद का से दृष्टिगोचर हो रहा है कि धन, कारण एक मात्र कर्म ही है। जीव साधन, वैभव, परिवार, पदार्थ जिस प्रकार शुभाशुभ कर्मों का बंधन आदि सुख के कारण हैं और विष, करता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। तलवार, छूरी, कण्टक आदि दुःख इससे मानना होगा कि कर्म-सत्ता का के कारण हैं फिर यह क्यों माना विश्व में निश्चित ही सद्भाव है। जाये कि पूर्वकृत कर्म सुख-दुःख प्र.308.जीवात्मा कर्माधीन है अथवा के हेतु हैं? स्वतन्त्र? उ. एकान्त रूप से धन, वैभव, परिवार उ. कर्म बांधने में जीवात्मा स्वतंत्र होता है आदि को सुख का और तलवार आदि परन्तु फल भोगते समय परतन्त्र होता को दुःख का कारण नहीं माना जा सकता है क्योंकि एक व्यक्ति के लिये जैसे वृक्ष पर चढते समय जीव स्वतंत्र एक जीव/पदार्थ सुख का एवं दूसरे होता है परन्तु प्रमादवश गिरते समय व्यक्ति के लिये वह दुःख का कारण परतन्त्र हो जाता है। इसी प्रकार बन जाता है। समान पूंजी एवं विषपान-मद्यपान करते समय जीव उद्यमपूर्वक एक समान व्यापार करने स्वतंत्र होता है पर बाद में मृत्यु, वाले दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति बेहोशी, पागलपन प्राप्त करते समय लाभ प्राप्त करता है, दूसरा हानि परतन्त्र हो जाता है। उठाता है। किसी परिस्थिति विशेष की अपेक्षा से एक ही प्रकार का दुग्धपान करने वाले जीव परतन्त्र होता है परन्तु मूल दो व्यक्तियों में से एक के लिये दूध स्वभाव से स्वतंत्र ही है। कभी आत्म पुष्टि का एवं दूसरे के लिये विसूचिका शक्ति, काल आदि लब्धियों की (रोग) का कारण बन जाता है। अनुकूलता होने पर जीव कर्मों को इन सभी तथ्यों से पूर्णतया स्पष्ट है पछाड़ भी देता है, कभी कभी कर्मों की
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________________ बहुलता-प्रबलता से हार भी जाता है जब तक उनका आत्मा से संयोग अतः कहीं जीव कर्माधीन है, कहीं कर्म नहीं होता है, तब तक वे मात्र जीवाधीन है। पुद्गल ही होते हैं, उनमें फल देने प्र.309. कर्म और आत्मा का संबंध कब से है? की शक्ति नहीं होती है। उ. अनादिकाल से। 3. यदि कहा जाये कि दोनों की प्र.310. कर्म और आत्मा के सम्बंध की उत्पत्ति एक ही साथ हुई, तो भी आदि मान ले तो क्या आपत्ति हो असंभव ही है क्योंकि इन्हें उत्पन्न सकती है? करने वाला कोई ईश्वर नहीं है। कर्म और आत्मा दोनो का संबंध इससे स्पष्ट है कि कर्म और जीव, अनादि है। दोनों का संबंध अनादि है। संसार 1. यदि ऐसा माना जाय कि पहले में जब भी जीव था, कर्म युक्त ही आत्मा थी, तत्पश्चात् उससे कर्म था क्योंकि कर्म बिना तो जीव का संयोग हुआ तो भी उचित नहीं मुक्ति की दशा में होता है। है, क्योंकि कर्म रहित शुद्धात्मा पुनः प्र.311.यदि कर्म और आत्मा का संबंध कर्म सहित हो जाती है तो फिर अनादिकालीन है तो इस सम्बन्ध उसकी मुक्ति ही निरर्थक है। का अन्त कैसे संभव है? मुक्तात्मा के पुनः कर्म लिप्त होने उ. यह कोई अनिवार्य नियम नहीं कि से समस्त धर्म-कार्य व्यर्थ हो जिसका अनादि संबंध हो, वह अनन्त जायेंगे। हो। जिस प्रकार मिट्टी और स्वर्ण का 2. यदि ऐसा माना जाये कि कर्म की सम्बन्ध अनादिकालीन है परन्तु अग्नि उत्पत्ति पहले हुई तो भी संभव नहीं के साधन से उन्हें अलग-अलग है क्योंकि जीव ही कर्म का कर्ता किया जा सकता है, उसी प्रकार है। जीव की शुभ-अशुभ रत्नत्रयी की सम्यक् आराधना से विचारधारा एवं क्रिया के द्वारा जीव कर्म मुक्त होकर सिद्ध अवस्था आत्मा से संयुक्त होने वाले को प्राप्त कर लेता है। पुद्गलों को 'कर्म' कहा जाता है। प्र.312. जीव जब यह जानता है कि शुभ
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________________ कर्म करने से सुख की एवं अशुभ कर्म करने से दुःख की प्राप्ति होती है, फिर वह अशुभ/ पापकार्य में प्रवृत्त क्यों होता है? जीव अनादिकाल से विषय-भोग के प्रवाह में बहता आया है। उन अनादि कालिन संस्कारों के प्रभाव से वह धर्म साधना को छोडकर विषय, कषाय, राग-द्वेष में रत होकर कर्मबंधन करके दुःखी होता हैं। जब तक जीव मोह और प्रमाद पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक वह सांसारिक सुखों का गुलाम बनकर जानता हुआ भी पापकार्य में प्रवृत्त होता रहता है। उ.
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________________ कर्म के भेद व प्रभेद प्र.313.कर्म से क्या अभिप्राय है? उ. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गल आकृष्ट होकर आत्मा से क्षीर-नीर एवं लौहपिण्ड- अग्नि की भाँति एकमेक हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहा जाता है। प्र.314.कर्म और कार्मण वर्गणा में क्या अन्तर है? उ. चौदह राजलोक में सर्वत्र पुद्गल भरे हुए हैं। उनमें से समान जाति वाले पुद्गलों को वर्गणा कहते है। यह वर्गणा आठ प्रकार की कही गयी हैं, जिनमें से एक कार्मण वर्गणा भी है। कार्मण वर्गणा के पुद्गल जब आत्मा से संयुक्त होते हैं, तब कर्म और अलग होने पर कार्मण परमाणु कहलाते हैं। प्र.315.कर्म की कितनी अवस्थाएँ कही गयी हैं? उ. दस - 1. बंध - मिथ्यात्व आदि कारणों से कार्मण पुद्गलों का आत्मा से बंधना बंध कहलाता है। 2. उद्वर्तना- अशुभ योग व करण से बंधे हुए कर्मों की स्थिति एवं फल का बढना उद्वर्तना कहलाता है। 3. अपवर्तना- शुभ योग व करण से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं परिणाम का घटना अपवर्तना कहलाता है। 4. सत्ता- आत्मा से बंधे कर्म फल न देकर जितने समय तक आत्मा के साथ रहते हैं, उसे सत्ता कहते है। 5. उदय- पूर्वबद्ध कर्मों का फल भोगना उदय कहलाता है। 6. उदीरणा- जो कर्म बाद में उदय में आने वाले हैं, उन्हें विशेष पुरूषार्थ से खींचकर उदय में लाकर भोगना उदीरणा कहलाता है। 7. संक्रमण- जिस प्रयत्न से पूर्वबद्ध कर्म निज स्वरूप को छोड़कर अन्य स्वरूप को प्राप्त करता है, उसे संक्रमण कहते है। 8. उपशमन- उदय में आने वाले कर्म को तप, स्वाध्याय के द्वारा रोकने की प्रक्रिया को उपशमन कहते है। 9. निधत्ति- कर्मों का आपस में
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________________ मिल जाना निधत्ति कहलाता है। स्थिति निर्धारित होती है, उसे 10.निकाचना- जिन कर्मों का फल स्थिति बंध कहते है। अवश्यमेव भोगना पडता है, उसे 3. अनुभाग बंध-औषधिमिश्रित कुछ निकाचना कहते है। लड्डू अधिक कडवे अथवा मीठे प्र.316.कोई भी कर्म कितने प्रकार से होते हैं, कई लड्डू कम कडवे बंधता है? अथवा मधुर होते हैं, उसी प्रकार उ. चार प्रकार से - कर्म की फलशक्ति में तीव्रता1. प्रकृति बंध- जैसे मोदक अलग मंदता (न्यूनाधिकता) को अनुभाग अलग प्रकृति वाले होते हैं, वैसे ही बंध कहते है। इसे रसबंध भी कहा कर्म भी अलग-अलग प्रकृति जाता है। वाले होते हैं। सोंठ, काली मिर्च से 4. प्रदेश बंध- कोई लड्डू छोटा होता बना लड्डू वायुनाशक होता है, है और कोई बड़ा, उसी प्रकार हल्दी, मुलहठी से निर्मित लड्डू किसी कर्म के प्रदेश कम और कफ का नाश करता है। जिस किसी के अधिक होते हैं, उसे प्रकार घी, आटा आदि समान होने प्रदेश बंध कहते है। पर भी लड्डू में मिली औषधियाँ प्र.317.कर्म के स्पृष्ट आदि चार प्रकारों अलग-अलग प्रभाव दिखाती हैं, को स्पष्ट कीजिये। उसी प्रकार कर्म बंधन काल में उ. 1. स्पृष्ट कर्म- जो कर्म पश्चात्ताप यह निर्धारित हो जाता है कि वह से नष्ट हो जाते हैं। जैसे मृगावती आत्मा के ज्ञानगुण को रोकेगा या अपने पाप-अपराध के प्रति दर्शनगुण को आच्छादित करेगा पश्चात्ताप करती हुई केवलज्ञान अथवा अन्य किसी गुण को। को प्राप्त हो गयी। 2. स्थिति बंध- जिस प्रकार औषधि 2. बद्ध कर्म- जो कर्म प्रतिक्रमण, मिश्रित कोई लड्डू दो माह तक आलोचना आदि से नष्ट होते हैं। खराब नहीं होता है, कोई एक जैसे अतिमुक्तक मुनि ने पानी में माह तक अथवा एक पक्ष तक पात्र की नैया को तिराकर जो खराब नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म बांधा, वह इरियावही करते कर्म बंधन के समय कर्म की जो हुए नष्ट हो गया एवं मुनि केवली
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________________ बन गये। दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति 3. निधत्त कर्म- जो कर्म कठोर मजबूरी, लोकलाज के कारण मुनि तपाराधना से नष्ट होते हैं। जैसे को आहार देता है तो सामान्य फल अर्जुनमाली मुनि पूर्व में प्रतिदिन मिलता है परन्तु जो व्यक्ति श्रद्धा सात व्यक्तियों की हिंसा करता और उत्कट उल्लास से मुनि को था परन्तु दीक्षा लेकर उग्र-तीव्र दान देता है, वह विशिष्ट फल प्राप्त तपश्चर्या करके उन कर्मों का क्षय करता है। शुभ कार्य हो या अशुभ किया एवं मुक्त हो गये। कार्य, भावों की मंदता एवं तीव्रता के 4. निकाचित कर्म - जो कर्म भोगे आधार पर फल प्राप्त करता है। बिना नहीं छूटते हैं। जैसे त्रिपृष्ठ वासुदेव श्री कृष्ण ने 18000 मुनियों वासुदेव के भव में महावीर ने को श्रद्धा से वन्दना करके महापापों शय्यापालक के कानों में जो का क्षय किया पर उनके अनुचर ने कथीर (उबलता शीशा) डलवाया, केवल वासुदेव की प्रसन्नता के लिए उस कारण महावीर के भव में वंदन किया अतः उसे सामान्य लाभ उन्हें कानों में खीले ठुकवाने पड़े। ही मिला। इस प्रकार कर्म साम्राज्य प्र.318.महाराजश्री! दो व्यक्ति समान में किसी प्रकार का भेदभाव या रूप से दान देते हैं, उसके पक्षपात नहीं है / जो भेद नजर आता परिणाम स्वरूप एक महाराजा है, वह भावधारा में भेद होने से ही है। बनता है और दूसरा सामान्य फल प्र.319.कर्म कितने प्रकार के कहे गये हैं? प्राप्त करता है, तो क्या कर्म सत्ता उ. आठ प्रकार के को निष्पक्ष कहा जा सकता है? 1. ज्ञानावरणीय 2 दर्शनावरणीय 3. वेदनीय उ. शुभ व अशुभ, किसी भी कर्म के बंधन 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम 7. गोत्र में दो बातें आधारभूत होती हैं, एक 8. अन्तराय। बाह्य प्रवृत्ति, दूसरी आभ्यंतर विचार- प्र.320.घाती और अघाती कर्म में क्या धारा। भले ही बाह्य रूप से दो अन्तर है? व्यक्तियों की क्रिया में समानता उ. अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और नजर आती है परन्तु भावधारा में भेद शक्ति, ये चार आत्मा के मूल गुण हैं। होने से परिणाम में भी भेद आता है। इन गुणों का घात करने वाले घाती
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________________ कर्म कहलाते हैं। ज्ञानावरणीय, जानने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान दर्शना वरणीय, मोहनीय और एवं उसे आच्छादित करने वाला अन्तराय, ये चार घाती कर्म कहे गये कर्म मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म हैं। शेष मूल गुणों को आवृत्त करने में कहलाता है। असमर्थ होने से. अघाती कर्म 5. सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल व पर्याय कहलाते हैं। (भाव) को आत्मा से जानने वाला प्र.321.ज्ञानावरणीय कर्म की विवेचना ज्ञान केवलज्ञान एवं उसे कीजिये। आच्छादित करने वाला कर्म केवलउ. 1. जो आत्मा के ज्ञान गुण को ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है। आच्छादित करता है, वह ज्ञाना- प्र.322.दर्शनावरणीय कर्म को स्पष्ट वरणीय कर्म कहलाता है। कीजिये। यह कर्म पाँच प्रकार का है - उ. आत्मा के सामान्य बोध को दर्शन 1. मन और इन्द्रियों के द्वारा होने और उसे रोकने वाला दर्शनावरणीय वाला ज्ञान मतिज्ञान और उसे कर्म कहलाता है। आच्छादित करने वाला मतिज्ञाना- इसके नौ भेद कहे गये हैं - 1. पाँच वरणीय कर्म कहलाता है। निंद्रा 2. चार दर्शनावरण। 2. शास्त्र/ श्रवण से होने वाला ज्ञान 1. मंद ध्वनि से जागना निद्रा। श्रुतज्ञान और उसे आच्छादित 2. तीव्र ध्वनि से या हाथ से हिलाने करने वाला कर्म श्रुतज्ञानावरणीय ___पर जागना निद्रा-निद्रा / कर्म कहलाता है। 3. बैठे बैठे या खड़े खड़े नींद लेना 3. मन और इन्द्रियों की सहायता के प्रचला। बिना रूपी पदार्थों का मर्यादा- 4. चलते चलते निद्रा आना प्रचलापूर्वक होने वाला ज्ञान अवधि प्रचला। ज्ञान एवं उसे आच्छादित करने 5. तीव्र राग अथवा द्वेषवश दिन में वाला अवधिज्ञानावरणीय कर्म सोचा हुआ कार्य अथवा अकार्य कहलाता है। निद्रा में करना और स्वयं को पता 4. मन और इन्द्रियों की सहायता के भी न चलना वह स्त्यानर्द्धि / बिना मन के विचारों (पर्यायों) को 6. चक्षु के द्वारा होने वाला सामान्य
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________________ ज्ञान चक्षुदर्शन एवं उसे आवृत्त बनाता है, आत्मा के हिताहित को करने वाला चक्षुदर्शनावरणीय पहचानने की शक्ति को आवृत्त कर्म कहलाता है। करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते 7. चक्षु के सिवाय शेष इन्द्रियों से है। इस कर्म के दो भेद कहे गये हैं - होने वाला सामान्य ज्ञान अचक्षु- दर्शन मोहनीय और चारित्र दर्शन और उसे आवृत्त करने मोहनीय। वाला अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म प्र.325.दर्शन मोहनीय और चारित्र कहलाता है। मोहनीय को स्पष्ट कीजिये। 8. मन और इन्द्रियों की सहायता के उ. 1. दर्शन मोहनीय- सुदेव, सुगुरू, बिना रूपी पदार्थों का होने वाला सुधर्म में श्रद्धा करना दर्शन है सामान्य ज्ञान अवधिदर्शन और और उस गुण को रोकने वाला उसे आवृत्त करने वाला अवधि अथवा जिनोक्त तत्व में शंकाशील दर्शनावरणीय कर्म कहलाताहै। बनाने वाला दर्शन मोहनीय 9. सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का कहलाता है। इसकी मिथ्यात्व, सामान्य ज्ञान केवलदर्शन एवं मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय उसे आवृत्त करने वाला केवल नामक तीन प्रकृतियाँ होती हैं। दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। 2. चारित्र मोहनीय- जिसके द्वारा प्र.323.वेदनीय कर्म की व्याख्या कर्म का क्षय होता है, उस कीजिये। आचरण को चारित्र कहते है। उ. सुख-दुःख का अनुभव(वेदन) कराने आत्मा के चारित्र रूपी गुण को वाला कर्म वेदनीय कर्म कहलाता है। रोकने वाले क्रोध, मान, माया, इसके दो भेद कहे गये हैं- सुख का लोभ, वेद, रति, अरति, शोक, भय, अनुभव करवाने वाला शाता वेदनीय जुगुप्सा आदि चारित्र मोहनीय और दुःख का अनुभव करवाने वाला कर्म कहलाते हैं। अशाता वेदनीय कर्म कहलाता है। प्र.326.आयुष्य कर्म किसे कहते है? प्र.324.मोहनीय कर्म की विवेचना उ. जो कर्म जीव को निश्चित काल तक कीजिये। एक भव में रोककर रखता है, वह उ. जो व्यक्ति को मूढ, विवेकहीन आयुष्य कर्म कहलाता है। आयुष्य
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________________ कर्म के पूर्ण होने से पूर्व जीव मर नहीं विशेष से नहीं है। पशुओं में हाथी, सकता और पूर्ण होने के बाद जी बैल, घोड़ा उच्च तथा कुत्ता, सुअर, नहीं सकता। इसके देव - मनुष्य - बिल्ली नीच माने जाते हैं। मनुष्य तिर्यंच और नरक आयुष्य रूप चार तथा देवों में कुछ उच्च तो कुछ नीच भेद होते हैं। होते हैं। प्र.327.नाम कर्म किसे कहते है? परमात्मा महावीर का सिद्धान्त है कि जिस कर्म के कारण जीव विविध नीची जाति में जन्म लेने वाला भी पर्यायों को प्राप्त करता है, उसे नाम आचार-विचार, धर्म-कर्म से उच्च व कर्म कहते है। इस कर्म के उदय से सम्मानीय हो सकता है, जैसे जीव शरीर, गति, रंग, गंध, स्वर, हरिकेशी एवं मेतारज मुनि। .. यश, अपयश, आकृति आदि प्राप्त प्र.329.अन्तराय कर्म किसे कहते है? करता है। नाम कर्म की विवक्षा भेद उ. जिस कर्म के उदय से जीव को दान से 67, 93, 103 प्रकृतियाँ होती हैं, देने में, लाभ प्राप्ति में, भोग, उपभोग जिनका विवेचन प्रथम कर्मग्रंथ से एवं वीर्य (धर्मकार्य) में अन्तराय समझना चाहिये। उत्पन्न होता है, उसे अन्तराय कर्म प्र.328.गोत्र कर्म किसे कहते है? कहते है। इसके पाँच भेद कहे गये जिस कर्म के कारण जीव में हैं दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तउच्च-नीच अथवा छोटे-बड़े का राय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। व्यवहार होता है, उसे गोत्र कर्म कर्म पदार्थ का विशिष्ट-विस्तृत कहते है। इसके उच्च एवं नीच रूप विवेचन प्रथम कर्म विपाक नामक दो भेद शास्त्रों में कहे गये हैं। कर्म ग्रन्थ से जानना चाहिये। गोत्र का अर्थ किसी समूह, जाति
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________________ कर्म का फल प्र.330.अनुभाव से क्या अभिप्राय है? उ. 1. हल्की, गहरी अथवा प्रगाढ निद्रा उ. कर्मबंध के परिणाम/फल/परिणति का आना। को भोगना, अनुभाव कहलाता है। 2. वस्तु -- तत्त्व का सामान्य बोध न प्र.331.ज्ञानावरणीय कर्म का परिणाम हो पाना। बताओ। प्र.333.शाता और अशाता वेदनीय कर्म उ. 1. बहरा होना अथवा कम सुनना। का फलभोग समझाईये। 2. अंधा होना अथवा कम दिखना। उ. 1. अनुकूल - मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, 3. सूंघने की शक्ति न होना अथवा गंध, स्पर्श की प्राप्ति। ___कम होना। 2. स्वस्थ मन, वचन और काया की 4. स्वाद ग्रहण की शक्ति का न होना प्राप्ति शाता वेदनीय कर्म के __ अथवा कम होना। परिणाम हैं। इससे विपरीत 5. ठण्डा-गर्म आदि स्पर्श जान न प्रतिकूल शब्दादि की प्राप्ति पाना अथवा अल्पाधिक जानना। अशाता वेदनीय कर्म के परिणाम 6. सुनकर, देखकर, सूंघकर, चखकर है। जैसे- रोगग्रस्त होना, कष्ट अथवा स्पर्श करके भी समझ न पाना। आना आदि। 7. बुद्धि का अल्प होना अथवा न प्र.334.मोहनीय कर्म के परिणाम बताईये। होना। मोहनीय कर्म के उदय से जीव 8. ज्ञान प्राप्त न होना। मिथ्यात्वी बनता है, जिनोक्त तत्त्व पर 9. अविकसित मन का होना। शंका करता है, क्रोध-मान-माया10. स्पष्ट व सही शब्दोच्चारण नहीं लोभ में लिप्त होता है, कामभोग की कर पाना / कामना करता है, प्रतिकूलता में 11.हकलाना। विषादग्रस्त एवं अनुकूलता में प्र.332. दर्शनावरणीय कर्म के अनुभाव आनंदित होता है। भयभीत एवं बताओ। शोकमग्न बनता है। **************** 115 ****************
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________________ "प्र.335.आयुष्य कर्म के परिणामों की इससे विपरीत चीजों की प्राप्ति होती व्याख्या कीजिये। है - जैसे अच्छा काम करने पर भी उ. 1. आयुष्य कर्म जीव को नरकादि वाहवाही न होना। दुर्बल-बेडोल निश्चित गतियाँ प्राप्त करवाता है। शरीर की प्राप्ति, अपमान, कर्कश 2. इस कर्म के परिणामस्वरूप जीव स्वर, कुरूपता आदि। किसी भी भव में निश्चितकाल तक प्र.337.गोत्र कर्म के परिणामों को स्पष्ट रूकता है। कीजिये। 3. इस कर्म के फलस्वरूप जीव उर्ध्व, उ. उच्च गोत्र के प्रभाव से व्यक्ति अच्छे, अधो, तिर्यग् दिशाओं में जाने की प्रतिष्ठित, संस्कारी कुल-जाति में शक्ति प्राप्त करता है। जन्म पाता है, समाज-राष्ट्र में सम्मानित प्र.336. नाम कर्म का फलभोग कितने होता है। नीच गोत्र का प्रभाव इससे प्रकार से होता है? विपरीत जानना चाहिये। उ. शुभ नाम कर्म का फलभोग निम्न प्र.338.अन्तराय कर्म के अनुभाव प्रकार से होता है बताईये। 1. सुंदर, सुगठित शरीराकृति प्राप्त उ. अन्तराय कर्म के कारण सुपात्र, होना। सम्पत्ति का सद्भाव होने पर भी दान 2. यश की प्राप्ति। नहीं कर पाता, स्वयं को आवश्यकता 3. लोगों पर प्रभाव। होने पर भी और दाता के मिलने पर 4. प्रिय-मधुर-मनोज्ञ स्वर की भी प्राप्त नहीं कर पाता, पदार्थ/ प्राप्ति। सम्पत्ति/भोजन आदि होने पर भी 5. मान-सम्मान की प्राप्ति। उपयोग नहीं कर पाता, शारीरिक 6. प्रभावशाली व्यक्तित्व की प्राप्ति शक्ति नहीं मिलती अथवा मिलने पर भी धर्म कार्य में उत्साहपूर्वक अशुभ नाम कर्म के फल स्वरूप उपयोग नहीं कर पाता। आदि।
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________________ बंध के कारण : मक्ति के उपाय प्र.339. ज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण 13.किसी की आँख आदि इन्द्रियों को बताओ। क्षति पहुँचाना। उ. 1. ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानोपकरण के 14.ज्ञान का अभिमान करना। प्रति द्वेष रखना, उनकी निंदा/ प्र.340.ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा के तिरस्कार/अविनय करना। उपाय बताओ। 2. ज्ञानी से ईर्ष्या करना। उनको उ. 1. बंध के उपरोक्त कारणों का त्याग गिराने की चेष्टा करना। करना। 3. ज्ञान देने वाले का नाम छिपाना। 2. ज्ञान का प्रचार करना। आगम, 4. भगवान की वाणी के विपरीत शास्त्र आदि लिखवाना/प्रकाशित कहना। करवाना। 5. ज्ञान-प्राप्ति में अन्तराय करना। 3. ज्ञान/ज्ञानी के प्रति श्रद्धा रखना। 6. सीखे हुए ज्ञान का पुनरावर्तन नहीं 4. ओम् ही नमो नाणस्स का करना। नियमित जाप करना। 7. अविधि से पढना-पढाना। 5. ज्ञान, ज्ञानोपकरण, ज्ञानी का 8. ईर्ष्या आदि कारणों से अनुकूलता . सम्मान करना। होने पर भी ज्ञान देने से इंकार 6. ज्ञान प्राप्ति हेतु नित्य प्रयत्न करना अथवा उसके बारे में झूठ करना। बोलना। 7. अक्षर लिखे वस्त्र, जूते आदि धारण 9. झूठे मुँह पढना/लिखना/बोलना। न करना। 10.अखबार, पुस्तक, ठवणी, कलम 8. अक्षर लिखे पदार्थ नहीं खानाआदि को पाँव लगाना, यूँक जैसे चॉकलेट, बिस्कुट आदि / लगाना, उनसे अशुचि साफ करना। 9. दूसरों को सद्ज्ञान बांटना। ज्ञान 11.ज्ञानोपकरण को गंदे स्थान पर प्राप्ति में सहायक बनना। रखना, जलाना, नष्ट करना, 10.तीर्थंकर परमात्मा, हरिभद्रसूरि, फैकना आदि। __ अभयदेवसूरि, हेमचंद्राचार्य, अभयकुमार 12.अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय आदि ज्ञानी पुरूषोंका स्मरण करना। करना। स्वाध्याय काल में 11.मुझमें सद्बुद्धि का विकास हो, स्वाध्याय न करना। नित्य ऐसी प्रार्थना करना।
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________________ उ. प्र.341. दर्शनावरणीय कर्मबंध के कारण करना। बताईये। 5. क्षमा धारण करना। कषायों पर ज्ञानावरणीय कर्मबंध के जो कारण हैं, विजय प्राप्त करना। वे दर्शनावरणीय कर्म बंध के भी 6. धर्माचरण पर श्रद्धा एवं त्यागीजनों कारण है। यथा- दर्शन, दर्शनी एवं की सेवा करना। दर्शनोपकरण की निंदा, तिरस्कार, 7. दुःखी को सान्त्वना देना / मरते हुए अविनय, अन्तराय एवं ईर्ष्या करना, को बचाना। दुर्भावना से किसी की निद्रा आदि में प्र.344.अशाता वेदनीय कर्म बंध के अन्तराय करना, इन्द्रियों को क्षति कारण बताओ। पहुँचाना। उ. 1. देव-गुरू का अपमान एवं अविनय प्र.342. दर्शनावरणीय कर्म-क्षय के उपाय करना। बताईये। 2. हिंसा, आरंभ-समारंभ करना। दर्शन, दर्शनी, दर्शनोपकरण का 3. पशुओं पर अधिक बोझ लादना। बहुमान, विनय आदि करना / अंधे को उन्हें दुःखी करना। चक्षु, चश्मा आदि साधन प्रदान 4. व्रत/महाव्रत का खण्डन करना। . करना ।'ओम् ह्रीं नमो दंसणस्स' 5. क्रोधादि कषाय करना। की माला फेरना। 6. पशु पक्षियों को पिंजरे में डालना। प्र.343.शाता वेदनीय कर्म बंध के कारण 7. जीवों को दुःखी करना। अपने बताओ। शौक-मोज के लिये हिंसक कार्य उ. 1. जीवों पर दया करना, उन्हें दुःख न करना। देना, लकड़ी आदि से नहीं पीटना, 8. कर्मचारी, नौकर से अधिक कार्य शोकग्रस्त एवं भयभीत नहीं करना। . करवाना। उन्हें पीडित करना। 2. देव-गुरू की भक्ति , गुणगान, 9. अनन्तकाय, अभक्ष्य पदार्थों का सेवा करना एवं निर्दोष आहार प्रयोग करना। आतिशबाजी करना। आदि दान देना। अभयदान, अनछने पानी का उपयोग करना। सुपात्रदान देना। दीन-हीन, बिना छाने/बीने अन्न का असहाय की सहायता करना। उपयोग करना। साधर्मिक का दुःख दूर करना। 10.दुःखी को देखकर सुखी और सुखी 3. ज्ञानदाता गुरू की सेवा व प्रशंसा को देखकर दुःखी होना।। करना। 11.जीवों के अंगोपांगों का छेदन, 4. अणुव्रतों अथवा महाव्रतों का पालन भेदन करना।
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________________ सोना 12.हिंसायुक्त लिपिस्टिक, साबुन, 5. लोगों को मिथ्या-गलत उपदेश ___ क्रीम आदि प्रसाधन सामग्री का देना। उपयोग करना। 6. कर्म-बंध के कारणों को अच्छा प्र.345.अशाता वेदनीय कर्म क्षय के कहना, करना एवं उन्हें करने के उपाय बताओ। लिये प्रेरित करना। उ. 1. जयणा/यतनापूर्वक खाना, पीना, 7. जिनेश्वर देव,जिनमंदिर–प्रतिमासोना, उठना, बैठना आदि क्रियाएँ पूजा, साधु-साध्वी, श्रावककरना। श्राविका की निंदा/अविनय करना। 2. दुःखी के दुःख को दूर करने के प्र.347. चारित्र मोहनीय कर्मबंध के कारण लिये तत्पर रहना। बताओ। 3. दुःखी, दीन, असहाय पर अनुकंपा उ. 1. क्रोध-मान-माया-लोभ करना। करना। 2. पांच इन्द्रियों के अधीन बनकर 4. अहिंसा का अधिकतम पालन ___ वेदत्रिक का बंध करना। करना। 3. दूसरों को भयभीत करना, 5. देव-गुरू की सेवा, विनय एवं आर्तध्यान-रौद्रध्यान करना, दूसरों वैयावच्च करना। . की हँसी-मजाक करना आदि / 6. जीवों को अभयदान देना। 4. भाण्ड जैसी कुचेष्टा करना, 7. जल, अग्नि, वनस्पति आदि के . मंत्र-तंत्र, जादू-टोना करना, उपभोग में संयम करना, उनका भोगों का अनुमोदन करना, प्रियदुरूपयोग नहीं करना। अप्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति के 8. लोगों के साथ स्नेह, करूणा, प्रेम, संयोग-वियोग में अतिशय आनंद - शान्तिपूर्ण और सद्भावयुक्त व्यवहार अथवा दुःख का अनुभव करना, करना। धर्म-धर्मीजनों की हँसी-मश्करी प्र.346. दर्शन मोहनीय कर्म बंध के कारण करना, साधु-साध्वी आदि की बताओ। निंदा, उनसे घृणा करना आदि / उ. . 1. जिनवाणी से विपरीत कहना। प्र.348.मोहनीय कर्म का क्षय किस प्रकार . 2. भोगोपभोग के साधनों में होता है? . दिन-रात आसक्त रहना। उ. 1. प्रतिकूल प्रसंगों में भी क्रोध नहीं . 3. कुदेव-कुगुरू-कुधर्म पर श्रद्धा करना। करना। 2. धन, ज्ञान, रूप, कुल, बल आदि 4. सन्मार्ग का विनाश करना। का अभिमान नहीं करना।
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________________ 3. संतोषवृत्ति धारण करना। आदि। 4. अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, त्याग, तप, 4. नरक आयुष्य बंध के कारण - अपरिग्रह आदि नियम धारण पंचेन्द्रिय जीव का घात करना, करना। मांसाहार करना, महारंभ व 5. त्यागीजनों की प्रशंसा करना। समारंभ करना-करवाना, व्यसनों 6. त्याग, संयम, साधना आदि की का सेवन करना, परिग्रह में प्रभावना करना। अत्यधिक आसक्त होना, रौद्र 7. सुख में आसक्त एवं दुःख में खिन्न परिणाम करना, गर्भपात करना। नहीं होना। प्र.350.आयुष्य कर्म का क्षय किस प्रकार 8. विपत्तिकाल में धैर्य धारण करना, होता है? समता से कष्टों को सहन करना। उ. आयुष्य कर्म का क्षयं भोगने से ही प्र.349.आयुष्य कर्म बंध के कारण होता है। एक बार आयुष्य बांधने के बताओ। बाद उसे भोगना ही होता है, चाहे वह उ. 1. देवायुबंध के कारण - व्रत-महाव्रत तीर्थंकर हो या चक्रवर्ती या राजा का पालन करना, देवगुरु की अथवा महाराजा। वासुदेव श्री कृष्ण, श्रेणिक राजा को भी नरक में जाना ही बहुमानपूर्वक भक्ति करना, सुपात्र को दान देना, तपाराधना करना पडा / अनेक लोग दुःख से घबराकर आत्म हत्या कर बैठते हैं, इससे आदि। कर्मनष्ट नहीं होते हैं, बल्कि परभव भी 2. मनुष्य आयुबंध के कारण- क्रोध बिगड जाता है। आयुष्य कर्म का जब आदि कषायों पर विजय प्राप्त संपूर्ण रूप से क्षय हो जाता है, तब करना, निःस्वार्थ भाव से दान देना, जीव मोक्ष में चला जाता है। विनय, विवेक, सदाचार, दया, प्र.351.अशुभ नामकर्म बंध के कारण परोपकार आदि गुणों को धारण बताओ। करना। 1. किसी के साथ कपट/विश्वासघात 3. तिर्यंच आयुष्य बंध के कारण - करना। किसी के साथ धोखा करना, 2. ज्ञान आदि का मद करना। उपकारी के उपकार को भूलाना, 3. कठोर व असत्य भाषा का प्रयोग व्रत आदि के खण्डित होने पर करना। आलोचना नहीं लेना, दिनभर पशु 4. लोगों में विवाद, क्लेश उत्पन्नकरना। की तरह आहार करना, कपट/ 5. किसी के रूप आदि से ईर्ष्या माया करना, कम-ज्यादा तोलना करना। ** * ***** 120 * ** ********
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________________ इससे विपरीत कार्यों से शुभ नामकर्म का बंध होता है। प्र.352.अशुभ नाम कर्म का क्षय किन उपायों से होता है? उ. 1. निर्मदपूर्वक तप आदि करना। 2. क्षमा, सरलता का आचरण करना। 3. गुणीजनों की प्रशंसा करना। 4. सेवा, स्वाध्याय, ध्यान आदि से आत्मा को पवित्र बनाना। 5. साधार्मिक भक्ति करना। 6. करूणा, दया, संयमपूर्वक जीवन जीना। प्र.353. उच्च गोत्र कर्म बंध के कारण कौन कौनसे हैं? . उ. 1. स्वयं के दोषों की निंदा करना। . 2. दूसरों के गुणों की अनुमोदना करना। 3. कुल/जाति आदि का अभिमान नहीं करना। 4. स्वाध्याय (पठन-पाठन) में रूचि रखना। .. 5. जिनभक्ति, पूजा, सेवा और आराधना करना। इनसे विपरीत आचरण से जीव नीच गोत्र कर्म * का बंध करता है। प्र.354.नीच गोत्र कर्म का क्षय किस प्रकार संभव है? उ. .1. दूसरों के दान, ज्ञान, तप आदि गुणों की प्रशंसा करना। 2. स्वयं के दुर्गुणों की निंदा, आलोचना करना। प्र.355.अन्तराय कर्म का बंध किस प्रकार होता है? उ. 1. अरिहंत और मुनिभगवंत की सेवा, पूजा और सत्कार का निषेध करने से। 2. अठारह पाप-स्थानकों का सेवन करने से। 3. तप, जप, परोपकार आदि का निषेध करने से। 4. साधु-साध्वी आदि को आहार, वस्त्र, स्थान, औषधि आदि देने का निषेध करने से अथवा उसमें अन्तराय उत्पन्न करने से। 5. किसी के धन, ज्ञान, तप, भोजन आदि में अन्तराय करने से। प्र.356.अन्तराय कर्म का क्षय किस प्रकार हो सकता है? उ. 1. सुपात्र दान करना / 2. किसी धर्म आदि कार्य में विघ्न उत्पन्न न करना / 3. ज्ञान, धन आदि के द्वारा सहायता करना। 4. परोपकार के कार्य करना / 5. दीन, दुःखी की सेवा करना / 6. दानी की प्रशंसा करना / 7. तपस्वी, ज्ञानी, परोपकारी, संयमी, ___साधक की प्रशंसा करना / 8. शक्ति के अनुसार जप, तप आदि आराधना करना।
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________________ चौदह गुणस्थानक (V) प्र.357.गुणस्थानक किसे कहते है ? उ. गुणों की अधिकता या अल्पता के आधार पर जीवों का विभाजन करना गुण स्थानक कहलाता है। यह जैन दर्शन की विशिष्टता है कि इसमें जीवों का विभाजन धन, सत्ता, ऐश्वर्य आदि के अल्पाधिक्य पर न करके गुणों की कमी-वृद्धि के आधार पर किया गया है। प्र.358. चौदह गुणस्थानक कौनसे हैं ? उ. (i) मिथ्यादृष्टि-इस गुणस्थानक में जीव कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता रहता है। (ii) सास्वादन-सम्यक्त्व से पतित जीव जब प्रथम गुणस्थानक में जाता है, तब मिथ्यात्वी बनने से पहले जो थोड़ा बहुत सम्यक्त्व का आस्वाद आत्मा में रहता है, उसे सास्वादन कहते है। (iii) मिश्र दृष्टि-जिस प्रकार नालिकेर द्वीप के मनुष्यों को अन्न पर प्रीति और अप्रीति, दोनों नहीं होती है उसी प्रकार मिश्र दृष्टि को जैन धर्म पर न प्रीति होती है, न अप्रीति। (iv)अविरत सम्यग्दृष्टि - इस गुणस्थानक में जीव सुदेव-सुगुरु -सुधर्म पर श्रद्धा करके सम्यक्त्वी बनता है पर व्रत धारण नहीं कर पाता है। (v) देशविरत - इस गुणस्थानक में जीव व्रत धारण करता हुआ श्रावक बनता है। (vi) प्रमत्तसंयत - इस गुणस्थानक में जीव महाव्रत लेता है पर प्रमादवश दोष लगाता है। (vii) अप्रमत्तसंयत-इस गुणस्थानक में जीव अप्रमत्त साधु होता है। (viii) अपूर्वकरण-इस गुणठाणे में पूर्व में न __ आये ऐसे शुद्ध अध्यवसाय आते हैं। (ix) अनिवृत्तिकरण - इसमें स्थूल कषाय-उदय होता है तथा समान समय वाले जीवों की विचार-शुद्धि परस्पर समान होती है। (x) सूक्ष्म सम्पराय-इस गुणस्थानक में सूक्ष्म रूप से लोभ सम्पराय (कषाय) * का उदय होता है। (xi) उपशान्त मोह-इस गुणस्थानक में मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है पर इस गुणठाणे में आने वाला जीव अवश्यमेव नीचे गिरता है। (xii) क्षीण मोह-क्षपक क्षेणी में चढने वाला जीव ही दसवें से सीधा बारहवें . गुणठाणे में आकर वीतरागी बनता है और शेष घाती कर्मों का यहाँ सम्पूर्ण क्षय करता है। (xiii) सयोगी केवली-शरीर सहित तीर्थंकर, केवली इस गणठाणे के जीव होते हैं। (xiv) अयोगी केवली-इसमें जीव तीनों योगों को अवरूद्ध करके मोक्ष गामी हो जाता है। *************** 122 ****************
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________________ जैन विचार मीमांसा 1. मिथ्यात्व का त्याग सम्यक्त्व का राग 2.संज्ञा का शमन 3. कषाय : जन्म-मरण की आय 4. विकथा की विकटता 5. लेश्या-विज्ञान 6. सम्बोधि के सोपान
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________________ मिथ्यात्व का त्याग : सम्यक्त्व का राग उ. प्र.359.मिथ्यात्व किसे कहते है? उ. सही तत्त्व में गलत की बुद्धि अथवा गलत में सही की बुद्धि होना मिथ्यात्व कहलाता है। जिनोक्त तत्त्व को न समझना या विपरीत अर्थ में समझना मिथ्यात्व का परिणाम है। शास्त्रों में मिथ्यात्व को घोर अन्धकार, विष एवं शत्रु की उपमा दी गयी है। इसके कारण जीव आत्महित-अहित एवं अच्छे-बुरे का विवेक प्राप्त नहीं कर पाता है। अविवेक एवं मोह के अधीन होकर जिस प्रकार मदोन्मत्त व्यक्ति पत्नी को माता एवं माता को पत्नी समझने की भूल करता है, वैसे ही मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति सरागी देवों को वीतराग एवं वीतराग को रागी समझ बैठता है। अहिंसा, सत्य आदि को अधर्म एवं हिंसा, असत्य आदि को धर्म समझ बैठता है और अनन्त संसार में परिभ्रमण करता हुआ बार-बार जन्म-मरण का दुःख प्राप्त करता है। प्र.360. मिथ्यात्व कितने प्रकार के कहे गये है? स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के बताये गये हैं(1-2) धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानना। (3-4) सम्यग् ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र रूपी सन्मार्ग (मोक्षमार्ग) को उन्मार्ग मानना एवं मिथ्यात्व, अज्ञान, कषाय आदि भटकाने वाले उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना। (5-6) जीव को अजीव तथा अजीव को जीव मानना। संसार में अनेक प्राणी अज्ञानता के कारण आकाश, पुद्गल आदि को जीव तथा सचित्त पानी, पृथ्वी, अग्नि, वनस्पति, आदि को अजीव मानते हैं। (7-8) साधु को असाधु एवं असाधु को साधु मानना। पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति से युक्त साधु एवं उससे विपरीत असाधु कहलाते हैं। वर्तमान में अनेक व्यक्ति नामधारी साधु को सच्चा साधु मानकर अपना भवभ्रमण बढ़ा रहे हैं। (9-10) मुक्त को अमुक्त एवं अमुक्त को मुक्त मानना / अष्ट कर्मों से युक्त अमुक्त कहलाते हैं। कितने ही
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________________ अज्ञानी लोग कर्मयुक्त देव-देवियों सिद्धान्त समान है। हम तो सभी में को मुक्त मान रहे हैं और सिद्धों को श्रद्धा रखते हैं। वंदना और अर्चना अमुक्त समझ रहे हैं। करते हैं। इन दस भेदों का विवेचन तीन में हो ऐसा कहने से मांस, मदिरा, यज्ञ, जाता है। बलि आदि के समर्थक धर्मों की भी 9-10 भेद देव सम्बन्धी मिथ्यात्व, स्वीकृति का दोष लगता है। - 7-8 गुरु सम्बन्धी मिथ्यात्व एवं 1-6 (3)आभिनिवेशिक-अपने सिद्धान्त/ भेद धर्म सम्बन्धी मिथ्यात्व है। मत को गलत जानते हुए भी हठ, इसलिये संक्षिप्त में कहा जाय तो अभिमान और आग्रहपूर्वक उसे सुदेव-सुगुरु-सुधर्म को कुदेव पकड़े रखना आभिनिवेशिक कुगुरु-कुधर्म मानना एवं कुदेवादि मिथ्यात्व कहलाता है। अपनी को सुदेवादि मानना मिथ्यात्व है। गलती को जानते हुए भी न प्र.361.पाँच प्रकार के मिथ्यात्व कौनसे हैं? छोड़कर रोह गुप्त निन्हव बना। (1)आभिग्रहिक- सही बात को जाने (4)सांशयिक- सुदेव-गुरु-धर्म के . बिना पक्षपातपूर्वक एक सिद्धान्त संदर्भ में संदेह करना सांशयिक का आग्रह करना एवं अन्य पक्ष व मिथ्यात्व कहलाता है। जमाली ने सिद्धान्त का खण्डन करना . प्रभु वाणी में संशय करके कर्म आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। अनेक बांधे। लोग सम्यग् तत्त्व को जाने बिना (5)अनाभोगिक- ज्ञानावरणीय कर्म कट्टरता प्रदर्शित करते हुए कहते के प्रबलोदय से एकेन्द्रिय आदि हैं कि हमारे भगवान, गुरु एवं असंज्ञी तथा विशेष बोध से रहित हमारा धर्म ही सच्चा है। संज्ञी जीवों में तीव्र अज्ञान के (2)अनाभिग्रहिक- तत्त्व-बुद्धि के कारण जो मिथ्यात्व होता है, वह द्वारा परीक्षण किये बिना सभी धर्मों, अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है। धर्मगुरुओं को समान मानना प्र.362. जो जैसा है, वैसा मानने पर अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता मिथ्यात्व का दोष नहीं लगता है है। जैसे कई लोग कह देते तो लौकिक देवी व देवताओं को हैं - सभी देव, गुरु, धर्म, मत, उस रूप में मानने में भी कोई * * * 126
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________________ हानि है? मणिभद्रजी, पद्मावती आदि देवकाँच और रत्न का अन्तर जान लेना, देवियों की आराधना क्यों? उन्हें यथार्थ रूप से समझ लेना उ. हकीकत तो यह है कि ये सभी सम्यक्त्व है। परन्तु जिसने रत्न को देव-देवी परमात्मा के प्रति पूर्ण जान कर पा लिया, वह भला कांच को समर्पित हैं, अतः उनकी आराधना क्यों चाहेगा? अर्थात् वीतरागी देवों नहीं अपितु बहुमान-सम्मान किया को जानने के बाद भला कौन जाता है और शासन-विस्तार की राग-द्वेष युक्त देवों में श्रद्धान्वित प्रार्थना की जाती है। होगा? अर्थात् कोई भी नहीं होगा। यदि परमात्म स्वरूप एवं वीतरागता यदि जानने पर भी विरूद्धाचरण के लक्ष्य को विस्मृत कर संसारकरता है तो इसका अर्थ है कि उसने साधनों की पूर्ति-वृद्धि हेतु आराधना व्यवस्थित एवं सम्यक् रूप से जाना की जाती है तो वह धर्म एवं सम्यक्त्वी एवं माना नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्वी का लक्षण हो नहीं सकती / देव-देवी की उपासना करने का अर्थ प्र.364. सम्यक्त्व के लक्षण बताईये। है कि बोध का अभाव है। उ. सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म को उस रूप कोई किसी को कुछ नहीं दे सकता। में मानना सम्यक्त्व है। जो जैसा है, निमित्त होना अलग बात है। दूसरी वैसा मानना सम्यक्त्व कहलाता है। बात यह है कि सम्यक्त्वी कभी भी 'तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं मिथ्यात्वी से द्वेष नहीं करता है, बल्कि पवेइयं / ' जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म में निःशंक, सन्देह रहित होना वह भी सम्यक्त्व को प्राप्त करें, यह सम्यक्त्व कहलाता है। सम्यक्त्व को भावना रखता है। तीसरी बात यह है श्रद्धा, समकित, रुचि भी कहा जाता कि सम्यक्त्वी पुत्र, धन, सत्ता, यश है। शास्त्रों में इसके पाँच लक्षण कहे प्राप्ति की नहीं, अपितु जो कुछ है, गये हैं, जिससे व्यवहार में सम्यक्त्वी उनके भी त्याग की कामना करता है को जाना जा सकता है। और जो स्वयं वीतराग नहीं हैं, (1)उपशम- मिथ्यात्व मोहनीय का मोहाधीन हैं, वे भला वीतरागता का उपशमन होना। जिसके साथ वैर वैभव कैसे दे सकते हैं? विरोध हो, उससे क्षमा का प्र.363.तो फिर अपने यहाँ भैरूजी, आदान-प्रदान करना। तत्त्वत्रयी
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________________ में निःशंक एवं श्रद्धान्वित होना। एवं करवाता है, उसे कारक सम्यक्त्व (2)संवेग-मोक्ष-प्राप्ति की उत्कट कहते है। तीव्र अभिलाषा होना। (II) जिस सम्यक्त्व में जीव सदाचरण (3)निर्वेद- वैराग्यवासित बनना। में आस्था रखता है परन्तु श्रीकृष्ण, संसार के भोगोपभोगों से उदासीन श्रेणिक सम्राट् की भाँति स्वयं होना। धायमाता की तरह संसार सदाचरण कर नहीं पाता है, उसे का पालन-पोषण करना। रोचक सम्यक्त्व कहते है। (4)अनुकंपा- जीवों पर करूणा (ii) जिस सम्यक्त्व में जीव दीपक दया होना। संयम एवं यतना से तले अन्धेरा' की भाँति उपदेश जीना। देकर दूसरों को सम्यक्त्व की (5)आस्था- जिनवाणी पर दृढ़ श्रद्धा यात्रा से सिद्धपद तक पहुँचा देते का होना। हैं परन्तु स्वयं उसमें रंचमात्र भी प्र.365.सम्यक्त्व के भेद कौन-कौनसे हैं? श्रद्धान्वित नहीं होते हैं, उनका उ. (1) दो भेद- आत्मा में जिन भाषित धर्म दीपक सम्यक्त्व कहलाता है। पर उत्कट प्रीति, श्रद्धा एवं विश्वास . ऐसे जीव अभव्य अथवा निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। - मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। व्यवहार में जिनपूजा, सामायिक, प्र.366. सम्यक् दर्शन को शुद्ध, निर्मल एवं प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करना स्थिर बनाने के लिये क्या-क्या व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है। . करना चाहिये? (2)दो भेद- श्रेणिक की तरह गुरु उ.. शास्त्रों में संम्यक्त्व के कथित पाँच उपदेश व आर्द्रकुमारवत् जिन-प्रतिमा दूषणों का त्याग एवं पाँच भूषणों को के आलम्बन से होने वाला अधिगम ग्रहण करना चाहिये। सम्यक्त्व एवं माता मरुदेवी की तरह (i) पाँच दूषणस्वाभाविक रूप से प्राप्त होने वाला (1)शंका- भगवत् प्ररूपित नव तत्त्वों नैसर्गिक सम्यक्त्व कहलाताहै। में एवं उनके स्वरूप में शंका (3)तीन भेद- (1) जिस सम्यक्त्व में जीव करना / जैसे पानी की एक बूंद में जिनाज्ञानुसार क्रिया में श्रद्धा करता असंख्य जीव एवं सुई के अग्रभाग है, स्वयं सम्यक् अनुष्ठान करता है जितने छोटे से स्थान में निगोद
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________________ रूप-अनन्त जीव कैसे समा सकते प्रशंसा एवं विशेष परिचय-संवाद हैं? बिना बनाये जगत का निर्माण करना / जैसे-अज्ञानी व मिथ्यात्वी कैसे संभव है? इस प्रकार देवों के मेले में जाते श्रद्धालुओं की जिनोक्त तत्त्वों में शंका नहीं करनी प्रशंसा करना। चाहिये। (5)पाँच भूषणकोई बात समझ में नहीं आये तो (1)धर्म से पतित होते जीवों को बुद्धि, चिन्तन करें कि 'जिनश्रुत गहन तर्क-वितर्क अथवा प्रेम पूर्वक एवं विशाल है, यदि मुझे कोई बात जिनधर्म में स्थिर करना। समझ में नहीं आती है तो दोष मेरी (2)जिनशासन की महिमा, प्रभाव हेतु अल्पबुद्धि . का ही है। अतः शोभाकारक त्याग, संयम, साधना प्रभु-प्रवचन में शंका न करके आदि कार्य करना। जिज्ञासु को गुरु भगवंतों से (3)चतुर्विध संघ की निरवद्य भक्ति, समाधान प्राप्त करना चाहिये। सेवा करना। (2)कांक्षा- अन्य मिथ्या धर्म-दर्शनों (4)अज्ञानीजनों को जैन धर्म की का आकर्षक बाह्य रूप-स्वरूप विशिष्टता समझाने में कुशल एवं प्रभाव देखकर उनकी होना। अभिलाषा करना। (5)अरिहन्त प्रभु साधु-साध्वी एवं (3)विचिकित्सा- जिन प्ररूपित गुणीजनों की निरवद्य सेवा विधिमार्ग एवं क्रियानुष्ठान के फल करना। में शंका करना ।जैसे-मैं समस्त प्र.367.लौकिक एवं लोकोत्तर मिथ्यात्व प्रत्यक्ष सांसारिक सुखों का त्याग से क्या अभिप्राय है? कर तप-जप कर रहा हूँ परन्तु उ. 6) राग-द्वेष युक्त एवं मिथ्यात्वी इसका फल मिलेगा अथवा नहीं? देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन साधु-साध्वी की मलिन काया, करना तथा चारित्रहीन साधु अथवा वस्त्र को देखकर घृणा करना भी संसारी को गुरु मानना लौकिक विचिकित्सा कहलाती है। मिथ्यात्व है। ___ (4-5)पर पाखंड प्रशंसा एवं आज विभिन्न प्रसंगों पर इस मिथ्यात्व संस्तव- अन्य धर्मावलम्बियों की 129
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________________ का प्रचुर रूप से सेवन हो रहा है। जैनेतर की भाँति जैन भी नवरात्रिव्रत रखते हैं, दशहरा मनाते हैं, शीतला माता की पूजा करके याचना करते हैं एवं बासी खाते हैं। गणगौर त्यौहार में कुंवारी बालाएँ अच्छे पति की याचना करती है, करवा चौथ का व्रत करके सुहाग का सुख मांगती है, दीपावली पर लक्ष्मी-गजानन की पूजा करते हैं, विवाहोत्सव में भवानी, काली, हनुमान आदि देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, दाह संस्कार के बाद फूल (अस्थि) गंगा में बहाये जाते हैं। इसी प्रकार संतोषी माता, हनुमान, शिव आदि के व्रत भी रखते हैं, इस प्रकार का लौकिक क्रिया-प्रपंच व्यक्ति को धीरे-धीरे जिनधर्म से हटाता हुआ मिथ्यात्वी बनाकर भवभ्रमण में डाल देता है अतः जिनेश्वर देव एवं जिनप्ररूपित धर्म में ही विश्वास रखना चाहिये। वर्तमान में 31 दिसम्बर मनाने की नयी रीति चली है। लोग तीर्थ स्थानों पर जाकर नये वर्ष प्रवेश का उत्सव मनाते हैं पर जैनों का नूतन वर्ष प्रवेश कार्तिक शुक्ला एकम से होता है। इसी एकम से नये वीर संवत् का प्रारंभ होता है। नया वीर संवत् मनाना हो तब व्यक्ति के पास न समय का सदभाव होता है, न श्रद्धा की पूंजी पर जैनेतर 31st दिसम्बर पर हम लोग Happy New Year कहते, सुनते और बधाई देते नजर आते है। अपने अहिंसक धर्म को छोड़कर हिंसा आदि से परिपूर्ण अन्य पंथों का अनुकरण करना मिथ्यात्व का पोषण है। अतः Happy New Year कहना हो तो वीर संवत् पर कहिये, न कि इस्वी सन् पर। (ii) लोकोत्तर मिथ्यात्व-संसार के सुख-साधन, सत्ता–सम्पत्ति, संतान के लक्ष्य से सुदेव (अरिहन्त), सुगुरु एवं सुधर्म की आराधना करना। वीतराग परमात्मा के अनुयायी को मोक्ष के अतिरिक्त कोई भी प्रार्थना नहीं करनी चाहिये।
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________________ संज्ञा का शमन प्र.368. संज्ञा किसे कहते है? ढंढण अणगार अठारह हजार मुनियों उ. जीव में उत्पन्न इच्छा/आकांक्षा को में एवं धन्ना अणगार चौदह हजार संज्ञा कहा जाता है। मुनियो में प्रशंसा के पात्र बने / उनका प्र.369.संज्ञा कितने प्रकार की होती हैं? क्रमशः श्री नेमिनाथ एवं महावीर उ. चार प्रकार की स्वामी ने श्रीमुख से यशोगान गाया। (1)आहार संज्ञा– भोज्य-पदार्थों की (ii) भय संज्ञा को छोड़कर इच्छा करना। सुदर्शन श्रावक प्रभु महावीर के (2)भय संज्ञा- मृत्यु आदि से भयभीत दर्शनार्थ गया। उसकी प्रेरणा से होना / . अर्जुनमाली ने संयम स्वीकार किया। (3) मैथुन संज्ञा- काम-भोग की (iii) मैथुन संज्ञा के त्याग-फलरूप कामना करना। . स्थूलिभद्र चौरासी चौबीसी तक अमर (4)परिग्रह संज्ञा-पदार्थ की आकांक्षा हुए। उनके प्रभाव से कोशा वेश्या करना एवं उस पर ममत्व रखना / श्राविका बनी। जम्बू कुमार ने काम प्र.370. इन चार प्रकार की संज्ञाओं का . भोगों की असारता समझाकर आठों परिहार आवश्यक क्यों है? पत्नियों साधु-धर्म प्रदान किया व उ... “इच्छा हु आगास समा अणन्तिया' केवलज्ञान पाया। इच्छा आकाश के समान अनंत हैं। (iv) परिग्रह संज्ञा को छोड़कर अनन्त कदाचित् स्वर्ण निर्मित असंख्य तीर्थंकर, जम्बूकुमार आदि मुनिवर कैलाश पर्वत मिल जाये तो भी जीव अनन्त आत्म सुख के उपभोक्ता बने। का उसी प्रकार सन्तुष्ट होना असंभव प्र.371.महाराजश्री! यह तो समझ आ है, जिस प्रकार नदियों से समुद्र का गया कि इनका भोग भवरोग का एवं काष्ठ से अग्नि का संतुष्ट होना तथा त्याग वीतराग पद का कारण अशक्य है।' है परन्तु छोड़ना भी तो कैसे ? (i) आहार संज्ञा का त्याग करके यह भी तो बताईये। *-**-*-*-*-*-*-*-*-*-* 131 * ********
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________________ उ. (1)आहार संज्ञा पर विजय प्राप्त करने का उत्तम उपाय है- तपश्चर्या में प्रवृत्त होना। भोजन करते समय सोचे कि अनन्तकाल से भोजन करता आया पर तृप्ति नहीं हुई, हो भी नहीं सकती। आत्मा श्रुत-साधना से ही तृप्त हो सकती है। इस आहार संज्ञा रूपी डाकिनी ने गीतार्थ त्यागी मंगू आचार्य, कण्डरिक मुनि को भी दुर्गति के गर्त में धकेल दिया। (2) मित्ती मे सव्व भुएसू' सभी जीवों से मेरी मैत्री है। न किसी से भयभीत होना चाहिये, न किसी को भयभीत करना चाहिये। पूर्व भव में खरगोश को अभयदान देकर मेघकुमार राजकुमार ही नहीं बना अपितु साधनापूर्वक एकावतारी भी बना / (3)कामभोग से तुष्टि-तृप्ति असंभव है। शास्त्रों में मैथुन सेवन की निंदा के लिये कहा गया कि नपुंसकता, इन्द्रिय-छेद, कम्पन, मूर्छा, पाप बंध वाले इस किंपाक फल सदृश अब्रह्म का सेवन कौन करे ! जो ब्रह्मचर्य की साधना साधता है, वह तीनों लोकों में यशस्वी बनता है। विजय सेठ और विजया सेठानी के शील व्रत की प्रशंसा केवली भगवंत ने भी की। (4)परिग्रह अनन्तः दुःख का कारण है। जब तन, धन, समृद्धि आदि सब छोड़कर जाना है तो फिर उन पर आसक्ति क्यों करूँ ? परिग्रह के कारण मम्मण सेठ नरक में गया। पुत्रों से सागर चक्रवर्ती को तृप्ति नहीं हुई, गोधन से कुचिकर्ण को तुष्टि नहीं मिली, धान्य के भण्डारों से तिलक सेठ को संतुष्टि नहीं हुई, राजा नंद को सोने के ढेर से तृप्ति नहीं हुई, यह जानकर पुद्गलों के प्रति अनासक्ति का भाव रखना चाहिये। **** ** ** ** 132 ****************
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________________ कषाय : जन्म-मरण की आय प्र.372. कषाय किसे कहते है? कषाय स्वयं को ही नहीं, आस-पास, उ. कष् अर्थात् संसार, जन्म-मरण / घर- परिवार-समाज में रहनं वाला आय- अर्थात् वृद्धि / को भी अशान्त तथा दुःखी करते हैं। जिसके कारण संसार की एवं हृदयाघात (Heart Attack), रक्तचाप जन्म-मरण की वृद्धि होती है, उसे (B.P.), आत्महत्या, पागलपन, तनावकषाय कहते है। मनमुटाव उत्पन्न करके इस भव को प्र.373. कषाय के प्रकार बताओ | . बरबाद करते हैं तथा परभव में उ. (1) क्रोध-गुस्सा (2) मान-अभिमान नरकादि दुर्गतियों में ले जाते (3) माया-कपट (4) लोभ-लालच / हैं। आतंकवाद, हिंसा तथा शोषण प्र.374. कषायों पर विजयी बनना आखिर को प्रोत्साहित करते हैं। क्यों आवश्यक है? परमात्मा महावीर कहते हैं-क्रोधादि शास्त्रों में कहा गया-क्रोध से जीव कषाय अग्निरूप है तथा उनका शमन पतित होता है, मान से नीच गति पाता करने में श्रुत, शील और तप जल का है, माया से सद्गति का विनाश होता काम करते हैं। आज विश्व-अशांति, है और लोभ दोनों लोकों में भय युद्ध एवं हिंसा का जो ताण्डव नृत्य हो उत्पन्न करता है। रहा है, उसमें प्रमुख कारण कषाय ही जब तक जीव कषायाधीन है, तब तक है। प्रभु महावीर, श्रीराम, गांधी, समस्त चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। महापुरूषों ने कषाय को त्याज्य कहा कषाय दुःखों की खान है। क्रोध के है। जीवन को शान्ति, प्रेम और क्षमा कारण चण्डरूद्र सर्प बने, मान के का नंदनवन बनाने के लिये खामेमि कारण रावण का विनाश हुआ, माया सव्व जीवे, वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे के कारण मल्लिनाथ स्त्री बने तथा भवन्तु सुखिनः, शिवमस्तु सर्व जगतः लोभ के कारण सुभूम चक्रवर्ती मृत्यु आदि दिव्य सूत्र प्रदान किये। को प्राप्त हुआ। प्र.375. क्या गतियों की अपेक्षा से संज्ञा * **** ***** 133 ***** ********
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________________ एवं कषायों में विशिष्टता होती है? बिल्कुल! यद्यपि हर गति में चारों संज्ञा व कषाय तरतम भाव से पाये जाते हैं तथापि उनमें किसी एक की प्रधानता भी होती है-जैसे1. नरक गति में क्रोध कषाय एवं भय संज्ञा की प्रधानता होती है / 2. तिर्यंच गति में माया कषाय एवं __ आहार संज्ञा की प्रधानता होती है। 3. मनुष्य गति में मान कषाय एवं ___ मैथुन संज्ञा की प्रधानता होती है। 4. देव गति में लोभ कषाय एवं परिग्रह संज्ञा की प्रधानता होती है। प्र.376. कषायों के त्याग में क्या कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है? वैज्ञानिक शोध से यह प्रमाणित हो चुका हैं कि जब क्रोध आता है, वह शारीरिक व मानसिक क्षमता पर तीव्र प्रहार करता है। हजारों लाखों उपयोगी कोशिकाएं कुछ समय में नष्ट हो जाती हैं। किसी ने बहुत अच्छा ही कहा है-चुल्हे की आग से जलकर बहुत कम जीव मरे हैं पर क्रोधे के दावानल में सुलगकर अनन्त जीव मर चुके हैं। यह वह शैतान हैं, जो पहले विवेक और बुद्धि का घात करता है, उसके बाद मनुष्य का। ******** ******** 134 शास्त्रकार कहते है-विष जीवन में एक बार मारता है परन्तु कषाय अनन्त बार। दस मिनट के क्रोध से व्यक्ति का पाचन तंत्र इतना अस्त व्यस्त हो जाता है कि उसे ठीक होने में चौबीस घण्टे लग जाते हैं। क्रोध शरीर की ग्रन्थियों और स्रावों को विक्षिप्त कर देता है, ब्लड सर्ग्युलेशन बढ जाने से उच्च रक्तचाप की बीमारी हो जाती है, सांस की गति बढने से फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। एड्रीनल ग्रंथियों का स्राव तीव्र गति से होने से पेट, नेत्र, हृदय के रोग हो जाते हैं। कभी क्रोध में व्यक्ति किसी को मार देता है या स्वयं आत्म हत्या कर बैठता है या Heart Attack आ जाता है। इसलिये जरूरी है कि दिल और दिमाग के उपवन को क्रोध की अग्नि से बचाये रखो | Let go करना सीखो। वैज्ञानिक संशोधन के प्रकाश में यह स्पष्ट हो चुका हैं कि गृहिणियाँ भोजन बनाते समय या बच्चे को दूध पिलाते समय यदि क्रोध में होती हैं तो वह भोजन और दूध भी विषयुक्त हो जाता है। याद रखो- क्रोध जहर है और समता अमृत। **** **********
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________________ विकथा की विकटता प्र.377. कथा कितने प्रकार की कही गयी हैं? उ. मुख्यतः दो प्रकार की 1.. धर्म कथा और 2. अधर्म कथा (विकथा)। 1. जिससे जीवात्मा में आत्मा के प्रति रूचि उत्पन्न हो, जो सम्यक्दर्शन में स्थिर करें एवं जीव को मोक्षानुरागी बनावें, उसे धर्मकथा कहते है। धर्म कथा स्वाध्याय के पांच प्रकारों में से एक हैं। परमात्मा अपने प्रवचन में कथा, * रूपक एवं उपमान सुनाते थे क्योंकि कथा के द्वारा दर्शन, कर्म एवं सिद्धान्त की दुरूह, कठिन बातें भी सहज ही समझ में आ जाती है। जम्बूकुमार ने धर्म कथा के माध्यम से आठ पत्नियों को मोक्षमार्ग पर आरूढ किया। नन्दीषण मुनि धर्म कथा में इतने निपुण थे कि बारह वर्ष पर्यन्त प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रव्रज्या के पावन पथ पर अग्रसर किया। 2. जो कथा कषाय, मिथ्यात्व, विषय वासना का पोषण करे एवं जन्म-मरण में वृद्धि करें, वह अधर्म कथा कहलाती है। आजकल क्रिकेट सिनेमा, अभक्ष्य उत्तेजक खान-पान, उद्भट वेश-भूषा, सौन्दर्य की कथाओं (वार्तालाप) के कारण हजारों व्यक्ति वासना, चोरी, अभद्र व्यवहार, अश्लील जीवन के शिकार होते जा रहे हैं। कभी कभी इन उत्तेजना एवं कषायवर्द्धक कथाओं के कारण व्यक्ति अकरणीय कर लेता है, माँ-बाप को गोली से उडा देता है, क्लब, बार में जिन्दगी को फूंक देता है, लड़के-लड़की घर से भाग जाते है। एड्स आदि बीमारियाँ अधर्म (विकथा) कथा का ही परिणाम है। प्र.378. चार प्रकार की कौनसी अधर्म कथाएँ त्याज्य हैं? उ. (1)राजकथा- राग-द्वेष से परिपूर्ण राजनीति सम्बन्धी चर्चा/कथा करना। (2)देशकथा- देश/राज्य के पाप कार्यों की अनुमोदना करना / (3)स्त्रीकथा (पुरूष कथा)- विजातीय के रूप-रंग, सौन्दर्य लावण्य, वेशभूषा आदि की राग-द्वेष पूर्वक चर्चा करना।
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________________ (3)भोजन कथा- आहार को अच्छा-बुरा, प्रशंसनीय–निंद्य कहना। उसमें राग अथवा द्वेष करना। प्र.379. जब ये चार कथाएँ त्याज्य हैं, तो कौनसी कथाएँ स्वीकार्य हैं? स्थानांग सूत्र में जिनाज्ञानुसारी के लिये करणीय चार कथाओं का निर्देश किया गया है(1)विक्षेपणी कथा- भोगादि में रहे हुए दोषों को बताने वाली एवं उन्मार्ग से सन्मार्ग पर लाने वाली कथा / (2)आक्षेपणी कथा- मोह और अधर्म ___ से हटाकर धर्म-स्थान की ओर ले जाने वाली कथा / (3)संवेगनी कथा- भोग-सुखों से दूर करने वाली तथा वैराग्य-रस उत्पन्न करके मोक्ष की प्रबल इच्छा जगाने वाली कथा। (4)निर्वेदनी कथा- इहलोक परलोक में पुण्य-पाप के फल बताकर संसार से विरक्त बनाने वाली कथा / *** * 136 *** ** ***
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________________ लेश्या-विज्ञान प्र.380. लेश्या किसे कहते है ? / अच्छा - बुरा, मोह-निर्मोह, द्वेषउ. वस्तु अथवा शरीर की कान्ति व प्रभा प्रेम, त्याग-भोग का भावमण्डल को लेश्या कहा जाता है। तैयार होता है और वह अन्य को जिस प्रकार पदार्थ का वर्ण होता है, प्रभावित करता है। जिसे कान्ति/प्रभा के नाम से जाना यह देखा गया सत्य है कि किसी जाता है, उसी प्रकार मनोगत विचारों तमोगुणी व्यक्ति की नेत्रों से निकलने की भी आभा/प्रभा होती है। विज्ञान वाली तामसिक किरणों के प्रभाव से जिसे 'ओरा' (आभामण्डल) कहता है, प्रौढ, बालक रूग्ण हो जाते हैं, जिसे उसे जैन दर्शन में 'लेश्या' कहा गया 'नजर लगना' कहा जाता है। कहा जाता है कि नजर (कदष्टि) से प्र.381. लेश्या का वैज्ञानिक स्वरूप पत्थर में भी दरार आ जाती है। समझाईये। सत्वशाली व्यक्ति के सानिध्य में लेश्या एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। सात्त्विक विचार तथा तामसिक-- जिस प्रकार रिमोट कंट्रोल के अलग- राजसिक - विलासी तथा क्रोधी अलग बटन दबाने से चैनल, रंग, व्यक्ति के पास बैठने से वैसे विचार आवाज आदि बदल जाती है। इन बनेंगे। सभी में कारण उस यंत्र से निकलने प्र.382.व्यक्ति के विचार (आभामण्डल) वाली अगोचर तरंगे हैं। भला एक दूसरे को किस प्रकार इसी प्रकार आभामण्डल का भी अपना प्रभावित कर सकते हैं? प्रभाव है। वर्तमान में मानसिक रोगी उ. विचारों के अनुरुप व्यक्ति के चारों की भिन्न-भिन्न वर्गों की किरणों एवं तरफ एक वर्तुल बनता है, जिसका जल की बोतलों के द्वारा चिकित्सा वर्ण, चमक, कान्ति, मलिनता अथवा की जाती है। निर्मलता विभिन्न यंत्रों के द्वारा देखी निमित्तों को प्राप्त कर जीव के जा सकती है। शुद्ध विचार चमकदार/ अध्यवसाय बदलते हैं। तदनुरूप निर्मल / शुभ्र / शुक्ल आभामण्डल ******* ***** 137 **** * * ** ***
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________________ तैयार करते हैं और मलिन, अशुद्ध, हिंसा आदि पापों से युक्त अध्यवसायों के परिणाम स्वरूप मेला, काला, नीला आभामण्डल बनता है और इसके द्वारा परस्पर प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। तीर्थंकर परमात्मा के आभामण्डल के प्रभाव से उनके समवसरण में साँप-नेवला, बिल्ली-चूहा, सिंहबकरी आपसी वैरभाव भूल जाते हैं। चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक नये रोग-उपद्रव नहीं होते हैं और पुराने नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यह ध्यातव्य है कि जिसका आभामण्डल प्रभावशाली होगा, वह अप्रभावित रहता हुआ अन्यों को प्रभावित करेगा। सन्तों के सानिध्य में आकर सिंह, सर्पादि अपना क्रोधी स्वभाव त्याग कर शान्त-प्रशान्त हो जाते हैं, यह उनके सौम्य एवं सात्त्विक आभामण्डल का ही प्रभाव है। प्र.383. लेश्या के प्रकारों को प्रकाशित कीजिए। उ. (1)अति क्रोधी, ईर्ष्यालु, पापी, हिंसक, निर्दयी, लोभी, कृतघ्नी जीव का आभामण्डल कृष्ण वर्ण का होने से उसे कृष्ण लेश्या कहते है। **** * ****** 138 (2)स्त्री-लंपट, उग्र-परिणामी, अभिमानी, हठी-कदाग्रही, प्रमादी जीव का नीला आभामण्डल होने से उसे नील लेश्या कहते है। (3)स्वप्रशंसक, परनिंदक, शोकग्रस्त, कलही, आर्तध्यानी का आभामण्डल कापोत/कबूतरवर्णीय होने से कापोत लेश्या कहा जाता है। (4)हिताहित ज्ञाता, विद्वान्, दयालु, परोपकारी व्यक्ति का आभामण्डल दीपकवत् तेजोमय व द्युतियुक्त होने से तेजोलेश्या कहा जाता है। (5)सरल स्वभावी, दानी, अहिंसक, व्रती, : क्षमाशील, निर्लोभी, हित-मित-प्रियभाषी व्यक्ति का आभामण्डल पद्म के समान होने से पद्मलेश्या कहा जाता है। (6)वीतरागी, स्वाध्यायी, साधनाशील, परम निर्मल आत्म ध्याता का आभामण्डल दुग्ध/शंख की भाँति परम श्वेत/शुभ्र होने से शुक्ल लेश्या कहलाता है। इसमें जिस वर्ण का आभामण्डल बनता है, उसे द्रव्य लेश्या एवं उनमें कारण रूप शुद्ध-अशुद्ध, निर्मल-मलिन अध्यवसायों को भाव लेश्या कहा जाता है। ****************
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________________ कार "प्र.384. लेश्या-विज्ञान पर यदि शास्त्रों में प्रथम तीन अशुभ, अधर्म लेश्या तथा कोई दृष्टान्त हो तो वह भी बताईये। शेष तीन को शुद्ध, धर्मलेश्या कहा उ. उपदेश प्रसाद में एक उदाहरण प्राप्त गया है। होता है, वह भावधारा की भिन्नता को प्र.385. लेश्या-स्नान किसे कहते है? अभिव्यक्त करता है उ. कई बार देखा जाता है कि किसी छह व्यक्ति हैं। उन्हें जंगल से गुजरते व्यक्ति के स्नान करने व इत्र, गंध समय भूख लगी। उन्होंने जामुन का आदि लगाने के कुछ पलों के बाद ही वृक्ष देखा तब उसके शरीर से दुर्गंध आने लगती है, (1)एक ने कहा- इस वृक्ष को और कोई व्यक्ति स्नान, वस्त्रकाटकर जामुन खाये जाये / प्रक्षालन आदि नहीं करता है, फिर (2)दूसरे ने कहा- इसकी एक भी उनके शरीर से दुर्गंध नहीं आती विशाल शाखा को तोड़कर उदरपूर्ति है। की जाये। कई बार योगियों के शरीर से चन्दन (3)तीसरे ने कहा- छोटी शाखाओं से आदि की सुगंध भी आती है, इसमें ही अपना काम बन जायेगा। मुख्य कारण लेश्या विशुद्धि है। यह (4)चौथे ने कहा-पूरी शाखा क्यों जीव के निर्मल एवं स्वच्छ अन्तःकरण तोड़े, गुच्छे ही तोड़े जाये। का द्योतक है। अतः अधिकतम आराधना, साधना, जप-तप, ज्ञान(5)पाँचवां बोला- उसमें भी पक्व ध्यान करो, मन को मैत्री, प्रेम, स्नेह, ‘जामुन ही तोड़े जाये। करूणा के सुगंधित पुष्पों से महकाते (6)छठे ने कहा- भैया! जामुन रहो। जैसे-जैसे वीतरागता, समता, तोड़ने की क्या जरूरत, जो पके संतोष की त्रिवेणी में नहाते जाओगे, जामुन नीचे गिरे हुए हैं, उनसे ही वैसे-वैसे शरीर, मन, अंग-प्रत्यंग, काम चला लेते हैं। दृष्टि, प्रवृत्ति, भाषा का निर्मलीकरण यह दृष्टान्त भावधारा को अभिव्यक्त होता जाएगा। इससे अभूतपूर्व आनंद करता है। इन्हें क्रमशः कृष्ण, नील, व सुगंध का सोता फूट पड़ेगा। इसे कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / ही जैन दर्शन में लेश्या-स्नान कहा लेश्या कहा जा सकता है। इनमें से / गया है।
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________________ संबोधि के सोपान उ. प्र.386. आत्मबोध का प्रथम सोपान निर्जीव में ये सब असंभव है। कौनसा है? 4. जीव को ही सुख-दुःख की जिस प्रकार घर और उसका मालिक, अनुभूति होती है, अजीव को लिफाफा और उसमें रखे रुपये, कपड़े कभी नहीं। और उसे धारण करने वाला अलग 5. व्यवहार में शरीर को 'मैं कभी अलग हैं, उसी प्रकार आत्मा और नहीं कहा जाता है, उसके लिये शरीर, दोनों भिन्न-भिन्न है। इस 'मेरा' शब्द ही चलता है, इससे प्रकार का चिन्तन ही आत्मबोध का स्पष्ट है कि 'मैं का अर्थ आत्मा प्रथम सूत्र है। ही है। मेरा सिर दुखता है, ऐसा प्र.387.आत्मा और शरीर को भिन्न किस कहा जाता है, न कि 'मैं दुखता प्रकार कहा जा सकता है जबकि आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है ? 6. शरीर में रक्त मुख्य धातु है उ. 1. शरीर से जब आत्मा अलग हो जिसके बिना जीव जी नहीं जाती है तब यह शरीर काष्ठ की सकता। विज्ञान ने चकित भांति निश्चेष्ट पड़ा रहता है। करने वाली प्रगति है तथापि उसकी सारी क्रियाएँ समाप्त हो वह ऐसी मशीन का निर्माण जाती हैं। नहीं कर सका जो रक्तादि का 2. शरीर में यों तो दुर्गंध नहीं आती निर्माण कर सके। इसका अर्थ है परन्तु मृत्यु के कुछ समय बाद यही है कि रक्त जीवित प्राणी ही उसमें सड़ांध उत्पन्न हो जाती में ही बनता है। है, उसका विसर्जन अनिवार्य हो प्र.388. वैर को कैसे उपशांत किया जा जाता है। सकता है? 3. चेतना सहित शरीर में ही उ. वैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है। देखना, चलना, श्वासोच्छ्वास वैर हमेशा वैर का ही अनुबंध करवाता आदि प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं। है। क्षमाभाव जितना प्रबल होगा, वैर
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________________ की ग्रंथियाँ उतनी ही गलती जायेगी। को खाने का परिणाम अच्छा नहीं शास्त्रों में कहा भी गया है कि- होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का 'खमावणयाएणं पल्हायण भावं परिणाम भी अच्छा नहीं होता। जणयइ।' क्षमा से आत्मा में अपूर्व काम–भोग में आसक्त होकर भी जीव आनंद की अनुभूति होती है। इसलिये कर्मों का बंधन करता है। कामभोग के क्षमा धर्म ही आराध्य, साध्य और प्यासे चक्रवर्ती भी अन्ततः अतृप्त दशा काम्य है। इसकी नित्य साधना करो। में मरकर दुर्गति में जाते हैं। प्र.389. परमात्मा ने मनुष्य भव को अकामी तथा अभोगी जीव संसार में महत्त्वपूर्ण क्यों कहा? कमल-पत्र की तरह निर्लिप्त रहता उ. 'दुल्लहे खलु, माणुसे भवे। निश्चय हुआ भव-समुद्र से तिर जाता है। ही मनुष्य देह की. प्राप्ति दुर्लभ है। प्र.391. मानव-भव को कैसे सफल करें? . संसार में क्रमशः विकास करते हुए उ. जीवन की सफलता धन, सत्ता और अनन्त पुण्य का संचय होने पर जीव सम्पत्ति के विस्तार में नहीं अपितु मनुष्य भव को एवं अनन्त पुण्यानुबंधी विसर्जन में है। यद्यपि व्यक्ति सोचता पुण्योदय से जिनेश्वर देव के धर्म को है कि कल धर्म करूंगा, सामायिक; प्राप्त करता है। यद्यपि पदार्थ, सौन्दर्य सुपात्र दान, आत्म चिन्तन, साधना, स्वाध्याय करूंगा परन्तु मृत्यु रूपी की अपेक्षा से देव भव उत्कृष्ट है सिंह जीव रूप हरिण को मुँह में दबाये तथापि संचित कर्मों का क्षय एवं मोक्ष ले जाता है और स्वजन-परिजन फल की प्राप्ति मनुष्य देह के द्वारा ही देखते रह जाते हैं। इसलिये जीवन संभव है। की सफलता धर्म-विस्तार एवं इच्छा प्र.390. कामभोग त्याज्य क्यों है? नियंत्रण में है। परमात्मा महावीर . उ. कामभोग अनर्थों की खान है। ये क्षण उत्तराध्ययन सूत्र में फरमाते हैंमात्र सुख देने वाले तथा बहुकाल जरा न जाव पीडेइ, वाही जाव न वढई। तक दुःख देने वाले हैं। कामभोग जाविन्दिया न हायन्ति, ताव धम्म समायरे।। शल्य है, विषरूप है, विषधर सर्प है जब तक बुढ़ापा नहीं आता, व्याधियाँ तथा मधुलिप्त तलवार को चाटने के जोर नहीं पकड़ती, इन्द्रियाँ क्षीण नहीं समान है। जिस प्रकार सुन्दर तथा होती, तब तक धर्म का आचरण कर स्वादिष्ट होने पर भी किंपाक फल लेना चाहिये।
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________________ प्र.392. परमात्मा ने ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट उ. क्यों बताया? ज्ञान से आत्म-तत्त्व का बोध होता है। ज्ञानी महात्मा हित-अहित को जानकर संवर के द्वारा कर्म-आगमन के द्वारों को बन्द कर देते हैं तथा निर्जरा के द्वारा कर्मों को धो डालते हैं, परन्तु अज्ञानी मनुष्य मानता है कि कुल, जाति, वंश, धन, ये सब मेरे हैं, वे मेरा रक्षण करेंगे परन्तु उन्हें अन्त में शरण और ज्ञान देने वाला कोई नहीं होता। प्र.393. वीतराग भाव को कैसे उपलब्ध किया जा सकता है? स्नेह के बंधन अति भयंकर है। वास्तव में स्वजन-परिजन के स्नेह-पाश को तोड़ना अथाह समुद्र को भुजाओं के बल पर पार करने के समान व लोहे के चने चबाने जैसा दुष्कर कार्य है। इसके लिये पुनः पुनः बारह भावनाओं का चिंतन करें, आत्म-समाधि का विकास करें। जीवन की अनित्यता की अनुप्रेक्षा करें। ये समस्त . काम भोग अन्ततोगत्वा दुःख एवं दुर्गतिदायक है, ऐसा नित्य स्मरण करते रहे। **************** 142 ** ** ***** **
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________________ जैन आचार मीमांसा 1. प्रातः जागरण विधि * 2. जिन मंदिर दर्शन एवं पूजन विधि 3. कैसे सुने प्रवचन ? 4. उपाश्रय में कैसा हो आचरण हमारा? 5. सुपात्रदान की विधि 6.श्रावक जीवन की साधना 7. धर्म के चार प्रकार 8. तप के बारह भेद 9. रात्रि शयन से पूर्व आत्म-चिन्तन
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________________ प्रात: जागरण विधि / प्र.394.प्रातः जागरण किस प्रकार होता है। लाभदायक है? (5)यह अनुभवगम्य तथ्य है कि ब्रह्म सूर्योदय से एक घण्टा छत्तीस मिनट मुहूर्त का जाप एवं धर्म-क्रिया पूर्व निद्रा का त्याग करना दिवस पर्यन्त की अपेक्षा अधिक चाहिये / यह ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है। आनंददायक होती है। (1)इससे तन स्वस्थ व मन प्रसन्न ब्रह्ममुहूर्त का दो घण्टे का रहता है एवं आत्मा शुद्ध बनती है। अध्ययन दिवस भर के छह घण्टे (2)जो व्यक्ति ब्रह्म मुहूर्त में निद्राधीन के अध्ययन से अधिक होता है एवं रहता है, उसका पुण्य भी सो जाता स्मृति में स्थिर रहता है। है। . प्र.395.प्रातः जागरण के साथ क्या करना शास्त्रों में कहा गया है- 'ब्राह्म- चाहिये? मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षय- उ. आठ बार नवकार मंत्र का श्रद्धा एवं कारिणी। एकाग्रता के साथ स्मरण करना अंग्रेजी में लिखा है चाहिये। उसके बाद दोनों हथेलियों Early to Bed and Early to Rise, को मिलाकर मध्यवर्ती रेखा से जो Is the way to be Healthy, wealthy and wise. अर्द्धचन्द्राकार बनता है, उसमें सिद्ध (3)वैज्ञानिकों ने शोध करने के शिला की यथार्थ कल्पना करनी उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि चाहिये। उसके ऊपर आठ अंगुलियों कम नींद लेने से हृदय रोग की के कुल चौबीस पोरवों में चौबीस संभावनाएँ कम हो जाती हैं। तीर्थंकरों की पावन कल्पना करके (4)प्रातः जागरण से शक्ति, बुद्धि एवं आदिनाथ से महावीर स्वामी पर्यन्त समृद्धि में वृद्धि होती है। इस समय चतुर्विंशति जिनस्तुति स्वरूप प्रकृति मेधा, स्फूर्ति एवं आनंद की लोगस्स का पाठ करना चाहिये / यदि वर्षा करती है। इससे प्राणों में लोगस्स नहीं आता हो तो उन्हें नवस्फूर्ति एवं ताजगी का संचरण .. नामपूर्वक वंदना करते हुए प्रार्थना करें
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________________ कि प्रभो! मैं कब सिद्धपद को प्राप्त (1)अपनी चमड़ी के जूते बनाकर करुंगा। तत्पश्चात् - पहनाएँ। 'अंगूठे अमृत वसे, लब्धि तणा भण्डार। (2)देव बनकर जीवन भर कंधों पर श्री गुरू गौतम समरिये, वांछित फल दातार।। उन्हें उठाकर फिरे। 'दासानुदासा इव सर्व देवा, (3)छप्पन पकवान बनाकर खिलाये यदीय पादाब्जतले लुठन्ति / तब भी माता-पिता के उपकारों मरूस्थली कल्पतरू स जीयाद् का ऋण चुका पाना असम्भव है। युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः।।' वे अनेक कष्ट उठाकर भी पुत्र की ये दोनों श्लोक बोलकर क्रमशः गौतम सुविधा एवं सुख का ख्याल रखते स्वामी तथा दादा गुरुदेव को हैं। संस्कारी, योग्य, शिक्षित, भावपूर्वक वंदना करें। व्यवहारिक, धार्मिक, स्वावलम्बी हथेली दर्शन से ये भाव भी अभिव्यक्त सन्तान के निर्माण में पूर्णतया होते हैं कि माता-पिता के उपकार ही कारण * इन हाथों से आज किसी को दुःखी हैं। ऐसे निःस्वार्थी, उपकारी माता - नहीं करूँगा। पिता के आशीर्वाद का अमृत पाने * सुपात्र दान आदि शुभ कार्य करूँगा। हेतु चरण स्पर्श किया जाता है। * दीन-दुःखी के आँसू पोछूगा। प्र.397. चरण स्पर्श का वैज्ञानिक रहस्य * किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा। बताईये। * निर्बल को सताऊँगा नहीं। झूठा उ. चरण स्पर्श को बुद्धिजीवी लोग केवल लेख आदि नहीं लिखूगा। रूढिवाद के रूप में समझते हैं अतः * प्रभु एवं गुरु भगवंतों को हाथ जरूरी है कि इसके वैज्ञानिक पक्ष से जोड़कर वंदना एवं आदरणीय अवगत कराया जावे। माता-पिता आदि को हाथ प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक अंग एवं जोड़कर चरण स्पर्श करूँगा। उपांग से ऊर्जा/विद्युत्-तरंगें प्र.396. चरण स्पर्श क्यों करना चाहिये? प्रवाहित होती हैं। जैसे पॉवर हाउस में उ. माता-पिता के उपकारों को लिखना तार जोड़ने से लाईट हो जाती है, असंभव है। शास्त्रों में कहा गया है कि ठीक उसी प्रकार वंदनीय गुरुजनों कोई पुत्र एवं माता-पिता के चरणों का स्पर्श ** ************* 146
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________________ करने से उनमें विद्यमान गुण तरंगों अहिल्या भी ऊर्जामयी बन गयी थी। पर सवार होकर हमारे शरीर में प्रविष्ट प्र.398. चरण स्पर्श किस प्रकार करना हो जाते हैं। चाहिये? धर्म-विज्ञान के अनुसार चरण-स्पर्श उ. चरण स्पर्श की प्रक्रिया समझने से व्यक्ति विनय युक्त हो जाता है जैसी है। वर्तमान में व्यक्ति घुटनों का और विनय-नमन एक ऐसा चुम्बकीय स्पर्श करता है, इसी से लगता है कि गुण है, जो महापुरुषों को भी आकृष्ट घुटनों की बीमारी बढ़ती जा रही है कर लेता है। इससे व्यक्ति महानता क्योंकि अंगों से निकलने वाली ऊर्जा के शिखर का वरण कर लेता है। हमें प्रभावित करती है। विनय से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। (i) चरण स्पर्श करते समय प्रणम्य कर्म विज्ञान की दृष्टि से गुणवानों को पुरूष के चरण-अंगुष्ठ से ललाट का वंदन करने से उच्च गोत्र का उपार्जन एवं अंगुलियों के पोरवों का संयोग एवं नीच गोत्र का क्षय होता है। होना चाहिये, ताकि उससे प्रवाहित आरोग्य विज्ञान की दष्टि से भी होने वाली सात्त्विक, विधायक ऊर्जा 'प्रणाम' की प्रक्रिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रहण की जा सके। है। चरण स्पर्श में मेरु-दण्ड को (ii) दांये हाथ का स्पर्श बांये चरण से मोड़ने-सीधा करने की प्रक्रिया से वह एवं बांये हाथ का दांये चरण से स्पर्श लचीला, प्राणवान्, स्वस्थ एवं सुदृढ़ करना चाहिये। धनात्मक एवं बनता है, जिससे व्यक्ति में एकाग्रता, ऋणात्मक ऊर्जा का संयोग होने से ध्यान, साधना का विकास होता है। तन, मन एवं चेतन में विद्युत् तरंगों का पवित्र चरित्र के धारक मर्यादा स्पन्दन होता है, जो अनेक रोगों का पुरूषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी के अंगुष्ठ- निदान कर देता है। स्पर्श से श्रापिता कठोर पाषाणवत्
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________________ जिन-दर्शन एवं पूजन विधि प्र.399.जिनपूजा हेतु स्नान किस प्रकार है। जैसे ही घण्ट का घोष व्यक्ति करनी चाहिए? के कानों से टकराता है, व्यक्ति को उ. श्रावक को परात में बैठकर सीमित स्मरण हो आता है कि 'मैं मंदिर में जल से पश्चिम दिशामुखी स्नान आ गया हूँ। मुझे संसार से संबंधित करनी चाहिये और वह पानी निरवद्य विचार नहीं करने हैं।' (जीवरहित) भूमि पर परठना चाहिये। 2. अन्तर का आनंद अभिव्यक्त प्र.400.जिनपूजा हेतु प्रारंभिक जानकारी करने के लिये बाहर निकलते दीजिये। समय घण्टनाद किया जाता है, उ. 1. जिनपूजा में बिना सिले एवं बिना पर घण्टनाद सामान्य ध्वनिपूर्वक कटे फटे तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिये। करना चाहिये। प्र.402. जिन मन्दिर में प्रविष्ट होते समय 2. जिनपूजा हेतु नग्न पाँव जाना कौनसे पाँच अभिगमों का पालन चाहिये। . करना होता है? 3. घर से लगाकर मंदिर पर्यंत मौन उ. (1)सचित्त का त्याग - गले में रखना चाहिये एवं जयणा पूर्वक स्थित पुष्पमाला एवं केश-वेणी चलना चाहिये। का त्याग करके मंदिर जाना ।खाने 4. ध्वजा के दर्शन होने पर 'नमो - पीने की वस्तु यथादवा, मुखवास जिणाणं' कहना चाहिये। आदि लेकर मंदिर में प्रवेश नहीं 5. मंदिर में पुरूष वर्ग को परमात्मा करना। के दायीं तरफ तथा स्त्री वर्ग को (2)अचित्त का अत्याग - यदि शरीर बायीं तरफ खड़ा रहना चाहिये। पर आभूषण हो तो उनका त्याग प्र.401.जिनमंदिर में प्रवेश करते और नहीं करना। बाहर निकलते घण्टनाद क्यों (3)उत्तरासन - पुरुषों को मंदिर में किया जाता है? स्कंध को एवं स्त्रियों को सिर उ. 1. घण्टनाद व्यक्ति को जगाने में हेतु ढककर मंदिर में प्रवेश करना। ******* * ** 148 * *******
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________________ (4)अंजलिबद्ध प्रणाम -ध्वजा एवं प्र.405.प्रदक्षिणा त्रिक किसे कहते है? प्रभु दर्शन होते ही झुककर नमो उ. सम्यज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप जिणाणं कहना। रत्नत्रयी की प्राप्ति के लिये परमात्मा (5)प्राणिधान-एकाग्रता एवं विनय की तीन प्रदक्षिणा देना प्रदक्षिणा त्रिक से पूजन-अर्चन-स्तवन करना। कहलाता है। प्र.403. मंदिर से संबंधित दस त्रिक कौन प्र.406.प्रणाम त्रिक से क्या अभिप्राय है? कौनसी हैं? उ. प्रणाम तीन प्रकार के होते हैं - उ. तीन-तीन की बातों के समूह को 1. अंजलिबद्ध- दोनों हाथ जोडकर, त्रिक कहा जाता है, ऐसी बातें दस सिर झुका कर नमो जिणाणं कहना। होने से त्रिक दस प्रकार की कही 2. अर्धावनत- आधा शरीर झुकाकर गयी हैं प्रणाम करना। 1. निसीहि 2. प्रदक्षिणा 3. प्रणाम 3. पंचाग प्रणिपात- खमासमणा देते 4. पूजा 5 अवस्था 6. दिशा 7. प्रमार्जना समय दोनों हाथों, दोनों घुटनों और 8. आलम्बन 9. मुद्रा 10. प्रणिधान। मस्तक को भूमि से स्पर्श कराते हुए प्र.404.निसीहि त्रिक किसे कहते हैं? प्रणाम करना। उ. निसीहि अर्थात् निषेध करना, त्याग प्र.407.तीन प्रकार की पूजा कौनसी हैं? करना। उ. अंगपूजा, अग्रपूजा एवं भावपूजा।। 1. जिनमंदिर में प्रवेश करते समय प्र.408.अंगपूजा और अग्रपूजा में क्या सांसारिक कार्यों के त्याग रूप अन्तर है? - प्रथम निसीहि बोलनी चाहिये। उ. अंगपूजा में प्रभु–प्रतिमा का स्पर्श 2. मंदिर संबंधी व्यवस्थाओं का किया जाता है परन्तु अग्रपूजा में अवलोकन करने के पश्चात् प्रभु प्रतिमा का स्पर्श न करके उनके पूजा हेतु मूल गंभारे में प्रवेश करते सम्मुख पूजा की जाती है। समय दूसरी निसीहि बोलनी प्र.409. परमात्मा के किन नव अंगों की चाहिये। पूजा की जाती है? 3. प्रभुपूजा करने के बाद भावपूजा उ. 1. अंगूठा 2. घुटना 3. हाथ 4. कंधा (चैत्यवंदन) करने से पूर्व तीसरी 5. मस्तक 6. ललाट 7. कंठ 8. हृदय निसीहि बोलनी चाहिये। 9. नाभि।
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________________ प्र.410.अंगुष्ठ पूजा क्यों की जाती है? उ. ललाट जिस प्रकार समस्त अंगों में उ. आत्मकल्याण एवं केवलज्ञान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ प्राप्ति हेतु परमात्मा ने चरणों से विहार है, उसी प्रकार परमात्मा तीनों लोकों किया था और मुझे भी ऐसा कायिक में विशिष्ट, पूज्य एवं सेव्य होने से प्रभु बल मिले ताकि मैं भी विहार कर सकू के ललाट की पूजा की जाती है। " इस शुभ लक्ष्य से अंगुष्ठ पूजा की प्र.415. मस्तक पूजा का क्या रहस्य है? जाती है। उ. मस्तक बुद्धि का निवास स्थल है। प्र.411.घुटनों की पूजा का लक्ष्य क्या है? परमात्मा ने बुद्धिनिधान होने पर भी उ. जिस प्रकार साधनाकाल में प्रभु ने उसका दुरुपयोग अथवा अहंकार घुटनों के बल खड़े रहकर साधना नहीं किया, उसी स्थिति की प्राप्ति के की थी, वैसी शक्ति की प्राप्ति के लिये लिये मस्तक पूजा की जाती है। घुटनों की पूजा की जाती है। प्र.416. कंठ पूजा का कारण क्या है? प्र.412. हाथों की पूजा क्यों की जाती है? उ. परमात्मा ने जन कल्याण के लिये उ. जिस प्रकार प्रभु ने वर्षीदान देकर देशना दी थी, उसी हेतु से प्रभु की बाह्य निर्धनता को एवं दीक्षा दान कंठ.पूजा की जाती है। करके आन्तरिक दरिद्रता को दूर प्र.417.हृदय पूजा से क्या अभिप्राय है? किया था, उसी प्रकार मैं भी संयम पथ . अपनाकर भाव जगत की दरिद्रता दूर उ. परमात्मवत् उपकारी एवं अपकारी, कर सकू, अतः हाथों की पूजा की समस्त जीवों पर समभाव जगाने हेतु जाती है। हृदय की पूजा की जाती है। प्र.413. स्कंध पूजा से क्या अभिप्राय है? प्र.418. नाभि पूजा क्यों की जाती हैं? उ. स्कंध अभिमान के प्रतीक हैं परन्त उ. नाभि में स्थित कर्मरहित आठ रूचक परमात्मा ने स्वयं की ज्ञान व ध्यान प्रदेशों की भाँति कर्म मुक्ति की मंगल शक्ति का कभी भी अभिमान नहीं भावना से नाभि की पूजा की जाती है। किया। उनकी तरह मैं भी निरभिमानी प्र.419.अष्टप्रकारी पूजा के रहस्य को बनूं, इस अभिप्राय से प्रभु की स्वध स्पष्ट करो। पूजा की जाती है। उ. 1. जल पूजा- आत्मा पर लगा कर्मों प्र.414. ललाट की पूजा किस लक्ष्य से की का मल एवं मेल को मिटाकर जाती है? निर्मल बनने के लिये।
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________________ 2. चंदन पूजा- कषायों की दाहकता मिटाकर समभाव की शीतलता पाने के लिये। 3. पुष्प पूजा- आत्मा में गुणों की ___सुरभि फैलाने के लिये। 4. धूप पूजा- धूप-घटा की भाँति उर्ध्वगति को प्राप्त करने के लिये। 5. अक्षत पूजा- अक्षय पद प्राप्त __करने के लिये। 6. दीप पूजा- केवलज्ञान का आलोक - प्रकट करने के लिये। 7. नैवेद्य पूजा- रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिये। ___8. फल पूजा - मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये। . प्र.420.अष्टप्रकारी पूजा में क्या-क्या सावधानियाँ रखनी चाहिये। उ. 1. प्रक्षाल में जयणापूर्वक जल प्रयोग करना चाहिये। प्रक्षाल का जल पाँचों में न आवे एवं जीव उसमें गिरकर न मरे, इसका पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिये। बाद में निरवद्य (जीवरहित) स्थान में उस प्रक्षाल जल को परठना चाहिये। 2. चंदन ऐसा न हो कि प्रतिमा पर रेले उतरे अतः गाढ़े चंदन से पूजा करनी चाहये परन्तु प्रतिमा के नाखून का स्पर्श कदापि नहीं होना चाहिये। प्रतिमा के लिये हानिकारक होने से केसर का उपयोग कम से कम करना चाहिये। 3. पाँव में आये हुए, मुरझाये एवं सूंघे हुए पुष्पों से प्रभु-पूजा नहीं करनी चाहिये। 4. फूलों को पानी से धोना नहीं चाहिये, इस प्रकार की क्रिया से विराधना की पूर्ण संभावना है। 5. फूलों को सुई से कभी भी बिंधना नहीं चाहिये। उनकी पंखुड़ियाँ भी अलग-अलग नहीं करनी चाहिये। 6. यदि धूप पूर्व में प्रकट हो तो नया नहीं जलाना चाहिये। 7. धूपदानी को भगवान के बायीं तरफ स्थापित करना चाहिये। 8. दीपक खुला नहीं छोडना चाहिये क्योंकि उसमें विविध कीट-पतंग आदि जीव गिरकर मर जाते हैं। 9. सडे हुए नेवैद्य से पूजा नहीं करनी चाहिये। अभक्ष्य जैसे बासी पदार्थ, चॉकलेट, बाजार की बनी मिठाई नहीं चढानी चाहिये। मखाणा, मिठाई के टुकड़े आदि मधुर पदार्थों को पाउच में पैक करके चढाने चाहिये वरना उसके कारण चींटी आदि की अजयणा का पाप लग सकता
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________________ 10.आर्द्रा नक्षत्र लगने के बाद आम, नीचे रात्रि में स्वच्छ वस्त्र रख देना फाल्गुन चौमासी के बाद सूखा चाहिये। फिर उस पर जो पुष्प स्वतः मेवा (बादाम के सिवाय) त्याज्य खिर जाये, उस पुष्प से प्रभु की होने से प्रभु पूजा में उसका सर्वथा पूजा करनी चाहिये। निषेध करना चाहिये। प्र.422.प्रभु के सम्मुख स्वस्तिक, सिद्धशिला 11.आंगी आदि में हिंसाजन्य वरक का का निर्माण क्यों किया जाता है? उपयोग कदापि नहीं करना उ. स्वस्तिक चार गतियों का प्रतीक है चाहिये। एवं उनसे मुक्त होने का उपाय है12.चंदन व केसर का आवश्यकता- सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्र। अतः अनुसार ही उपयोग करना चाहिये। उसके उपर रत्नत्रयी स्वरूप तीन 13.सबसे पहले प्रभु की, तत्पश्चात् ढेरियों का निर्माण किया जाता है। इस दादा गुरू आदि गुरु भगवंतों की .. रत्नत्रयी की आराधना के द्वारा एवं अन्त में देव देवी की पूजा सिद्धशिला की प्राप्ति संभव है। उसके करनी चाहिये। सिद्धचक्र की पूजा प्रतीक स्वरूप अर्द्धचन्द्राकार में प्रभु–पूजा से पूर्व भी की जा सकती। सिद्धशिला की रचना की जाती है। प्र.423.स्वस्तिक आदि अक्षत के ही क्यों 14.अष्टमंगल की पूजा नहीं करनी बनाये जाते हैं? चाहिये / वह प्रभु के समक्ष स्थापित उ. छिलके रहित चावल को बोने पर वह करने के लिये है। अंकुरित नहीं होता है, उसी प्रकार य इधर-उधर न राग-द्वेष के बीजों को नष्ट करके देखकर जयंणा का पालन करना जन्म-मरण से मुक्त होने के लिये चाहिये व मधुर स्वर में दोहों का स्वस्तिक आदि अक्षत से बनाये जाते उच्चारण करना चाहिये। हैं। 16.भगवान की दृष्टि न पडे, इस तरह प्र.424. मुखकोश बांधकर ही प्रभु पूजा खडे होकर तिलक करना चाहिये। क्यों की जाती है? प्र.421.पुष्प पूजा का शास्त्रीय विधान उ. हमारा शरीर मल, अशुचि और गंदगी बताओ। से भरा हुआ है अतः हमारे श्वासोच्छ्वास उ. शास्त्रों में कहा गया है कि पौधे के की दुर्गंध को रोकने के लिये अष्टपड **** ****** 152 ***************
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________________ वाला मुखकोश बांधा जाता है। 11.पूजा के वस्त्रों में सामायिक करने प्र.425. पूजा के वस्त्रों से सम्बन्धित पर पुनः उनका पूजा में उपयोग नहीं जानकारी दीजिये। हो सकता। सामायिक की जा उ. 1. धोती पहनते समय गांठ नहीं सकती है। लगानी चाहिये। उसकी विधि प्र.426. मन्दिर प्रवेश से पूर्व पाँव प्रक्षालन जानकार से सीख लेनी चाहिये। की विधि बताईये / 2. धोती के खुल जाने का भय हो तो उ. 1. मंदिर प्रवेश से पूर्व पाँव धोने के कटिबंध (कंदोरा) बांधना चाहिये। स्थान का अच्छी तरह देखना 3. दुपट्टा धारण करते समय दाहिना चाहिये कि वह स्थान चींटी आदि स्कंध खुला रखना चाहिये। जीवों से युक्त तो नहीं है। इससे 4. स्त्री-वर्ग को मर्यादा के अनुरुप जयणा का पालन होगा / पाँव धोने वस्त्र धारण करने चाहिये। का पानी गटर, नाली में नहीं 5. पुरूषों को सिलाई रहित अखण्ड जाना चाहिये। वस्त्र धारण करने चाहिये। 2. पैर धोते समय एक पाँव के पंजे से 6. पूजा के वस्त्रों से पसीना, मेल दूसरे पाँव को घिसने से अपयश ... आदि साफ नहीं करने चाहिये। . होता है अतः ऐसी प्रवृत्ति से बचना 7. पूजा के वस्त्रों में कुछ भी चाहिये। खाना-पीना नहीं चाहिये। प्र.427. गर्भगृह (गंभारे) में प्रवेश करने 8. सर्दी के दिनों में स्वेटर आदि की विधि समझाओ। पहनने की बजाय पूजा के लिये उ. 1. अंगपूजा में उपयोगी पदार्थ ही अलग शॉल रखनी चाहिये। ___ साथ ले जाने चाहिये। 9. पूजन वस्त्र धारण करने से पूर्व 2. पर्स, थैला, मोबाईल आदि गंभारे में उन्हें अभिमंत्रित करने के लिये नहीं ले जाने चाहिये। 'ओम् ही आँ क्रौ नमः' मंत्र 3. प्रवेश करते समय राग-द्वेष रूप बोलते हुए उनका स्पर्श करना सिंह के मस्तक पर दाहिना पाँव चाहिये। रखते हुए भीतर प्रवेश करना 10.पूजा के वस्त्र उत्तर दिशामुखी चाहिए। होकर धारण करने चाहिये। 4. मूल गंभारे में अंग पूजा के 00 * ***** 153 **** *** **
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________________ अतिरिक्त धूप,दीप,आरती,चैत्यवन्दन आत्मविजेता बनता है। आदि नहीं करने चाहिये। 4. अनामिका का संबंध हृदय से है। 5. प्रभु के लंछन, हथेली एवं श्रीवत्स इसे स्फुरायमान करके भक्त पूजन की पूजा नहीं करनी चाहिये। के द्वारा प्रभु को अर्पित-समर्पित 6. प्रभु पूजा करते समय तीन बातों होता है एवं भगवद् भक्ति में का त्याग करना चाहिये- 1. शरीर एकाकार बनता है। को खुजलाना / 2. खंखारा करना। प्र.429. महाराजश्री! पार्श्वनाथ प्रभु के 3.स्तुति-स्तोत्र बोलना अथवा फण की पूजा अनामिका से करनी बातचीत करना। चाहिये अथवा अंगूठे से? 7. प्रभु के सम्मुख पग पर पग उ. पार्श्वप्रभु के उपर रहे हुए फण चढ़ाकर नहीं बैठना चाहिये। परमात्मा का अंग नहीं है, वह धरणेन्द्र प्र.428. प्रभु एवं गुरु की पूजा अनामिका देव का प्रतीक है, अतः उनकी पूजा से ही क्यों की जाती है? अंगूठे से ही करनी चाहिये। पूजा, उ. - 1. अनामिका में पीयूष ग्रंथी होती है। क्रम, केसर उपयोग आदि में भी उसका सम्बन्ध मूलाधार से है, जो विवेक रखना चाहिये। शक्ति का केन्द्र है। इसके प्र.430. महाराजश्री! मंदिर में प्रभु के जागरण से चित्त वृत्ति निर्मल, आस-पास की देवकुलिकाओं में स्थिर एवं दृढ बनती है एवं शरीर स्थित दादा गुरुदेव को वन्दन नहीं में शक्तियों का संचार होता है। करना चाहिये। ऐसा हमने अन्यों से 2. अनामिका में पृथ्वी तत्त्व प्रधान रूप सुना है, तो क्या ऐसा करने से से रहा हुआ है। पृथ्वी तत्त्व की परमात्मा की आशातना होती है? जागृति से व्यक्ति शांत, सहिष्णु उ. नहीं ! जिस प्रकार घर में माता-पिता और गंभीर बनता है। के सम्मुख, चाचा-चाची, बडे भाई3. सामुद्रिक शास्त्र - विज्ञानानुसार बहिन आदि को प्रणाम करने में कोई अनामिका क्षत्रिय अंगुली है। बाधा नहीं है। मंदिर में प्रभु के सम्मुख क्षत्रिय यानि विजेता। स्वयं के शासन भक्त देवों का अभिवादन कषायों, दोषों और दुर्गुणों को किया जाता है, उसी प्रकार दादा जीतकर व्यक्ति वीतरागी एवं गुरुदेव को वंदन व उनका गुणोत्कीर्तन
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________________ करने से प्रभु की आशातना नहीं चाहिये अर्थात् अब द्रव्य पूजा से होती। यदि कोई गुरु को प्रभु मानकर भाव पूजा में प्रवेश करता हूँ | पूजा करें तो जरुर दोष उपस्थित 3. स्वस्तिक (साथिया) बनाते हुए होता है। चैत्यवंदन नहीं करना चाहिये। श्री हेमचन्द्राचार्य ने मंदिर में 4. स्तवन मधुर, भावपूर्ण हो परन्तु गुरु-वंदना की प्ररुपणा की है। जब दूसरों को भक्ति में परेशानी हो, प्रभु के सम्मुख निकटवर्ती गोखलों में इस प्रकार उच्च स्वर से नहीं गाना स्थिति अधिष्ठायक देव-देवी की चाहिये। पूजा की सकती है, तो दादा गुरुदेव 5. सूत्रों का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट, को वंदन क्यों नहीं हो सकता? भावार्थपूर्ण होना चाहिये। प्र.431. देव-देवी के तिलक ही क्यों किया 6. प्रभु भक्ति करते समय प्रभु के सिवाय तीनों दिशाओं का त्याग जाता है? करना चाहिये। उ. सम्यक्त्वी देव-देवी हमारे साधर्मिक प्र.434. ललाट पर तिलक क्यों अंकित बंधु तुल्य हैं, अतः सम्मान तथा किया जाता है? बहुमान का प्रतीक तिलक ललाट - दोनों भृकुटियों के मध्य में आज्ञाचक्र पर अंकित किया जाता है। स्थित है। इस चक्र को शास्त्रों में प्र.432.भावपूजा से क्या अभिप्राय है? तृतीय और दिव्य नेत्र कहा गया उ. चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन के द्वारा प्रभु है। यहीं पर सुषुम्ना, इडा व पिंगला के गुणगान करना भावपूजा कहलाती इन तीन विशिष्ट नाडियों का संगम होता है। नाड़ियों एवं आज्ञाचक्र की प्र.433.भावपूजा किस प्रकार की जानी जागृति से मानव दृढ संकल्पी, चाहिये? आत्मनियंता, नेतृत्व कुशल, प्रसन्नउ. 1. चैत्यवंदन स्थान पर तीन बार चित्त, दीर्घायुषी व हितैषी बनता है। दुपट्टे से भूमि की प्रमार्जना करके जप, तप, ज्ञान, ध्यान आदि की इर्यापथिकी पूर्वक चैत्यवंदन करना एकात्मकता से अवधि ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान तक चाहिये। की उच्च भूमिका तक भी पहुँच 2. चैत्यवंदन करने से पूर्व तीसरी सकता है। निसीहि का उच्चारण करना ****** ********* 155 **** *
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________________ इसके अन्य लाभ इस प्रकार हैं - प्र.436. चंवर के द्वारा प्रभु के सम्मुख नृत्य 1. वीर्य उर्ध्वगामी बनता है। करने का क्या प्रयोजन है? 2. चंदन से मन में ठण्डक रहती है। उ. 1. प्रथम प्रयोजन- समवसरण में 3. अलौकिक शक्तियाँ एवं गुण प्रकट प्रभु के दोनों तरफ देव चंवर दुलाते होते हैं। हैं। उसके प्रतीक रूप चंवर ढुलाये 4. तिलक सौभाग्य व सम्मान की जाते हैं। सूचना देता है। 2. द्वितीय प्रयोजन- प्रभु के सम्मुख 5. तिलक करने से पूर्व 'ओम् आँ ह्रीं जो व्यक्ति नृत्य करता है, उसे क्ली अर्हते नमः' यह मंत्र सात कर्मराजा के सम्मुख नृत्य नहीं बार बोलकर केसर, चंदन को करना पड़ता है। अभिमंत्रित करना चाहिये। ___ प्र.437.प्रभु पूजा करने से क्या लाभ होते 6. परमात्मा की आज्ञा शिरोधार्य .. करने स्वरूप आज्ञा चक्र पर . उ. प्रभु पूजन से निम्न लाभ होते हैं - तिलक अंकित किया जाता है। 1. विघ्नों की समाप्ति 2. सौभाग्य में प्र.435. दर्पण में प्रभु को क्यों निहारा वृद्धिं 3. पुण्यानुबंधी पुण्य का संचय 4. जाता है? इहलोक-परलोक में सुख व शांति उ. दर्पण में प्रभु को निहारते समय की प्राप्ति 5. कर्म निर्जरा 6. सिद्धगति चिन्तन करते हैं कि-प्रभो! आपका की प्राप्ति.। जो वीतराग स्वरूप दर्पण में दिख रहा प्र.438. महाराजश्री! खरतरगच्छ की परम्परा में है, वही स्वरूप मेरा है पर वह कषायों 'जयवीयराय सूत्र' की आभवमखण्डा से आवृत्त है। दर्पण में प्रभु को निहारने तक दो गाथाएँ ही बोली से दर्प और कंदर्प विनाश को प्राप्त जाती है जबकि तपागच्छ आदि होते हैं। जो व्यक्ति मंदिर के दर्पण में परम्पराओं में पाँच गाथाओं में शरीर का शृंगार करता है, वह कर्मबंध यह पाठ बोला जाता है, तो क्या करता है। आप आधा पाठ ही बोलते हैं? प्रभु का निर्दोष सौन्दर्य कहता है कि उ. वास्तविकता तो यह है कि दर्प न करो। यह सौन्दर्य क्षणिक एवं खरतरगच्छ की परम्परा में पूरा पाठ नश्वर है, अतः दर्प विजेता बनो। ही बोला जाता है। स्वयं तपागच्छीय
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________________ आचार्य देवेन्द्रसूरि विरचित चैत्यवंदन सेवन करना 6. थूकना 7. श्लेष्म - भाष्य में जयवीयराय सूत्र में 79 अक्षर डालना 8. लघुनीति करना 9. बड़ी संख्या का निर्देश किया है और नीति करना 10. जुआ खेलना। आभवमखण्डा तक 79 अक्षर हो जाते प्र.440. प्रभु पूजा से आठ कर्मों का नाश हैं। इससे स्पष्ट ही है कि मूल में कैसे होता हैं? जयवीयराय दो गाथा वाला ही है और उ. 1. प्रभु-गुणगान से ज्ञानावरणीय कर्म पूर्व में तपागच्छ मे भी इतना ही बोला __ का क्षय होता है। जाता था। गणधर विरचित इस सूत्र 2. प्रभु दर्शन से दर्शनावरणीय कर्म में शेष गाथाएँ प्रक्षिप्त होने से हमारी का क्षय होता है। परम्परा में नहीं बोली जाती हैं। 3. जयणायुक्त पूजा से अशाता प्र.439.जिनमंदिर संबंधी आशातनाएँ बताओ। वेदनीय कर्म का क्षय होता है। उ. जिनमंदिर की उत्कृष्टतः चौरासी, 4. जीव-अजीव के ज्ञान से मोहनीय कर्म का क्षय होता है। मध्यम चालीस एवं जघन्यतः दस आशातनाएँ शास्त्रों में वर्णित हैं। 5. अक्षय स्थिति युक्त अरिहंत के पूजन से आयुष्य कर्म का क्षय 1. उत्कृष्ट आशातना- जिन प्रतिमा होता है। भंग करना, चोरी करना, उसके 6. अनामी प्रभु के नाम स्मरण से नाम थूक आदि अशुचि लगाना, ये कर्म का क्षय होता है। उत्कृष्ट आशातानाएँ हैं। 7. प्रभु वंदन से नीच गोत्र कर्म का 2. मध्यम आशातना- अस्वच्छ वस्त्रों क्षय होता है। से जिनपूजा करना, जिनबिम्ब को भूमि पर रखना, ये मध्यम आशातनाएँ 8. प्रभु भक्ति में शक्ति-प्रयोग से अन्तराय कर्म का क्षय होता है। हैं। प्र.441.महाराजश्री! प्रभुपूजा में अप्काय 3. जघन्य आशातना- निम्नोक्त जघन्यतः दस आशातनाओं को आदि की विराधना/हिंसा होने से पाप लगता है या नहीं? अवश्यमेव छोडना चाहिये। र उ. दस आशातनाएँ - 1 मंदिर में / प्रभु पूजा में यद्यपि हिंसा होने से पाप लगता है तथापि परमार्थ रूप सम्यक्त्व पान सुपारी खाना 2. पानी पीना 3. और सिद्धि की प्राप्ति होने से लाभ भोजन करना 4. जूते पहनना 5. मैथुन ज्यादा है। फिर भी प्रभु पूजा में विवेक
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________________ एवं शास्त्रीय विधि विधान का अवश्य भगवती सूत्र के प्रारम्भ में 'नमो ही ध्यान रखना चाहिये। अविधि एवं बंभीए लिवीए' कहकर ब्राह्मी लिपि अशास्त्रीय पूजा पाप बंध का कारण को नमस्कार किया गया है अतः जड बन जाती है। यथा-पुष्प पूजा स्वयं अपूज्य है, ऐसा कहना अप्रासंगिक है। खिरे हुए पुष्पों से करनी चाहिये। एक अश्लील चित्र देखने से जब मन आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित पंचाशक में विकारों की उत्पत्ति संभव है तो प्रकरण की वृत्ति में नवांगी वृत्तिकार फिर प्रभु की वीतराग मुद्रा वीतरागी अभयदेवसूरि कहते हैं कि स्नान करने बनाने में समर्थ/ सक्षम कैसे नहीं हो वाले को पूजा अवश्यमेव करनी चाहिये परन्तु जिसने परमार्थ सकती? अर्थात् वीतरागी का स्वरूप प्रज्ञापूर्वक शरीर की शुद्धि का त्याग अवश्य ही वीतराग पद की प्राप्ति कर दिया है, उसे पूजा हेतु स्नान करा सकता है। करने की अनिवार्यता नहीं है। प्र.443. महाराजश्री! यदि प्रभु पूजन से प्र.442. महाराजश्री! मूर्ति तो जड है फिर मुक्ति की साधना साधी जा उससे परम पद की प्राप्ति किस सकती तो फिर आप पूजा क्यों प्रकार संभव है? नहीं करते हैं? यद्यपि चिन्तामणि रत्न एक जड उ. साधु-साध्वी भाव पूजा ही करते हैं, (पाषाण) है तथापि उससे इच्छित- द्रव्य पूजा नहीं / क्योंकि उसका फल वांछित पदार्थ अवश्यमेव प्राप्त होते संयम की प्राप्ति है। आर्द्रकुमार ने हैं। दूसरी बात जड होने से पदार्थ आदिनाथ की प्रतिमा से संयम साधा आत्म कल्याण में उपयोगी नहीं है, था अतः संयम फल की प्राप्ति हो जाने ऐसा कहना नासमझी के अतिरिक्त से द्रव्य पूजा नहीं करते हैं। कुछ भी नहीं है। प्र.444.महाराजश्री! आप कहते हैं- प्रभु परमात्मा की देशना रूप शब्द भी जड प्रतिमा परमात्म स्वरूप है। परमात्मा ही हैं। फिर भी उनके द्वारा जीव का जीव एक है और प्रतिमाएँ मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, उसी हजारों-लाखों-करोड़ो, तो फिर प्रकार जड होने पर भी प्रभु प्रतिमा एक जीव की इतनी प्रतिमाओं में मुक्ति-पथ में सहायक है। प्रतिष्ठा किस प्रकार संभव है?
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________________ जब परमात्मा की प्रतिमा पर अंजन- रचित सूत्रों में ही जिन प्रतिमा शलाका का महाविधान होता है तो पूजा की बातें कही गयी हैं? प्राणों की प्रतिष्ठा की जाती है, जीव उ. भगवती, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञाकी नहीं। पना आदि आगमों में जिन -प्रतिमा परमात्मा तो सिद्ध हो चुके हैं, उनका पूजा का वर्णन उपलब्ध होता है। छठे संसार में पुनः आना अशक्य है परन्तु ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में द्रौपदी के द्वारा तीर्थंकर के भव में जो दस प्राण जिनपूजा एवं नमुत्थुणं के द्वारा स्तुति परमात्मा ने भोगे, वे जड, पुद्गल प्राण करने का पाठ उपलब्ध होता है। इस वायुमण्डल में बिखरे पडे हैं, उन्हें आगमों में अनेक स्थलों पर शाश्वत जब शुभ मुहूर्त में विविध मुद्रा, प्रतिमाओं का भी विवेचन प्राप्त होता मंत्रोच्चारण एवं विधि-विधान के द्वारा है, अतः स्पष्ट है कि जिन प्रतिमा आकर्षित करके प्रतिमा में आरोपित आगमानुसारी है, न कि आगम व किया जाता है, तब शुभ, दिव्य सिद्धान्त विरुद्ध एवं काल्पनिक। पुद्गलों से वह प्रतिमा भी अतिशयपूर्ण प्र.446. मंदिर में केसर वर्षा, अमी वर्षा, बन जाती है और जीव को शिव की छत्र का डोलना आदि चमत्कार यात्रा करवाती है अतः ध्यान रखना- देखे जाते हैं पर महाराजश्री! प्रतिमा में जीव की नहीं, प्राणों की भगवान तो मोक्ष में पहुँच गये, प्रतिष्ठा की जाती है और उन प्राण फिर वे चमत्कार कैसे कर सकते पुद्गलों की हजाबों, लाखों, करोड़ों हैं? प्रतिमाओं में प्रतिष्ठा असंभव नहीं है। उ. सही बात है। भगवान तो संसार एवं प्र.445. महाराजश्री! हमने सुना है कि राग-द्वेष से मुक्त हो गये अतः वे जिन प्रतिमा काल्पनिक है। आप चमत्कार नहीं करते हैं। भक्त की प्रभु हमें बताएँ कि आगमों में भी कहीं भक्ति से प्रभावित होकर परमात्मा के जिन प्रतिमा का विधान उपलब्ध भक्त अधिष्ठायक देव और देवी है अथवा आचार्यों के द्वारा चमत्कार करते हैं। ***** ******* 159 * ***
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________________ कैसे सुने प्रवचन....? उ. प्र.447.प्रवचन श्र उत्तराध्ययन सूत्र में परमात्मा फरमाते हैं कि तत्त्व-श्रवण से जड़-चेतन का भेद विज्ञान प्राप्त होता है, उससे आश्रव द्वारों को अवरूद्ध किया जाता है और क्रमशः संवर एवं निर्जरा के माध्यम से जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। एक बार प्रवचन सुनकर अतिमुक्तक वैरागी बना और वीतरागता तक पहुँचा। मात्र एक बार अश्रद्धापूर्वक सुने हुए श्लोक ने राहिणेय चोर को अभयकुमार के चंगुल में फंसने से बचा लिया। जिनवाणी का माहात्म्य अपूर्व है। श्रद्धापूर्वक श्रवण कर जो आचरण में उतारता है, वह पुण्यानुबंधी पुण्य का संचय करके प्रत्येक भव में जिनशासन को प्राप्त हुआ मोक्षगामी बनता है। प्र.448. प्रवचन श्रवण किस प्रकार करना चाहिये? उ. (1)जिनशासन के अनुशासन को आत्मसात् करते हुए गुरु महाराज के आने से पूर्व ही प्रवचन**** *** ** *_ 160 मण्डप में उपस्थित होना चाहिये। (2)तत्पश्चात् गुरु महाराज को वन्दन करके वायणा (वाचना) के आदेश ग्रहण करें। (3)सामायिकपूर्वक प्रवचन–श्रवण से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं- जैसे जिनाज्ञा का पालन, संवर की साधना, एकाग्रता में वृद्धि, विरति धर्म की प्राप्ति इत्यादि। (4)झुठे मुँह प्रवेश न करें। मोबाइल बन्द रखे, जिससे एकाग्रता में विघ्न उत्पन्न न हो। (5)प्रवचन सुनने समय पंखे का उपयोग न करें। विरति धर्मश्रवण करते हुए थोडी देर अवश्यमेव शरीर की सुविधा का त्याग करें ताकि पूरा लाभ प्राप्त हो। (6)प्रवचन सभा के मध्य में न वार्तालाप करें, न बीच में से उठे। अत्यन्त आवश्यक कार्य हो तो बात अलग है। (7)प्रवचन के मुख्य बिन्दु यदि डायरी में अंकित किये जाये तो पुनः पुनः स्वाध्याय का लाभ प्राप्त हो सकता है। ***** * --*-*
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________________ (8) यदि आप आगे के पंक्ति में बैठकर है। वक्ता आनंद, उत्साह, चिन्तन से प्रवचन-श्रवण करना चाहते हैं तो भर जाये, इस प्रकार सुने। समय पर प्रवचन-सभा में ___(12) प्रवचन को किसी फिल्मी गीत की उपस्थित होना चाहिये। पीछे से तरह चंचलता से नहीं, अपितु आकर आगे बैठना प्रवचन सभा गंभीरतापूर्वक रोम-रोम से मंत्र और की मर्यादा व अनुशासना को भंग सूत्र की तरह सुने। करना है। (13) सुने हुए पर मनन अवश्य करें एवं (9) प्रवचन सुनते समय त्रिदिशि आचरण में उतारने का पुरुषार्थ करें त्याग का पालन का करे यानि क्योंकि वक्ता से चिन्तक ज्यादा हैं, प्रवचन की पूर्णता पर्यन्त मुख, चिन्तक से श्रोता ज्यादा हैं पर नयन और मन केवल और केवल आचारज्ञ तो अल्प ही होते हैं। गुरु भगवंत की ओर होने चाहिये। (14) प्रवचन का एक शब्द भी आपको (10) प्रवचन निद्रा की मुद्रा में न सुने। बदलने की शक्ति रखता है जैसा कि क्योंकि श्रोता की, श्रवण मुद्रा रोहिणेय चोर ने एक बार अश्रद्धा से प्रवचन मण्डप, वक्ता और अन्य सुना पर जीवन बदल गया। श्रोताओं को प्रभावित करती है। (15) प्रवचन के पूर्ण होने पर वंदन जिस प्रकार संसार में कोई अवश्य करें। आश्चर्यजनक बात सुनकर हम प्र.449.शास्त्रों में कितने प्रकार के श्रोता तत्काल आश्चर्य से भर जाते हैं, कहे गये हैं ? वैसे ही अभुतपूर्व तत्त्व को सुनकर उ. चार प्रकार के - आश्चर्य होना ही चाहिये। (1) हँस की तरह अच्छी बातें ग्रहण करने (11) प्रवचन में नींद न ले। वाले। सकारात्मक और जिज्ञासु मुख (2) सर्प की तरह जिसके लिये दूध भी मुद्रा में प्रवचन श्रवण करें क्योंकि जहर बन जाता है। आपकी मनः स्थति, चेहरे के (3) छिद्रयुक्त घट की तरह जिसे सुनने पर हाव-भाव, आँखें, मुस्कान और भी कुछ भी याद नहीं रहता। बैठने की स्टाइल वक्ता को (4) छलनी जैसे श्रोता जो वक्ता व प्रवचन प्रोत्साहित एवं निरुत्साहित करती में दोषों को ही खोजते हैं। शास्त्रों में
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________________ चौदह प्रकार के भी श्रोता कहे गये जैसा सुने, वैसा ही कहने वाला (15) हैं। . धर्म में अप्रमत्त (16) निंदा, विकथा, प्र.450. श्रोता के कितने गुण कहे गये हैं ? वाद-विवाद, कदाग्रह से मुक्त हो। उ. शास्त्रों में श्रोता के अपेक्षा भेद से प्र. 451. वक्ता के कितने गुण कहे गये हैं ? इक्कीस व चौदह गुण वर्णित हैं, कुल उ. चौदह गुण- (1) आगम अनुसार मिलाकर सच्चा श्रोता उसे कह सकते कहना (2) अर्थ का सम्यग् विस्तार हैं जो करना (3) वाणी में मधुरता (4) अवसर (1) बुद्धिमान (2) चिन्तक (3) धारक ज्ञाता (5) सत्यभाषी (6) संदेह (4) हेय, ज्ञेय व उपादेय का ज्ञाता (5) निवारक (7) ज्ञानी (8) सरल भाषी निश्चय व व्यवहार का ज्ञाता (6) (9)प्रवचन–प्रभावक (10) जिज्ञासाविनयी (7) श्रद्धालु (8) जिज्ञासु (9) समाधान करना (11) संतोषी (12) प्रवचन रसिक (10) सांसारिक सुखों निरभिमानी (13) शास्त्र उपयोगवान् की कामना से मुक्त (11) गुणग्राही (14) श्रोताओं को मुग्ध करना। (12) प्रियभाषी (13) गर्व रहित (14)
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________________ उपाश्रय में कैसा हो आचरण हमारा? प्र.452. उपाश्रय किसे कहते है एवं वहाँ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये? उ. उप अर्थात् निकट! जो आत्मा के अत्यन्त निकट का आलम्बन है, उसे उपाश्रय कहा जाता है। (1)जिनमंदिर की भाँति उपाश्रय गमन में भी ईर्यासमिति का परिपूर्ण पालन करना चाहिये। (2)उपाश्रय में प्रवेश करते समय समस्त सांसारिक कार्य, वार्तालाप के त्याग रूप तीन बार 'निसीहि' का उच्चारण करना चाहिये। (3) गुरु भगवंत को इच्छामि, इच्छकार अब्भुट्ठियो से वंदन और सुखशाता-पृच्छा करने से पूर्व भूमि की तीन बार दुपट्टे या रूमाल से प्रमार्जना करें ! इससे ही जयणा का पालन होता है। (4)गुरु भगवंत किसी से आवश्यक महत्त्वपूर्ण वार्तालाप कर रहे हो तब दूर से ही मंद स्वर से वंदना करें। अन्य मुनिवरों के दर्शन वन्दन का लाभ अवश्य प्राप्त करें। (5)उपाश्रय में न अखबार पढ़े, न परस्पर सांसारिक, सामाजिक, व्यापारिक वार्तालाप करें। (6) गुरु भगवंत किसी कार्य में व्यस्त हो तो नवकार आदि का जाप करें अथवा अन्य मुनिवरों के मुख से धर्म श्रवण अथवा तत्त्व चर्चा करें। (7) गुरु भगवंतों के सामने कुर्सी आदि पर न बैठे। शारीरिक समस्या के कारण कदाच उच्चासन पर बैठना पड़े तो मन में अनुताप का भाव लावे तथा कुर्सी के उपयोग की गुरु भगवंत से आज्ञा प्राप्त करें। (8)जब कुर्सी छोड़कर घर की ओर प्रत्यावर्तित हो तब कुर्सी पुनः उचित स्थान पर रख दें। (9) उपाश्रय में पंखा शुरु न करें। वस्त्रादि से हवा न करें। (10) गुरु मुख से धर्मोपदेश श्रवण हेतु तत्पर-लालायित रहे तथा अवसर मिलने पर अचंचल भाव से एकाग्रतापूर्वक धर्म श्रवण करें। किसी प्रकार की जिज्ञासा होने पर 'मत्थएण वंदामि' पूर्वक पृच्छना करें। (11) बोलते समय मुखवस्त्रिका या रूमाल का प्रयोग करें।
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________________ (12) गुरु अथवा मुनिवर पठन/, साधना करें। इस हेतु धारणा के पाठन में व्यस्त हो तो बीच में पच्चक्खाण करके पाप-मुक्त सुखशाता-पृच्छा आदि से उनके बने। स्वाध्याय एवं एकाग्रता में बाधा न (18) उपाश्रय में पूर्ण विवेक एवं श्रद्धा पहँचावे। का आचरण करने के उपरान्त (13) उपाश्रय में यथासम्भव गुरु बाहर निकलते समय गुरु वन्दन महाराज आदि से वार्तालाप करते पूर्वक तीन बार 'आवस्सहि' कहे। समय मध्य में मोबाइल से बात प्र.453.महाराज श्री ! आपके खरतरगच्छ करके उनकी आशातना कदापि न संप्रदाय में श्रावकों के द्वारा करें। साध्वीजी भगवंत को भी (14)उपाश्रय में झूठे मुँह प्रवेश न करें इच्छकार, अब्मुट्ठियो से वंदन तथा उनके सम्मुख न खाये, न किया जाता है, क्या वह शास्त्र पीये। सम्मत है? (15) स्नान आदि के कारण बाल उ. यद्यपि जैन संघ श्रमण प्रधान संघ है कच्चे पानी से भीगे हुए हो अथवा तथापि साध्वीजी भी साधु की भाँति शरीर, वस्त्र आदि बरसात के पानी वंदनीय है। यदि लिंग को वंदन होता से भीगे हो तो गुरु भगवंतों का तो हर पुरूष वंदनीय होता जबकि वंदना अहिंसा आदि पंच महाव्रतों को (16) उपाश्रय में कलह, कषाय आदि की जाती है और जिसने भी इन का सर्वथा त्याग करे / महाव्रतों को धारण किया है, वह पुरूष (17) यथासंभव सामायिक के वस्त्र हो या स्त्री, निश्चित रूप से वंदनीय, धारण करके सामायिक करें पूजनीय है। अथवा तत्त्व चर्चा पर्यन्त संवर की स्पर्श न करें।
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________________ सुपात्रदान की विधि प्र.454.भोजन करने से पूर्व क्या चिन्तन करना चाहिये? 'काश! मेरे पुण्योदय का प्रकाश फैले और कोई पंचमहाव्रतधारी, निःस्पृह, अनासक्त योगीराज/मुनिराज मेरे गृहाँगण में पधारे और उन्हें वोहराकर मैं भोजन ग्रहण करूँ।' इन भावनाओं से हृदय को ओत-प्रोत करके मुख्य द्वार पर खड़े होकर अथवा भोजनपट्ट पर बैठे-बैठे ही त्यागी निर्ग्रन्थ के आगमन का दो-पाँच मिनट तक इन्तजार करना चाहिये। प्र.455. गोचरी वोहराने की विधि समझाईए / . - उ. (1)गुरुवर के दर्शन होने पर अथवा धर्मलाभ सुनाई देने पर अन्य सारे कार्य छोड़कर विनयादि आचरण हेतु सम्मुख जाये और करबद्ध होकर विनंती करें-पधारिये! लाभ दीजिये। तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक गोचरी वहरानी चाहिये। (2)कदाचित् श्रावक घर में न हो तो 'धर्मलाभ' शब्द सुनकर महिलावर्ग मौनपूर्वक अथवा शिष्टाचार पूर्वक विनंती करें और सुपात्र-दान का महान् लाभ संप्राप्त करें। (3)शास्त्रों में एक कर्तव्य यह भी है कि भोजन का समय होने पर श्रावक गृह-द्वार पर खडे रहकर मुनिवर का इन्तजार करें। उनके दर्शन होने पर सादर-सश्रद्धा सुपात्र दान की भावना प्रकट करें। मुनिवर सकारण न आ पाये तो न अत्याग्रह करें, न उन पर रुष्ट होवे। (4)गोचरी वोहराने के लिये सर्वप्रथम बाजोट-चोकी आदि रखें। उस पर जब गुरुवर पातरे रखे तब उनके पातरों को नमस्कार करके क्षणार्ध चिन्तन करें कि कब मैं साधु बनकर घर-घर जाकर शुद्ध, प्रासुक एवं कल्पनीय आहारपूर्वक संयम-यात्रा में आगे बदूंगा। (5)छोटे-बडे, सभी को वोहराना चाहिये। उस समय जल का नल, टी.वी., लाईट, पंखा चालू अथवा बंद न करें। (6)कच्चे पानी, सचित्त फलादि का संघट्टा (स्पर्श) न हो, वोहराते
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________________ समय चीज नीचे न गिरे, पात्र चाहिये तथा दवारूप सोंठ, उससे लिप्त न हो, इस बात का अजवायन आदि, वस्त्र, लेखनपूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिये। सामग्री आदि की भी विनंती (7)चप्पल, जूते पहनकर वोहराना करनी चाहिये। अविधि एवं आशातना है (12) छोटे, बड़े, पदस्थ, अपदस्थ एवं (8) ढक्कन हटाकर एक-एक वस्तु गच्छ-सम्प्रदाय का भेद किये की विनती करें कि 'लीजिये, लाभ बिना यथाशक्ति, हर्षोल्लास एवं दीजिये। श्रद्धा में क्रमशः वृद्धि करते हुए (9)घर का मुख्य द्वार ऑटोमेटिक बंद निःस्वार्थ भाव से वोहराना होने वाला नहीं होना चाहिये। यदि चाहिये। कुत्ते आदि के कारण जाली वाला (13) जब गुरुवर वोहरकर प्रत्यावर्तित द्वार लगाना अनिवार्य हो तो वह हो, तब दरवाजे तक पहुँचाने द्वार ऐसा हो कि बाहर से भी खुल जाना चाहिये तथा 'पुनः लाभ सके। ऐसे द्वार को खोलकर दीजियेगा।' यह प्रार्थना करनी मुनिवर कल्पनीय/प्रासुक आहार * चाहिये। गवेषणार्थ आसानी से अन्दर (14) कदाच गोचरी के लिये घर बताने प्रविष्ट हो सकते हैं। के लिये जाना पड़े तो सेवक, यदि स्थिति अनुकूल हो तो गोचरी नौकर को न भेजकर श्रावक को के समय घर के द्वार खुले रखे, स्वयं जाना चाहिये। इन्तजार करें क्योंकि साधु घंटी प्र.456. मुनि भगवंत आयुष्यमान् भव, बजा नहीं सकते। कई बार द्वार से पुत्रवान् भव, धनवान् भव आदि न वापस लौट जाते हैं और आप बोलकर 'धर्मलाभ' का ही सुपात्र दान के महान् लाभ से आशीर्वाद क्यों देते हैं? वंचित रह जाते हैं। उ. आयु न घट सकती है, न बढ़ सकती (10) यह ध्यान देने योग्य है कि है, अतः आयुष्यमान् भव नहीं कहते। गृह-द्वार बंद होने पर मुनि के पुत्र, परिवार, सत्ता, सौन्दर्य अन्ततः साथ आया श्रावक घंटी न बजाये। दुःख के कारण है, अत: मुनिवर (11) सारी वस्तुऐं याद करके वोहरानी भवसागर में नौका के समान तिराने
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________________ वाले धर्मलाभ का ही आशीष देते हैं। प्र.457. गोचरी वोहराने में क्या-क्या सावधानियाँ रखनी चाहिये? उ. पुण्योदय का योग होने पर मुनि भगवंतों के चरणों से घर पवित्र होता है पर कहीं ऐसा न हो कि शुद्ध, प्रासुक आहार तैयार भी हो और वोहराने का लाभ भी न मिले, इस हेतु निम्नोक्त सावधानियाँ रखनी चाहिये(1)साधु के निमित्त आहार तैयार न करें, परन्तु घर में जो स्वयं के लिये बना है, उसे ही अर्पण करें। (2)जिनाज्ञानुसार रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करें ताकि शाम को निःस्वार्थ श्रमणवर्ग के आने पर आहार-दान संभव हो सके। (3)यदि गर्म (उबला) हुआ पानी पीना संभव हो तो पीना चाहिये / इससे ___ एक तरफ जिनाज्ञा का पालन होगा, दूसरी तरफ साधु-संतों को शुद्ध जल प्राप्त होगा, तीसरा लाभ यह है कि स्वास्थ्य स्वस्थ रहेगा। (4)फाल्गुन चौमासे के अलावा पत्ते की सब्जी, गोभी, धनिया एवं सूखे मेवे आदि का उपयोग करेंगे तो मुनियों के ये त्याज्य होने से आप सुपात्र दान के दिव्य लाभ से वंचित हो सकते हैं, अतः इसमें भी विवेक रखने की आवश्यकता है। " (5)नित्य उपयोगी यथा खाखरा आदि के पात्र, जहाँ सचित्त का स्पर्श न हो, वहाँ रखने चाहिये। (6)दूध, दही, आम रस, छाछ आदि सामग्री फ्रीज में न रखे, अन्यथा आप वोहराने का लाभ प्राप्त नहीं कर पायेंगे। (7)उल्लास और श्रद्धा से वोहरावे पर अत्यधिक आग्रह करके नवोहरावें / (8)वोहराते समय हाथ चिकने हो जाये अथवा पदार्थ से लिप्त हो जाये तो कच्चे पानी से, बेसिन में न धोकर रसोईघर के कपडे से पौंछ लेने चाहिये अन्यथा साधु एवं श्रावक, दोनों को दोष लगता है। (9)मुनिराज के आने पर सचित्त वस्तु से संघट्टा वाले व्यक्ति अन्य से दूर रहे अन्यथा वे भी वोहराने के लाभ से वंचित हो जायेंगे। (10) वोहराते समय अद्रव-ठोस (Solid) पदार्थ पहले एवं द्रवशील पदार्थ अन्त में वोहराये। (11) संयमी साधुओं की यह समाचारी है कि वे एक गृहस्थ के घर से अतिमात्रा में आहार स्वीकार नहीं ____करते हैं क्योंकि बाद में पुनः आरम्भ-समारम्भ की संभावना
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________________ रहती है। अतः घर में किसी पदार्थ का बाहुल्य होने पर विनयपूर्वक यह भी निवेदन कर सकते हैं कि - गुरुवर ! अमुक पदार्थ आप अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकते हैं। हम पुनः समारम्भ नहीं करेंगे। (12) अमुमन साधु मधुकरवत् अल्प आहार ही लेता है तथापि कभी उनके द्वारा अधिक मात्रा में आहार ले लिया जावे तो पुनः आरम्भ - समारम्भ न करके जो बचा है, उसी में तुष्टि का अनुभव . करें। (13) श्रावक को सुपात्र-दान के समय बराबर याद रखना चाहिये कि निवेदन करना मेरा काम है और लेना अथवा न लेना, यह गुरुवर का काम है। अतः संयम-साधना में उपयोगी हर वस्तु की विनंती करनी चाहिये। (14) वोहराने के बाद सुपात्र दान की पुनः पुनः हार्दिक अनुमोदना करनी चाहिये। सुपात्र दान की अनुमोदना ने ग्वाले संगम को शालिभद्र के रूप में ऋद्धि दी और इससे भी महत्वपूर्ण वह प्रभु महावीर का शिष्य एवं एकावतारी ************** * 168 देव बना। (15) वोहराने की दिव्य-प्रक्रिया में पदार्थों से भी महत्त्वपूर्ण भाव का प्रभाव होता है। चन्दनबाला ने उड़द के बाकुलों से और जीरण सेठ ने वोहराने की उत्कृष्ट भावना से ही अपना साध्य साध लिया। (16) मुनिराज को वस्तु के नाम लेकर विनंती करें परन्तु कभी भी. क्या वोहराऊँ? या क्या खप हैं? ऐसा प्रश्न न करें। (17) कभी-कभी स्थिति ऐसी होती है, जब घर में वोहराने वाले अधिक हो अथवा प्रासुक पदार्थ की बहुलता हो परन्तु मुनिवर की अपेक्षा अत्यल्प हो तब सभी को लाभ प्राप्त हो, इस कारण शास्त्रकारों ने हाथ-स्पर्शना की विधि का मार्गदर्शन किया है। स्वल्प वोहराने वाले के हाथों का अथवा उस पात्र का सभी स्पर्श कर ले, इससे सभी को सुपात्र दान का लाभ प्राप्त हो जाता है। (18) घर का मुखिया अथवा अन्य सदस्य कभी यह सोचकर एक तरफ न हो कि तुम्हीं वोहराओ, मुझे तो लाभ मिल जायेगा ************ ****
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________________ क्योंकि मैं ही तो कमाता हूँ। कमाना अलग बात है और अपने हाथों से उसका सदुपयोग करना नितान्त दूसरी बात है। (19) घर के महाराज, रसोइये एवं नौकर-चाकर से कहना कि तुम ही वोहरा दिया करो। यह उस स्थिति में ठीक है, जब घर में कोई भी सदस्य न हो। जब भी मुनि आये तब आप यदि घर में हैं तो स्वयं ही बढते-चढतेपरिणामों के साथ वोहराने का लाभ प्राप्त करना चाहिये। स्वयं के हाथों से वोहराने में जो आनंद मिश्रित बहुमान का भाव आ सकता है, वह भृत्यवर्ग के वोहराने में कहाँ? (20) साधु के निमित्त कोई पदार्थ निर्मित न करे। वह लाभ का नहीं, अपितु स्व–पर अहित का मार्ग है परन्तु ग्लान, वृद्ध आदि के लिये बनाना जिनाज्ञापूर्वक उभयहित का मार्ग है क्योंकि वह संयमी को साधुता एवं समाधि में स्थिर करता है। (21) गैस के दो चुल्हों में से एक चुल्हा जल रहा हो, तब भी मुनिवर बंद चुल्हे पर रहा हुआ आहार ग्रहण नहीं करते हैं अतः उसके विवेक की आवश्यकता रहती है। (22) जिस समय मुनिवर आहार गवेषणार्थ पधार रहे हो अथवा आते हुए देखा हो अथवा 'धर्मलाभ' शब्द सुनाई दिया हो, तब श्रावक श्रद्धामिश्रितभावुकता से घर की सफाई करने लगते हैं, बिजली बंद अथवा चालू कर देते हैं, बीच में पड़े सचित्त पदार्थ युक्त बर्तन अथवा पानी की बाल्टी, सब्जी, फल, अनाज आदि एक तरफ करने लगते हैं, ऐसे अनेक कार्य कर बैठते हैं, जो अकरणीय हैं। मुनिराज आ रहे हैं तो सहजता से आने दे, अविधि से श्रद्धा को मलिन न करें। वे अपनी समाचारी और मर्यादा के कवच में आयेंगे और जो कुछ शुद्ध, प्रासुक, ऐषणीय, कल्पनीय होगा, ग्रहण कर लेंगे। उनके निमित्त किसी प्रकार का स्वच्छता-सूचक संकेत न करें। (23) गुरुवर के आने का किसी प्रकार का संकेत मिलने पर उनके निमित्त फल सुधारना, पापड सेकना, रोटी उतारना, ताले में पडी चीज निकालना आदि
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________________ उपक्रम न करें। अशुद्ध मूल्यवान् पदार्थ की बजाय निर्दोष-विशुद्ध सामान्य पदार्थ प्रदान करना श्रेयस्कर एवं सुखकर कहा गया (24) कभी भी उनके साथ मृषावाद (असत्य) का प्रयोग न करें। सुपात्र दान के पावन लक्ष्य से यदि उनके निमित्त सामग्री बनाकर भी पूछने पर कहना–'महाराज साहब! ये हमारे लिये बनाया है, हम भी खाते हैं ऐसे वाक्यों का प्रयोग करके मोक्ष-साधना रूप गोचरी को दोषपूर्ण न बनावें / यह प्रक्रिया कर्म-परम्परा में अभिवृद्धि करती है। (25) कभी प्रशस्तरागवश यह कहना गुरुदेव! गर्मी अत्यधिक है, अतः मैं उपाश्रय में ही टिफीन में सामग्री ले आता हूँ, आप कष्ट मत उठाइये।' ऐसे अनर्थकारी वाक्यों से श्रावक स्व-आचार से तो पतित होता ही है, श्रमण को भी उनके आचार से भ्रष्ट करता है, परिणामतः दोनों दुर्गति के भागी होते हैं। (26) जिसके हाथ-पाँव प्रकम्पित होते हैं अथवा जिन्हें कम दिखाई देता है, ऐसे बाल अथवा वृद्ध से या ज्वर पीड़ित, कुष्ठी, अपंग, अन्तिम मास वाली सगर्भा और स्तनपान कराती स्त्री के हाथ से आहार लेना निषिद्ध है। (27) बर्तन मांजते, भोजन पकाते, कपडा धोते, अनाज बीनते, सब्जी संवारते आदि व्यक्ति (पुरूष अथवा महिला) के हाथ से आहार लेना निषिद्ध है। वे जिस वस्तु को स्पर्श करते हैं, वह भी अकल्प्य हो जाती है एवं उनका जिनको स्पर्श हो जाता है, वे व्यक्ति भी नहीं वोहरा सकते हैं। (28) आहार वोहराते समय यथासम्भव उसी पात्र से लेकर वोहराना चाहिये। अन्य कटोरे आदि में लेकर यदि वोहराना पडे तो साधु व श्रावक, दोनों को दोष न लगे अतः निजी उपयोग करने के पश्चात् ही श्रावक उसका प्रक्षालन करें। (29) चम्मच अथवा बर्तन में रखी हुई वस्तु को पात्र के समीप ले जाकर वोहरावे ताकि पात्र लिप्त . न हो। (30) चॉकलेट, बाजार के नमकीन मिष्ठान्न आदि अभक्ष्य पदार्थ
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________________ खाना एवं वोहराना, इन दोनों राग-द्वेष के कचरे को बहारने में बातों का निषेध करें। प्रयत्नशील है अतः इनकी (31) भोजन आदि तैयार न हो तो ऐसा निरवद्य जीवन चर्या में अनुकूल न कहे कि महाराजश्री! अभी आहार प्रदान करके अपना भाग्य योग नहीं है।' अपितु वन्दना जगाऊँ। पूर्वक उनका सत्कार करें और (34) मंत्र-तन्त्र, सांसारिक-मुहूर्त, घृत, शक्कर, खाखरा, नमकीन व्यापार आदि भौतिक लाभ हेतु आदि जो कुछ प्रासुक सामग्री रास्ता दिखायेंगे, अतः इनकी उपलब्ध हो, उसका निवेदन अधिकाधिक सेवा-सुश्रुषा करूँ, करें। - इन भावों से मुक्ति/परमार्थ की (32) कदाचित् गाँव में कम घर हो यह प्रक्रिया स्वार्थ का पोषण, और विशाल श्रमण मण्डल पधार संसार का विस्तार और कर्मों का जाये तो कर्तव्यनिष्ठ श्रावक बंधन करवाती है। . भिक्षार्थ पधारे मुनिराज के साथ प्र.458. शास्त्रों में कितने प्रकार के पात्र पटेल, चौधरी, पुरोहित, माली कहे गये हैं? आदि शाकाहारी अजैनों के घर उ. तीन पात्र - (1) सुपात्र (2) पात्र (3) जाकर आहार का निवेदन करें। अनुकंपादि पात्र।। (33) सुपात्रदान के समय व्यक्ति को प्र.459.इन तीनों भेदों को स्पष्ट कीजिये। भाव जगत के प्रति सर्वथा सचेत उ. 1. तीर्थंकर, केवली, मुनिराज को रहना होता है। ये महाराज मेरे . सुपात्र कहा गया है। सम्बन्धी है अथवा गाँव के हैं 2. श्रावक-श्राविका, स्वधर्मी और अथवा मित्र है, इसलिये अच्छी सद्गृहस्थ पात्र कहलाते हैं। तरह से इनको वोहराऊँ' ऐसे 3. अपंग, गरीब आदि करूणापात्र विचार जब कभी मानस-कक्ष में अनुकंपादि पात्र कहलाते हैं। प्रविष्ट हो तो तुरन्त उनसे निवृत्त प्र.460. क्या अपात्र को दान देने से लाभ हो जाये। इसकी बजाय ऐसा होता हैं? सोचे कि त्यागी-विरागी मुनिवर उ. सुपात्र, पात्र और अनुकम्पा पात्र को ज्ञान-ध्यान की बुहारी से दान में उत्तरोत्तर अल्प पुण्य का बन्ध
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________________ होता है परन्तु जो अपात्र है, वह हमारे परिणाम में परिवर्तन आने में पक्षपात गृहाँगन में आ जाये तो उसे तिरस्कृत की बुद्धि नहीं अपितु पात्रता के व अपमानित नहीं करना चाहिये। धरातल की पवित्रता एवं योग्यता का यदि दुत्कार, धिक्कार और अपमान- परिणाम है। जनक शब्द बोलते हैं तो कर्म बन्धन प्र.462.शास्त्राकारों ने योग्यता की होता हैं। निषेध करने पर धर्म की न्यूनाधिकता के आधार पर किस निन्दा होगी, इस हेतु दान दिया जाये प्रकार की उपमा दी है? तो पुण्य होता है परन्तु उसमें परमार्थ उ. 1. अरिहन्त परमात्मा - रत्न पात्र अथवा पात्र-सुपात्र दान की बुद्धि के समान। नहीं रखनी चाहिये। 2. मुनि भगवन्त - स्वर्ण पात्र के प्र.461. महाराजश्री! दान की प्रक्रिया / समान। समान होने पर भी तीर्थकर, 3. व्रतधारी श्रावक - रजत पात्र के केवली, मुनि, श्रावक, अपंग और समान। अपात्रादि में कम-ज्यादा पुण्य 4. सम्यकदृष्टि - ताम्र पात्र के / बंध के कथन से क्या पक्षपात की समान। आपत्ति नहीं होगी? 5. अपात्र - लौह पात्र के समान। नहीं! यह स्पष्ट है कि पात्रता का प्र.463. दान के दूषण एवं भूषण कौनसे धरातल बदलते ही परिणाम भी बदल जाता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि उ. 1. मुँह बिगाडकर, अश्रद्धा, अनादर स्वाति नक्षत्र के योग में वर्षा की बूंद . एवं विलम्ब से देना, देने के बाद यदि सीप के मुख में प्रविष्ट होती है तो पश्चात्ताप करना, ये दान को मोती बन जाती है, सागर में गिरकर दूषित करते हैं। खारी, कीचड में गंदी ओर सर्प के मुख 2. प्रिय वचन उच्चारण एवं में जाकर विष रूप बन जाती है अतः बहुमानपूर्वक देना, देते समय रोमकाल सम्बन्धी साम्यता होने पर भी रोम का उल्लास से भर जाना, आधार बदलते ही परिणाम में आंखों में हर्ष के आँसू आना एवं दिन-रात का अन्तर देखा जाता है देने के बाद पुनः पुनः सुपात्र दान उसी प्रकार तीर्थंकर आदि के दान की अनुमोदना करना, ये दान के भूषण हैं। .. .
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________________ श्रावक जीवन की साधना प्र. 464. श्रावक किसे कहते है? उ. () श्रा अर्थात् जिनोक्त तत्त्व का श्रवण कर श्रद्धा करना। (ii) व अर्थात् विवेक, हिताहित का ज्ञान प्राप्त करना। (iii) क अर्थात् जिनाज्ञानुसार क्रिया __ करना। . शास्त्रों में श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है श्रमणोपासक अर्थात् जो श्रमण की उपासना, सेवा करता है एवं आज्ञा को धारण करता है। प्र.465. श्रावक कितने प्रकार के कहे गये द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा न करना। (2)स्थूल मृषावाद विरमण व्रत (सत्य)- किसी के प्राण चले जाये, नुकसान हो जाये, ऐसा बड़ा झूठ नहीं बोलना। (3)स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत (अचौर्य)- बड़ी चोरी नहीं करना। (4)स्थूल मैथुन विरमण व्रत (ब्रह्मचय)अपनी पत्नी (पति) में संतोष करना। परस्त्री-परपुरूषगमन का त्याग करना। (5)स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत (अपरिग्रह)- सोना-चांदी, दुकानमकान, हाथी-घोड़ा, दास-दासी आदि का परिमाण निर्धारित करना। (6)दिक् परिमाण व्रत- उर्ध्व अधो, उत्तर आदि दिशाओं में आने-जाने की सीमा का निर्धारण करना। (7)भोगोपभोग परिमाण व्रतखाने-पीने की भोग तथा वस्त्र, गाड़ी आदि उपभोग की वस्तुओं की सीमा निश्चित करना / चौदह नियम धारण करना। (8)अनर्थ दण्ड विरमण व्रत- जिस उ. दो प्रकार के- (1) व्रती श्रावक- जो एक यावत् बारह व्रत ग्रहण करता है, जैसे-आनंद, कामदेवादि श्रावक। (2)दर्शनी श्रावक- जो व्रत धारण करने में असमर्थ होते हुए भी जिन-प्रवचन में परिपूर्ण श्रद्धा से युक्त होते हैं, जैसे- वासुदेव श्रीकृष्ण, सत्यकि विद्याधर, श्रेणिक सम्राट् आदि। . प्र.466. बारह व्रतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिये। . उ. (1)स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत (अहिंसा)- निरपराधी जीव की एवं ******** ***** 173
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________________ क्रिया से कोई लाभ नहीं होता, पर प्र.467.बिना उपवास के पौषधव्रत करने आत्मा पाप-फल की सजा प्राप्त की जिनाज्ञा है अथवा नहीं? करती है जैसे-चलते-चलते पत्ता उ. सच तो यह है कि इस व्रत का नाम तोड़ दिया, पशु पर प्रहार कर दिया पौषधोपवास व्रत है। इस नाम से ही आदि। इनका त्याग करना। इसके स्पष्ट है कि यह व्रत उपवास सहित लिये किसी पापकारी चीज की प्रशंसा ही होता है। - अनुमोदना नहीं करनी चाहिये। प्र. 468. परन्तु महाराजश्री! बाल, वृद्धादि व्यक्ति किसी मकान के आगे से उपवास नहीं कर पाते हैं तो गुजरता है और प्रशंसा कर बैठता उन्हें भी लाभ मिले, इस हेतु से है। इससे मकान तो नहीं मिलता, एकासन, आयम्बिल करवाया जा परन्तु नरक अथवा गाय-बैल-कुत्ते सकता है? आदि तिर्यंच का भव जरुर मिल जाता उ. बिल्कुल नहीं! इसमें जिनाज्ञा है। विराधना का महान पाप है। यदि कोई (9)सामायिक व्रत- न्यूनतम कहे कि मुझे प्रतिदिन एक कप चाय अड़तालीस मिनट तक समस्त पाप मिल जाये तो मैं मासक्षमण कर क्रियाओं का त्याग करके समता की सकता हूँ तो क्या ऐसा करवाना साधना करना। उचित होगा? लाभ जिनाज्ञा पालन में (10)देशावगासिक व्रत- स्थानमर्यादा है, अति की कल्पना में उल्लंघन है। पूर्वक तीन से पन्द्रह सामायिक लेना। बालकों की पुनः पुनः सामायिक व्रत (11) पौषधोपवास व्रत- एक दिन, के द्वारा भी आराधना संभव है। एक रात अथवा एक रात- प्र.469. तो फिर आपके गच्छ में उपधान दिन उपवास सहित साधुवत् जीवन तप की आराधना में पौषध में जीना। एकासना कैसे करवाया जाता है ? (12)अतिथिसंविभाग व्रत-उपवास / - उ. यह समाचारी सभी गच्छों के आचार्यों के पारणे के दिन एकासना करके ने मिलकर बनायी है अतः अपवाद साधु को दोष रहित आहार देना। मार्ग से आचरणीय है। इनमें प्रथम पाँच अणुव्रत, बाद के तीन प्र.470. श्रावक के तीन मनोरथ कौनसे हैं? गुणव्रत, शेष चार शिक्षाव्रत कहलाते उ. (1)आरंभ तथा परिग्रह का त्याग करना / ************** 174 *** ******** *
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________________ (2)साधु बनना / प्र.474. पर्व तिथि में श्रावक के कर्तव्य (3)पण्डित मरण प्राप्त करना। कौनसे हैं? प्र.471.श्रावक के तीन अलंकार कौनसे हैं? उ. (1) पौषध (2) उपवास (3) दान उ. अलंकार यानि जिससे शोभा होती है। (4)शील (5) तप (6) भाव (7) अहिंसा(1)आवृत्तिमय- जिसे बार-बार पालन (8) जयणा (9) शासन प्रभावना। किया जाये। इसके तीन प्रकार प्र.475.श्रावक को पर्युषण पर्व में क्या करना चाहिये? (1) सुपात्र दान (2) श्रुतज्ञान उ. (1)अमारि प्रवर्तन (अहिंसा)। (3) तप। (2)साधार्मिक वात्सल्य। (2)निवृत्तिमय- जिससे पाप से (3)परस्पर क्षमापना। निवृत्ति (दूरी) हो। इसके तीन (4)अट्ठम तप। प्रकार हैं (5) चैत्यपरिपाटी। (1) सामायिक (2) प्रतिक्रमण प्र.476. चातुर्मासिक कर्तव्यों की जानकारी (3) पौषध / दीजिये। (3)प्रवृत्तिमय- जिसमें क्रिया मुख्य उ. (1)विविध नियम धारण करना। (2)देसावगासिक (3) अतिथि संविभाग प्र.472. श्रावक के प्रतिदिन करने योग्य (4)सामायिक (5) विविध तप कर्तव्य कितने हैं? (6)नूतन अध्ययन (7) स्वाध्याय उ. छह- (1) प्रभु–पूजा (2) गुरू-सेवा (8)जयणा। .. (3) अनुकंपा (4) सुपात्र दान प्र.477.श्रावक कितने प्रकार के कहे गये (5) गुणानुराग (6) आगम श्रवण / प्र.473. श्रावक के नौ रात्रिक कर्तव्य उ. चार प्रकार केकौनसे हैं? (1)माता-पिता के समान - साधु(1)धर्म जागरण (2) सुकृत की साध्वी रूप सन्तान का हितबुद्धि अनुमोदना (3) दुष्कृत की निंदा (4) से संरक्षण-संवर्द्धन करने वाले। प्रतिक्रमण (5) चार शरण का स्वीकार (2)भाई के समान - विपत्ति आने (6) अल्प निद्रा (7) आत्म-चिंतन (8)दीक्षा मनोरथ सेवन (7) सागारी पर सहायक बनने वाले। (3)मित्र के समान - श्रमणवर्ग को अनशन। * *** *** 175 * *** * ***** हो।
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________________ उपकारी जानकर प्रत्युपकार करने वाले। (4)सौतन के समान - मिथ्या दोषारोपण करने वाले। प्र.478. जिनशासन में विशिष्ट श्रावक कौन-कौन हुए? उ. (1)उपासकदशांग सूत्र में परमात्मा के आनंद, कामदेव इत्यादि उन दस श्रावकों का वर्णन है, जिन्होंने जीवन में प्रभु के श्रीमुख से बारह व्रत स्वीकार कर ग्यारह प्रतिमाओं की उत्कृष्ट आराधना की एवं अन्तिम समय में एक मास की संलेखणा कर एकावतारी देव बने। (2) वासुदेव श्रीकृष्ण नेमिनाथ प्रभु के प्रमुख श्रावक थे। उनकी प्रेरणा से अनेक संयमी बने। वे अपनी हर पुत्री को कहते-रानी बनना हो तो संयम लो, दासी बनना हो तो शादी करो। (3) श्रेणिक सम्राट् भी परमात्मा महावीर के अत्यन्त श्रद्धाशील श्रावक थे। अन्तिम संस्कार के समय उनकी चिता में वीर–वीर की ध्वनि निकली। (4)पूणिया श्रावक की सामायिक की प्रशंसा स्वयं वीर प्रभु ने की एवं सुलसा सती को धर्मलाभ कहलवाया। विजय सेठ-विजया सेठानी की भीष्म प्रतिज्ञा सर्वत्र प्रसिद्ध है। जीरण सेठ चौमासे में प्रतिदिन प्रभु से आहार की विनंती करने जाते थे। जयन्ती श्राविका की धर्म-चर्चा भगवती सूत्र में वर्णित है। (5) सम्प्रति सम्राट का जिनवाणी के प्रचार - प्रसार में महान् योगदान रहा। उन्होंने सवा लाख जिन मंदिरों का निर्माण करवाया। सवा करोड़ जिन प्रतिमाएँ भरवायी। (6) जीवदया प्रेमी कुमारपाल महाराजा. जिन शासन के परमानुरागी श्रावक थे, उन्होंने अनेक ग्रंथों का लेखन करवाया। (7)धरणाशाह ने राणकपुर का मंदिर बनवाया। (8)महाकवि' धनपाल, वस्तुपाल, तेजपाल, देदाशाह, जावड़शाह, जगडूशाह, पेथडशाह, झांझणशाह, थाहरुशाह भणशाली, कर्मचन्द्र बच्छावत, मोतीशा नाहटा आदि अनेक श्रद्धानिष्ठ, क्रियावान् एवं दानी श्रावकों ने शासन की महती प्रभावना की।
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________________ धर्म के चार प्रकार प्र.479.धर्म के चार प्रकार कौनसे हैं? उ. (1)दान (2) शील (3) तप (4) भावना। प्र.480.दान कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. (1)अभयदान-समस्त दानों में अभयदान श्रेष्ठ है। अभयदान से पाँचों दानों का लाभ मिल जाता है। विपत्तिग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना, समस्त जीवों पर करूणा भाव रखना, किसी भी जीव को सताना अथवा मारना नहीं, यह अभयदान है। अभग्नदान से धर्म रुचि अणगार एकावतारी देव बने, मेघरथ राजा अभयदान से भगवान शान्तिनाथ बने। (2)सुपात्रदान- गुणयुक्त साधु साध्वी भगवंतों को शुद्ध वस्त्र, पात्र, आहार आदि प्रदान करना। आदिनाथ व महावीर प्रभु सुपात्रदान से सम्यक्त्वी बने। संगम ग्वाला उलट भाव से आहार प्रदान करके शालिभद्र बना। (3)अनुकंपा दान- गरीब, दीन हीन, असहाय की यथाशक्ति सहायता करना। जैसे जगडूशाह ने दुष्काल में भूखे लोगों के लिये अन्न दान किया। (4)कीर्तिदान- शासन के उत्कर्ष हेतु जनकल्याण में धनादि देना। जिनशासन की कीर्ति के लिये पूर्वजों की स्मृति में अथवा स्वयं की प्रतिष्ठा के लिए अस्पताल, विद्यालय आदि बनवाना। यद्यपि दान में कीर्ति की भावना होती है तथापि समाज को लाभ होने के कारण इसे दान कहा गया है। भूमिदान, रक्तदान, नेत्रदान आदि अनेक दान प्रचलित हैं। दान में यश की कामना न रखकर परोपकार एवं सहयोग की ही भावना रखनी चाहिये क्योंकि हर प्राणी मेरा बंधु और आत्मीय है। जो व्यक्ति इस तन-मन-धन को जनकल्याण, आत्मकल्याण एवं सम्यक् ज्ञान के प्रचार-प्रसार में लगाते हैं, वे इतिहास के पन्नों पर अमर हो जाते (5)उचित दान- परिस्थिति के अनुसार दान देना। जैसे भूखे को रोटी देना, विद्यार्थी को पुस्तक
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________________ आदि देना, रोगी को दवाई देना। आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा राष्ट्र एवं समाज के हित में समय करते ही जीवन-लीला का अन्त के अनुरूप धन, शक्ति, बुद्धि आदि करने वाला तूफान कुछ पलों में ही का नियोजन करना उचित दान शांत हो गया। कहलाता है। बारह प्रकार के तप का विवेचन अलग प्र.481.शील से क्या अभिप्राय है? से किया गया है। उ. अब्रह्म का सर्वथा त्याग करना अथवा प्र.482.भावना किसे कहते है? परनारी (पर पुरूष) का त्याग करना। उ. चित्त की स्थिरता के लिये किसी तत्त्व पर्यों में संवत्सरी की भाँति व्रतों/ पर बार बार चिन्तन करना भावना है। महाव्रतों में शील की महिमा प्रभु भावना का सामान्य अर्थ तो शुभमहावीर ने फरमायी है। आगमों में अशुभ विचार होते हैं परन्तु धर्म के ब्रह्मचर्य को भगवत्स्वरुप कहते हुए सन्दर्भ में भावना का अर्थ मोक्षमार्ग का तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, चिन्तन, धर्म में अभिवृद्धि एवं कषायों विनय एवं सम्यक्त्व का मूल बताया को निष्कासित करने वाले निर्मल गया है। अनिच्छा से ब्रह्मचर्य का आध्यात्मिक अध्यवसाय/परिणाम किया पालन करने वाला चक्रवर्ती का हाथी गया है। इसका दूसरा नाम अनुप्रेक्षा भी अष्टम देवलोक तक पहुँच जाता है। भी है। शील के प्रभाव से सुभद्रा सती ने प्र.483. भावना कितने प्रकार की कही चंपानगरी के द्वार खोले, सीता का गयी हैं? अग्निकुण्ड जलकण्ड में परिवर्तित उ. निम्नोक्त बारह निर्मल भावनाओं से हुआ, विजयसेठ एवं विजया सेठानी चित्त को प्रभावित करने वाला के शील की महिमा विमल नामक परम-पद को प्राप्त करता है। केवलज्ञानी प्रभु ने गायी, सेठ सुदर्शन (1)अनित्य भावना- भरत चक्री की का त्रिलोक में यशोगान हुआ तथा भाँति पदार्थ, शरीर आदि की पेथडशाह के कम्बल में रोग अनित्यता का चिन्तन करना। विनाशक शक्ति उत्पन्न हुई। वर्तमान (2)अशरण भावना- अनाथी मुनि में सुप्रसिद्ध श्रावक प्राणी मित्र श्री की भाँति संसार में अरिहंत, सिद्ध, कुमारपाल भाई वी. शाह (धोलका) के साधु एवं केवली प्ररुपित धर्म के * ** 178_ ******** **
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________________ सिवाय कोई भी शरणभूत नहीं है, इस प्रकार का चिन्तन करना। (3)संसार भावना- मल्लिनाथ की भाँति संसार की असारता का चिन्तन करना। (4)एकत्व भावना- नमि राजर्षि की भाँति 'मैं एकाकी ही जन्मा तथा एकाकी ही मरूंगा', यह चिन्तन करना। (5)अन्यत्व भावना- सुकोशल मुनि की भाँति 'मैं शुद्ध परमात्म स्वरूप हूँ ज्ञानादि गुणों के अतिरिक्त पुत्रमित्र-कलत्र, सभी पराये हैं, यह चिन्तन करना। (6)अशुचि भावना- सनत्कुमार चक्रवर्ती की भाँति 'यह नश्वर शरीर रोगों का एवं मल, मूत्र आदि अशुद्ध पदार्थों का घर है।' ऐसा चिन्तन करना। (7)आश्रव भावना- समुद्रपाल की भाँति 'हिंसा आदि आश्रव जन्ममरण की परम्परा को बढ़ाने वाले हैं।' ऐसा चिन्तन करना। (8)संवर भावना- मेतारज मुनि की भाँति आत्मा का संवरण करना एवं मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद और योग को रोकने का प्रयास करना। (9)निर्जरा भावना- अर्जुनमाली की भाँति ‘कृतकर्मों का सर्वथा क्षय किये बिना दुःख से मुक्ति नहीं मिलती है', ऐसा चिन्तन करना। (10) धर्म भावना- दान आदि धर्म का पुनः पुनः चिन्तन करना एवं धर्मरूचि अणगार की भाँति धर्मरक्षा के लिये प्राणों का त्याग करना। (11) लोकभावना- शिवराज ऋषि की भाँति लोक स्वरूप का चिन्तन करते हुए वैराग्यवासित बनना। (12) बोधि भावना- ऋषभदेव के 98 पुत्रों की भाँति सम्यक्त्व की दुर्लभता का विचार करते हुए असार संसार का त्याग करके संयम धारण करना। प्र.484. मैत्री आदि चार प्रकार की भावनाओं को समझाओ। (1)मैत्री भावना- मैत्री भावना में विश्वबंधुत्व, शिवमस्तु सर्वजगतः एवं वसुधैव कुटम्बकम् की निःस्वार्थ भावनाओं का पावन संगीत है। जीव मात्र के प्रति निर्मल मैत्री, स्नेह और आत्मीयता का भाव रखते हुए उसके कल्याण की
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________________ कामना करना मैत्री भावना है। 'मित्ती मे सव्वभुएसू' यह मैत्री भावना का प्रथम सूत्र है। मैत्री भावना जाति, देश, कुल, गति की सारी संकीर्ण दीवारों को तोडकर सम्पूर्ण जीव सृष्टि में समाविष्ट हो जाती है। (2)प्रमोद भावना - तपस्वी के तप को, ज्ञानी के ज्ञान को, त्यागी के त्याग को, दानी के दान को देखकर प्रमुदित-प्रसन्न होना। पुनः पुनः उसकी प्रशंसा और अनुमोदना करना। पृथ्वीचन्द्र राजा गुणसागर केवली की अनुमोदना करते करते एवं पांच सौ तापस गुरु गौतम स्वामी की मन ही मन प्रशंसा करते हुए गुणठाणों में इतने आगे चढे कि केवलज्ञान उपलब्ध हो गया। (3)माध्यस्थ भावना- भलाई, हित एवं आत्म-कल्याण के लिये समझाने पर नहीं समझने वाले के प्रति तटस्थ भाव रखना माध्यस्थ भावना कहलाती है। पुत्र, शिष्य आदि को उनके हितार्थ बार-बार समझाने पर भी नहीं मानने पर क्रोध नहीं करके मध्यस्थ भाव रखना, नजर अंदाज करना। (4)कारुण्य भावना- धर्म से विमुख, हिंसक, दुःखी, असत्यभाषी जीवों के प्रति करुणा, दया का भाव रखना। ओह! ये जीव मनुष्य जीवन, जिनशासन और आत्म धर्म को. प्राप्त करके भी संसार में ही रचे-पचे हुए हैं, आखिर दुर्गति में जाना होगा। कामभोगों की दाहकता भव - भव जलाती और रूलाती रहेगी।
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________________ तप के बारह भेद (3)वृत्ति संक्षेप- भोज्य पदार्थों का एवं उनके प्रति राग का संक्षेप करना। (4)रस परित्याग- घी, तेल, दही, दूध का या उनसे निर्मित सरस वस्तुओं का यथासंभव त्याग करना। (5)कायक्लेश- आतापना, लोच आदि का कष्ट सहन करना। (6)संलीनता- मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को संकुचित करना। प्र.488.आभ्यंतर तप कितने प्रकार का होता प्र.485. तप किसे कहते है? उ. जिन उपायों से आत्म-शुद्धि एवं कर्म निर्जरा होती है, उसे तप कहते है। अग्नि का स्पर्श पाकर जिस प्रकार स्वर्ण पर लगा हुआ कचरा, मेल उतर जाता है और वह चमक उठता है, उसी प्रकार तपाग्नि से आत्मा पर विकार, विषय और वासना की जो गंदगी और अशुचि लगी हुई है, वह दूर हो जाती है और आत्मा स्वच्छ, निर्मल और बेदाग हो कुंदन की भाँति चमक उठती है। आगम-सूत्र का फरमान है कि करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, जिससे आत्मा के ज्ञानादि अमल-धवल गुणों 'का प्रकटीकरण होता है। प्र.486. तप कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. दो प्रकार के- (1) बाह्य तप (2) आभ्यन्तर तप। प्र.487.बाह्य तप कितने प्रकार का है? उ. छह प्रकार का (1)अनशन- उपवास आदि करना। (2)ऊणोदरी- भूख से कुछ कम खाना। उ. छह प्रकार का-(1) प्रायश्चित्तजिस क्रिया से चित्त की शुद्धि हो। (2)विनय- आचार्य, उपाध्याय आदि का विनय, सत्कार करना। (3) वेयावच्च - आचार्य, उपाध्याय,. शैक्षक, ग्लान, नवदीक्षित आदि की सेवा करना। (4)स्वाध्याय- तत्त्व-ज्ञान आदि का स्मरण - पुनरावर्तन - चिन्तन एवं प्रवचन करना। (5)ध्यान- आर्त्त-रौद्र ध्यान का त्याग करना। धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान ध्याना।
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________________ (6)कायोत्सर्ग- देहातीत होकर आत्मा का ध्यान करना। प्र.489.स्वाध्याय कितने प्रकार का कहा गया है? उ. पांच प्रकार का - (1)वाचना-नया ज्ञान प्राप्त करना। (2)पृच्छना- ज्ञान में शंका उपस्थित होने पर समाधान प्राप्त करना (3)परावर्तना- सीखे हुए सूत्र एवं अर्थ के ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने के लिये पुनः पुनः दोहराना। (4)अनुप्रेक्षा- ज्ञान का चिन्तन मनन करना। (5)धर्मकथा- जिनोक्त तत्त्व का उपदेश देना। प्र.490. तप में क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिये? तपश्चरण साधना का महत्वपूर्ण सोपान है। तप–साधना की उत्कृष्टता से ढंढण अणगार नेमिनाथ के अठारह हजार साधुओं में तथा धन्ना अणगार वर्धमान प्रभु के चौदह हजार साधुओं में प्रशंसा और अनुमोदना के पात्र बने तथा प्रभु ने स्वमुख से उनको सर्वोत्कृष्ट साधक बताया। तप में तीन को छोडना और चार की धारणा जरूरी है(1)तीन त्याज्य-शयन करना, दूसरों की निंदा करना तथा जुआ, ताश, टी.वी. आदि विकारवर्द्धक साधनों में समय का दुरुपयोग करना। (2)चार स्वीकार्य- स्वाध्याय, माला- जाप, जिनपूजा–भक्ति एवं सामायिक, प्रतिक्रमण, वैयावच्च इत्यादि। तप को समस्त धर्मों में मोक्ष प्राप्ति में प्रमुख साधन माना है। तप में न तो शक्ति का गोपन करना चाहिये, न उल्लघंन करना उचित है।दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि अपने बल, आरोग्य और श्रद्धा को देखकर एवं क्षेत्र व काल को पहचान कर यथाशक्ति अपनी आत्मा को तप आदि अनुत्तर अनुष्ठानों , में संयोजित करना चाहिये। उत्तर तथा पश्चात् पारणे में गरीष्ठ, नमकीन, तले एवं अति-आहार से बचना चाहिये। रसना पर नियन्त्रण नहीं रखने से तप बिगड जाता है। पेट दर्द, वमन आदि होने पर तप की लोक में निंदा होती है और कदाच तपस्वी भी तप पर वह दोष मढ देता है, जो दोष पारणे में उसकी स्वयं की असावधानी से. उत्पन्न हुआ है।
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________________ रात्रिशयन से पूर्व आत्म-चिंतन प्र.491.शयन विधि को विस्तार से का कारण बनता है। समझाईये। 7. सोते-सोते तांबूल चबाना, पढ़ना उ. 1. सूर्यास्त से एक प्रहर बाद सोना अशुभ होता है। चाहिये। 8. ललाट पर तिलक रखकर नहीं 2. वृद्ध के लिये चार घण्टे की, युवा सोना चाहिये। के लिये छह घण्टे की एवं बालक 9. सप्त-भय के निवारण के लिये के लिये आठ घण्टे नींद पर्याप्त सोते समय सात नवकार गिने। होती है। नींद घटाने से घटती है प्र.492.शयन किस मुद्रा में करना एवं बढ़ाने से बढ़ती है इसलिये चाहिये? शास्त्रों में कहा गया है कि जिसकी उ. कहा जाता है-उल्टा सोये भोगी, नींद, कषाय, परिग्रह और आहार, सीधा सोये योगी, डाबा सोये निरोगी ये चारों कम हैं, उसका भवभ्रमण और जीमणा सोये रोगी। अतः कम ही रहा है, ऐसा जानना स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार बायीं चाहिये। करवट सोना चाहिये। उल्टा सोने से 3. मस्तक और पाँव की तरफ दीपक नेत्र रोग होता है। नहीं होना चाहिये एवं बिस्तर प्र.493. शयन करते समय किस दिशा में दीवार से एक या दो हाथ दूर होना पाँव एवं मस्तक होना चाहिये? * चाहिये। शास्त्रकार कहते हैं- पूर्व दिशा में 4. संध्या काल में और शय्या पर मस्तक रखकर सोने से विद्या-लाभ बैठे-बैठे नींद लेना अशुभ होता होता है, बुद्धि बढ़ती है। दक्षिण दिशा है। में मस्तक रखकर सोने से धन और 5. हृदय पर हाथ रखकर, छत के स्वास्थ्य का लाभ होता है। पश्चिम पाट (बीम) के नीचे एवं पाँव पर दिशा में मस्तक रखकर सोने से चिंता पाँव चढ़ाकर नहीं सोना चाहिये। बढ़ती है तथा उत्तर दिशा में मस्तक 6. पाँव की ओर की शय्या ऊँची नहीं रखकर सोने से ज्ञान, बुद्धि, धन आदि होनी चाहिये। इससे रक्त प्रवाह की हानि एवं मृत्यु होती है। दक्षिण विपरीत दिशा में होने से बीमारियों दिशा में दुष्ट देवों का वास कहा गया *************** 183 ****************
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________________ है। रक्त संचार में अनियमितता, दुक्कडं देवें एवं गलती के स्मृतिभ्रंश, असाध्य बीमारियों का अपुनरावर्तन का संकल्प करें। कारण होने से दक्षिण दिशा की तरफ इसी कड़ी में यह भी सोचे कि मैं उत्तम पाँव करके नहीं सोना चाहिये। कुल-जाति एवं धर्म को प्राप्त हुआ हूँ प्र.494. रात्रि शयन से पूर्व आत्म-चिन्तन अतः इस मनुष्य जीवन के स्वर्णिम किस प्रकार करें? अवसर का पूरा-पूरा उपयोग करना उ. शयन से पूर्व अरिहंत, सिद्ध, जिन धर्म एवं मुनि, इन चारों की शरण शुद्ध शास्त्रकारों ने कहा है- 'दुल्लहे निष्ठा से स्वीकार करें। खलु माणुसे भवे।' निश्चय ही आहार शरीर उपधि, पचखं पाप अठार। मनुष्य जन्म दुर्लभ है। अतः मरण पामु तो वोसिरे, जीवू तो आगार / / अधिकाधिक धर्म की आराधना करके अर्थात्- संसार वृद्धि के साधनों और मुझे एक/दो भवों में इस दुःखमय अठारह प्रकार के पाप स्थानों का असार संसार से मुक्ति पा लेनी है। जागरण पर्यन्त त्याग करता हूँ चाहे मैं पुण्योदय से पंचेन्द्रिय बना हूँ। मध्य में मृत्यु भी क्यों न आ जाये। शक्ति और बुद्धि मुझे प्राप्त हुई है, तब खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे। भी ऐसा कौनसा धर्म-अनुष्ठान है, जो मित्ती मे सव्वभुएसू, वेरं मज्झ न केणइ / / * मैं कर सकता हूँ परन्तु प्रमादवश, मैंने मन-वचन-काया से जिन जीवों अज्ञान और मोह के अधीन होकर नहीं के प्रति अपराध, पाप किया है, उन्हें कर रहा हूँ। खमाता हूँ, वे सभी मुझे क्षमा करें। ऐसे कौनसे दोष हैं, जिनका सेवन सभी जीवों से मेरी मैत्री है, किसी से * करके मैं महान् कर्मों का उपार्जन कर भी मुझे वैर-विरोध नहीं है। रहा हूँ। अब मुझे अपने दोषों को तत्पश्चात् चिन्तन करें कि आज मैंने देशनिकाला दे देना है। करणीय क्या-क्या नहीं किया और प्र.495. सोते समय किस भगवान का जाप अकरणीय क्या-क्या किया। करणीय करें? (सामायिक, प्रतिक्रमण, सुपात्र उ. दुष्ट-गंदे स्वप्नों के निवारण हेतु दानादि) की बार-बार अनुमोदना करें नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ का, सुख तथा अकरणीय (हिंसा, झूठ, चोरी, निद्रा हेतु चन्द्रप्रभु का, चोर आदि से अनीति, राग-द्वेष आदि) की पुनः पुनः अभय हेतु शान्तिनाथ का स्मरण/ निंदा-गर्दा करते हुए मिच्छामि जाप करें।
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________________ जैन आहार मीमांसा 1. कैसे करे भोजन ? 2. अभक्ष्य का भक्षण : बढे जन्म-मरण 3. सप्त व्यसन : नरक का द्वार 4. द्विदल अर्थात् पापों का दल दल 5. रात्रि भोजन : दुर्गति का कारण 6. चलित रस का करें निषेध 7. अनन्तकाय का भोजन : अशाता का सर्जन 8. मजेदार (?) पदार्थों का परिहार 9. जितनी जयणा, उतनी शाता
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________________ कैसे करे भोजन? प्र.496.भोजन कैसे करें ? उ. यद्यपि मैं एक त्यागी श्रमण हूँ अतः भोजन करने की विधि का कथन मेरे लिए जिनाज्ञा का उल्लंघन है, तथापि उसमें कम से कम दोष लगे, इस हेतु से विवेक एवं जयणायोग्य बिंदु पूर्वाचार्यों की आज्ञानुरूप कहता हूँ(1)भोजन करने से पहले सोचे कि भव-भव से मैं खा रहा, पी रहा पर न कभी तृप्ति हुई, न हो सकती है। भोजन करने से नहीं, छोड़ने से तृप्ति व संतोष मिलता है। कितना अच्छा होता कि मैं आज तपश्चर्या करके आत्मा को ध्यान एवं ज्ञान की खुराक प्रदान करता। (2)हे प्रभो! मुझ पर इतनी कृपा करना . कि मैं शीघ्रातिशीघ्र अणाहारी पद को प्राप्त करूँ। (3)भोजन करने से पूर्व तीन बार नवकार मंत्र का स्मरण करें। (4)पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय के जीव हमारे जीवन निर्वाह में उपयोगी बनते हैं। कृतज्ञ दृष्टि से उनके प्रति उपकृत भावों से हृदय को भावित करें कि तुमसे ही हमारा जीवन गतिमान है। (5)भोजन के प्रति शुभ भावना से हृदय को भावित करें कि हे अन्न देवता! तुम मेरे लिये ज्ञान, ध्यान एवं स्वाध्यायवर्द्धक बनना। ऐसा रस एवं ग्रन्थियाँ स्रावित करना, जिससे राग-द्वेष का अंधकार दूर हो तथा मेरे जीवन में समता और संयम का प्रकाश फैले। (6)भोजन करते समय क्रोध, राग व द्वेष के भाव न लाकर अममत्व भाव से भोजन करें। उससे वैराग्य, आरोग्य एवं सौभाग्यवर्द्धक रस स्रावित होते हैं। (7)दक्षिण दिशा एव विदिशा में मुख करके भोजन हेतु न बैठे। (8)जीभ को वश में रखकर, अस्वादभाव से शारीरिक अनुकूलताअनुसार भोजन करें। चटपटे, तीखे, मसालेदार, खट्टे व्यंजनों का त्याग करना स्वास्थ्य एवं साधना के लिये हितकारी होता है। (9)शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की दस पर्व तिथियों को फल, हरी सब्जी आदि का त्याग रखना चाहिये। (10) भूख से कुछ कम भोजन करने से
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________________ ऊणोदरी तप का लाभ मिलता नींद लेना सर्वथा अनुचित है। है। (21) स्थिर होकर, बिना नीचे गिराये (11) समस्त भोज्य पदार्थों में कुछ एवं समिति से युक्त होकर ___ पदार्थों का त्याग करने से वृत्ति भोजन करना चाहिये। संक्षेप तप का लाभ मिलता है। (22) भोजन करने के बाद थाली (12) वमन करके भोजन न करें। धोकर पीये तथा उसे पोंछकर (13) जब किसी चिन्ता से ग्रस्त हो, रखे, इससे आयंबिल का लाभ तब भोजन ग्रहण न करें। मिलता है। झूठे बर्तनों में (14) खड़े-खड़े, अस्थिर आसन में, अडतालीस मिनट में अवश्यमेव रात्रि अथवा अंधेरे में भोजन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। करने से बचें। मक्खी, मच्छर आदि गिरने से (15) अजीर्ण दशा में भोजन न करें। विराधना भी होती है। अतः झूठे कभी भी अज्ञात फल न खाये। बर्तन अड़तालीस मिनट से अधिक (16) अन्तराय वाली स्त्री के स्पर्श न रखें। वाला भोजन न करें। (23) भोजन झूठा नहीं छोड़ना चाहिये (17) अति उष्ण अथवा शीत आहार न एवं झूठे मुँह बोलना नहीं करें। अति उष्ण आहार से वायु चाहिये / आवश्यक होने पर पानी प्रकोप तथा अति शीत आहार से पीकर बोला जा सकता है। दांत व आंत सम्बंधी रोग हो जाते (24) भोजन करते समय चबाने की आवाज नहीं करनी चाहिये। (18)अति खट्टे, खारे, तीखे आहार से प्र.497 भोजन कब एवं कहाँ नहीं करना बचने की कोशिश करें। चाहिये? (19) बड़े-बुजुर्गों को भोजन करवाकर उ. विवेक विलास नामक ग्रन्थ में लिखा प्रसन्नतापूर्वक भोजन ग्रहण है-सूर्योदय के पूर्व एवं सूर्यास्त होने करें। प्रसन्नता से आहार समाधि, पर भोजन नहीं करना चाहिये। अन्न सन्तोष और स्वास्थ्यवर्द्धक की निंदा करते हुए, चलते, सोते, खुले बनता है। स्थान में, धूप में, अन्धकार में, वृक्ष के (20) भोजन के तुरन्त बाद नहाना, नीचे बैठकर तथा तर्जनी अंगुली उपर **************** 188 ************** *
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________________ रखकर भोजन नहीं करना चाहिये। है। बाह्य भूत, प्रेत, पिशाच आदि का एक थाली में साथ मिलकर एवं असर भी इन दिनों में अधिक एवं तीव्र दीवार का सहारा लेकर आहार न गति से होता है। करें। इन पर्व तिथियों में हरी वनस्पति के प्र.498. पर्व तिथि को हरी सब्जी, फलादि निषेध का कारण यही है कि शरीर में का ही त्याग क्यों किया जाता है जलीय तत्त्व का संतुलन नहीं बिगड़े जबकि सूखी सब्जी में भी जीव तो एवं मानव-मन स्वस्थ तथा होते ही हैं? उत्तेजना-मुक्त रह सके। यद्यपि हरी और सूखी, दोनों ही सब्जी जैन भोजन शैली में हरी वनस्पतिसचित्त है, तथापि मानसिक एवं शारीरिक त्याग के अतिरिक्त इन दिनों में स्वास्थ्य की अपेक्षा से जैन जीवन पौषध, उपवास, जप, तप, ध्यान आदि पद्धति में पर्व तिथियों में हरी वनस्पति धर्मानुष्ठान विशेष रूप से किये जाते के त्याग का उपदेश दिया गया है। हैं ताकि समुद्री तूफान के कारण आने इन पर्व तिथियों में चन्द्र, सूर्य और वाले मानसिक तूफान, आवेश एवं पृथ्वी एक सीधी रेखा में होने से जिस विक्षिप्तता से अप्रभावित रहा जा प्रकार समुद्र में तीव्र आड़ोलन होने से सके। भारी ज्वार-भाटा आता है, उसी प्र.499.स्वास्थ्य के संदर्भ में भी जानकारी प्रकार मानव मन एवं भावनाएँ भी दीजिये? अत्यधिक आंदोलित होती हैं। उ. संयमित व संतुलित भोजन स्वास्थ्य मस्तिष्क एवं स्नायुतन्त्र भी प्रभावित का कारण है। यदि स्वास्थ्य ठीक होते हैं। होगा तो प्रभु भक्ति, स्वाध्याय आदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि . मोक्षानुष्ठान भी सध सकेंगे। मानव शरीर में 70 प्रतिशत जलीय स्वास्थ्य के सन्दर्भ में कहा गया हैतत्त्व है और इन दिनों में मानसिक पेट नरम पांव गरम, सिर को राखो ठंडा / स्थिति में असंतुलन होने से व्यक्ति फिर आवे वैद्यराज तो, उसको मारो डण्डा।। शीघ्र ही क्रोध, तनाव, चिन्ता, बेचैनी, इसका अर्थ है कि जिसका पेट नरम, उद्वेग से भर जाता है। यह तो पाँव गरम. और दिमाग ठण्डा, प्रमाणित हो ही चुका है कि रोगी इन सन्तुलित रहता है, उसको दिनों में विशेष रूप से परेशानी झेलता चिकित्सक की आवश्यकता नहीं
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________________ होती है। अन्यथा अभक्ष्य, मछली का रस, अण्डे आदि पदार्थों वाली दवाईयाँ लेनी पड़ती हैं। अधिक मात्रा में भोजन करने वालों के लिये किसी ने बहुत खूब कहा है-तुम एक तिहाई स्वयं के लिये और दो तिहाई डॉक्टर के लिये खाते हो। स्वास्थ्य लाभ हेतु चिन्तनीयकरणीय बिंदु(1)पन्द्रह दिनों में एक उपवास अथवा दो आयंबिल करें। इससे मन निर्मल रहता है, विकार शान्त हो जाते हैं तथा काया निरोगी रहती है। (2)तप के पूर्व एवं पश्चात् दिनों में गरिष्ठ, नमकीन आहार न ले एवं अत्यधिक मात्रा में आहार न करें। जिस प्रकार मशीन को बीच-बीच में आराम दिया जाता है, वैसे ही पाचन तन्त्र को भी आराम देना चाहिये। (3)हर समय पशु की भाँति मुँह नहीं चलाना चाहिये अन्यथा काया पर रोग, मोटापा, डाइबीटिज आदि की काली छाया मण्डराने लगती है। शारीरिक दीप्ति, तेजस्विता और सौन्दर्य अल्पकाल में समाप्तप्रायः हो जाते हैं। (4)भूख लगने पर खाने से भोजन अमृत रूप बनता है, बिना भूख वह विष समान कहा गया है, इस बात का ध्यान रखे। (5)भोजन को पचाने की मशीन जठराग्नि को अल्प श्रम करना पड़े अतः स्वास्थ्य विज्ञान का सिद्धान्त है कि चबा-चबा कर एवं भूख से थोड़ा कम खाना चाहिये। (6)शोक, भय, तनाव, थकान, क्रोध की स्थिति में आहार करना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। (7)स्वाद के कारण अति भोजन करना अनुचित है। पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन भी उपयुक्त मात्रा में ही लेने का स्वास्थ्य मनीषियों का सिद्धान्त है। (8)अनन्तकाय, अभक्ष्य, बासी, बाजार के पदार्थों का त्याग करें। (9)मांस, मदिरा, शहद, मक्खन, अंडा आदि पदार्थ इन्सान को शैतान बना देते हैं, अतः इनका वर्जन धर्म एवं स्वास्थ्य, दोनों अपेक्षाओं से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। (10) जल-पान अजीर्ण होने पर औषधि का, पच जाने पर स्वस्थता का, भोजन के मध्य अमृत का, भोजन के तुरन्त प्रारम्भ में बलहीनता का एवं भोजन के तुरन्त बाद बीमारी का कारण बनता है।
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________________ अभक्ष्य का भक्षण : बढे जन्म-मरण प्र.500. अभक्ष्य किसे कहते है? का फल, 8. गूलर का फल, 9. बड का फल, उ. जो खाने/भक्षण करने योग्य न हो, उसे 10. बर्फ, 11. जहर, 12. ओले, 13. कच्ची अभक्ष्य कहते है। इसके बाईस प्रकार कहे गये मिट्टी, 14. बैंगन, 15. बहुबीज, 16. आचार, ___ 17. द्विदल, 18. तुच्छफल, 19. अज्ञात फल, 1. मांस, 2. शहद, 3. मक्खन, 4. मदिरा, 5. 20. रात्रि भोजन, 21. चलित रस, 22. उंबर का फल, 6. कलुबर का फल, 7. पीपल अनन्तकाय / सप्त व्यसन : नरक का द्वार प्र.501.सप्त व्यसन कौनसे हैं? उ.- 1. मांस, 2. मदिरा, 3. जुआं 4. चोरी, 5. वेश्यागमन, 6. परस्त्रीगमन, 7. शिकार / इसके अतिरिक्त गुटखा, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू भी व्यसनों का ही रूप है। प्र.502. मांस त्याज्य क्यों हैं? उ. मरे हुए जीव के मांस में तत्काल उसी रंग के अनंत जीव एवं दृष्टिगोचर न होने वाले त्रस जीव उत्पन्न हो जाते है अतः मांस सर्वथा त्याज्य है। मनुस्मृति में लिखा है कि जीवों को मारने की अनुमति देने वाला, काटने वाला, खरीदने वाला, पकाने परोसने एवं खाने वाला, ये सभी पापी और घातक हैं। जो मांस भक्षण करता है, वह नरकगामी होता है। इस भव में एवं परभव में दरिद्र, रोगी, अपाहिज, कुष्ठ रोगी, दुर्भागी एवं दुःखी होता है। स्वास्थ्य की अपेक्षा से भी मांस अत्यन्त हानिकारक है। मनुष्य के शरीर की प्रकृति शाहाकार के अनुकूल है। मांसाहार से व्यक्ति हिंसक, क्रोधी, कलही बनता है। केंसर, टी.बी., ब्लडप्रेशर, हृदयाघात, पथरी रोग हो जाते हैं। इस प्रकार आत्मा, मन, वातावरण और परभव, इन सभी दृष्टियों से मांसाहार सर्वथा त्याज्य है। मांसाहार के कारण
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________________ महाशतक श्रावक की पत्नी रेवती वैसे अल्पकालिक तृप्ति होती जाती सातवीं नरक में गयी। केवल है परन्तु जुए की निंद्य, त्याज्य कौएँ के मांस का त्याग करके भी प्रवृत्ति में जीतने से लगातार लोभ वंकचूल देवलोकगामी बना। बढ़ता जाता है और पराजित होने प्र.503. मदिरा नुकसानदायक क्यों है? पर 'अगले दांव में जीतूंगा।' ऐसी उ. मदिरा पान से व्यक्ति की मति आशा में व्यक्ति सब कुछ हार कर बिगड़ जाती है। उसे अच्छे-बुरे का फूटपाथ पर आ जाता है। भान नहीं रहता है। मदिरा में जुआ तो एक ऐसी दुष्प्रवृत्ति है असंख्य त्रस व स्थावर जीवों की जिसके कारण पाण्डवों जैसे उत्पत्ति होने से जीव हिंसा का बुद्धिमंत एवं प्रज्ञाशील महापुरुषों ने महापाप लगता है एवं व्यक्ति का दुर्मतिवश द्रौपदी तक को दांव पर अपयश होता है। लगाया और अन्त में सब कुछ द्वारिका नगरी का विनाश मदिरा हारकर बारह वर्षों तक भिखारी की पान के कारण ही हुआ था। यह भांति घर-घर एवं नगर-नगर दुर्गति में ले जाने वाला आत्मा का भटकते रहे। अतः इहलोक में निंद्य, परमशत्रु है। प्रारंभ में यह भले ही अपयशदायक एवं सुख-साधनों अच्छा लगे, अंततः व्यक्ति को दुःख को नष्ट करने वाले तथा परलोक और पतन के गर्त में गिरा देता है। में नरकादि दुर्गतियों में गिराने वाले किसी ने बहुत ठीक कहा है - त्रिकाल निंद्य द्यूतक्रीडा (जुआ) आज तक जितने लोग पानी में रूपी महाव्यसन का अवश्य त्याग डूबकर नहीं मरे हैं, उससे अनेक करना चाहिये। गुणा लोग शराब की प्याली में दादा जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि, डूबकर मरे हैं। प्रारम्भ में व्यक्ति आदि के सदुपदेश से लाखों परिवारों शराब को पीता है, बाद में शराब ने सप्त व्यसनों का सर्वथा त्याग आदमी को पी जाती है। कर सुन्दर जीवन अपनाया और प्र.504. जुआ त्याज्य क्यों कहा गया? सुख-शान्ति के साधन प्राप्त किये। उ. एक अपेक्षा से जुआ मदिरापान से प्र.505. चोरी का त्याग क्यों करें? अधिक खतरनाक है। जैसे-जैसे उ. 1. चोरी करने से जिनाज्ञा की व्यक्ति मदिरापान करता है, वैसे- अवज्ञा होती है।
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________________ 2. कदाच्- चोरी करते पकड़े जाने अल्पभवों में मोक्ष सुख का उपभोक्ता , पर स्वामी/ राजा का दण्ड बनता है। भुगतना पड़ता है और काराग्रह, ध्यान रहे, चोरी करने व करवाने देशनिकाला/फांसी पर्यन्त वाला, चोर के साथ मंत्रणा करने सजा मिलती है। वाला, चोरी का भेद जानने 3. कुल का अपयश, समाज में वाला, चोरी की वस्तु लेने वाला, अविश्वसनीयता और स्वयं की चोर को भोजन एवं आश्रय देने निंदा होने से क्रोधादि कषायों वाला भी चोर ही कहलाता है। को खुला आमन्त्रण मिलता है, सुज्ञजनों को जरूरी है कि और जीव क्रमशः दुर्गतिगामी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप चोर होता है। बनकर अधोगति के शिकार न 4. चौर्य कर्म से जीव इस भव में बने। कपिल केवली व आर्द्र दरिद्रता, * अंगोपांग छेदन, कुमार के सदुपदेश से पांचदौर्भाग्य, दासत्व जैसे भयंकर पांच सौ चोर दीक्षित हुए। इसी दोषों का स्थान बनता. हैं और प्रकार जम्बू कुमार का उपदेश परलोक में अंधा, बहरा, लूला, सुनकर प्रभव एवं उनके पांच सौ मच्छीमार बनता है और चोर दीक्षित हुए और मोक्षधाम लाखों - करोड़ों भवों तक के सन्निकट पहुंचे। दुःखों को भोगता है। प्र.506. वेश्यागमन, परस्त्रीगमन एवं इस व्रत की प्रशंसा करते हुए शिकार को घृणित क्यों बताया महर्षि कहते हैं - अचौर्यव्रत गया है? . धारक का न्यायोपार्जित धन उ. 1. वेश्यागमन - यह दोषों का घर- बाहर, खेत-खलिहान, सरदार है। इसकी छाया तो दृष्टि जंगल- पर्वत आदि में चोर, विष सर्प से भी करोड़ों गुणा शस्त्रादि किसी भी प्रकार से भयंकर है। इस महादोष का नष्ट नहीं होता है तथा वह व्रती त्यागकर नंदीषेण मुनि, स्थूलिभद्र क्रमशः सर्वत्र विश्वास, प्रशंसा, आदि मोक्ष मार्ग के यात्री बने। यश, सुख, निर्भयता, स्वर्गीय यह तो सर्वदिशाओं से ईंधन को ऐश्वर्य प्राप्त करता हुआ खाने वाली महाग्नि के समान है, * ********** * 193 ** **
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________________ जो व्यक्ति के समस्त गुणों को भस्मीभूत कर नरक के महासागर में फैंक देती है। इस दोष के कारण सिंह गुफावासी मुनि संयम रत्न का त्याग कर नेपाल तक पहुंचे तो वेश्यागमन का सर्वथा त्याग कर स्थूलिभद्र मुनि चौरासी चौबीसी तक संसार में अमर–प्रशंस्य बने। उनके दृढ सदाचरण से कोशा वेश्या श्राविका बनी। 2.परस्त्रीगमन-स्वदारा संतोषव्रत की प्रशंसा में परमात्मा महावीर की वाणी कहती है जो देइ कणय कोडि, अहवा करेइ कणय जिण भवणं। तस्स न ततिअं पुण्णं, जतियं बंभव्वए धारिए।। करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान करने से अथवा स्वर्णमय जिनमंदिर बनाने में जितना फल मिलता है, उससे ज्यादा फल मात्र निर्मल ब्रह्मचर्य के पालन से मिलता है। जो व्यक्ति त्रियोग व त्रिकरण से परस्त्रीगमन का त्याग करता है, वह सुर, नर, किन्नर से पूजित होता है तथा उत्तम कुल, राज्य, यश, निर्मल कीर्ति व स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता हुआ अल्पकाल में जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। सुदर्शन सेठ ने परनारी का त्याग कर परम यश व सुख को प्राप्त किया तो मात्र राजरानी के भोग का प्रत्याख्यान कर वंकचूल पल्लीपति से स्वर्गपति बना। इस सर्वश्रेष्ठ व्रत से ही सुभद्रा, सीता, द्रौपदी आदि सन्नारियाँ महासती के रूप में जग विख्यात हुई। इस महापाप से जीव को इहभव व परभव में महादुःखों का भाजन बनना पड़ता है। नपुंसक, दुर्भागी, भगंदर रोगी, छेदित गुप्तेन्द्रिय, कदर्थना, अपयश, धननाश से लगाकर महादोष रूप भव बंधनों में पुन:पुनः जन्म एवं मरण प्राप्त करता है। 3. शिकार-निरपराधी पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना करके स्वयं के मन में आनंदित होना। ऐसे दुःखवर्द्धक एवं दुर्गति-दायक महापाप रूप शिकार के कारण ही परमात्मा महावीर के परम भक्त श्रेणिक सम्राट् ने नरक के दुःखों को आमंत्रित किया। अतः ऐसे मन को मलिन, आत्मा को भारीकर्मा एवं काया को रोगी बनाने वाले शिकार का अवश्य ही वर्जन करना चाहिए। चेस भी इसी प्रकार का खेल है। ** * 194 ****************
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________________ शुभ विचारों को नष्ट करने वाले इस प्रकार के मनोरंजन के साधनों से भी बचना चाहिये। प्र.507.आजकल शाकाहारी अण्डे का जोरशोर से प्रचार हो रहा है तो उसका प्रयोग करना उचित है अथवा अनुचित? अंडा किसी पेड़ पर तो लगता नहीं कि उसे शाकाहारी कहा जाये। यह तो भारत की आर्य संस्कृति को खोखली बनाने का षडयंत्र है। अण्डा जन्म से पूर्व जीव की दशा है और उसका भक्षण स्पष्ट रूप से मांसाहार ही है। यह दुर्गति, अधर्म का कारण होने के साथं स्वास्थ्य का भी परम शत्रु है। इसके कारण टी.बी., केंसर आदि रोग हो जाते हैं अतः समझदारी इसी में हैं कि मरते दम तक किसी भी रूप में इसका उपयोग नहीं किया जाये। प्र.508.आजकल युवावर्ग में बीडी, सिगरेट, गुटखे को स्टेण्डर्ड का प्रतीक माना जा रहा है तो क्या उसका प्रयोग हानिकारक नहीं हैं? उ. दिल से दिमाग तक, सिर से पाँव तक और आंत से दांत तक की विकृति और बीमारी के बीज रुप ये व्यसन शुरु में अच्छे लगते हैं पर बाद में जीवन की सबसे बड़ी समस्या बन जाते है। ये व्यसन तन, मन और धन की बरबादी के प्रमुखतम कारण हैं। केंसर, हृदयरोग, सिरदर्द, बी.पी. के जिम्मेदार इन व्यसनों के कारण प्रतिवर्ष हजारों व्यक्ति मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं। तंबाकू के कारण विश्व में प्रतिदिन ग्यारह हजार व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं। बीडी, सिगरेट में निकोटिन जैसे विषैले पदार्थों से धमनियों, आंतों, श्वसन नली में सूजन आ जाती है। मिराज, पानपराग, माणिकचंद आदि गुटखों के कारण मुंह, आंतों की कोमल त्वचा जलकर नष्ट हो जाती है। दांतों का पीलापन, गुर्दे और गले में गांठें, यकृत व हृदय की बीमारी, ये सब गुटखा चबाने के ही घातक परिणाम हैं। 400 प्रकार के केमिकल्स से युक्त गुटखों से शरीर में विटामिन डी की कमी होने से लौह तत्त्व कम हो जाता हैं। यह जानकर जागरूक युवा को फैशन के मायाजाल में न फंसकर व्यसनों का त्याग करना चाहिए।
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________________ द्विदल अर्थात् पापों का दलदल प्र.509.द्विदल किसे कहते है? जीवों की उत्पत्ति होती है। इसके उ. जिसे पीलने पर तेल न निकले, भक्षण से जीव निश्चय ही दुर्गति में जिसके दो समान भाग हो, ऐसे मूंग, जाता है। मोठ, चना, उड़द, मैथी, मटर, मसूर, महाभारत में तो यहाँ तक कहां गया चौला, तुअर, चवला आदि कठोल के है-हे युधिष्ठिर! कच्चे गोरस के साथ कच्चा दही, छाछ खाने से साथ उड़द, मूंग, चने आदि का जिन जीवों की उत्पत्ति होती है, भक्षण करना मांस-भक्षण के उसे द्विदल कहते है। कठोल धान्य समान है। अखण्ड हो, उसकी दाल हो अथवा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह अनुचित आटा हो, वह भी कठोल कहलाता है। है। आयुर्वेद आदि स्वास्थ्य शास्त्रों में खरतरगच्छ की परम्परा में सांगरी को इसे बीमारी एवं अपाचन का कारण भी द्विदल माना गया है। कहा गया है। प्र.510. मूंगफली, काजू, बादाम, पिस्ता प्र.512.भोज्य पदार्थों में द्विदल का ध्यान आदि के भी दो टुकड़े होते हैं तो किस प्रकार रखा जाये? क्या वे द्विदल नहीं कहे जायेंगे? उ. अहिंसक एवं दयालु व्यक्ति को नहीं, वे द्विदल नहीं है क्योंकि तीर्थंकर भोजन बनाते समय ध्यान रखना परमात्मा ने कहा है कि जिसे पीलने चाहिये कि कच्ची छाछ/दही में पर तेल न निकले, वह द्विदल है। बेसन आदि न मिलाये अपितु तीन काजू, बादाम, मूंगफली का तेल बार उबाल आने के उपरान्त ही निकलता है, जिसकी आप सभी को मिलाये। श्रीखण्ड, कच्ची छाछ, दही, जानकारी है ही। आदि के साथ भुजिया, मूंग मोगर की प्र.511.द्विदल खाने में कितना पाप दाल, दही बड़ा, खमण आदि नहीं लगता है? खाना चाहिये। स्वामीवात्सल्य आदि द्विदल में असंख्य (Uncountable) में इस बात का पूरा ध्यान रखना द्वीन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। चाहिये। संबोध प्रकरण में कहा गया है कि विशेष रूप से याद रखे- द्विदल द्विदल युक्त कच्चे गोरस (दूध, दही, भले ही गरम किया हुआ हो परन्तु छाछ) में पंचेन्द्रिय और निगोद के उसके साथ कच्चा गोरस (दही, उ
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________________ छाछ) त्याज्य है। यदि गोरस गर्म सीताफल आदि। ये रस की किया हुआ हो तो द्विदल कच्चा हो या . लालसा को बढाते हैं। पक्का, उसमें चलता है। भोजन की 3. अज्ञातफल- जिस फल के गुण, थाली में भी ध्यान रखे कि दाल, कड़ी रूप- स्वरूप एवं नाम का परिचय आदि की कटोरी में छाछ आदि कच्चा न हो, उसे अज्ञात फल कहते है। गोरस नहीं लेना चाहिये। अज्ञात फल के कारण कभी-कभी प्र.513. परन्तु महाराजश्री! कच्चे दही, प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। छाछ को उबाला जाये तो वह फट जैसा कि वंकचूल के पांच सौ चोरों जाता है, अतः क्या करें? के साथ हुआ था। उ. दही, छाछ में चावल का आटा (एक 4. फूलगोभी- इसके गुच्छों में उसी किलो में 50 ग्राम) डाल देने पर वर्ण के जीव होते हैं, उनकी अथवा कूकर में छाछ/ दही का पात्र जयणा न हो पाने से फूलगोभी रखकर एक सीटी ली जाये तो नहीं त्याज्य है। फटता है। 5. बहुबीज फल - जिस फल में प्र.514.जैन शास्त्रों में बैंगन, फूलगोभी, बहुत बीज हो, ऐसे खसखस, बैंगन तुच्छ फल, अज्ञात फल आदि आदि नहीं खाने चाहिये। त्याज्य क्यों कहे गये हैं? 6. अचार - आम, केर आदि के उ. 1. बैंगन- यह बहुजीव, त्रस जीवों अचार में तीन दिन के बाद से युक्त है तथा उत्तेजक, निश्चय ही जीवोत्पत्ति होने से वे विकारवर्द्धक तथा मन को अभक्ष्य हैं। केरी को धूप में अच्छी तामसिक बनाता है। शास्त्रों में तो तरह सूखाकर बनाया जाये तो वह * 'यहाँ तक कहा गया है कि बैंगन खाने योग्य होता है। खाने के उपरान्त व्यक्ति इतना प्र.515. अनार, टिण्डोरा भी तो बहुबीज बुद्धिभ्रष्ट हो जाता है कि माँ और वाले फल हैं फिर उनका पत्नी का भेद भी विस्मृत कर जाता उपयोग कैसे किया जा सकता है। 2. तुच्छ फल- जिसे खाने से तृप्ति उ. या शक्ति नहीं मिलती है, जिसमें खाने का कम और फैंकने का अधिक हो, उसे तुच्छ फल कहते हैं। जैसे-चणीबोर, पीलू, अनार, टिण्डोरा में बहुत बीज होने पर भी उसमें आन्तरे-आन्तरे में पड (पटल) होते हैं। इस कारण वे एक दूसरे के घात-नाश में कारण नहीं होते हैं जबकि खसखस,
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________________ अंजीर आदि में बीजों के मध्य पड नहीं होने से एक दूसरे के घात के कारण बनते हैं। प्र.516. महाराजश्री ! आप कहते हैं कि जिसमें फेकने का अंश अधिक व खाने का कम होता है, वह फल त्याज्य है परन्तु हम देखते हैं कि इक्षु खण्ड में फेकने योग्य अधिक व उपयोगी पदार्थ कम होता है पर उसका त्याग नहीं किया जाता है एवं पूजन - महापूजन एवं फल पूजा में सीताफल का प्रयोग होता है,यह सब उचित है या अनुचित? उ. जिसमें खाने का कम हो व फेकने का अधिक हो, वह तुच्छ फल है तो जिसे खाने से तृप्ति-शक्ति न मिले एवं स्वाद-लोलुपता को बढ़ावा मिले, वह भी तुच्छ फल ही है। यह सर्वविदित है कि परमात्मा आदिनाथ के चार सौ दिन के तप का पारणा इक्षु रस से हुआ था। यद्यपि इक्षु खण्ड में फेकने का अंश अधिक होता है तथापि अत्यन्त गुणकारी, उपकारी, शक्तिवर्धक एवं तृप्तिदायक होने से इक्षु रस को त्याज्य नहीं कहा गया। आपने दूसरा प्रश्न उठाया कि प्रभु की फल-पूजा एवं महापूजनों में सीताफल का प्रयोग किया जाता है फिर वह अभक्ष्य कैसे हो सकता है ? वास्तविकता तो यह है कि पूजा में सीताफल, चैत्र से आषाढ़ माह तक काजू आदि सूखा मेवा चढ़ाना शास्त्र-विरुद्ध है। अति की कल्पना में व्यक्ति अविधि का * आचरण कर बैठता है। ध्यान रखना, धर्म पदार्थों को चढ़ाने में कम और विधि एवं विवेक में ज्यादा है।
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________________ ‘रात्रि भोजन : दुर्गति का कारण प्र.517.रात्रि भोजन क्यों नहीं करना चाहिये? उ. (i) रात्रि भोजन करने से जिनाज्ञा की अवहेलना होती है। (ii) सूर्यास्त होने के बाद असंख्य सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होने से जीव-हिंसा का महापाप लगता है। (iii)रात्रि भोजन करने वाले परभव में रात्रिभोजी पशु बनते हैं जैसे-सर्प, बिल्ली, उल्लू, कौआ, सुअर आदि। (iv)इससे नरक एवं तिर्यंच गति में जाना पड़ता है। (V)रात्रि भोजन करने वाला प्रतिक्रमण आदि आवश्यक धर्मप्रवृत्तियों से वंचित एवं विमुख हो जाता है। (vi)बर्तनों में भी जीवोत्पत्ति होती है। कदाच् बर्तन बासी रखे जाने से ' उनका भी पाप लगता है। प्र.518. रात्रि भोजन के त्याग में क्या कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है ? उ.. हाँ! सूर्य की किरणों का अपना अलग महत्त्व है। ये हमें अनेकानेक रोगों से बचाती हैं। वर्तमान में सूर्य स्नान (Sun-bath) की पद्धति भी प्रचलित है। इसी प्रकार भोजन में भी इनका अपना उपयोग है। (i) हमारे शरीर में दो कमल हैंहृदय एवं नाभि / सूर्य के अस्त होने पर ये संकुचित हो जाते हैं अतः रात्रि भोजन निषिद्ध है। पाचन क्रिया में प्राण वायु (Oxyzen) का अत्यन्त महत्त्व है। रात्रि में सूर्य-प्रकाश का अभाव होने से पाचन प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है, फलतः व्यक्ति बीमार हो जाता है। (ii)भोजन करने के दो-तीन घंटे के बाद शयन किया जाना चाहिये। यह स्वास्थ्यवेत्ताओं का कथन है। रात्रिभोजी यदि जल्दी सोयेंगे तो जल की कमी से स्वास्थ्य खतरे में पड़ जायेगा और देरी से सोयेंगे तो उठना देरी से होगा। परिणामतः बुद्धि, मन और स्वास्थ्य विकृत होंगे और दैनिक चर्या में अनियमितता आएगी। (ii)सूर्य किरणों की कीटाणु प्रति रोधक क्षमता भोजन को शुद्ध एवं
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________________ उपयोगी बनाती है। का प्रकाश होता तो उससे मन्द / (iv)रात्रि में असंख्य जीवों की वर्षा जठराग्नि भी प्रदीप्त हो सकती / होने से एवं विषाक्त जंतु की लार (ii)x-Ray भी सूर्य के प्रकाश में ही आदि मिलने से भोजन विषाक्त हो होता है। जाता है, जिससे मृत्यु तक हो (iii)दिन के प्रकाश में लाईट चालू हो सकती है। तब जीव नहीं आते हैं जबकि रात्रि योग शास्त्र में लिखा है कि खाने को लाईट में प्रत्यक्षतः हम जीव में यदि देखते हैं। अब बताईये कि बिजली (1) चींटी आ जाये तो बुद्धि नष्ट के प्रकाश ने ज़ीवों को बुलाया कि हो जाती है भगाया? (2) जूं से जलोदर हो जाता है (iv)वीतरागी राग-द्वेष से मुक्त होने (3) मक्खी से उल्टी एवं मकड़ी से . से असत्य भाषण नहीं करते हैं। कुष्ठ रोग हो जाता है। (V)सुबह के नाश्ते को Breakfast (4) बाल से स्वर भंग, बिच्छु से तालु भेदन, कांटे से वेदना होती .. कहते है। Break- यानि तोडना। fast यानि उपवास / रात्रि में नहीं है। कदाच विषैला जंतु आ जाये खाया, उस त्याग (उपवास) का तो मृत्यु भी हो जाती है। पारणा करना। प्र.519. भगवान महावीर के समय लाईट प्र.520. क्या जैनेतर शास्त्रों में भी रात्रि नहीं थी, इसलिये रात्रि भोजन का भोजन का निषेध का किया गया मना किया गया है। आज तो लाईट के पर्याप्त प्रकाश में जीव उ. श्री हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में ज्ञान हो जाने से रात्रि भोजन रात्रिभोजी को सिंग एवं पूँछ विहीन करना भला निषिद्ध क्यों? पशु की उपमा दी है। अनेक सूर्य प्रकाश और बिजली के प्रकाश पशु-पक्षी भी रात्रि भोजन नहीं करते को समान नहीं कहा जा सकता है है। इसलिये कहा गया - चिडी कमेडी कागला, रात चुगन न जाय। (i) यदि सूर्य-प्रकाश के तुल्य बिजली हे नरदेही मानवा, रात पड्या क्यों खाय? || उ. क्योंकि
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________________ महाभारत में कहा गया है कि रात में प्र.521.रात्रि भोजन सम्बन्धी चतुर्भंगी खाना मांस खाने के समान एवं - बताओ। पानी पीना खून पीने के समान है। उ. (1)रात में बना भोजन रात में खाना रात्रि भोजी के जप-तप, तीर्थयात्रा, ___ अशुद्ध/निषिद्ध। सब निष्फल जाते हैं। रात्रि भोजन (2)रात में बना भोजन दिन में खाना त्यागी स्वर्ग एवं मोक्ष फल पाते हैं। __ अशुद्ध/निषिद्ध। पद्मपुराण में रात्रि भोजन को नरक (3)दिन में बना भोजन रात में खाना का द्वार कहा गया है। . . __ अशुद्ध/निषिद्ध। रात्रि भोजन त्यागी को एक महीने में (4)दिन में बना भोजन दिन में खाना पंद्रह उपवास का लाभ मिलता है। शुद्ध/स्वीकार्य।
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________________ चलित रस का करें निषेध प्र.522. चलित रस किसे कहते हैं? आदि को लोग फ्रीज में रखकर दूसरे उ. जिन पदार्थों का वर्ण, गंध, रस बदल दिन उपयोग में लेते हैं, जो अत्यन्त गया हो, उन्हें चलित रस कहा जाता लज्जास्पद बात है। यदि पानी में हाथ भिगोकर लड्डू बांधे जाते हैं, तो वे भी इसके तीन प्रकार हैं- 1. रातबासी एक रात के बाद बासी हो जाते हैं। पदार्थ, 2. कुछ दिनों के बाद अभक्ष्य बासी पदार्थों में जीव हिंसा के साथ बनने वाले, 3. कुछ महिनों के बाद बीमारी के भी कारण है, जिसके अभक्ष्य बनने वाले। समाचार आए दिन अखबारों में छपते प्र.523. रात बासी पदार्थ क्यों छोड़ने हैं। धर्म, दया, स्वास्थ्य आदि चाहिये? दृष्टिकोणों से बासी पदार्थ सर्वथा उ. वे पदार्थ, जिनमें पानी का अंश रह त्याज्य है। जाता है, वे बासी पदार्थ कहलाते हैं। विवेकी को बासी भोजन न तो रखना उनमें उसी रंग के लालयक आदि चाहिये, न खाना चाहिये, न गाय असंख्य त्रस जीवों की उत्पत्ति हो आदि को खिलाना चाहिये। जाने से त्याज्य हैं। . प्र.524. महाराजश्री! इडली आदि का रोटी, पूड़ी, डोसा, पराठा, दाल- घोल कितने बजे भिगोया जा चावल, सब प्रकार की सब्जियाँ, सकता है? सुधारे हुए फल, रस, दूध की उ. . शुद्ध शास्त्रीय परम्परानुसार सूर्योदय मिठाईयाँ, गुलाब जामुन, श्रीखण्ड, के उपरान्त तथा अपवाद मार्ग से लापसी, इमरती, मालपुआ आदि नरम प्रकाश हो जाने के पश्चात् / अर्द्धरात्रि मिठाइयाँ, बड़े, समोसे, कोफते में 12 बजे के बाद भिगोया गया घोल इत्यादि नरम नमकीन, ये सब बासी और चना, मोठ आदि सूखी सब्जियाँ होते हैं। होटल-बाजार का खाना तो बासी ही होती हैं। लगभग बासी ही होता है। प्र.525. कुछ दिनों के बाद अभक्ष्य बनने आजकल जैन घरों में गूंथा हुआ वाले पदार्थ कौन-कौन से हैं? आटा, इडली- खमण आदि के घोल उ. सभी प्रकार की सूखी नमकीन, *********** *** 202 *** * ******
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________________ खाखरा, ममरा, खाजा, मुंगरी, मक्की प्र.526. कुछ महिनों बाद त्याज्य पदार्थ के फुले, सांकली, घर के बिस्कुट, कौनसे हैं? बेसन की चक्की, मैसूर पाक आदि उ. सूखा मेवा, हरी पत्ती (धनिया, पदार्थों का कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा से कोथमीर, पत्ता गोभी) छुहारा आदि फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी तक एक का विशेष जीवोत्पत्ति के कारण महिने का काल है। फाल्गुन शुक्ला फाल्गुन सुदि पूनम से कार्तिक सुदि पूर्णिमा से आषाढ शुक्ला चतुर्दशी चतुर्दशी, इन आठ महिनों तक त्याग तक बीस दिन का काल है। चातुर्मास करना चाहिये। में पन्द्रह दिन का काल है। इसके चातुर्मास में पापड़ एवं बड़ी का तथा बाद जीवोत्पत्ति होने की संभावना से आर्द्रा नक्षत्र लगने के साथ आम का तथा उससे बनी वस्तुओं का त्याग त्याग करना चाहिये। करना चाहिये। ***** * 203
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________________ अनन्तकाय का भोजन : अशाता का सर्जन प्र.527.अनन्तकाय किसे कहते है? आदि की सामान्य रक्तवर्णीय कोंपले, उ. जिस एक शरीर में अनन्त जीव रहते जिसे सामान्य तौर पर लोग स्वास्थ्य हैं, उसे अनन्तकाय कहते है। इसे लाभ की दृष्टि से खाते हैं। साधारण वनस्पतिकाय एवं निगोद भी प्र.529.जिनेश्वर परमात्मा ने कंदमूल कहा जाता है। जैसे औषधिरूप छोटी- आदि अनन्तकाय के त्याग का सी गोली में जिस प्रकार सैकड़ों उपदेश क्यों दिया जबकि जीव दवाईयाँ समा जाती हैं, लक्षपाक तेल युक्त भिंडी आदि शार्क एवं फल की प्रत्येक बूंद में लाखों जड़ी-बूटियाँ खा सकते हैं? मिश्रित होती हैं, उसी प्रकार एक उ. जिनेश्वर परमात्मा स्व-ज्ञान से सब शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं। कुछ जानते हैं। उन्होंने केवलज्ञान में प्र.528.अनन्तकाय कितने प्रकार के कहे आलू, प्याज आदि में सुई के नोंक गये हैं? जितने भाग में जो अनन्त जीव देखे उ. यद्यपि संसार में अगणित प्रकार के हैं, उन्हें भी कोई नहीं गिन सकता तो अनन्तकाय हैं तथापि जीवन में विशेष पूरे आलू में कितने जीव होंगे जबकि रूप से काम में आने वाले बत्तीस भिण्डी आदि के जीव गिने जा सकते प्रकार के अनन्तकाय शास्त्रज्ञों ने कहे हैं अतः क्षुधापूर्ति और जीवन निर्वाह हैं-आलू, प्याज, लहसुन, गाजर, यदि अल्प हिंसा से हो सकता है तो शकरकंद, मूली, हरी हल्दी, अदरक फिर उदरपूर्ति के लिये अनन्त जीवों से सभी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त की हिंसा करके भला दुःख रुप जन्म कुछ विशेष रूप से जानने चाहिये एवं मरण का बंधन क्यों करें ! जैसे प्र.530.अनन्तकाय भक्षण से क्या-क्या (1) पालक (2) अंकुरित धान (चना, हानियाँ होती हैं? मूग आदि भिगोने पर जो अंकुरित हो उ. जैन शास्त्रों में ही नहीं, जैनेतर शास्त्रों जाता है, वह भी अनन्तकाय है।) (3) में भी कंदमूल त्याज्य कहा गया है। कुंवारपाठा (4) कोमल पत्ते- नीम कहा गया है जो मूला खाता है, वह ************** 204 *******************
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________________ मांस खाता है और वह घर श्मशान के इन्द्रिय-विषयों पर विजय प्राप्त समान है। करनी चाहिये। मनुस्मृति में पांचवें अध्याय के पांचवें प्र.531.सोंठ की तरह आलू को सूखाने श्लोक में मोक्षकामी एवं सद्गति- पर भी उसके खाने का भला इच्छुक के लिये लहसुन, प्याज, निषेध क्यों? गाजर आदि के भक्षण का निषेध उ. सूखी सौंठ का उपयोग स्वाद-पोषण किया गया है। के लिये नहीं बल्कि दवा के रूप में (1)आलू आदि भक्षण से जीव की किया जाता है। स्वाद लोलुपता बढती है, (1)आप ही बताये। एक व्यक्ति, जो तदनन्तर वह रागवशात् आलू, एक दिन में एक किलो आलू खा प्याज, लहसुन आदि में उत्पन्न सकता है, वह क्या एक किलो सोंठ खा सकता है? नहीं खा होता है और असंख्य-अनन्तभवों तक उसी में जन्म-मरण करके सकेगा। आलू की तरह यदि सोंठ की सब्जी बनती तो अवश्य ही असह्य दुःख प्राप्त करता है। परमात्मा ने निषेध किया होता। (2)अनन्तकाय के भक्षण से जीव को अनन्त जीवों की हिंसा का पाप (2)आलू की चिप्स बनाने से पहले उसका समारंभ करना पडता है लगता है, परिणामतः वह दुर्गति में परन्तु सोंठ, हल्दी आदि स्वयं ही जाता है। सूख जाती है। (3)जीवदया, करूणा, अनुकम्पा जैसे (3)आलू, गाजर आदि को सूखाया शुभ विचार नष्ट होते जाते हैं और जाये तो वे सड जाते हैं परन्तु जीव मोक्ष से दूर होता जाता है। सौंठ, हल्दी में इस प्रकार की (4)बुद्धि, मन आदि तामसिक-हिंसक विकृति नहीं आती। बनते जाते हैं। सन्मति नष्ट हो (4)दवा रूप खाने की अपेक्षा जाती है। स्वाद-आसक्ति का पाप हजारों(5)अशाता वेदनीय कर्म का भयंकर लाखों गुणा अधिक होता है / अतः बंध होता है। इस प्रकार परमात्मा विवेक- बुद्धि को जगाकर आलू की आज्ञानुसार कंदमूलादि का आदि कंदमूलों का निषेध करना सर्वथा वर्जन करके स्वादवृत्ति एवं चाहिये।
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________________ उ. प्र.532. महाराजश्री! वर्तमान में हुए वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा आलू पेड़ पर लगने लगा है, उसका वर्ण टमाटर की भाँति रक्त हो गया है तब तो आलू आदि खा सकते हैं ना? नहीं! क्योंकि जमीन के अन्दर उगने वाली हर चीज त्याज्य है और बाहर उगने वाली ग्राह्य, ऐसा समझना भूल है तथा तत्त्व-ज्ञान का अभाव है। आलू वृक्ष पर लगे अथवा वर्ण बदल जाये फिर भी उसमें जिनोक्त साधारण वनस्पतिकाय के लक्षण पाये जाने पर वह त्याज्य ही है। मूंगफली भूमि में उगती है परन्तु उसमें अनन्तकाय के लक्षण नहीं होने से वह त्याज्य नहीं कही गयी। प्र.533. महाराजश्री! हम कन्दमूल छोड़ना तो चाहते हैं, अनेक बार नियम भी ले चुके हैं पर छूटता नहीं, क्या करें? आप बार-बार कंदमूल के भक्षण से होने वाली हानियों का स्मरण करें तथा जीव-करूणा के भावों को प्रोत्साहित करें। सोचे कि जीभ का स्वाद पल दो पल का है, नरक, तिर्यंच आदि की वेदना हजारोंलाखों-करोड़ों- अरबों वर्षों की! इससे परभव में न तो जैन धर्म मिलेगा, न मनुष्य या देव का भव / जब स्पर्श करने से ही उन्हें भयंकर वेदना होती है तो फिर उन्हें कच्चा खाने या अग्नि में पकाने, छिलने, काटने से कितनी वेदना होती होगी, यह पुनः पुनः चिन्तन करके छोड़ने का संकल्प तथा साहस करें तो जरूर त्याग होगा। हमेशा खाने वाले को कुछ दिन अटपटा लगेगा तथा भोजन में नीरसता प्रतीत होगी पर शनैः शनैः आप इस समस्या से उबर जायेंगे। तब आपको स्वयं ही प्रतीत होगा कि कन्दमूल छोडकर मैंने आत्म–हित का जो कदम उठाया है, वह निश्चित ही मेरे लिये अभिनन्दनीय है। तब आपकी प्रसन्नता तथा शाता क्रमशः बढती जायेगी। *************** 206 **** ******* **
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________________ - मजेदार (?) पदार्थों का परिहार प्र.534.आईसक्रीम क्यों नहीं खानी स्वर नली में सूजन, खांसी, कफ चाहिये? आदि रोग हो जाते हैं। इसलिये उ. सुई जितने बर्फ के अंश पर असंख्य आरोग्य लाभार्थ चिकित्सक भी बर्फ, जीव होते हैं अतः उनकी विराधना का आईसक्रीम के त्याग की सलाह देते हैं। पाप लगता है। बाजार की बर्फ अभक्ष्य होने के साथ-साथ आईसक्रीम में गाय, भैंस की हड्डियों स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाता है। का चूर्ण एवं चर्बी मिलायी जाती है। यह पाचन शक्ति को मंद करता है। बासी, बिना छने दूध का प्रयोग होने अनेक रोगों की उत्पत्ति में बर्फ बीज से त्रस जीवों के भक्षण का महापाप का काम करता है। लगता है। धर्म की दृष्टि से भी यह सर्वथा त्याज्य प्र.535. क्या आईसक्रीम शरीर पर भी बुरा / है। यह जिसमें गिरता है, उसमें रहे प्रभाव डालती है? . हुए त्रस-स्थावर जीवों को नष्ट कर उ. हाँ! बाजार की वेनिला, चोकोबार, डालता है। वाडीलाल, सॉफ्टी, मेंगो बार, किंग प्र.536.क्या घर की बनी आईसक्रीम खा कोन, कारनेटो आदि में स्ट्राबेरी, सकते हैं? केला, मेवा, खजूर, पायनेपल आदि उ. बाजार की आईसक्रीम तो सर्वथा का स्वाद लाने के लिये डीथिल, त्याज्य है। घर की आईसक्रीम फ्रीज एल्डीहाइड्सी, आर्टिफिशियल में बनती है इसलिये अभक्ष्य एवं स्वीटनर्स आदि रासायनिक त्याज्य है। पदार्थ मिलाये जाते हैं जो कि स्वास्थ्य प्र.537.महाराजश्री! जब बर्फ और पानी, के लिये अत्यन्त हानिकारक एवं दोनों में असंख्य जीव कहे गये हैं, केंसर उत्पादक तत्त्व कहे गये हैं। तो फिर एक भक्ष्य और दूसरा ये पदार्थ आंतों को हानि पहुंचाते हैं। अभक्ष्य क्यों? पाचन क्रिया को असंतुलित करते हैं। उ. 1. पानी का उपयोग जीवन की मजबूरी है इससे अजीर्ण, टॉन्सिल्स, अन्ननली जबकि बर्फ के बिना भी जीवन निर्वाह - एवं * * * ***** 207 *** ***** *
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________________ शक्य है। फिर भी पानी के उपयोग में बार-वन, मिल्की-बार, किटकेट, विवेक की जरूरत तोरहती ही है। पर्क, मंच आदि चोकलेटो में एवं 2. बर्फ स्वाद-पोषण में प्रबल निमित्त बोर्नविटा में स्वाद बढाने के लिए हैअतः जीव दुर्गति का पात्र बनता है। चोको पाउडर. (Choco powder) 3. स्वास्थ्य की अपेक्षा से भी बर्फ मिलाया जाता है। इस पदार्थ में सूक्ष्म नुकसानकारक है। अण्डाणु रहते है, जो उच्च तापमान 4. बर्फ अन्य जीवों का भी घात करता पर भी जीवित रहते हैं और समय आने पर निषेचित होकर इल्ली आदि प्र.538. चॉकलेट खाने का भी आप निषेध में परिवर्तित हो जाते हैं, अतः करते हैं, पर क्यों? चोकलेट का त्याग अवश्य ही करना उ. चॉकलेट एवं च्युइंगम में अंडे का रस, चाहिये। चर्बी, हड्डियों का पाउडर, शहद, प्र.539. परन्तु महाराजश्री! हमने तो कभी मक्खन आता है। भी चोकलेट में इल्ली नहीं देखी? इनमें निकेल नामक धातु होने से उ. यदि उस डेरी मिल्क आदि चाकलेट केंसर हो सकता है। चर्म, दंत एवं जिनमें Choco powder मिलाया जाता यकृत सम्बन्धी रोग होते हैं। यह है, उन्हें यदि धूप में खुला रख दिया दिमाग पर विपरीत प्रभाव डालता है, जाये तो अनुकूल वातावरण मिलते ही विशेष-सिंह, हाथी, घोड़े आकार उसमें रहे हुए सूक्ष्म अण्डाणु इल्लियों में वाली गोलियाँ खाने से बच्चों में हिंसा परिवर्तित हो जाते हैं। कई बार आपने के संस्कार पड़ते हैं। फिर वे 'मैंने देखा होगा कि चोकलेट का चूरा-चूरा हाथी खाया, शेर खाया' इस प्रकार हो जाता है, उसमें भी जीवोत्पत्ति ही की गलत भाषा का उच्चारण करते कारण है। वहाँ जीव इसलिये दृष्टिगत हैं। नहीं होते क्योंकि वे अन्दर ही अन्दर बाजार में बिकने वाले बिस्कुट में अंडों मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। का रस, गाय की चर्बी, जीव युक्त प्र.540. क्या शीत पेय (Cold Drinks) भी मैदा आदि का प्रयोग होने से बिल्कुल छोड़ने योग्य हैं? त्याग करने योग्य हैं। उ. पेप्सी, कोका कोला, थम्स अप, एक्लेयर्स, डेरी मिल्क, फाईव स्टार, लिम्का, फ्रूटी, स्लाइस आदि में
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________________ एसिड, केमिकल्स, वेनिला फ्लेवर ब्रेड, पाव आदि में त्रस जीवों की आता है, जिससे शरीर में केल्शियम उत्पत्ति होने से त्याज्य है। की कमी होने से हड्डियाँ कमजोर हो होटल का खाने से शरीर बीमार होता जाती हैं और घुटने आदि है, बुद्धि विकृत होती है, धर्म बदनाम संधि - स्थानों में दर्द शुरू हो होता है, स्वाद लोलुपता में वृद्धि जाता हैं। होती है, इसलिए संतपुरूष हमेशा शीत पेय से लीवर के रोग, आंत सम्बन्धी कहते हैं कि Hotel अर्थात् हो सके तो केंसर आदि शारीरिक रोग एवं टल वरना Home to Hotel, Hotel to चिड़चिड़ापन, आवेश आदि मानसिक Hospital. होटल में निम्न जाति के रोग हो जाते हैं। इसमें लोगों के द्वारा झूठे बर्तनों में जैन एवं अनछना, गंदा पानी होने से शीत पेय संस्कारी व्यक्ति कदापि भोजन नहीं पदार्थों को जीभ से दूर रखना चाहिये। कर सकते। प्र.541.महाराजश्री! आप हमें होटल जाने प्र.542.ब्रेड आदि क्यों नहीं खाने के लिये मना करते . हैं पर चाहिये? आजकल होटल में जैन भोजन उ. 1. ब्रेड मेंदे से और मेंदा गेहूं से बनता भी मिलता है फिर क्यों नहीं है। फ्लोर मिल में महिनों से स्टोक जाये? किए हुए बिना देखे, बीने एवं कीडों उ. लॉरी, होटल में अनछने पानी एवं से युक्त गेहूं को पीसकर मेंदा अनदेखे पदार्थों से बने विविध व्यंजन बनता है। अभक्ष्य होने के साथ-साथ बासी व 2. मेंदा बनाने की तारीख, पेकिंग जीवयुक्त ही होते हैं। केवल आपको थेली पर नहीं लिखी जाती है। आकर्षित करके पैसा कमाने के लिये महिनों पुराने मेंदे में अनगिनत ये लोग वस्तु के आगे 'जैन शब्द जोड लट, इल्ली, कीडे पड जाते हैं अतः देते हैं। जैसे जैन कचोरी, जैन वह खाने योग्य नहीं होता। पावभाजी, जैन डोसा आदि। 3. बेकरी वाले खमीर लाने के लिये तलने का तेल, कडाही, तवा आदि इसमें खट्टा पदार्थ मिलाते हैं बर्तनों में कोई भी अनन्तकाय एवं जिससे इल्ली आदि जीव मर जाते हैं। अभक्ष्य का विवेक नहीं रखता है। उसकी चमक बढाने के लिये
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________________ प्राणीज चर्बी का भी उपयोग किया जाता है। 4. खट्टा पदार्थ मिलाने पर वह मिश्रण फूलता है, जिससे उसमें फंगस की तथा नये त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है। चलित रस बने हुए उस मिश्रण (घोल) को जब ओवन में सेकने के लिये रखते हैं, तब असंख्य सूक्ष्म एवं त्रस जीवों की हिंसा होती है। 5. सेकने पर ब्रेड, पाव में थोड़ा जलीय अंश (भीगापन) रहने पर ऑवन से बाहर निकालते हैं। रात्रि व्यतीत होने पर वह बासी हो जाता है और अनगिनत बेक्टेरिया, त्रस जीव पैदा होते हैं। उनका उपयोग करना यानि दातों तले जीवों का घात करना। इस प्रकार ब्रेड व पाव बनाने से खाने तक की हर प्रक्रिया में जीवों की हिंसा होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण सेवह पाचन क्रिया को अवरूद्ध करता है। पथरी, आंत का केंसर आदि अनेक रोगों की उत्पत्ति का कारण है। भलाऐसा कौन जीव दया प्रेमी होगा जो केवल स्वाद पोषण के लिये मन, आत्मा एवं स्वास्थ्य की पवित्रता को दाँव पर लगाएगा। प्र.543. इसके अतिरिक्त कौन-कौनसे अखाद्य हैं ? इस बारे में भी जानकारी दीजिये। उ. 1. साबुदाना वेफर्स- रतालु नामक जमीकंद कई दिनों तक नालियों में सडता रहता है। उसमें कीड़े, इल्ली आदि जीव उत्पन्न होते हैं, उन्हें पांवों से मसला जाता है जिससे अनन्तकाय और असंख्य त्रस जीव महावेदना को प्राप्त करते हुए मरते हैं। उनकी आह और वेदना से भरा अभक्ष्य साबुदाना सर्वथा वर्ण्य है। 2. इन्स्युलिन के इंजेक्शन- भेंसे के पेन्क्रीयाज नामक ग्लैण्ड से बनते हैं। अतः त्याज्य है। 3. कस्टर्ड पाउडर- फ्रुट सलाद, आईसक्रीम में प्रयुक्त होने वाले - इस पाउडर में अण्डे व उसका रस मिलाया जाता है। 4. फुटेला च्युइंग-गम- इसमें . बीटफेलो (मांस और चर्बी) और हड्डी का पाउडर आता है। 5. नूडल्स (सेव पेकेट) - इसमें अंडे व मूर्गी का रस मिलाया जाता है। 6. आईसक्रीम पाउडर- स्वाद.बढाने वाला, पर आरोग्य नाशक व
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________________ रोगवर्द्धक. इस पाउडर में जिलेटिन, केमिकल्स आदि मिलाये जाते हैं। 7. मेन्टोस- इसमें हड्डी का चूर्ण मिलाया जाता है। 8. जैली - रंग बिरंगी रब्बर जैसी नरम, गीली और उपर शक्कर से युक्त पीपर जिसमें जिलेटिन का प्रयोग होता है। 9. वाइन बिस्किट- इसमें अण्डे का __ रस मिलाया जाता है। प्र.544.आप वरक (वरख) का भी निषेध करते हैं वह भला क्यों?' उ. वरक की निर्माण विधि हिंसा से परिपूर्ण : है। पूना की एक संस्था (Beauty without Cruelty) ने वरक बनाने की विधि का अध्ययन करते हुए बताया है कि वरक निर्माण में पशु के ताजा चमड़े का ही प्रयोग किया जाता है क्योंकि * 'एक दिन का भी पुराना चमडा इसके निर्माण में अयोग्य होता है। जिन पशुओं की चमड़ी मुलायम, नरम है, उनके चमडे का इस हिंसाकारी .. प्रक्रिया में उपयोग किया जाता है। पशुओं की आंतों से झिल्ली अलग करके रसायन के घोल में भिगोकर सूखायी जाती है फिर सूखी झिल्ली के पौच बनाकर उनमें चांदी के पतले टुकडे रखे जाते हैं और लकड़ी के हथोडे से लगभग 5-6 घण्टे तक कूटने से चांदी फैलकर वरक बन जाती है। बैल की आंत का वर्क में विशेष प्रयोग होता है क्योंकि कूटने से भी वह फटती नहीं है। वरक निर्माण में प्रतिवर्ष लगभग 37 लाख 50 हजार पशुओं का वध किया जाता है। वर्क में मांस, अस्थि, लार, मल, बाल आदि हानिकारक तत्व भी पाये जाते हैं जोकि वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा सिद्ध हो चुका है। आजकल नकली वरक भी बनने लगे हैं जिसमें निकल, शीशा, मेंगनीज एल्युमीनियम आदि विषेले पदार्थ पाए गये हैं। स्वास्थ्य विज्ञानानुसार इससे कैंसर आदि घातक बीमारियां होती है। एल्युमिनियम प्रत्यक्षतः स्वास्थ्य के लिये जहर है। मिठाई, फल एवं प्रतिमा की आंगी में वरक का उपयोग करना जिन धर्म एवं दया धर्म के सर्वथा विरूद्ध है। *************** 21] *** *******
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________________ जितनी जयणा, उतनी शाता प्र.545. महाराजश्री! आजकल देख रहे हैं में ही अनेक महारोगों एवं अशाता से कि अल्पवय में ही व्यक्ति केंसर, , . ग्रस्त हो रहा है और भोगोपभोग के बी.पी., कॉलेस्ट्रॉल, हृदयघात आदि बीच भी दुःख और बैचेनी से जी रहा रोगों से ग्रस्त हो जाता है। अच्छी, गरिष्ठ, महंगी स्वास्थ्योपयोगी जैसे जैसे जीवन में यतना आती सामग्री यथोचित मात्रा में लेने पर है, पाप कार्यों में मन पीडित होता है, भी जीवन में शाता, समाधि और वैसे वैसे अशाता का बंध कम और स्वास्थ्य का नितान्त अभाव शाता का बंध अधिक होता जाता है। दृष्टिगत हो रहा है, आखिर . अतः ‘आया तुले पयासु' प्राणियों के इसका कारण क्या है? प्रति आत्मा तुल्य भावना का मंत्र रटते उ. इसका मूल कारण है-जयणा का रहो और 'समया सव्व भएसु' अभाव / शास्त्रों में 'जयणाए धम्मो' समस्त जीवों के प्रति समभाव बनाते जयणा (यतना) को धर्म कहा गया है। हए अप्रमत्त होकर विचरण करो। यदि जीवन में जयणा, विवेक एवं प्र.546.भोजन सम्बन्धी जयणा बताईएँ। उपयोग दृष्टि है तो व्यक्ति पाप कर्म उ. (1)यथासम्भव बाजार की मिठाई, करता हुआ भी अल्पकर्म का बंध समोसे आदि तले हुए पदार्थ, करता है। दशवैकालिक सूत्र में कहा चाट-पकोड़ी, पानी-पतासे आदि गया है का त्याग करना चाहिये क्योंकि जयं चरे जयं चिट्टे, जयं आसे जयं सए। उसमें डाली गयी वस्तुएँ शुद्ध जयं भुजंतो भासंतो, पाव कम्मं न बन्धई।। नहीं होती, उसमें इल्ली, लट आदि जयणा और विवेक पूर्वक चलने, जीवों का समारंभ होता है। इस बोलने, उठने, बैठने, खाने से पाप कर्म कारण उनका भक्षण शरीर, धर्म का बंध नहीं होता है। आज जीवन में एवं आत्मा, तीनों के लिये जयणा का सर्वथा अभाव दृष्टिगत हो हानिकारक बनता है। . रहा है, इस कारण व्यक्ति अल्पकाल . (2)संस्कारों को विकृत बनाने वाली
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________________ एवं जिनमें मांस, अस्थि, रूधिर आदि का उपयोग हुआ हो, ऐसी औषधि का त्याग करना चाहिये। (3)शहद का सर्वथा त्याग करना / चाहिये क्योंकि इससे जीव भारी पापकर्मा बनता है। (4)कालातिक्रम के उपरान्त आचार, मुरब्बा, शर्बत आदि का उपयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि इनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती (5)दूध की भाँति मलाई भी बासी होती है, अतः दो-तीन दिन तक मलाई का संचय नहीं करना चाहिये। (6)जिनके आलू का सर्वथा त्याग है, उन्हें आलू की पपड़ी का भी त्याग करना चाहिये।। (7)आमरस आदि में बर्फ नहीं डालना चाहिये, अन्यथा वह अभक्ष्य कहलाता है। (8)अदरक त्यागी को बाजार की चाय पीने से पहले इस बात की पुष्टि करनी चाहिये कि कहीं वह अदरक मिश्रित तो नहीं है। (9)बंद काजू, मूंगफली आदि का उपयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनमें लट, इल्ली आदि जीवों की संभावना रहती है। (10)आम चूसकर नहीं खाना चाहिये। टमाटर, ककड़ी, सेब आदि फल भी बिना सुधारे नहीं खाने चाहिये क्योंकि उनमें द्वीन्द्रिय आदि जीवों की संभावना रहती हैं। (11) बाजार का बना आंवला, नींबू, मिर्ची का अचार अभक्ष्य होने से सुश्रावक के लिये त्याज्य कहा गया है। (12) लीलोतरी के त्यागी को ध्यान रखना चाहिये कि अमरूद, आम, केला भी लीलोतरी ही है। (13) नियमधारी के लिये फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा से आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी तक केवल बादाम ही काम आती है। चातुर्मास में पहले दिन की फोडी हुई बादाम दूसरे दिन त्याज्य है और सिक जाने पर वह सात दिन तक ग्राह्य है। (14) साबुदाने का निर्माण हिंसापूर्वक होने से उसका जिनाज्ञा पालक को त्याग करना चाहिये। (15) रात्रि बीतने के साथ मावा बासी हो जाता है। घी में अच्छी तरह सेक लेने पर बासी नहीं माना गया है। (16) नींबू के सत का उपयोग श्रावक __को नहीं करना चाहिये क्योंकि
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________________ इसके निर्माण में अत्यन्त हिंसा होती है। (17) छाछ में रहा हुआ मक्खन ही भक्ष्य होता है। छाछ से अलग करते ही उसमें जीवोत्पत्ति शुरू हो जाती है और छाछ से अलग हुए मक्खन को पुनः छाछ में डालने पर भी वह अभक्ष्य ही कहलाता है। (18) प्रातःकाल में जमाया दही सतरह प्रहर तक और शाम को जमाया दही बारह प्रहर तक भक्ष्य होता है। (19) सब्जी और फल सुधारते समय टी.वी., गपशप आदि का त्याग करना चाहिये ताकि जयणा धर्म का पालन हो। (20) कच्ची अनार, सलाद आदि सचित्त पदार्थों का एकासन, बियासन की तपस्या में त्याग करना चाहिये। (21)जयणा का अभाव होने से रात्रि या अंधेरे में भोजन नहीं बनाना चाहिये। . .. (22) साथ मिल-बैठकर एक थाली में ___नहीं खाना चाहिये। (23) पापड़ के लोए दूसरे दिन बासी होते हैं। ****** ** 214 ** *
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________________ जैन जीवन मीमांसा 1. बने हमारा जीवन...खुशियों का मधुबन 2. समझ का उपयोग : शान्ति के प्रयोग 3. नीति-न्याय से करे व्यवसाय 4. कैसा हो घर-गाँव हमारा? 5.कैसे बने मृत्यु महोत्सव ?
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________________ बने हमारा जीवन... खुशियों का मधुबन प्र.547.महाराजश्री! जीवन को ऊँचा एक घण्टा निकालकर एक दिन उठाने के लिये मुख्य रूप से किस अमेरिका का प्रसिद्ध गणितज्ञ बना। बात पर ध्यान देना चाहिये? जितनी देर में कॉफी बनती है, उतने उ. इसके लिये दो बातें जरूरी है-एक समय में दार्शनिक लांगफेलो ने -समय का सदुपयोग, दूसरा- मित्र- 'इनफरनो' ग्रन्थ का अनुवाद कर परिवार। दिया। कोई भी व्यक्ति जनप्रिय एवं महान् देरी से रेल्वे स्टेशन पहुँचने वाला Train बना है तो उसका मुख्य कारण समय चुक जाता है, देरी से पॉस्ट ऑफिस का सदुपयोग ही है। पहुँचने वाला Mail खो देता है, विलम्ब परमात्मा महावीर ने समय की महत्ता से स्कूल पहुंचने वाला Lesson चुक बताते हुए कहा जाता है अतः समय के साथ चलो, (i) काले कालं समायरे-समय पर व्यर्थ की बातों में समय न गवाओं। हर कार्य को संपादित करो / Time Management करने वाला ही (ii) समयं गोयम! मा पमायए- Life Management कर सकता है। गौतम (जीव) ! पल मात्र भी प्रमाद प्र.548. परन्तु महाराजश्री! यह भी तो मत कर। . बताईये कि समय का सदुपयोग समय नहीं बल्कि समय को बीताने कैसे करें? . का ढंग महत्वपूर्ण है। यदि कोई उ. कॉमिक्स, दूरदर्शन, गपशप, उपन्यास, व्यक्ति समय को पॉकेट-मनी की अखबार आदि में समय गंवाने की भाँति जैसे तैसे खर्च करता है तो अपेक्षा अधिकतम समय धर्म, अध्यात्म वह व्यक्ति कभी भी समय का मालिक और संस्कारों से समृद्ध पुस्तकों के नहीं बन सकता है। हर महापुरुष ने स्वाध्याय में देना चाहिये। इसके लिये समय को गंगा का प्रवाह माना है जो तीर्थंकर एवं पूर्वाचार्यों के निरन्तर अविराम बह रहा है। जीवन-चरित्र, तत्त्वज्ञान एवं अच्छे चार्ल्स फास्ट मोची था पर प्रतिदिन रूपकों से युक्त, आत्मविश्वास व
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________________ 4 युक्त दुर्जन का संग त्याज्य है। चोरों के साथ रहने वाला चोरी नहीं करने पर भी पकड़ा जाता है और सजा प्राप्त करता है। मित्र ऐसे नहीं हो कि पंछी की भाँति दाना चुगे और पानी पीकर उड जाये। मित्र तो मछली के जैसे हो, जो जल के अभाव में नहीं जी सकती है। अतः सच्चा मित्र वही है, जो प्रतिकूल एवं दुःखद स्थिति में भी साथ नहीं छोड़ता है एवं . साहस, संकल्प, विश्वास एवं धैर्य को बढ़ाता साहस बढ़ाने वाली, मुसीबत में माँ की भाँति प्रेम-वात्सल्य एवं धैर्य की शिक्षा देने वाली पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिये। इसके साथ अनाथ, गरीब, साधर्मिक, दुःखी एवं वृद्ध लोगों की सेवा व सहयोग में समय का सदुपयोग किया जा सकता है। आस-पास रहने वाले बालकों को सुन्दर कथाएँ, प्रेरणास्पद प्रसंग सुनाकर उन्हें जीवन की शिक्षा भी दी जा / सकती है। कलाई पर बंधी घड़ी समय ही नहीं बताती, समय के साथ चलने की प्रेरणा भी देती है। जो व्यक्ति अचेत रहता हुआ समय पर उसका सदुपयोग नहीं करता है, वह उस कृषक की भाँति पश्चात्ताप करता है जो चिड़िया के खेत चुग जाने के बाद सजग होता है। . प्र.549.संगति का महत्त्व क्यों कहा गया है? उ. बताईये! एक टोकरी में रखे हुए पाँच आमों में से सड़ा हुआ एक आम क्या सारे आमों को खराब नहीं करता है? अवश्य करता है। इसी प्रकार दुर्जन की संगति कदापि नहीं करनी चाहिये / शास्त्रों में कहा गया हैदुर्जनः परिहर्त्तव्यः, विद्याऽलंकृतोऽपि सन्। मणिना भूषितः सर्पः, किंसः नास्तिभयंकरः / / मणि से विभूषित सर्प की तरह विद्या ****** ******** 218 जिनधर्म के प्रति श्रद्धावान्, शीलवान्, तत्त्वज्ञ, दुःख में भी धर्म को नहीं छोड़ने वालों एव कल्याण मित्र की 'भांति निष्काम–निःस्वार्थ सहायता करने वालों का हमेशा सत्संग करना चाहिये। अभयकुमार ने आर्द्रकुमार को धर्म की राह दिखाकर दोस्ती निभाई। श्रीकृष्ण ने सुदामा को गले लगाकर संदेश दिया कि गरीब दोस्त का भी साथ निभाओ। महापुरुषों ने सत्संग को पारसमणि की उपमा दी है। जिस प्रकार पारसमणि का स्पर्श पाकर लोहा स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार सत्संग पाकर आत्मा परमात्मा बन जाती है। उसके जीवन में स्वर्ग ****************
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________________ उ. उतर आता है। धर्मग्रन्थ, सद्गुरू "और अच्छी पुस्तकों से अच्छा मित्र दिन में दीपक लेकर खोजोगे तो भी मिलना असम्भव ही है। प्र.550 आप जैन-तत्त्व-बोध की बात करते हैं पर यह वर्तमान में कितना प्रासंगिक है? जब तक व्यक्ति को आत्म-दर्शन एवं तत्त्व बोध नहीं होता है, तब तक वह परिस्थितियों से प्रभावित, बेचैन एवं तनावग्रस्त रहता है, यहाँ तक कि आत्म-हत्या कर बैठता है परन्तु जिसने महाश्रमण महावीर के दर्शन को गहराई से समझा है, वह न तो अनुकूलता में फूलता है, न प्रतिकूलता में फटता है। वह हर स्थिति में अप्रभावित रहता है। कदाच तनाव व दुःख उसके पास आ जाये पर वह तुरन्त तात्त्विक समझ से पूर्वकृत कर्मों का फल एवं संसार की भयावहता का चिंतन करके उनसे पीछा छुड़ा लेता है एवं आत्मविश्वास, धैर्य एवं विवेक . का उजाला साथ लेकर अविराम गन्तव्य के प्रति बढ़ता रहता है। प्र.551.विश्व शान्ति की स्थापना में जैन दर्शन की क्या भूमिका हो सकती जैन दर्शन का 'अहिंसा परमो धर्म'' एवं जीओ और जीने दो (Live and Let Live) का सिद्धान्त टूटते घर-परिवार, अशांत राष्ट्र एवं विश्व युद्ध की स्थिति में एक मजबूत नींव एवं पुल का काम कर सकता है। महावीर कहते हैं- शत्रुता से शत्रुता कभी भी समाप्त नहीं हो सकती। यदि कोई पेट्रोल से आग बुझाना चाहे तो यह असम्भव ही है। वैर को प्रेम से. एवं क्रोध को क्षमा से ही जीता जा सकता है। वर्तमान में बढ़ते आतंकवाद, फरेब, हत्या, लूटपाट जैसी समस्याओं का कारण शोषण, अनधिकार, एकाधिकार एवं न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति का अभाव है। जैन दर्शन का अपरिग्रह तत्त्व इच्छाओं के सीमाकरण एवं परिग्रह के अल्पीकरण का उद्घोष करता है। यदि यह तत्त्व जीवन में उतर जाये तो न घर-परिवार में तनाव हो सकता है, न विभिन्न देशों में परस्पर किसी प्रकार का आतंक पनप सकता है।
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________________ समझ का उपयोग...शांति के प्रयोग उ. (1) प्र.552. जीवन में जाने-अनजाने अनेक पाप हो जाते हैं, तो बताईये कि उन अनर्थ पापों से कैसे बचा जा सकता है? (1)सौंदर्य प्रसाधन सामग्री यथा लिपस्टिक, नेल पॉलिश, क्रीम, इत्र इत्यादि के उपयोग से बचना चाहिये। हिंसा से उत्पन्न होने से तथा साढ़े तीन करोड़ रोमों से ली जाने वाली प्राणवायु को अवरूद्ध करने से ये पदार्थ निश्चय ही छोड़ने योग्य हैं। यदि व्यक्ति चेहरे के रंग की बजाय जीवन जीने के ढंग पर एवं आकृति की अपेक्षा प्रकृति (स्व भाव) को सुन्दर बनाने का पुरुषार्थ करे तो प्रेरक, श्रेष्ठ एवं मधुर जिन्दगी जी सकता है। (2)दुकान, मकान में जाले न जम जाये, इस बात का खास ध्यान रखना चाहिये। मकान को सजाने के साथ-साथ मन और चिन्तन को प्रेम, मैत्री और सहृदयता के फूलों से सजाया जाना चाहिये। *** ************ 220 (3)गुलाब, चम्पा, चमेली, मोगरा आदि फूलों को नहीं सूंघना चाहिये क्योंकि उसमें रहने वाले जीव नाक द्वारा मस्तिष्क में प्रवेश करके सिरदर्द आदि के कारण बनते हैं। (4)आने-जाने के मार्ग में गंदगी नहीं __करनी चाहिये। (5) गर्म पानी नहीं परठना (गिराना) ___ चाहिये। (6)फलों के छिलके आदि कचरा यथायोग्य स्थान पर डालना ‘चाहिये। (7)तामसिक, राजसिक एवं गरिष्ठ पदार्थों का अधिकतम परिहार करना चाहिये। (8)दरवाजा, खिडकी आदि खोलने व बंद करने से पूर्व संधि द्वारों की प्रतिलेखना अवश्य करनी चाहिये ताकि जीव हिंसा से बचाव किया . जा सके। (9)बर्तन, गैस-बर्नर आदि का प्रयोग करने से पूर्व उनकी दृष्टि से या पूंजणी से पडिलेहण अवश्य करनी चाहिये। (10) खाली बर्तन, * बाल्टी आदि * *** *
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________________ टेढे-मेढ़े या उल्टे रखने चाहिये ताकि जीव-जंतु उसमें गिरकर मृत्यु और भय को प्राप्त न हो। (11) जिन वस्तुओं के निर्माण में पंचेन्द्रिय की हिंसा होती है, ऐसी पंख वाली पोशाकों, हाथी दांत वगैरह की वस्तुओं को काम में नहीं लेना चाहिये, क्योंकि इससे हिंसा को प्रेरणा मिलती है। (12) सूर्यास्त के बाद विपुल जीवोत्पत्ति होने से अनावश्यक रात्रि भ्रमण से बचना चाहिये। (13) हिंसक जाति को बछड़ा, भैंसा आदि पशु नहीं बेचने चाहिए। (14) मृतक की राख आदि को नदी, तालाब आदि में नहीं डालने चाहिये क्योंकि इससे जल में स्थित अनेक जीव मर .. जाते हैं। जाते हैं। (15) मच्छर, मक्खी आदि को मारने वाली दवा, लक्ष्मणरेखा आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए। (16) नाली, गट्टर आदि में लघुनीति बड़ीनीति नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसमें रहे हुए अनेक त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती है, असंख्य सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति 2028--3-9-2--- --*** 221 होती हैं एंव पर्यावरण प्रदूषण से अनेक आपदाओं को खुला आमंत्रण मिलता है। (17) ईंधन, लकड़ी, गोबर के कंडे देखकर और ठपका देकर जलाने चाहिये ताकि बिच्छु, कंसारी आदि जीवों की हिंसा न हो। (18) तालाब, नदी, कुएँ आदि में कूदकर या अन्दर घुसकर स्नान नहीं करना चाहिये क्योंकि शरीर की गर्मी और पसीने से तथा शरीर के आघात से बहुत से जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। (19) दीपक को खुला नहीं रखना .. चाहिए। उसे जीवों की रक्षा के लिए ढककर रखना चाहिए। (20)धान्य का इतना संग्रह नहीं करना चाहिये कि उपयोग करने से पूर्व उसमें जीवोत्पत्ति होजाये। (21) बुहारी (झाडू) कोमल रखनी चाहिये क्योंकि कठोर झाडू का प्रयोग करने से कोमल जीवों को पीड़ा होती है, कभी-कभी वे जीव मर भी जाते हैं। (22) चूल्हा, चक्की, उखल, रसोईघर में चंदरवा अवश्य बांधना चाहिये ताकि अनावश्यक हिंसा से बच ***** ***** **
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________________ सके। (23) तालाब, नल, वर्षा आदि के बिना माप के पानी में स्नान नहीं करनी चाहिये। (24) एक बार रात्रि-स्नान करने से नगर को जलाने के समान पाप लगता है, अतः रात्रि स्नान का त्याग करना चाहिये। (25) वर्षाभाव में तथा गर्मी-सर्दी का आधिक्य होने पर आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिये क्योंकि यह सब प्रकृति के अधीन हैं और जो व्यवस्था स्वाधीन नहीं हैं, उसके लिये राग-द्वेष करना निरर्थक कर्मबंधन का प्रमुख कारण है / (26) घर, तीर्थस्थान, सराय आदि से निकलते समय अनावश्यक हिंसा से बचने के लिये पंखा, लाईट, नल आदि का जरूर ध्यान रखना चाहिये। (27) गिजर का पानी अनछना होने से उसका उपयोग नहीं करना चाहिये। कूलर का पानी दूसरे दिन बासी होने से उसका वर्जन करना चाहिये। (28) बासी पानी वाले घड़े को छाने हुए पानी से धोने पर भी वह बासी ही कहलाता है अतः प्रतिदिन सूखा हुआ घड़ा ही उपयोग में लेना चाहिये। (29)पानी आदि का घड़ा नित्य बदलना चाहिये अन्यथा उसमें हरीतवर्णी निगोद के जीव उत्पन्न हो सकते हैं। (30) किसी पदार्थ में जीव पड़ जाने पर उसे धूप में नहीं रखना चाहिये। जयणापूर्वक निरवद्य स्थान पर रखना चाहिये। (31) फर्नीचर, पलंग, बिस्तर आदि में खटमल उत्पन्न होने पर उसे डंडे से नहीं झटकना चाहिये तथा धूप में भी नहीं रखना चाहिये क्योंकि इससे जीव हिंसा का पाप लगता है। (32) वाहन चलाते-चलाते मोबाईल से या व्यक्ति से बात नहीं करनी चाहिये क्योंकि ध्यान चलित हो जाने पर स्व-पर के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। (33) किसी भी सावद्य-पापकारी दुकान, मकान, वस्त्र, स्थान, वाहन आदि सांसारिक पदार्थों की अनुमोदना, प्रशंसा एवं प्रेरणा नहीं करनी चाहिये। पाप बंध का यह विशेष कारण है। **************** 222 ****************
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________________ (34) जो चीज जहाँ से उठायी है, पुनः ____ वहीं पर रखनी चाहिये। (35) गुटखा आदि नहीं चबाना चाहिये / यदि आप गुटखा, पान आदि चबाते हैं तो पीक पीकदानी में थूकना चाहिये। लोग स्वयं ही अपनी बिल्डिंग आदि की दीवारों पर, सीढ़ियों पर पीक थूक-थूक कर गंदा करते हैं, यह पढ़े-लिखे मूर्ख की सबसे बड़ी पहचान है। प्र.553. महाराजश्री! आप सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री को भी हिंसक बताते हैं, इसे भी जरा स्पष्ट कीजिए। सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री यथा - लिपिस्टिक, शेम्पु, नेलपॉलिस, सेन्ट, इत्र, क्रीम, साबुन आदि में बेजुबान, निर्दोष, मूक जानवरों की चर्बी, खून, हड्डी का चूर्ण एवं अनेक अवयवों-रसों को मिलाया जाता है। बाजार में आने से पहले उन पदार्थों के भयंकर एवं प्राणलेवा प्रयोग खरगोश, चूहे, बन्दर, चिडियाँ, कोयल आदि प्राणियों पर किये जाते हैं, और कई बार प्रयोगों के दौरान वे जीव मर भी जाते हैं या फिर आंखों की रोशनी खो देते हैं। घण्टों तक तडफते रहते है। साबुन में चर्बी मिलायी जाती है। टूथपेस्ट में अण्डे का रस, हड्डी का पाउडर आदि मिलाते हैं। इन सबके उपयोग से जैन श्रावक, जिसका जीव दया एवं करूणा पहला कर्तव्य है, वह भी जाने-अनजाने उनकी अनुमोदना एवं उपयोग कर बैठता है। माना कि दांतों को साफ करना है तो अनेक अहिंसक आयुर्वेदिक दंतमंजन आज बाजार में उपलब्ध है। सौन्दर्य प्रसाधन से रोम - रोम से हमारे द्वारा ली जाने वाली प्राणवायु के द्वार बंद हो जाते हैं। फलतः व्यक्ति रुग्ण हो जाता है। रोग प्रतिरोधक कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं। जरूरी हैं कि हम अपना निखार गुणों से करें। पदार्थ की खुश्बू कुछ पलों तक पर गुणों की खुश्बू जीवन भर व्यक्ति को सुगंधित, सुरक्षित और सुन्दर बनाये रखती है। उ ** **** ******* 223
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________________ नीति-न्याय से करे व्यवसाय प्र.554.धन का उपार्जन किस प्रकार अच्छा माल दिखाकर गलत माल न करना चाहिये? . देना, कम दाम में सौदा करने के बाद एक जिनाज्ञापालक श्रावक धन का मूल्य बढ़ जाने पर वचन से पीछे नहीं उपार्जन इस प्रकार करता है कि धर्म हटना, ये नियम श्रावक को विशेष किसी प्रकार से उपेक्षित न हो। धर्म रूप से ध्यान में रखने चाहिये। को ताक पर रखकर व्यक्ति यदि मुनाफा भी मर्यादा और नीतिमत्ताधनार्जन करता है तो निश्चित रूप से पूर्वक लेना चाहिये। . .. वह श्रावकत्व की गरिमा को खो देता व्यापार में इतना भी उलझना नहीं है। चाहिये कि आप अपने परिवारजनोंप्र.555.धन कमाते समय श्रावक को पुत्र-पुत्री आदि को. समय और किन-किन बातों का ध्यान रखना संस्कार ही न दे पाये। चाहिये? ऐसे धंधे भी नहीं करने चाहिये जो उ. नीति और न्याय से धनार्जन करना परमात्मा के द्वारा निषिद्ध है। चाहिये / इससे प्राप्त द्रव्य स्थिर रहता प्र.556. श्रावक के लिये कौनसे व्यवसाय है एवं सुख-शान्ति का कारण बनता __ परमात्मा महावीर के द्वारा निषिद्ध है। अनीति से व्यक्ति भले ही विशाल राशि का संग्रह कर ले, महल चुन ले उ. जिन व्यापारों में महारंभ-समारंभ परन्तु जीवन में सुखी नहीं हो पाता है (हिंसा) होता है, महालोभ का पोषण क्योंकि अन्याय की आय हजार रोग होता है और जिनके कारण जीव एवं जीवन भर की अशांति साथ लेकर नरक आदि दुर्गतियों मे जाता है, उन आती है। पन्द्रह व्यापारों का प्रभु ने निषेध किया माल में मिलावट न करें, झूठ का है। उन्हें पन्द्रह कर्मादान के रूप में सहारा न ले, क्योंकि प्रामाणिकता जाना जाता हैऔर प्रतिष्ठा जीवन की सर्वोत्तम 1. इंगाल कर्म- कुंभकार, स्वर्णकार पूँजी है। __ आदि के कार्य करना तथा चूना, * *** **** * 224 *****
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________________ कोयला, ईट, भट्टी, आदि वस्तुएँ बनाना/बेचना इंगाल कर्म कहलाता है। 2. वन कर्म- पेड़-पौधे, वन आदि लगाने/कटवाने का व्यापार वनकर्म कहलाता है। 3. शकट कर्म- स्कूटर, कार, मोटर, रेल, जहाज, वायुयान आदि अथवा उसके पार्टी बनाना/ बेचना शकट कर्म कहलाता है। 4. भाटक कर्म- जमीन, मकान, वाहन आदि किराये पर देना भाटक कर्म कहलाता है। 5. स्फोटक कर्म- पत्थर, कोयले आदि की खान, कुआँ, बावड़ी, तालाब आदि खुदवाने अथवा खोदने का कार्य करना, बोरिंग कार्य, जमीन तोड़ने/फोड़ने का कार्य स्फोटक कर्म कहलाता है। 6. दंत वाणिज्य- हाथी दांत, रेशम, कस्तूरी, सीप, शंख, सींग, कोडी, बाघ के नाखून, हरिण-बाघादिक के चर्म का व्यापार दंत वाणिज्य कहलाता है। त्रस जीव और उन जीवों के अंगों का व्यापार करना दंत वाणिज्य कहलाता है। .. 7. लक्ष वाणिज्य- लाख, साबुन, * * 225 नील, गोंद, खार, रंग, नमक, मेनसिल आदि का व्यापार करना लक्ष वाणिज्य कहलाता है। 8. रस वाणिज्य- शहद, मक्खन, चर्बी, मांस, मदिरा, दूध, दही, घी, गुड़, तेल, शक्कर आदि का व्यापार करना रस वाणिज्य कहलाता है। 9. केश वाणिज्य- पशु/मनुष्य के बालों का, पशुओं के पंख, चमड़े आदि का व्यापार करना केश वाणिज्य कहलाता है। 10.विष वाणिज्य- अफीम, चरस, गांजा, जहर आदि विषेले पदार्थों का, घातक अस्त्र-शस्त्र (छुरी, तलवार, बंदूक आदि) का व्यापार करना विष वाणिज्य कहलाता है। 11.यंत्रपीलन कर्म- चरखा, मिल, प्रेस, कोल्हू, चक्की, घाणी आदि बनाना, लगाना अथवा औद्योगिक प्लान्ट्स की स्थापना करना यंत्रपीलन कर्म कहलाता है। 12.निलांछन कर्म- बैल, घोड़े आदि पशुओं को नपुंसक बनाना, डाम देना, पूंछ काटना, नाक-कान छेदने/ छिदवाने का कार्य करना निर्लाछन कर्म कहलाता है। 13.दवदान कर्म- जंगल, गाँव, घर, * * *
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________________ गोदाम, खेत में आग लगाना, पॉवर सुगम बनाती हैं। हाऊस चलाना दवदान कर्म (3)विलासी (Luxurious)- वे वस्तुएँ कहलाता है। . जो जीवन में प्रमाद, विलास, अधर्म 14.जलशोषण कर्म- कुआँ, बावड़ी, एवं अनीति को आमंत्रित करती है। बांध, तालाब आदि का जल पहली बात तो यह कि पूर्वकाल में सूखाना, नहर का निर्माण करना पूणिया आदि श्रावक न्याय मार्ग से जलशोषण कर्म कहलाता है। जीवन चलाते ही थे। दूसरी बात 15.असती पोषण कर्म- शिकार कि यदि आप सच्चाई से जीवन निमित्त कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी, तीतर को टटोलेंगे तो पायेंगे कि जीवन आदि का पालन करना, कसाई, में अधिकतर खर्च विलासिता से चमार के साथ व्यापार करना, सम्बन्धित हैं। यदि उन्हें जीवन से आजीविका हेतु से/ शौक के लिये निष्कासित किया जाये तो रोटीवेश्या, कुलटा, जुआरी, चोर का कपड़ा-मकान जैसी न्यूनतम पोषण करना असतीपोषण कर्म आवश्यकताएँ नीति मार्ग से कहलाता है। अवश्य ही पूर्ण की जा सकती है। उपरोक्त पन्द्रह प्रकार के व्यापार 'सादा जीवन उच्च विचार' करने की भगवान महावीर की (Simple Living High Thinking) को आज्ञा नहीं है। यदि. जीवन में स्थान दिया जाये प्र.557. महाराजश्री! यदि न्याय-नीति तो व्यक्ति के पास विलासिता एवं मार्ग से व्यापार करें तो जीवन ऐशोआराम के साधनों की कमी हो चलाना दुभर हो जाता है तो फिर सकती है पर शान्ति और सुख का हमें क्या करना चाहिये? अभाव कभी नहीं हो सकता। उ. वस्तुएँ तीन प्रकार की होती हैं- प्र.558. व्यवसाय में मुख्य रूप से किन (1)आवश्यक - जिनके बिना जीवन गुणों की अपेक्षा होती है ? चलाना ही दुष्कर हो जैसे - उ. अप्रामाणिकता, मिलावट, धोखा, घर, भोजन, कपड़ा आदि। चोरी, महारम्भ वाले व्यापार, अन्याय, (2)अनुकूल- वे चीजें, जो जरुरी तो अनीति, अधर्म, इन सभी पापों के नहीं है परन्तु जीवन यात्रा को सेवन में मुख्य कारण दो हैं - ***************** 226 ****************
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________________ (1) अभिमान (2) लोभ / गन्तव्य स्थल तक नहीं पहुँच (i) समाज के मध्य अपना स्तर सकती, उसी प्रकार धन-साधन (Standard) ऊँचा उठाने के लिये, पर सन्तोष का Break न हो एवं मान-सम्मान की आकांक्षा के प्राप्त धन का समुचित महाचक्रवात में चक्कर लगाता हुआ सदुपयोग न हो तो वह अनर्थ के व्यक्ति अधिकतम पूंजी, वाहन, कूप में गिरा देता है। महल, व्यवसाय का विस्तार करता। हमारे पूर्वज कहा करते थेहै। यह सनातन सत्य है कि व्यक्ति गोधन गजधनवाजिधन,और रतनधन खान। धन-साधन की सुगंध से लोगों को जब आवे सन्तोषधन, सबधनधूलि समान।। आकर्षित कर. सकता है पर कुछ जब व्यक्ति सन्तोष रूपी समय के लिये। बिना गुणों का अलौकिक धन को प्राप्त कर लेता पूंजीपति ऐसा पुष्प है जिसका रूप हैं, तब हजारों स्वर्णमय मेरुपर्वत सुन्दर है पर जिसमें सुरभि नाममात्र भी मिट्टी के समान प्रतीत होते हैं। भी नहीं है। यदि जीवन में संस्कार, असन्तोष और अभिमान आदमी गुण और धर्म को स्थान दिया जाये को इच्छा के कांटों से लहुलुहान तो लक्ष्मीहीन होने पर भी महागुणी करके जीवन को कंटकवन बना पूणिया की तरह यशस्वी, देते हैं। यदि जीवन की चारों आदरणीय और अनुकरणीय जीवन दिशाओं में गुण-आकर्षण, का रचनाकार बन सकता है। विनम्रता, सरलता एवं सन्तोष के (ii) गाड़ी में यदि Break न हो अथवा चार महाद्वार खुल जाये तो जीवन होशियार चालक न हो तो गाड़ी नन्दनवन और वृन्दावन बन जाये।
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________________ कैसा हो घर-गाँव हमारा प्र.559. जैन श्रावक को कैसे गाँव/नगर में निवास करना चाहिये? उ. भारत की अहिंसक संस्कृति और मर्यादापूर्ण जीवन व्यवस्था पर जैसे-जैसे पाश्चात्य संस्कारों एवं आधुनिकता की काली परछायी पड़ने लगी है, वैसे-वैसे विनय, नियम, लोक-लाज, अनुशासन जैसे गुणों का खुले आम कत्ल हो रहा है। फैशन के रंग में रंगी आज की पीढी के लिये आदर्श महावीर, राम और महात्मा गांधी न होकर नेताअभिनेता बन गये हैं, जिनमें न सभ्यता है, न संस्कार एवं चारित्र। पिछले एक दशक में ग्रामीण सभ्यता का जिस गति से ह्रास हुआ है, वह खतरे की लालबत्ती है। पैसा, सत्ता, सम्पत्ति, सुविधाओं के जाल में फंसा व्यक्ति शहर की ओर भागा जा रहा है और संस्कारों की गरिमा को गंवाता जा रहा है। आजीविका आदि कारणों से एक श्रावक को यदि परम्परा से चले आ रहे घर-गाँव को छोड़ना पडे तो वह ********* *** 228 भी कहाँ, किस नगर में रहना? इस प्रश्न पर पचास बार सोचता है। श्राद्ध विधि प्रकरण में कहा गया है कि श्रावक ऐसे नगर में निवास करें, जहाँ जिनमंदिर और पौषधशाला हो, मुनि भगवंतों के चातुर्मास होते हो, विद्वान् एवं सज्जन व्यक्ति बसते हो, जैनी, गुणी एवं संस्कार सम्पन्न लोगों का सानिध्य, मार्गदर्शन प्राप्त होता हो। जीवन निर्वाह के साथ-साथ जीवन निर्माण की भी भरपूर सम्भावनाएँ हो, शील को कोई खतरा न हो, आतंकवादी, चोर एवं फरेबी लोग जहाँ न हो, वहाँ जैन श्रावक को रहना चाहिये। इसी प्रकार.गृह स्थिति के सन्दर्भ में बताते हुए मुनीश्वर कहते हैं कि घर ऐसे स्थान पर हो कि जहाँ उपद्रव न हो अथवा उपद्रव होने पर जीवन सुरक्षा की संभावना हो, निकट ही जिनालय, उपाश्रय हो, मुनि भगवंतों के प्रवचन व तत्त्व श्रवण का पुनः-पुनः लाभ प्राप्त होता हो, सुपात्र दान एवं साधर्मिक भक्ति का लाभ ***** * **** **
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________________ उठाया जा सके तथा पड़ोसी सज्जन, समझदार एवं धर्म प्रेमी हो क्योंकि कहा गया है 'संसर्गजा गुणदोषाः भवन्ति' बुरी संगत से बुरे एवं भली संगत से अच्छे संस्कारों का निर्माण होता है, जैसे आर्द्रकुमार ने अभयकुमार जैसे निस्वार्थ एवं शीलयुक्त मित्र की संगति के फलस्वरूप संयम एवं मोक्ष को प्राप्त किया। प्र.560. घर कैसा होना चाहिए? उ. एक श्रावक अपना घर उपाश्रय को मानता है। वह प्रतिदिन सोचता है कि मेरा जन्म भले ही घर में हुआ पर मृत्यु उपाश्रय में गुरुमुख से धर्म-श्रवण करता हुआ पाऊँगा। मैं सामान्य व्यक्ति की तरह लेटे-लेटे नहीं, साधु की भाँति बैठे-बैठे जाऊंगा। .घर के प्रति मोह हेतु नहीं, जीवन यात्रा में संयम-साधना का अधिकतम संयोग मिले, इस हेतु पूर्वाचार्यों ने हित शिक्षाएं दी हैं- घर ऐसा हो, जिसमें अधिक जीव हिंसा न हो। - फर्श ऐसी न हो कि जिस पर चल रहे छोटे जीव जंतुओं की जयणा / न हो सके। ************** 229 - हवा एवं प्रकाश का पर्याप्त आगमन होना चाहिये ताकि दिन में ट्यूब लाईट एवं पंखे का उपयोग नहीं करना पड़े। - घर के कम से कम दरवाजे हो ताकि चोरादि का भय न रहे। - संगमरमर का पत्थर घुटनों का दर्द बढ़ाता है। संगमरमर का अर्थ ही है- साथ में मारने वाला। - शो-केस में साधु-साध्वी एवं उनके उपकरणों (पात्र, डंडा आदि) की प्रतिकृति रखे ताकि संयम की प्रेरणा मिलती रहे। हिंसक जानवरों के चित्र एवं अस्त्र-शस्त्र (तलवार आदि) दीवारों पर न लगावें। इससे घर में नकारात्मक (Negative) ऊर्जा फैलती है जो कि परिवेश को तनावग्रस्त, बेचैन एवं हिंसक बनाती है। चरित्रहीन नेता-अभिनेता-अभिनेत्री के फोटो न लगावे। इससे वातावरण विकृत एवं विचार दूषित होते हैं। - रसोई गृह एवं डाइनिंग टेबल पर बड़े-बड़े शब्दों में लिखकर बोर्ड *
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________________ रख देवे-जैसे1. रात्रि भोजन यानि नरक ले जाने वाला Highway. . 2. प्राण जाये पर कंदमूल न खाये। 3. अभक्ष्य का करो परिहार। वरना नरक में पड़ेगी मार / / 4. कम खाना, बार-बार नहीं खाना। यह महावीर प्रभु का है फरमाना / / 5. खायेंगे आलू तो बनेंगे भालू / 6. खाओगे यदि गाजर मूली / ___ तो चढ़ोगे दुःख की शूली।। -शयन कक्ष में आर्य स्थूलिभद्र विजय, सेठ एवं विजया सेठानी की प्रतिकृति रखें ताकि चारित्र एवं ब्रह्मचर्य की प्रेरणा मिलती रहे एवं शील की सुगंध बिखरती रहे। प्र.561.परिवार को संस्कारों से समृद्ध कैसे बनाया जावे? उ. परिवार में यदि धर्म व व्यवहार की समझ मिलती रहे तो वह परिवार स्वतः संस्कारों को प्राप्त कर लेता है / इस हेतु निम्न बिन्दुओं को स्मरण में रखें(1)बच्चों में धर्म के बीजों का वपन करना यथा मंदिर-दर्शन व पूजन, गुरु-वंदन, प्रवचन- श्रवण, सामायिक, पूजा, प्रणाम आदि। __ (2)परिवारजनों को समझाकर चार महाविगय एवं सप्त व्यसनों का त्याग करवाना। (3)प्रातःकाल नवकार जाप, भक्तामर, प्रभु-प्रार्थना से मन को सुन्दर एवं निर्मल बनाना। (4)रविवार आदि छुट्टी के दिनों में घुमने, टी.वी., गपशप, ताश आदि मनोरंजन में समय न गंवाकर सामूहिक तत्त्वचर्चा व सामायिक की साधना करें एवं बच्चों को हित शिक्षाएँ दें। (5)बच्चों की दिनचर्या का एवं हाथ खर्ची (Pocket Money) का पूरा ध्यान रखना। (6)टी.वी. के रोग से बच्चों को दूर रखें। केबल; चैनल के कनेक्शन नहीं लेना। ये परिवार की शोभा नहीं बल्कि बरबादी के कारण हैं। टी.वी. यानि पाप की बीवी। यह अकेली कभी भी नहीं आती। अधर्म और अश्लीलता का दहेज साथ में लेकर आती है। टेलीविजन के चामत्कारिक कार्यक्रमों के चक्कर में कितने ही निर्दोष बच्चे मौत के मुँह में पहुँच गये, लड़केलड़की घर से भाग गये, पुत्रों ने पैसे
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________________ की खातिर माँ-बाप को गोली से मार दिया। टी.वी. अर्थात् - जीवन, संस्कार एवं समय की बरबादी का महत्वपूर्ण आलम्बन / - स्वच्छंदता का महारोग फैलाने वाला जहरीला कीटाणु। मर्यादा और अनुशासन की गर्दन को काटने वाला अमोघ शस्त्र। - परस्पर ईर्ष्या, कुटिलता और मनमुटाव को बढाने वाला शकुनि। - बीयर बार, गुटखा, डांसबार, जुआ, क्लब आदि व्यसनों के प्रति आकर्षित करने वाला महाजादूगर। - घर से भागकर बच्चों को विवाह करने की प्रेरणा देने वाला निकट का परिजन। -हास्य, मनोरंजन एवं संस्कारों के नाम पर अश्लीलता एवं फूहडता परोसने वाला शर्मनाक प्रोग्राम / - निकट भविष्य में बच्चों को इंसान से कार्टून बनाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था। - भारतीय एवं जैन संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करके नरक एवं तिर्यंच गति में धकेलने वाला बहुत बड़ा *************** 231 मिशन। - व्यक्ति को आत्मदर्शन, प्रभुदर्शन एवं सम्यग्दर्शन से वंचित करने वाला दूरदर्शन। यदि आप अपना, परिवार का एवं देश का भला चाहते हो तो आज ही टी.वी. को घर से निकाल दीजिये। Remember EverydayT.V. यानि - Time waste - Telentwaste. - Treasure waste. - Teacher of Voilence. (7)व्यापार आदि में इतना व्यस्त न होना कि परिवारजनों को समय ही न दे पाओ। “सम्पत्ति से मूल्यवान् सम्बन्ध और पारस्परिक प्रेम है।" इस तथ्य को सदा ध्यान में रखना। (8)किसी की भी गलती सभी के सामने न कहकर एकान्त में समझाना। (9)किसी पर अविश्वास नहीं करना। संदेह के कारणों की पुष्टि होने तक अनुचित बर्ताव से बचना। (10)अपशब्द * का उच्चारण नहीं करना। आपसी कलह एवं वाद-विवाद से बचना। ****************
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________________ (11) बड़े-बुजुर्गों के प्रति विनय, आदर एवं कृतज्ञता के भाव रखना। उनके आदेश- निर्देश की अवहेलना नहीं करना। (12) परिवारजनों को प्रेम, स्नेह तथा सद्भाव के धागे में पिरोना ।हिल - मिलकर रहने की शिक्षा देना। एक-दूसरे के सुख-दुःख में अपना सुख-दुःखमानना। प्र.562.सुन्दर जीवन जीने के नुस्खे बताईये। ___(1)सभी के साथ मधुर व्यवहार करना। (2)हित, मित एवं प्रिय वचन बोलना / (3)किसी की निंदा नहीं करना / (4)बिना पूछे किसी की चीज नहीं लेना। (5)भेदभाव नहीं करना। (6)सज्जनों की संगति करना। (7)धर्म एवं कुल कलंकित हो, ऐसे कार्यों से बचना। (8)प्रामाणिकता, सत्यवादिता व सरलता से छलकता पारदर्शी व्यवहार अपनाना। (9)गुणीजनों की प्रशंसा करना। (10) साधर्मिक भाई का प्रणाम से तथा अन्यधर्मी का जय-जिनेन्द्र से अभिवादन-बहुमान करना। (11) अपशब्द, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग न करना। (12) समय का पाबंद होना / (13) शांति को जीवन का सर्वोत्तम वैभव मानना / (14) मुसीबत में धैर्य रखना / (15) नकारात्मक सोच से बचना क्योंकि सकारात्मक सोच जीवन को स्वर्ग से सुन्दर बनाती है एवं नकारात्मक सोच नरक से खतरनाक, दर्दनाक बनाती है। (16) किसी के भी अहित का विचार नहीं करना क्योंकि कर पाना व्यक्ति के हाथ में नहीं है पर कर्म बंध हो जाता है। (17) कार्य के परिणाम पर सदा दृष्टि रखना। (18) गलती होने पर तुरन्त स्वीकार करना। (19) परिश्रम को सफलता व सुख की चाबी मानना। ********* ****** 232 ***************
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________________ मृत्यु कैसे बने महोत्सव? उ. प्र.563. मृत्यु किसे कहते है? . उ. आयुष्य कर्म के समाप्त होने पर शरीर से प्राणों का निकलना मृत्यु कहलाती उ. प्र.564. मृत्यु होने पर आत्मा मर जाती है या जीवित रहती है? चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त समस्त दर्शनों में माना गया है कि आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु होती हैं। वह कृत कर्मानुसार अन्य गति, योनि एवं पर्याय को प्राप्त करता है और समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर भगवान बन जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस प्रकार वस्त्र के जीर्ण-शीर्ण होने पर उसे छोडकर नया परिधान धारण किया जाता है वैसे ही शरीर के शक्तिहीन एवं सड-गल जाने पर आत्मा (जीव) उसे छोड़कर नूतन शरीर को धारण करता है। समस्त कर्मों का क्षय होने पर जीव अशरीरी भगवद्-स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। प्र.565. मरण कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. दो प्रकार के (1)बाल मरण-अज्ञानी का मरण / (2)पण्डित मरण- साधु/ज्ञानी का सद्भावना/ समाधि युक्त मरण। इन्हें क्रमशः अकाम और सकाम मरण कहा गया है। प्र.566.बाल मरण कितने प्रकार का कहा गया है? **************** 233 बारह प्रकार का(1)वलय मरण- भूख-प्यास से व्याकुल होकर आर्तध्यान पूर्वक मरना। (2)वशात मरण- इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर मरना। (3)अन्तर्शल्य मरण- मन में कपट रखकर मरना। (4)तद्भव मरण- मनुष्य, तिर्यंच का मरकर पुनः उसी भव में जाना। (5)गिरिपतन मरण- पर्वत से गिरकर मरना। (6)तरूपतन मरण- पेड़ से गिरकर __ मरना। (7)जलप्रवेश मरण-पानी में डूबकर मरना। (8) ज्वलनप्रवेश मरण- अग्नि में जलकर मरना। (9)विषभक्षण मरण- जहर खाकर मरना। (10) शस्त्रावपाटन मरण- शस्त्र से कटकर मरना। (11) वेहाय मरण- फाँसी लगाकर मरना। (12) गृद्धप्रविष्ट मरण- मृत गिद्ध आदि के कलेवर में प्रवेश करके मरना। इस प्रकार बाल मरण के अनेकानेक भेद होते हैं। सांसारिक पदार्थों की आकांक्षा या राग-द्वेष, क्रोध-मानमाया-लोभ, भय, दुःख के वशीभूत *********** *****
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________________ होकर मरना बाल मरण कहलाता है। (5) यदि साधु संत का सुयोग प्राप्त हो। प्र.567.मरते समय प्राण किन रास्तों से तो भोजन, वस्त्र आदि प्रदान निकलते हैं? करना एवं मांगलिक श्रवण करना उ. प्राण निकलने के पाँच रास्ते स्थानांग चाहिये। यथासम्भव कृतपापों का तथा उत्तराध्ययन सत्र में बताये गये हैं प्रायश्चित्त लेना चाहिए। (1)पाँवों से प्राण निकलने वाले नरक (6)पद्मावती आलोयणा का श्रवण में जाते हैं। ___ करना चाहिये। (2)जंघा से प्राण निकलने वाले तिर्यंच (7)दुकान, मकान आदि पापकारी योनि में जाते हैं। स्थानों से आसक्ति हटाकर (3)हृदय से प्राण निकलने वाले मनुष्य अठारह पाप स्थानों को त्रिविध बनते हैं। त्रिविध वोसिराना चाहिये। (4)मस्तक से प्राण निकलने वाले (8)मरते समय परभव में धन-साधन देवलोक में जाते हैं। की इच्छा न करते हुए केवल (5) सम्पूर्ण शरीर से प्राण निकलने जिनशासन, जिनवाणी एवं वाले मोक्षगामी होते हैं। जिनेश्वर प्रभु की शरण की कामना प्र.568. मृत्यु को महोत्सव कैसे बनाया जा करनी चाहिये। सकता है? (9)मन और धड़कन में केवल एक ही जीवन की सम्पूर्ण साधना का सार गाथा गूंजनी चाहियेहै- समाधि/पण्डित मरण को प्राप्त होना। इसके लिये निम्नोक्त तथ्य अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। ध्यान में रखने चाहिये तस्मात् कारुण्य भावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर / / हे प्रभो! जीवन भर मैंने पुत्र-परिवार, (1) मृत्यु के समय मन में संसार और पदार्थों की कोई इच्छा नहीं रखनी सत्ता-सम्पति में शरण मानी परन्तु वे चाहिये। त्राण/रक्षण में असमर्थ हैं। अब मैं (2)पंचपरमेष्ठी और नवकार मंत्र का आपकी शरण को स्वीकार करता हूँ। स्मरण करना चाहिये। आप मेरी रक्षा करें। (3)किसी के प्रति वैर-विरोध, राग (10) पंचपरमेष्ठी, सम्यग्ज्ञान- दर्शनद्वेष के भाव न रखकर सम्पूर्ण चारित्र और तप, इन सर्वोत्कृष्ट सृष्टि के साथ मैत्री, प्रेम और नवपदों का उत्तम निष्काम ध्यान करूणा के निर्मल अध्यवसायों में धरना चाहिये। . डूबकी लगानी चाहिये। (11) श्रावक के बारह व्रत(4)हाथ जोड़कर मन ही मन जीवन स्वीकरण-पूर्वक पाप द्वारों को भर के झूठ, माया, लोभ, हिंसा, अवरूद्ध करना चाहिये। अनैतिकता आदि पापों को याद (12) अन्त में तिविहार अथवा चौविहार करके उनका मिच्छामि दुक्कडं अनशन (संथारा) लेकर आत्मदेना चाहिये। कल्याण साधना चाहिये। **************** 234 ****************
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________________ जैन पर्व मीमांसा - 1. जैन पर्व साधना 2. पर्व तिथि में करणीय एवं अकरणीय 3. त्यौहार कैसे मनाये ?
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________________ जैन पर्व साधना प्र.569. जैन पर्वो के सन्दर्भ में जानकारी दीजिये। उ. (1)कार्तिक सुदि एकम-नूतन वीर संवत् (वर्ष) का प्रारम्भ एवं गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति। इस दिन तप-जप- आराधना आदि करके.गुरुमुख से नववर्ष का सप्त स्मरण, गौतम स्वामी का रास आदि मंगलपाठ सुनने चाहिये। (2) कार्तिक सुदि पंचमी-यह ज्ञान पंचमी का दिन है। इस दिन ज्ञान की आराधना करने से ज्ञान, बुद्धि एवं सौभाग्य में वृद्धि होती है। (3) कार्तिक सु. चतुर्दशी-चातुर्मासिक चतुर्दशी की आराधना / चार महिने के पापों का प्रतिक्रमण। * (4) कार्तिक पूर्णिमा- इस दिन शत्रुजय तीर्थ पर दस करोड मुनि मोक्ष में गये। सिद्धाचल पट्ट के सम्मुख चैत्यवन्दन करके तप आराधना करनी चाहिये। (5) मिगसर सुदि एकादशी-यह दिन मौन एकादशी के रूप में प्रसिद्ध है। 150 कल्याणकों की आराधना के इस महापर्व को उपवास, सम्पूर्ण मौन आदि करना चाहिये। **** ******* 237 (6)पौष वदि दसमी-पाप-ताप सन्ताप नाशक पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म-कल्याणक। (7)माघ वदि त्रयोदशी - मेरु तेरस के रूप में प्रसिद्ध इस दिन आदिनाथ का निर्वाण कल्याणक हुआ था। (8)फाल्गुन सुदि चतुर्दशी -होली चौमासी चौदस की आराधना का पर्व। (9) फाल्गुन वदि अमावस- दादा श्री जिनकुशलसूरि स्वर्गारोहण दिवस / 'ॐ ह्रीं श्री जिनकुशलसूरि सद्गुरूभ्यो ह्रीं नमः' की बीस माला फेरे तथा जप, तप पूर्वक गुरूदेव के कृपापात्र बने। (10) चैत्र वदि अष्टमी-वर्षीतप का प्रारंभ, आदिनाथ प्रभु का जन्म एवं दीक्षा कल्याणक / (11) चैत्र सुदि सप्तमी से पूर्णिमा - शाश्वती ओलीजी की साधना / इन दिनों में नौ दिन शुद्ध आयम्बिल तप करें। गुरू मुख से नवपद की महिमा तथा श्रीपाल मयणा का प्रेरणास्पद कथानक ***** * **
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________________ सुनते हुए पापकर्मों का सर्वथा त्याग करें। इस महान् आराधना से श्रीपाल का कुष्ठ रोग नष्ट हो गया। (12) चैत्र सुदि त्रयोदशी- भगवान महावीर जन्म कल्याणक। (13) चैत्र पूर्णिमा - पाँच करोड़ मुनियों के साथ गणधर पुण्डरीक स्वामी सिद्धाचल तीर्थ पर मोक्ष पधारे। (14) वैशाख सुदि तृतीया-अक्षय तृतीया / वर्षीतप का पारणा। (15) आषाढ़ सुदि एकादशी-दादा श्री जिनदत्तसूरि पुण्यतिथि। जप-तप एवं ध्यान करके दादा का वात्सल्य प्राप्त करें। (16) आषाढ़ सुदि चतुर्दशी- चौमासी चौदस। चातुर्मास प्रारंभ। (17) श्रावण सुदि पंचमी श्री नेमिनाथ जन्म कल्याणक। (18) भाद्रपद सुदि चतुर्थी- संवत्सरी महापर्व / पर्युषण के आठ दिनों में हिंसा, झूठ आदि का सर्वथा त्याग करके स्वकल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। पौषध, उपवास, मौन, जप, स्वाध्याय, प्रवचन श्रवण करें। पापप्रवृत्तियों पर पूर्णतया अंकुश लगाकर आठवें दिन मूल बारसा / सूत्र का सश्रद्धा श्रवण करें। संवत्सरी महाप्रतिक्रमण के पूर्व वर्षभर में कृत पापों की निंदा करते हुए परस्पर क्षमा का आदान-प्रदान करें। (19) आसोज सु.सप्तमी से पूर्णिमा आयंबिल ओली। (20) कार्तिक वदि अमावस- भगवान महावीर निर्वाण कल्याणक/ दीपावली पर्व। **************** 238 ******** * *
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________________ पर्व तिथि में करणीय एवं अकरणीय प्र.570. पर्व किसे कहते है? व्यक्ति विशेष रूप से वस्त्र व उ. पर्व यानि उत्सव, हर्ष का अवसर / आभूषण से सुसज्जित होकर जिन दिनों में आध्यात्मिकता एवं मिष्ठान्न ग्रहण करते हैं, आनंद आनंद में अभिवृद्धि होती है, उसे पर्व मनाते हैं, हर्षित होते हैं, उसी कहते है। प्रकार अलौकिक पर्व दिनों में प्र.571.पर्व कौन-कौनसे कहे गये हैं? विशेषतया धर्म आराधना करनी उ. 1. तिथि-आगमों में छह पर्व चाहिये। तिथियों का कथन किया गया 2. परमात्मा महावीर फरमाते है कि है-(1-2)शुक्ला-कृष्णा अष्टमी इन पर्वतिथियों में विशेषतः (3-4) शुक्ला-कृष्णा चतुर्दशी आयुबंध होता है अतः शुभायु बंध के (5) पूर्णिमा(6) अमावस्या। लिये आराधना की जाती है। वर्तमान में शुक्ल तथा कृष्णपक्ष की / 3. पर्व दिनों में किया गया पाप कई द्वितीया, पंचमी, अष्टमी; एकादशी गुणा अशुभ फल देने वाला है, एवं चतुर्दशी, जो दस पर्व तिथियाँ वैसे ही पुण्य भी उत्कृष्ट एवं शत प्रचलित हैं, उनका कथन गणधर गुणित होकर शुभ फल देता है। प्रवर श्री गौतम स्वामी द्वारा किया 4. जैसे योग्य अनुकूल ऋतु में गया है, ऐसी अनुश्रुति है। बोया गया बीज शीघ्र ही 2. कल्याणक-जिस दिन परमात्मा पल्लवित होता है, वैसे पर्वका कल्याणक हुआ हो, वह भी तिथियों में की गयी आराधना शीघ्र पर्वतिथि है। तथा विशेष फलदायी होती है। 3. अट्ठाई-आश्विन एवं चैत्र आदि 5. यथा उचित समय पर किया गया शाश्वती अट्ठाईयाँ भी पर्व स्वरूप अल्पाहार भी पुष्टि-तुष्टि प्रदायक होता है, उसी प्रकार 4. विविध पर्युषण पर्व, ज्ञान पंचमी, पर्वतिथियों की अल्पाराधना भी मौन एकादशी, चैत्री पूर्णिमा, महान् फल देने वाली होती है। कार्तिक पूर्णिमा आदि भी पर्व प्र.573. पर्व दिनों में क्या-क्या आचरणीय है? दिवस है। उ. 1. पौषधोपवास व्रत की महाराधना प्र.572.पर्वतिथि की महिमा क्यों गायी करना। गयी? 2. पौषध संभव न हो तो राइ-देवसी उ. 1. जिस प्रकार लौकिक पों में ___प्रतिक्रमण, सामायिक, सुपात्र **************** 239 ****************
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________________ दान, स्वाध्याय आदिआराधना करना। 3. यथाशक्ति उपवास आदितप करना। 4. किसी पर्व तिथि को एक कल्याणक हो तो एकासन, दो कल्याणक हो तो नीवी और तीन हो तो आयम्बिल तप की आराधना करनी चाहिए। 5. अधिकतम मौन एवं जाप से आत्मिक ऊर्जा का भण्डार परिपूर्ण रखना। 6. स्नात्रपूजा, मुनि-वन्दना, प्रवचन श्रवण, देव-पूजन करना। 7. ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना। विष्णु पुराण में कहा गया है कि जो पुरुष इन पर्यों में शरीर की शोभा करता है, अब्रह्मचर्य का सेवन करता है, वह नरक में जाता है। मनुस्मृति में तो यहाँ तक कहा गया है कि नित। कामभोग करने वाला ब्राह्मण यदि इन पर्वतिथियों में कामभोग से विरत होता है तो वह नित्य . ब्रह्मचारी कहलाता है। प्र.574.पर्व तिथियों में क्या-क्या नहीं करना चाहिये? उ. 1. पर्वतिथियों में क्रोध-मान- माया लोभादि अवगुणों का सर्वथा त्याग करना चाहिये। 2. इन पावन दिनों में दुर्गतिकारक अनन्तकाय, अभक्ष्य भक्षण एवं रात्रि भोजन का सर्वथा निषेध करें क्योंकि ये सब घोर अशाता वेदनीय बंध, अपंगता, बहरापन, कुष्ठ रोग आदि विघ्नों के प्रमुख कारण हैं। 3. मकान-दुकान का निर्माण, खेती, रंग-रोगान आदि महासावद्यकारी आरंभ- समारंभ का त्याग करना। 4. यद्यपि श्रावक को सर्वदा सचित्त आहार का त्याग करना चाहिए। संभव न हो तो पर्वतिथियों में अवश्यमेव सचित्त का निषेध करना चाहिये। .. 5. स्नान करना, शोभा-विभूषा करना, कपड़े धोना, गाड़ी-हल जोतना, यात्रा करना, अन्न कूटना-पीसना, यंत्र * चलाना, फल-फूलादि तोड़ना, इन सभी का पर्व दिनों में वर्जन करना चाहिये। 6. निंदा, विकथा, चुगली, झूठ, ___ माया आदि को मन से देश निकाला देना चाहिये। 7. मादक पदार्थ यथा अफीम, गांजा, चरस, भांग, तम्बाकु आदि का सर्वथा वर्जन करना एवं बीडी, सिगरेट, हुक्का, गुटखा को देखकर वैसे ही आँखें हटा लेना जैसे तपती दोपहर में सूर्य पर जाती निगाहें तुरन्त हट जाती है। 8. टी.वी., इन्टरनेट, कम्प्यूटर, सिनेमा, पर्यटन, क्रिकेट, हॉकी, ताश आदि पर दृष्टिपात भी नहीं करना चाहिए।
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________________ त्यौहार कैसे मनाएँ? प्र.575.जन्म दिन (Birthday) मनाने की गुरु-वन्दन करके कोई सुन्दर परम्परा क्या उचित है? नियम स्वीकार करें। उ. जन्मदिन चिन्तन का दिन है। यह (2)माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों के चरणों दिन तो बीते एक वर्ष को का स्पर्श करके आशीर्वाद ग्रहण टटोलने का खास दिन है कि मैंने इस करें। एक वर्ष में धर्मकार्य यथा सामायिक, (3)बुरी आदत का त्याग करें। पूजा, प्रतिक्रमण, माला, जाप कितना (4)सुपात्र दान करें। किया? मेरे क्रोध-मान-माया-लोभ (5) दीन-दुःखी की सहायता करें। कितने कम हुए? (6)क्षमा का आदान-प्रदान करें। वर्तमान में जन्म दिन मनाने की जो (7)आत्म-चिन्तन करें। प्रक्रिया चल रही है, वह जैन धर्म से प्र.577.दीपावली किस प्रकार मनानी नितान्त विपरीत है। आर्य संस्कृति में चाहिये? प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ में दीप उ. दीपावली का अर्थ है -दिल में धर्म का प्रज्ज्वलित करके जीवन में संस्कार दीप जलाना। पर आज लोग यह भूल एवं धर्म के प्रकाश की प्रार्थना की / चुके हैं। आतिशबाजी करना यानि जाती है। वर्तमान में दीप बुझाया संस्कृति और प्रकृति का विनाश एवं जाता है तो फिर मन में ज्ञान, संस्कार विकृति को आमंत्रण। और जागरण का प्रकाश कहाँ से आतिशबाजी से वाय एवं अग्नि के आयेगा। जीवों की हिंसा होती है। छोटे-बड़े आप यदि जन्म दिन रात्रि भोजन करके/ जीव, पशु-पक्षी दुःखी होते हैं, कभी करवाकर, केक, चॉकलेट, केडबरी सुलगता पटाखा. झोंपड़ी आदि पर गिर जाता है तो जान और माल, दोनों . आदि अभक्ष्य पदार्थ खाकर/ का नुकसान उठाना पड़ता है। खिलाकर एवं फिल्मी संगीत पर पटाखे बनाने की फैक्ट्री में एवं बेचने थिरककर मनाते हैं तो सावधान! ये की दुकान में आग लगने से अनेक पदार्थ आपकी उम्र और धर्म को लोग मर जाते हैं, उसका पाप भी काटने वाले हैं। .... आतिशबाजी करने वाले को लगता है, प्र.576. तो फिर यदि जन्मदिन मनाना उसके फलस्वरूप नरक में जाना चाहे तो कैसे मनाना चाहिये? पड़ता है। (1)इस दिन सामायिक, प्रभु-पूजा, 694 241
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________________ है। पटाखों पर सरस्वती-लक्ष्मी के चित्र, प्र.579.अन्य त्यौहारों के बारे में भी कागज आदि के जलने से ज्ञान नहीं बताईये। चढता है। उ. (1)होली- होली यानि अश्लील अनन्त जीवों को पीड़ा होने से शरीर शब्दों से मुँह को गंदा करने वाला में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और विकृत त्यौहार! होली जलाने से इसके साथ पैसों की भी बरबादी होती असंख्य निर्दोष जीव मर जाते हैं। इससे व्यक्ति शिष्टाचार-यश अतः प्रिय आत्मन्! पैसों से पटाखे न खोकर निंदनीय पात्र बनता है एवं खरीदकर उन्हीं पैसों से किसी गरीब परभव में दुर्गति में जाता है। की सहायता करना, बीमार को दवाई धुलेटी खेलने से पानी का अपव्यय देना, गरीब मित्र को उपहार देना, होता है, रंग में मिले केमिकल्स ज्ञान की पुस्तकें देना, स्वयं के लिए शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं। अच्छी किताबें खरीद कर ज्ञानार्जन होली सज्जनों एवं धर्मप्रेमियों का उत्सव नहीं है, अब आपको करना, पर पैसों की बरबादी कभी मत सोचना है कि आप सज्जन है या..? करना। (2)विजयादशमी- यह पर्व भीतर में प्र.578. दीपावली की आराधना कैसे करें? रहे दुर्गुण रूपी राक्षस को उ. गुरु महाराज का सानिध्य प्राप्त हो जप-तप की अग्नि में दहन करके तो चतुर्दशी एवं अमावस को गुरुमुख आत्मा को कुंदन की भाँति बनाने से दीपावली का व्याख्यान सुने / की प्रेरणा देता है। यथाशक्ति बेला तप करें। यदि रावण दहन देखने जाते हैं तो अमावस की रात में 6 से 9 तक श्री पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा का पाप महावीर स्वामी नाथाय नमः की, 9 लगता है। , से 12 तक श्री महावीर स्वामी (3)अप्रेल फुल- अप्रेल फुल यानि केवलज्ञानाय नमः की, 12 से 3 तक असत्य भाषण से अपनी जिह्वा श्री महावीर स्वामी पारंगताय को बदनाम करना। इससे चिंता, नमः की तथा 3 से 6 तक श्री गौतम अपघात, हृदयघात, क्लेश, रोनेस्वामी केवलज्ञानाय नमः, इन सभी पीटने से व्यक्ति के बुरे हालात की 20-20 माला फेरनी चाहिये। उत्पन्न हो जाते हैं। अतः अप्रेल तत्पश्चात् प्रातः गुरुमुख से सप्त फुल मनाना है तो सोचना कि 'मैं स्मरण, भक्तामर, बड़ी शान्ति, गौतम स्वयं के अनन्तगुणों को भूलाकर गुरुरास एवं दादागुरु इकतीसा का संसार के झूठे सुख-प्रलोभन में पाठ-जाप करते हुए नये वर्ष में प्रवेश मूर्ख बनता जा रहा हूँ, अब मुझे करना चाहिये। होश में आ जाना है। * 242 ** ** * ***
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________________ जैन इतिहास मीमांसा 1.आत्म-कल्याणी: जिनेश्वर वाणी 2. जिनशासन के चमकते सितारे 3. खरतरगच्छ का स्वर्णिम इतिहास
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________________ आत्म-कल्याणी : जिनेश्वर-वाणी प्र.580. जिनमें परमात्मा महावीर की वाणी उ. पांच भागों में - (1) अंग (2) उपांग गुंफित है, उन जैन शास्त्रों को (3) प्रकीर्णक (4) छेद (5) मूलक्या कहा जाता है? चूलिका। उ. आगम। प्र.584.आगमों की रचना किस प्रकार प्र.581. आगम से क्या अभिप्राय है? होती है? ___ 'आगम' शब्द निर्माण में 'आ' उपसर्ग उ. गणधर भगवंत प्रभु के सम्मुख और 'गम्' धातु है। जिज्ञासा प्रकट करते हैं- भगवं! किं आ यानि पूर्ण! गम यानि जानना, तत्तं? (प्रभो! तत्त्व क्या है?) तब गति, प्राप्ति / जिसके द्वारा पूर्णता की भगवान उन्हें त्रिपदी प्रदान करते हैंप्राप्ति होती है अथवा जो पूर्णता के उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ प्रति गति करवाता है, उन्हें आगम वा। (उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, कहा जाता है। स्थिर रहता है) इस त्रिपदी के माध्यम ग़ग--द्वेष से मुक्त तीर्थंकर को आप्त से गणधर भगवंत अन्तर्मुहूर्त मात्र में पुरूष कहा जाता है और उनकी वाणी अंग आगमों की रचना करते हैं। शेष को आगम कहा जाता है। उपांग, प्रकीर्णक इत्यादि सूत्रों की प्र.582. आगमों का निर्माण किस प्रकार रचना गणधरों के साथ-साथ होता है? श्रुतकेवली, दश पूर्वधर आदि करते आप्त पुरूष निर्दोष, पूर्वापरदोषमुक्त, हैं। प्रमाण रूप वे भी आगम ही कहे सर्वजन कल्याणकारी युक्तिसंगत जाते हैं। अर्थरूप उपदेश फरमाते हैं तथा प्र.585. आगमों की भाषा कौनसी है? गणधर भगवंत उन्हें सूत्रों में ग्रथित उ. आगम अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गये करते हैं। .. हैं। सामान्यतः इसे प्राकृत कहा जाता प्र.583. आगमों को कितने भागों में है। परमात्मा आत्म–हितार्थ अर्द्धमागधी विभक्त किया जा सकता है? में धर्मोपदेश देते हैं। यह भाषा वस्तुतः **************** 245_ ******** ******
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________________ na मागधी तथा अठारह देशों की भाषाओं (6)ज्ञाताधर्मकथांग- इस छठे का मिश्रण होने से इसे अर्द्धमागधी आगम में धर्म कथाओं एवं कहा जाता है। यह भी कहा जाता है उदाहरणों का कथन किया गया कि यह भाषा मगध राज्य के आधे क्षेत्र में प्रचलित होने से अर्द्धमागधी 7)उपासकदशांग- प्रभुवीर के कहलाती है। यह भाषा वीर-काल में आनंद आदि प्रमुख दस श्रावकों जनसामान्य एवं सर्वत्र प्रचलित थी। का विवेचन इस सूत्र में है। प्र.586. अंग आगम कौनसे हैं? (8)अन्तकृत्दशांग- जन्म-मरण उ. बारह अंग आगम कहे गये हैं, जिन्हें की परम्परा का अन्त करने वाले द्वादशांगी कहा जाता है। साधकों का वर्णन इस सूत्र में है। (1)आचारांग- सुधर्मा स्वामी विरचित (9)अनुत्तरौपपातिकदशांग- इस आगम में उन साधकों की विवेचना इस सूत्र में मुख्य रूप से है, जो मृत्यु प्राप्त कर अनुत्तर श्रमणाचार का विवेचन है। विमान में उत्पन्न हुए हैं तथा पुनः (2)सूत्रकृतांग- तीन सौ पैसठ मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्षगामी पाखण्डियों एवं मत-मतान्तरों का होंगे। ... वर्णन इस सूत्र में है। (10) प्रश्नव्याकरण- इस सूत्र में (3)स्थानांग- एक से सौ तक की हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य संख्या वाली चीजें इस आगम में और परिग्रह, इन पंच आश्रवों का कही गयी हैं। एवं उनके संवर का वर्णन है। (4)समवायांग- एक से दस की __(11) विपाक सूत्र- इसमें उदाहरण संख्या वाली बातें इसमें वर्णित है। शैली में कर्म के सुख व दुःख रूप (5)व्याख्या प्रज्ञप्ति- भगवती के फल (विपाक) का वर्णन है। नाम से प्रसिद्ध इस विशाल आगम (12) दृष्टिवाद - यह आगम विच्छेद में जीव, अजीव, पुद्गल, आकाश, को प्राप्त हो चुका है। इसके पांच स्वमत, परमत, लोक, परलोक विभागों में से एक में चौदह पूर्वो आदि शताधिक विषयों से युक्त। का विवेचन था। छत्तीस हजार प्रश्नोत्तर हैं। प्र.587. महाराज श्री ! पूर्वांग साहित्य
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________________ का का विच्छेद कैसे हुआ? नामक उपधि रखने की जिनाज्ञा नहीं भगवान महावीर के निर्वाण के 170 है तथा आगम लेखन तथा उनके वर्षोपरान्त श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु रख-रखाव में जीव हिंसा होने से का स्वर्गवास होने पर अंतिम चार पूर्व संयम दूषित होता है। इन कारणों से अर्थ की दृष्टि से विच्छेद को प्राप्त हो सुविधा होने पर भी लेखन संभव न हो गये। आचार्य स्थूलिभद्र के साथ ये सका। चार पूर्व शब्द से भी विलुप्त हो गये। प्र.589. तो फिर आगम लेखन विधा का वज्रस्वामी तक दस पूर्व, दुर्बलिका प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ? पुष्यमित्र तक नौ पूर्व ही रहे और उ. पूर्व में श्रुति परम्परा थी, साधु क्रमशः देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक पूर्व श्रवणपूर्वक सूत्रों को स्मृति में रखते थे विच्छेद होता रहा। देवर्द्धिगणि स्वयं परन्तु काल-प्रभाव से स्मृति बल क्षीण एक पूर्व के ज्ञाता थे। होता गया तब देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण पूर्व ज्ञान-विच्छेद के कारण ने जिनवाणी सुरक्षा हेतु दूरदर्शिता (1)बारह-बारह वर्षों के भयंकर पूर्वक आगम लेखन का प्रशंस्य/ दुष्काल में अनेक श्रुतकेवली काल स्तुत्य कदम उठाया। - कवलित हो गए। प्र.590. बारह उपांग सूत्रों में किस विषय (2)निर्दोष भिक्षा दुष्कर होने से ज्ञानी की विवेचना की गयी है? साधु अनशन कर स्वर्गवासी बन उ. बारह उपांग आगमगये। .. (1)औपपातिक सूत्र- आचारांग के (3)राजा-महाराजा जैन धर्म-विरोधी इस उपांग सूत्र में देव, नारकी का थे। उनके कारण अनेक विशिष्ट औपपातिक जन्म, मोक्ष आदि का ज्ञानी स्वर्गवासी हो गए। रोमांचक विवेचन है। प्र.588. तो क्या हुआ महाराजश्री! आगमों (2) राजप्रश्नीय सूत्र- सूत्रकृतांग के का लेखन भी तो संभवित था? इस उपांग सूत्र में राजा प्रदेशी को उ. प्रभु महावीर ने लेखन-कला का केशी. गणधर का धर्मबोध, निषेध किया है क्योंकि उससे सूर्याभदेव द्वारा समवसरण रचना, स्वाध्याय में प्रमाद आता है, पुस्तक बत्तीस प्रकार के नाटक इत्यादि **************** 247 ****************
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________________ का वर्णन है। श्रेणिक सम्राट् के काल आदि दस (3)जीवाभिगम सूत्र- स्थानांग का पौत्रों की दीक्षा, तप-साधना, यह उपांग सूत्र जीव, अजीव, ढ़ाई देवलोकगमन आदि रसप्रद वर्णन द्वीप, नरक, देवलोक और विजयदेव द्वारा जिन-प्रतिमा पूजा (10) पुष्पिका सूत्र-पुष्पक विमान में आदि विशिष्ट विषयों से युक्त है। बैठकर प्रभु वीर के वन्दनार्थ आने (4)प्रज्ञापना सूत्र- जैन दर्शन के वाले देवी-देवताओं के पूर्वभव / तात्त्विक पदार्थों का विस्तृत का विशेष विवेचन इसमें है। विवेचन इसमें हुआ है। यह (11) पुष्पचूलिका सूत्र- बड़ी शांति समवायांग का उपांग है तथा बारह स्तोत्र में वर्णित श्री, हाँ, धृति, उपांगों में सर्वाधिक विस्तृत होने से मति आदि दस देवियों के पूर्वभवों इसे लघु भगवती भी कहा जाता . के कथानक इस सूत्र में है। (12) वृष्णिदशा सूत्र - बलभद्र के (5)सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र- सूर्य-चन्द्रादि बारह पुत्रों के नेमिनाथ प्रभु के की गति आदि खगोल सम्बन्धी पास दीक्षा ग्रहण व देवलोक अति सूक्ष्म दृष्टि से गणित सूत्र गमन का सुन्दर वर्णन इस इसमें टंकित है। आगम में किया गया है। (6)जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र- इसमें प्र.591. दस प्रकीर्णक सूत्र कौनसे हैं ? भूगोल सम्बन्धी छह आरों, उ. (1)चतुःशरण - चार शरणों का नवनिधि, मेरुपर्वत आदि अनेक . महत्त्व, दुष्कृत-गर्हा एवं सुकृतविषय अंकित हैं। अनुमोदना की मार्मिक व्याख्या (7)चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र- इसमें चन्द्र इस आगम में हैं। हानि-वृद्धि, गति आदि घटनाएँ (2)आतुर प्रत्याख्यान- बाल, पण्डित, विवेचित हैं। बाल पण्डित मरण के अतिरिक्त (8)निरयावलिका सूत्र- इसमें अन्तिम समय की आराधना विधि कोणिक सम्राट् एवं चेडा राजा के का निर्देश इस सूत्र में है। मध्य हुए भयंकर युद्ध का वर्णन है। (3)महाप्रत्याख्यान - इस आगम में (9)कल्पावतंसिका सूत्र- इसमें श्रमण योग्य अन्तिम आराधना ************ 248 **************** **
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________________ विधि का विवेचन है। (4)भक्त परिज्ञा- इस सूत्र में चार आहार का त्याग करके अनशन विधि का कथन है। (5)तन्दुलवैचारिक- अशुचि भावना की विवेचना से युक्त यह आगम वैराग्य रसवर्द्धक है। (6)गणि विद्या- ज्योतिष सम्बन्धी दिन, तिथि, लग्न, निमित्त आदि बातें इस ग्रंथ में बताई गयी हैं। (7)चन्द्र विद्या- राधावेध की भाँति आराधना में स्थिरता रखने का उपदेश इस ग्रन्थ में है। (8) देवेन्द्रस्तव - इन्द्रों द्वारा प्रभु स्तवना, उनका स्थान, आयुष्य, बल एवं सिद्धशिला का स्वरुप इसमें वर्णित है। (9)मरण समाधि- समाधि मरण की दिव्य प्रक्रिया, पाण्डवों के दृष्टांत आदि इस आगम के विवेच्य विषय यह ग्रंथराज है। (2)महानिशीथ - वर्धमान विद्या व नवकार की महिमा एवं उपधान तप-स्वरुप-संयम शुद्धि की महत्ता आदि अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य इस आगम में है। (3)दशाश्रुतस्कंध- इसमें बीस असमाधि स्थान, इक्कीस सबल दोष आदि का वर्णन है। कल्पसूत्र में वर्णित साधु समाचारी इस सूत्र के 8वें पर्युषणा कल्प से ही ली गयी है। (4)वृहत्कल्प - प्रत्याख्यान प्रवाद नामक पूर्व से उद्धृत इस सूत्र में श्रमण सम्बन्धी मूल व उत्तर गुणों के साथ उत्सर्ग–अपवाद मार्ग भी वर्णित है। (5)व्यवहार सूत्र-पापों की आलोचना के सम्बन्ध में विस्तृत अधिकार के साथ प्रायश्चित्त, पद आदि की विवेचना इस सूत्र में है। इसे दण्ड या नीति शास्त्र भी कहा जा सकता है। (6)जीतकल्पसूत्र-प्रायश्चित्त विधान से सम्बन्धित इस गंभीर ग्रंथ का पारायण गीतार्थ गुरुराज ही कर सकते हैं। **************** (10) संस्तारक - इसमें वर्णित अन्तिम समय में क्षमापना-विधि, भाव संथारा आदि का स्वरुप पठनीय प्र.592. छह छेद सूत्रों में किसकी विवेचना की गयी है? उ. (1)निशीथ - श्रमणाचार, प्रायश्चित्त, समाचारी से युक्त निशीथ अर्थात् मध्यरात्रि में शिष्य को पढ़ाने योग्य **************** 249
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________________ प्र.593. चार मूल सूत्र कौनसे हैं? प्र.595. आगमों के गूढ रहस्यों को उ. (1)आवश्यक सूत्र - चतुर्विध संघ समझने के लिये कौनसे साहित्य हेतु छह आवश्यक, पद-योग्यता, लिखे गये? पांच व्यवहार आदि तथ्यों से पूर्ण उ. आगम ज्ञान के गंभीर सागर है। यह सूत्र है। इसकी अतल गहराईयों में छिपे (2)दशवैकालिक सूत्र- दस अध्ययन रहस्यों के मोती पाने हेतु पाँच प्रकार एवं दो चूलिकाओं से अलंकृत का व्याख्या-साहित्य लिखा गया, साधु-समाचारी व संवेग-निर्वेद जिसे पंचांगी कहा जाता है। पोषक उपदेशों से परिपूर्ण यह ग्रंथ (1)नियुक्ति-एक पद, शब्द के . आज सर्वाधिक महत्त्व रखता है। अनेक अर्थ होते हैं। उनमें से प्रसंग (3)उत्तराध्ययन सूत्र - कर्म, वैराग्य, तथा कालानुरुप कौनसा अर्थ विनय, साधना, अप्रमाद, त्याग, ग्रहण करना, यह नियुक्ति लेश्या आदि अनेक विषयों एवं साहित्य बताता है। इसमें शब्दों के रसप्रद घटनाओं से सजा यह निश्चित अर्थों का ही प्रतिपादन ग्रन्थ परमात्मा महावीर की किया गया है। इनकी भाषा प्राकृत अन्तिम देशना का साक्षी स्वरुप है। नियुक्तिकार के रूप में आचार्य (4)ओघ–पिण्ड नियुक्ति सूत्र- गौचरी भद्रबाहु प्रसिद्ध है। आज दस आगमों से सम्बन्धित 42 दोषों से बचने की पर नियुक्तियाँ प्राप्त होती हैं। _ विवेचना इस सूत्र में हैं। (2)भाष्य- नियुक्तियों में मुख्यतः प्र.594. दो चूलिकाएँ कौनसी हैं? विशिष्ट शब्दों की ही विवेचना होने उ. (1)नंदी सूत्र - पाँच प्रकार के ज्ञान, से अर्थ गूढ तथा संक्षिप्त होते हैं। द्वादशांगी आदि की संक्षिप्त उन्हें विस्तारपूर्वक समझने के विवेचना को समेटे यह ग्रन्थ मंगल लिये प्राकृत भाषा में जिन स्वरुप है। पद्यात्मक ग्रन्थों की रचना हुई, वे (2)अनुयोगद्वार सूत्र- यह समस्त भाष्य कहलाये। आगमों को समझने की शैली आगम मर्मज्ञ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण समझाता है। तथा संघदासगणि भाष्यकार के रुप
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________________ में प्रसिद्ध हैं। के लिये कठिन होने से अनेक (3)चूर्णि - चूर्णियों की रचना भाष्य आचार्यों, मुनियों ने सरल संस्कृत के उपरान्त हुई। इनकी रचना भाषा में टब्बों की रचना की। गद्यात्मक तथा भाषा प्राकृत- प्र.596.आगमों का अनुवाद कितनी संस्कृत मिश्रित है। यद्यपि जैन भाषाओं में हो चुका हैं? दर्शन में श्रद्धा की प्रधानता है उ. हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी में। आंग्ल तथापि चूर्णियों में तर्क प्राधान्य तौर भाषा में जर्मन विद्वान् डॉ हर्मन पर दृष्टिगत होता है। जेकोबी ने आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रमुख चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर उत्तराध्ययन और कल्पसूत्र, इन चार हुए। इनके अतिरिक्त सिद्धसेनसूरि, का अनुवाद किया हैं। इसके प्रलम्बसूरि, अगत्स्य सिंह स्थविर अतिरिक्त भी अनेक आगमों का इत्यादि प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी, (4)वृत्ति (टीका)-वृत्ति साहित्य में गुजराती में समस्त आगम अनुवादित आगम विवेचना के साथ जैनेतर हो चुके हैं। दर्शनों का भी वर्णन है। परमत प्र.597.आगम कितने माने जाते हैं ? खण्डन एवं स्वमत मण्डन से युक्त उ. श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजक वृत्तियाँ संस्कृत भाषा में लिखी परम्परा पैतालीस आगमों को मानती गयी। . है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण, हरिभद्रसूरि, परम्परा, जिन आगमों में मूर्तिपूजा का शीलांकाचार्य, वादिवेताल शान्तिसूरि, विशेषतः उल्लेख है, उन्हें मूल वाणी अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी नहीं मानती है। वह बत्तीस आगमों को हेमचन्द्र आदि अनेक आचार्यों ने गहन मानती है। दिगम्बर परम्परा एक भी पाण्डित्य एवं अनुपम मेधा से परिपूर्ण आगम को मूल वाणी नहीं मानती है। वृत्तियों का निर्माण किया। आगम के उसे कुंदकुंदाचार्य रचित समयसार, अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों पर नियमसार, षट्खण्डागम आदि ही भी टीकाएँ लिखी गयी। मान्य हैं। (5)टब्बा - वृत्ति की भाषा जनसामान्य ******* 25] **-*-*-**-*-*-*-*-*-*-**-* *
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________________ जिनशासन के चमकते सितारे प्र.598. जिनशासन के प्रभावक आचार्यों का परिचय दीजिये। उ. 1. सुधर्मा स्वामी- ये परमात्मा महावीर के पंचम गणधर थे। श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा स्वामी को और दिगम्बर परम्परा गौतम स्वामी को प्रभु वीर का पट्टधर मानती है। 2. जम्बूस्वामी- पाँच सौ सत्ताईस व्यक्तियों के साथ दीक्षा लेने वाले जम्बू स्वामी को भला कौन नहीं जानता / सुधर्मा स्वामी के चरणों में दीक्षित हुए और रत्नत्रयी की विशुद्ध आराधना की।उनके मोक्ष गमन के बाद कोई भी मोक्ष में नहीं गया / इसलिये कहा भी जाता है'जम्बू जड गया ताला रे।' 3. प्रभव स्वामी- ये थे तो चोर परन्तु धर्म कथा के द्वारा जम्बूकुमार ने इनके मन के चोर को चुरा लिया। उनके धर्मोपदेश से पाँच सौ चोरों के साथ सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हुए एवं जम्बू स्वामी के पट्ट को शोभायमान किया। 4. शय्यंभवसूरि-प्रभवस्वामी के पट्ट प्रभावक शय्यंभवसूरि गर्भवती ** * * 252 पत्नी को छोड़कर दीक्षित हुए। बाद में पुत्र मनक मुनि के निमित्त दशवैकालिक सूत्र की रचना की। 5. भद्रबाहु स्वामी- चतुर्दश पूर्वधर एवं उवसग्हरं स्तोत्र के रचयिता भद्रबाहु स्वामी शासन के महान् सूरिपुरन्दरों में से एक है। 6. आर्य स्थूलिभद्र- ब्रह्मचर्य व्रत की बेजोड़ आराधना से चौरासी चौबीसी तक आपका नाम अमर रहेगा। आचार्य श्री भद्रबाहु के सानिध्य में चौदह पूर्वो का सूत्र से एवं दस पूर्वो का अर्थ से अध्ययन किया। 7. व्रजस्वामी- आपको पूर्व देवभव में गौतम. स्वामी ने प्रतिबोध दिया था। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पालने में झूलतेझूलते आपने ग्यारह अंग आगम कण्ठस्थ लिये थे। आप अंतिम दस पूर्वधर थे। 8. आर्यरक्षित सूरि- आगम रहस्य ज्ञाता आर्यरक्षितसूरि ने आगमों को चरण, करण, द्रव्य, कथा, इन चार भागों में विभक्त.किया। ****************
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________________ 9. हरिभद्रसूरि- ये थे तो अहंकारी ब्राह्मण परन्तु याकिनी महत्तरा से प्रतिबुद्ध होकर जैन प्रव्रज्या अंगीकार की / संस्कृतज्ञ, परम विद्वान हरिभद्रसूरि ने 1444 ग्रंथों की रचना की। 10.आचार्य शीलांक- संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् शीलांकाचार्य ने नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थी परन्तु सम्प्रति आचारांग एवं सूत्रकृतांग की ही वृत्तियाँ उपलब्ध हैं।। 11.वादिवेताल शान्तिसूरि- ये राजा भोज की सभा में चौरासी वादियों को पराजित करने से वादिवेताल' कहलाये। उत्तराध्ययन वृत्ति, जीव विचार प्रकरण आदि ग्रंथों की रचना की। 12.आचार्य मलयगिरि- प्रचण्ड प्रतिभा के धनी मलयगिरि जैनागम, दर्शन, सिद्धांत, गणित आदि अनेक विषयों में परम प्रवीण थे। आपने विपुल परिमाण में साहित्य रचना की। 13.सिद्धसेन दिवाकर- कल्याण मंदिर स्तुति से शिवलिंग के गर्भ में स्थित पार्श्वनाथ की अतिशय युक्त प्रतिमा प्रकट करके उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य को प्रतिबोध दिया। 14.हेमचन्द्राचार्य- बेजोड़ प्रतिभा थी आपकी। हर विषय के पारगामी, कलिकाल सर्वज्ञ' नाम से प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य ने साढ़े तीन करोड़ श्लोकों की रचना कर साहित्य जगत् को समृद्ध किया। कुमारपाल सम्राट् आपसे अत्यन्त प्रभावित थे। 15.यशोविजयोपाध्याय- संस्कृतन्याय के प्रकाण्ड विद्वान् यशोविजयजी ने न्याय विषयक ग्रंथों का ही आलेखन नहीं किया अपितु संस्कृत में भी अनेक मौलिक ग्रन्थ रचे। आपकी काव्य प्रतिभा अद्भुत थी। आप नव्य न्याय प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध है। जिनेश्वरसूरि, नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि आदि शासन प्रभावक आचार्यों का वर्णन खरतरगच्छ के इतिहास से जानने योग्य है। **************** 253 ****** * *
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________________ खरतरगच्छ का स्वर्णिम इतिहास प्र.599. वर्तमान में जैन धर्म में कितनी में लोंकाशाह से। शाखाएँ प्रचलित हैं? 5. पार्श्वचन्द्रगच्छ का-वि.सं. 1575 में उ. मुख्यतः दो शाखाएँ प्रचलित हैं पार्श्वचन्द्रसूरि से। (1) श्वेताम्बर(2) दिगम्बर 6. तेरापंथ का-वि.सं. 1816 में (1)श्वेताम्बर - जो श्वेत वस्त्र धारण ___ आचार्य भिक्षु से। करते हैं। इसमें भी मुख्य दो भेद 7. त्रिस्तुतिक मत का - वि.सं. 1925 में राजेन्द्रसूरि से। . .. (i) मंदिर-मूर्तिपूजक - इसमें प्र.601.खरतरगच्छ का प्रारंभिक काल वर्तमान में कुल पांच संप्रदाय बताओ। . हैं-खरतरगच्छ, आंचलगच्छ, उ. यद्यपि परमात्मा महावीर का शासन तपागच्छ, पार्श्वचन्द्रगच्छ और अद्यावधि पर्यन्त अविच्छिन्न रूप से त्रिस्तुतिक गच्छ। चल रहा है तथापि मध्यकाल में यति (ii) अमूर्तिपूजक - स्थानकवासी परम्परा चली, जिसमें जिनाज्ञा के और तेरापंथी। विपरीत साधुजन पैसा रखते, छत्र (2)दिगम्बर- ये वस्त्र रहित होते हैंतथा धारण करते, ताम्बुल चबाते, मन्दिरों स्त्री-मुक्ति का निषेध करते हैं। में रहते। प्र.600.श्वेताम्बरीय सम्प्रदायों का उद्भव 11वीं सदी का काल भी यतियों की कब हुआ? बहुलता से परिपूर्ण था। आचार्य उ. 1. खरतरगच्छ का - वि.सं.1075 में बुद्धिसागरसूरि एवं श्री जिनेश्वरसूरि जिनेश्वरसूरि से। ने जिनोक्त तत्त्व को समझकर यति 2 आंचलगच्छ का - वि.सं. 1169 में परम्परा का त्याग किया और आचार्य आर्यरक्षितसूरि से। वर्धमानसूरि के शिष्य बने। 3. तपागच्छ का - वि.सं. 1285 में एक बार जब वे पाटण में आये तब जगच्चन्द्रसूरि से। जिनेश्वरसूरि और यतिप्रमुख 4. स्थानकवासी का -वि.सं. 1531 सुराचार्य के मध्य पंचासरा पार्श्वनाथ **************** 254 ****************
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________________ के मन्दिर में दुर्लभ सम्राट् की अध्यक्षता में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनेश्वरसूरि विजयी हुए। तब दुर्लभ राजा ने खड़े होकर आचार्यवर को कहा- आपका आचार-विचार, ज्ञानध्यान और साधना उत्तम है, कसौटी पर खरी उतरी है। आप खरे हैं। तब से आपका अनुयायी वर्ग खरतरगच्छीय कहलाने लगा। प्र.602.खरतरगच्छ के प्रमुख चारित्रप्रिय, आचारज्ञ एवं विद्वद्वर्य आचार्यों की परम्परा के बारे में बताईये। उ. (1)आचार्य जिनेश्वरसूरि-खरतरगच्छ के आप आद्य आचार्य थे। जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, आदि अनेक आपके प्रभावशाली शिष्य हुए। आपका संस्कृत, प्राकृत भाषा पर गजब का अधिकार था। आपने पंचलिंगी प्रकरण, षट्थानक प्रकरण लिखे तो न्याय क्षेत्र में जैन दर्शन को प्रमालक्ष्म के द्वारा आलेखित करने का श्रेय भी आपको ही जाता है। (2)आचार्य जिनचन्द्रसूरि-अल्पायु में चारित्र पथ स्वीकार कर सुन्दर ज्ञानार्जन किया। संवेग, विराग रस से परिपूर्ण विस्तृत संवेगरंगशाला ग्रन्थ से आपकी विद्वत्ता से *************** 255 परिचित हुआ जा सकता है। (3)आचार्य अभयदेवसूरि-नवांगी वृत्तिकार के रूप में समस्त गच्छों में प्रसिद्ध, माननीय एवं पूजनीय आचार्य अभयदेवसूरि खरतरगच्छ की अनमोल धरोहर है। अशाता वेदनीय कर्म - उदय से शरीर में कुष्ठ रोग हो जाने पर आप अनशन करने को उद्यत हुए, तब शासन देवी ने प्रकट होकर कहाआचार्यवर! आप शासन के अप्रतिम विद्वान होंगे, यह मेरा ज्ञान कहता है। आपश्री अनशन स्थगित करें और स्तंभन नगर के बाहर सेढी नदी के तट पर भूगर्भ में स्थित पार्श्व प्रभु की प्राचीन प्रतिमा को प्रकट करें। उसके प्रक्षाल से आपका कुष्ठ रोग नष्ट हो जायेगा। खरतरगच्छ की परम्परा में बोला जाने वाला जयतिहुअण वही स्तोत्र है, जिसकी स्तुति से स्तंभन पार्श्वनाथ प्रकट हुए / उस प्रतिमा के प्रक्षाल जल से सूरिप्रवर का कुष्ठ रोग नष्ट हुआ। आपने स्थानांग से विपाक सूत्र, इन नौ आगमों पर विस्तृत टीका लिखी अतः आपको नवांगी वृत्तिकार कहा जाता है। पंचाशक प्रकरण वृत्ति आदि ****************
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________________ भी आपके प्रमुख ग्रंथ हैं। (4)आचार्य जिनवल्लभसूरि- श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर विद्वद्वर्य आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि चारित्रनिष्ठ आचार्य थे। आपने तत्कालीन फैली शिथिलताओं पर चोट करते हुए संघपट्टक ग्रंथ का निर्माण किया। प्रतिभावान् सूरिजी ने पिण्डविशुद्धि प्रकरण आदि ग्रन्थों, उल्लासि आदि सैंकड़ों स्तोत्रों की रचना की। आपने दस हजार अजैनों को जैन बनाकर संघ का विस्तार किया। (5)दादा श्री जिनदत्तसूरि - जिनशासन और खरतरगच्छ के चमकते सितारे श्री जिनदत्तसूरि का जन्म धोलका नगर में वि.सं. 1132 में हुआ था। मात्र नव वर्ष की अल्पायु में श्री धर्मदेव गणि का पावन शिष्यत्व स्वीकार कर सोमचन्द्र मुनि बने। तीक्ष्ण प्रतिभा और अप्रतिम मेधा से अल्पकाल में ही संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण, आगम आदि का गहन अभ्यास कर मात्र चालीस वर्ष की आयु में आचार्य बने और जिनदत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपका काल खरतरगच्छ के लिये 256 स्वर्णिम युग था। आपका उच्च चारित्र बल और आत्म साधना इतनी गजब की थी कि उससे प्रभावित होकर पांच पीर, बावन वीर और चौसठ जोगणियाँ आपको समर्पित हो गयी। विक्रमपुर में फैली महामारी का निवारण आपके द्वारा उपदिष्ट सप्त स्मरण से हो गया। गौतम गणधर के बाद एक साथ बारह सौ दीक्षाएँ आज तक मात्र आपके द्वारा सम्पन्न हुई, यह एक गौरवपूर्ण घटना है। एक लाख तीस हजार नूतन जैनों के एवं शताधिक गोत्रों के निर्माण में आपका उज्ज्वल कर्तृत्व सहज ही परिलक्षित होता है। आपने उपदेश रसायन, गणधर सार्ध शतक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। अपभ्रश भाषा में आपने विपुल साहित्य लिखा। वि.सं. 1211 में अजमेर में स्वर्गगत होने पर अग्नि संस्कार में आपका चोलपट्टक, चद्दर और मुँहपत्ति नहीं जली जो आज भी जैसलमेर के ज्ञान भण्डार में दर्शनार्थ विद्यमान हैं। (6)मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि - केवल छह वर्ष की अल्पायु में दीक्षित होकर मात्र आठ वर्ष की अल्प आयु में आचार्य पद पर *** * **
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________________ प्रतिष्ठित होने वाले द्वितीय दादा गुरुदेव आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि का साधना बल गजब का था। आप आत्म साधना और ज्ञान साधना के पर्याय थे। इस दिव्य साधना के परिणामस्वरूप ही आपका वीर्य एवं आन्तरिक शक्तियाँ ऊर्ध्वगामी होकर मणि के रूप में ललाट में स्थापित हो गयी, इसी कारण आप मणिधारी के रूप में सुप्रसिद्ध है। दादा जिनदत्तसूरि के द्वारा दिल्ली जाने का निषेध करने पर भी योगानुयोग आप दिल्ली पधारे और भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी को 26 वर्ष की अल्पायु में ही स्वर्गवास को प्राप्त हो गये। दिव्य ज्ञान बल से अपना अन्तिम काल जानकर सूरिवर ने . * संघ को मणि के संदर्भ में सूचित किया था पर शोकमग्न संघ विस्मृत कर गया तथा मणि किसी और के हाथ में पहुँच गयी। आपका स्वर्गधाम दिल्ली महरौली (बड़ी दादावाड़ी) के नाम से सुप्रसिद्ध है। (7)श्री जिनपतिसूरि - खरतरगच्छ के प्रभावक व विद्वद्वर्य आचार्यों की श्रेणी में प्रतिष्ठित जिनपतिसूरि ने - *-*-*-*-*-- * 257 अपने जीवन में तर्क, ज्ञान एवं प्रज्ञा के महाबल पर छत्तीस महावादियों को परास्त किया था, अतः षत्रिंशत्वादि विजेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। जिनपति सूरिवर ने पंचलिंगी प्रकरण वृत्ति, संघपट्टक वृत्ति इत्यादि ग्रंथों का सर्जन किया। (8)दादा श्री जिनकुशलसूरि - संकटहरण एवं कुशलकरण दादा श्री जिनकुशलसूरि शासन के वे चमकते कोहिनूर है, जिन्होंने जीवनपरिवर्तन की लहर चलायी। व्यसनों में डूबे पचास हजार अजैन परिवारों ने आपकी प्रेरणा से जैनधर्म स्वीकार किया। आपके सेवक काला एवं गौरा भैरव आज भी भक्तों के विघ्न हरने में तत्पर है। देराउर, जो आज पाकिस्तान में है, वहाँ आपका स्वर्गवास हुआ था। चतुर्दशी को बोली जाने वाली 'दें दें कि धपमप' स्तुति आपके द्वारा ही रचित है। (9)श्री जिनप्रभसूरि - अनेक सिद्धियों के धारक जिनप्रभसूरि का प्रभाव दिदिगन्त में व्याप्त था। सम्राट मुहम्मद तुगलक आपकी साधना * * **
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________________ से प्रभावित था। आपश्री ने अपनी अगाध प्रतिभा के द्वारा विविध तीर्थ कल्प, विधिमार्ग प्रपा आदि महत्वपूर्ण शास्त्रों की रचना की। (10) श्री जिनभद्रसूरि- आचार्य जिनभद्रसूरि का श्रुत-संरक्षण के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान रहा है। आपने जैसलमेर, लिम्बड़ी, खम्भात, पाटण, आशापल्ली, नागौर, देवगिरि आदि अनेक स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये। अपने . जीवनकाल में आपने अनेक प्राचीन, अलभ्य एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखवाकर सुरक्षित किये। (11) श्री जिनमाणिक्यसूरि - यद्यपि आचार्यवर यति परम्परा में दीक्षित थे परन्तु शास्त्राध्ययन करने के बाद जब मूल धर्म को जाना तब क्रियोद्धार का निर्णय करके क्रियान्वित करने हेतु कुशल-धाम देराउर पधारे! चरण वन्दना करके आते समय तृषा का महान् परीषह उत्पन्न हुआ | श्रीसंघ ने रात्रि में जल ग्रहण करने का निवेदन किया परन्तु आप तनिक भी विचलित नहीं हुए और उसी रात्रि में पिपासा परीषह को समतापूर्वक **************** 258 सहन करते हुए अनशनपूर्वक सुरलोक वासी बने। (12) अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि- आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य शासन सम्राट् श्री जिनचन्द्रसूरि ने अपने गुरुदेव का स्वप्न साकार करते हुए शिथिलाचार पर प्रखर प्रहार किया। आपके संयम-तप के प्रभाव से सम्राट अकबर ने कुल छह माह पर्यन्त अहिंसा के जो फरमान जारी किये, वे आज भी जैसलमेर के जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हैं। आपने यति परम्परा पर अनुशासन और मर्यादा का बुलडोजर . चलाया। 'नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में हुए' इसका पचास से अधिक गच्छों के आचार्यों के हस्ताक्षर से युक्त सम्मति पत्र आज भी ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है। मृत गाय को जीवित करना, अमावस को चाँद उगाना आदि अनेक चमत्कार आपके तपोबल के सहज परिणाम थे। बिलाड़ा में आपका आश्विन वदि अमावस्या को .जब स्वर्गवास
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________________ हुआ, तब साधना के फलस्वरूप मुँहपत्ति नहीं जली / (13) श्री समयसुन्दरोपाध्याय - आठ अक्षरों के आठ लाख से अधिक अर्थ करने वाले सत्यपुर रत्न, कविकुल किरीट के नाम से प्रसिद्ध श्री समयसुन्दरोपाध्याय रचित अष्टलक्षी, दशवैकालिक वृत्ति, समाचारी शतक, विचार शतक, विशेष शतक इत्यादि मौलिक ग्रंथों में उनका संस्कृत, न्याय, प्राकृत पर पूर्ण अधिकार और पाण्डित्य स्वतः प्रकट होता है। पद्मावती आलोयणा, शत्रुजय रास एवं भावपूर्ण सैंकड़ों स्तवन, सज्झाय की रचना कर साहित्य व काव्य जगत को आबाद किया। अहमदाबाद में आप समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। (14) श्रीमद्देवचन्द्र - आगामादि के परम ज्ञाता श्रीमद् देवचन्द्रजी ने चौबीसी में द्रव्यानुयोग का दिव्यप्रयोग किया है। आपका ज्ञान एक पूर्व प्रमाण था / वर्तमान में आप महाविदेह क्षेत्र में केवलज्ञानी के रूप में विचरण कर रहे हैं, ऐसी अनुश्रुति है। ************** * 259 आपने जिनशासन में प्रथम स्नात्र पूजा की रचना की। जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज की सुदृढ पेढी आनंदजी कल्याणजी की स्थापना भी आपके द्वारा ही हुई। ब्रह्मचर्य की दिव्य साधना के कारण से आपका वीर्य ऊर्ध्वगामी होकर ललाट में मणि के रूप में स्थापित हो गया। आपने गहन अध्ययन पूर्वक विचारसार आदि मौलिक ग्रन्थों का सर्जन किया। (15) श्रीमद् आनंदघन - आनंदघन यानि साधना क्षेत्र के बेनमून नक्षत्र / आप अधिकांशतः गुफाओं में एकान्त में साधना करते थे। आपकी लघुनीति (पेशाब) में इतनी शक्ति थी कि पाषाण भी स्वर्णमय हो जाता था। आप खरतरगच्छ की परम्परा में दीक्षित होकर मुनि लाभानंद बने परन्तु ख्याति आनन्दघन के रूप में हुई। आपश्री के द्वारा रचित प्रभु भक्ति से सराबोर जिनेन्द्र चौबीसी सर्वत्र प्रसिद्ध है। (16) गणनायक सुखसागरजी - यद्यपि आपका जन्म सरसा में हुआ था परन्तु व्यवसायार्थ आप ******* *******
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________________ जयपुर आये। वहाँ मुनि श्री आचार्यश्री तेरापंथ परम्परा में राजसागरजी के चातुर्मास में दीक्षित थे परन्तु बाद में भाद्रपद सुदि चतुर्थी को पौषध आगमिक मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में किया, तब संयम वेश की भावना स्वयं को तेरापंथ से अलग किया इतनी तीव्र हुई कि अगले दिन और पू. आचार्य श्री जिनहरिपंचमी को ही दीक्षा ले ली। सागरसूरिजी म.सा. के शिष्य आगमों का गहन अभ्यास करने बनकर मुनि कान्तिसागर के नाम के उपरान्त आपने सिरोही में से विश्रुत हुए। क्रियोद्धार किया। यह आपके प्रवचन कला का आपको वरदान चारित्र एवं पुण्य बल का ही प्राप्त था। सार्वजनिक प्रवचनों में जब प्रभाव था कि 3-4 साधु- आप हे हिन्द! तुझे किसने बरबाद साध्वियों से चले आपके किया, गौमाता को बचाओ, इन विषयों समुदाय में आज लगभग 300 पर सिंह की भाँति गर्जना करते थे, साधु-साध्वी साधनारत हैं। तब बीस-बीस हजार की मानव-. खरतरगच्छ की यह गौरवशाली मेदिनी आश्चर्य से अभिभूत हो उठती परम्परा श्री भगवानसागरजी, श्री थी। समस्त धर्मों की खूबियों का छगनसागरजी, श्री त्रैलोक्य- प्रवचन में समावेश होने से जैन, हिन्दु, सागरजी, आचार्य श्री जिनहरि- मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सारी सागरसूरिजी, श्री जिनआनंद जैन-जैनेतर जनता आपके प्रवचनों सागरसूरिजी, श्री जिनकवीन्द्र का लाभ उठाती थी। सागरसूरिजी, श्री हेमेन्द्र आपने अनेक दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, सागरजी, श्री जिनउदयसागर उपधान करवाये / आपका मांडवला में सूरिजी आदि यशस्वी आचार्यों स्वर्गवास हुआ। अग्नि संस्कार स्थल की परम्परा के रूप में आज भी पर आपश्री के प्रधान शिष्य पू. अपनी पूरी प्रखरता, उष्मा एवं उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. गरिमा से युक्त है। की प्रेरणा से जहाज मंदिर बना है। (17)आचार्य श्री जिनकान्ति- प्र.603.खरतरगच्छ की साहित्य आदि सागरसूरि - यद्यपि पूज्य संपदाओं पर प्रकाश डालिये।
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________________ आज ज्ञान भण्डारों में प्राप्त साहित्य में कर्मचन्द बच्छावत, अगरचन्द से सर्वाधिक साहित्य खरतरगच्छ के नाहटा भंवरलाल नाहटा आदि विद्वान् आचार्यों के द्वारा आलेखित है। अनेक श्रावक श्राविका खरतरआगमिक शास्त्र के क्षेत्र में आचार्य गच्छ की अनमोल विरासत है। अभयदेवसूरि, समयसुन्दरजी के नाम एक समय में शत्रुजय, सम्मेतशिखर, प्रमुख हैं तो मौलिक शास्त्र रचना में गिरनार, नाकोड़ा, खंभात, पाटण, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिन कापरड़ा, आगासी, आयड आदि वल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनपति अनेक तीर्थ प्रखर खरतरगच्छ की सूरि, जिनप्रभसूरि, समयसुन्दरजी, परम्परा का अनुगमन करते थे। देवचन्द्रजी ने महत्वपूर्ण कार्य किया। प्र.604.खरतरगच्छ को राजगच्छ क्यों जिनवल्लभसूरि जिनहर्षसूरि, समय- कहा जाता है? सुंदरजी, देवचंद्रजी, आनंदघनजी, उ. राजा-महाराजाओं पर विशिष्ट प्रभुत्व क्षमाकल्याणजी. कवीन्द्रसागरसूरि, होने के कारण खरतरगच्छ को मणिप्रभसागरजी ने काव्य जगत में राजगच्छ कहा जाता है। अपना स्थान बनाया तो जिनवल्लभ- आचार्य जिनेश्वरसूरि ने पाटण नरेश सूरि, जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि ने दुर्लभ सम्राट् को प्रतिबोधित किया था नूतन जैन बनाकर संघ का विस्तार तो जिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़ नरेश किया। नरवर्म को धर्म-साधना का रहस्य श्री जिनपद्मसूरि ने 'अर्हन्तो भगवन्त समझाया था। इन्द्र महिता' स्तुति की एवं विनय- प्रथम दादा जिनदत्तसूरि के प्रति के प्रभोपाध्याय ने श्री गौतम स्वामी के अजमेर नरेश अर्णोराज, त्रिभुवनगिरि रास की रचना की, जो सम्पूर्ण अधिपति कुमारपाल आदि जिनशासन में बिना किसी गच्छ भेद राजा श्रद्धान्वित थे। के चलती है। मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि को महाकवि धनपाल, कविवर ठक्कर दिल्लीपति सम्राट् मदनपाल ने फेरु, पद्मानंद, थाहरूशाह भंसाली, दिल्ली में प्रवेश करवाकर उनके मुख सेठ श्री मोतीशा नाहटा, अमीचंद से जिनवाणी का रसपान किया था तो नाहटा, भुवन पाल डोसी, पल्ल कवि, जिनपतिसूरि ने आशिका नरेश
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________________ भीमसिंह, भीमदेव को जीवन का मर्म बताया था। पृथ्वीराज चौहान विद्वद्वर्य जिनपालोपाध्याय की चारित्र-प्रियता से प्रभावित था तो बीजापुर नरेश सारंगदेव, जैसलमेराधिपति कर्णदेव आदि ने जिनप्रबोधसूरि से प्रतिबोधित हो व्यसनों का त्याग किया था। जिनप्रभसूरि की विद्वत्ता पर मुहम्मद तुगलक फिदा था और जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के तपोमय जीवन से मुहम्मद बेगडे में आश्चर्यजनक परिवर्तन घटित हुए थे। जिनपद्मसूरि से बाडमेर नरेश शिखरसिंह, रूद्रनन्दन, हरिपालदेव, जिनसिंहसूरि से नरेश जहाँगीर, जिनराजसूरि से सिकन्दर लोदी बादशाह अत्यन्त प्रभावित थे। इस प्रकार खरतरगच्छाचार्यों की उज्ज्वल परम्परा ने अनेक राजाओं को जीवन का मर्म बताया / इस कारण खरतरगच्छ राजगच्छ के रुप में प्रसिद्ध हुआ। खरतरगच्छ को विधि मार्ग, संविग्न पक्ष, सुविहित पक्ष आदि भी कहा जाता है।
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________________ जैन ध्यान मीमांसा ___ 1. जाप से कटते हैं पाप 2. माला-जाप के प्रयोग 3. हस्तांगुली जाप 4. ध्यान का विधान 5. नवकार मंत्र की साधना 6. नवग्रह दोष निवारण विधि
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________________ जाप से कटते हैं पाप प्र.605. जाप किसे कहते है? दूसरी अपेक्षा से पाँच प्रकार के जाप उ. मन, वचन तथा काया की एकाग्रता से कहे गये हैं - (1) शब्द (भाष्य) जाप साध्य को समर्पित होना जाप (2) मौन (उपांशु) जाप (3) सार्थ कहलाता है। जप शब्द ज+प से (अर्थ सहित) जाप (4) चित्तस्थ निष्पन्न हुआ है। ज से जन्म-जरा व (मानस) जाप (5) ध्येय-एकत्व मृत्यु का विनाश एवं प से पाप कर्मों जाप- जिसमें ध्यान, ध्याता एवं का क्षय करने वाला महानुष्ठान जप ध्येय एकाकार हो जाते हैं। उच्चारण की अपेक्षा से हृस्व, दीर्घ प्र.606. जाप कितने प्रकार के कहे गये और प्लुत, ये तीन प्रकार के जाप होते हैं। रेचक, पूरक, कुंभक, सात्विक उ. शास्त्रों में जाप के अनेक भेद बताये , आदि तेरह प्रकार के जाप भी शास्त्रों गये हैं में वर्णित हैं। तीन प्रकार के जाप- प्र.607.जाप से पूर्व किन-किन बातों का 1. भाष्य जाप- मधुर, मंद और . ध्यान रखना चाहिये? स्पष्ट रूप से उच्चारित करके उ. 1. जाप शुरु करने से पूर्व जिन्हें आप किया वाला जाप, जिसे दूसरा सुन सिद्ध करना चाहते हैं अथवा सकता है, उसे भाष्य जाप कहते जिनकी प्रत्यक्ष-परोक्ष कृपा की कामना रखते हैं, उनके स्वरूप का 2. उपांशु जाप- जिसमें होंठ, जीभ संपूर्ण एवं स्पष्ट ज्ञान होना का हलन-चलन होता है परन्तु चाहिये। शब्द सुनाई नहीं देते हैं, उसे 2. गुरु मुख से विधिपूर्वक मंत्र ग्रहण उपांशु जाप कहते है। करना चाहिये, इससे वह शीघ्र 3. मानस जाप- मन ही मन जो फलदायी होता है। मनमाने और जाप किया जाये, उसे मानस जाप स्वरूप को जाने बिना मंत्रों का कहते है। प्रयोग करने से विपरीत प्रभाव हो
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________________ सकते हैं। 3. ध्यान, ध्येय एवं ध्याता पर सम्पूर्ण श्रद्धा जरूरी है। ध्यान मंत्र है, ध्येय मंत्र में प्रतिष्ठित प्रभु, गुरु महाराज है और स्वयं ध्याता है। इन तीनों की समग्रता ही जाप को पूर्ण बनाती है। 4. 'आप जाप किसलिये कर रहे हैं?' इसका उत्तर चित्त में बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिये। 5. भौतिक-सिद्धि हेतु जाप-मंत्र का प्रयोग न करें। यह अलौकिक शक्तियों के द्वार खोलने वाली दिव्य कुंचिका है अतः महान्, सुन्दर एवं सात्विक उद्देश्य का निर्धारण होना चाहिये। 6. जाप करने से पूर्व चिन्ता व तनाव को दूर फेंक दें। योगों की विशुद्धि भी अत्यन्त अनिवार्य है। प्र.608. जाप करते समय ध्यान में रखने योग्य सुझाव दीजिये। उ. 1. वस्त्र एवं वातावरण की शुद्धि होनी चाहिये / शान्त, नीरव, अनुकूल एवं चित्त को प्रफुल्लित करने वाला स्थान हो / ध्यान या जाप के लिये जिस स्थान का चुनाव किया जाये, जरूरी है कि वह स्थान मच्छर, मक्खी, चींटी आदि जीवों के **************** 266 उपद्रव से मुक्त हो, पर्याप्त प्रकाश, शुद्ध वायु से युक्त हो / स्थान अति उष्ण अथवा शीत भी नहीं होना चाहिये। 2. जाप में श्वेत वर्ण का ऊनी आसन उत्तम होता है। 3. जाप के समय मन, वचन एवं काया में किसी प्रकार की विकार अथवा चंचलता न हो। 4. जाप प्रारंभ करने से पूर्व प्रार्थना करें- जगत के सभी जीव सुख और समाधि को प्राप्त हों, सभी का कल्याण हो। 5. जाप में मंत्र उच्चारण की शुद्धि _ 'आवश्यक है। अक्षर कम-ज्यादा न बोले व. उच्चारण में हूस्व-दीर्घ का भी ध्यान रखें। 6. पूर्व, उत्तर दिशा अथवा ईशान ... कोण में जाप करना फलदायी होता है। 7. जाप करते समय नयन बंद रखे अथवा नासिका के अग्रभाग पर एकाग्र करें अथवा तस्वीर, प्रतिमा का आलम्बन लेकर खुले रखें। यह जरूरी है कि मेरूदण्ड और गर्दन एक सीध में रहे। 8. प्रतिदिन निश्चित स्थान एवं समय पर जाप करें। माला, दिशा, ****************
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________________ परिधान, आसन, मुद्रा आदि में अवश्य गिनें। अत्यावश्यक कारण के बिना 17.मंत्र को साधने के लिये प्रायः 5 बदलाव न करें। किसी भी स्थिति बजे से 6 बजे तक का एवं रात्रि में में जाप अवश्य करें। अनियमितता 8 बजे से 10 बजे तक का समय से जाप फलित नहीं होता है। अत्युपयुक्त है। इस समय 9. जाप की अवधि एवं संख्या बढ़ाते अन्तरिक्ष में विद्यमान दिव्यात्माओं रहे, इसके साथ एकाग्रता पर भी के आत्मबल की विद्युत् तरंगें पूरा ध्यान दें। __ प्रसारित होती हैं। 10.विश्वास और श्रद्धा बढ़ाते रहे, फल 18.जाप के मध्य किसी से वार्तालाप प्राप्ति में विलम्ब होने पर धीरज न न करें। स्थिरता को अखण्ड रखे। हारे। 19.मंत्र, स्तोत्र, सूत्र को गुरू के पास 11.जाप करते समय मंत्राक्षर एवं ध्येय विनययुक्त होकर ग्रहण करना आकृति चित्त पर सहज ही चाहिये। मंत्रोच्चारण के वक्त भी उपस्थित होनी चाहिये। विनम्रता अत्यन्त आवश्यक है। 12.सफलता मिलने पर मंत्र-जाप, प्र.609.जाप के दिनों में कैसा आचरण ___श्रद्धा में वृद्धि करते रहे। हो? 13.जाप पद्मासन, अर्द्धपद्मासन, उ. (1)जाप के दिनों में सप्त व्यसनों का, जिनमुद्रा आदि में किया जा क्रोध आदि कषायों का त्याग सकता है। करें। 14.यदि प्राणायाम विधि का प्रशिक्षण (2)तामसिक, गरिष्ठ तीखे, चटपटे लिया है तो जाप व ध्यान से पूर्व भोजन का परिहार करें। अभक्ष्य 5-7 मिनट उसका प्रयोग करें एवं कंदमूल का त्याग करें। जिससे शरीर में स्फूर्ति, ताजगी (3) मनोरंजन के टी.वी., खेल आदि एवं एकाग्रता का संचार होता रहे। साधनों को भी छोड़ दें। 15.जाप करने से पहले आत्मा रक्षा (4)जाप में प्रामाणिक, मधुर व्यवहार स्तोत्र से शरीर सुरक्षा का कवच करें। हित-मित-प्रिय बोले। तैयार करें। अन्यथा जाप व ध्यान से प्राप्त 16.जाप से पूर्व नवकार की एक माला शक्ति का क्षरण हो जाता है। ---*-*-*-*-*-*-*-*--*- 267 *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-***
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________________ (5) श्रावकाचार-तप, स्वाध्याय, सत्संग, तत्त्वचर्चा आदि अनुष्ठानों में समय और चित्त को एकाग्र करें। (6)ब्रह्मचर्य का अधिकतम पालन करें। (7)अनीति, दुराचार, मायाचार एवं पारस्परिक विवाद से पूरी तरह दूर रहें। दिन में नींद न ले। (8)उठते-बैठते,हर समय अजपाजाप चलता रहे। (9)जाप व ध्यान की साधना में जल्दी उठना जरूरी है और जल्दी उठने के लिये समय पर सोना जरूरी है। (10) मंत्र साधना के दिनों में दो-तीन घण्टे मौन करें। मौन शक्ति का दिव्य कोष है। प्र.610. जाप के प्रभाव क्या है? उ. 1. इससे कषायों का ताप, कलह का संताप एवं भव-भव के पाप नष्ट हो जाते हैं। 2. सहनशक्ति एवं प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटि) का विकास होता है। 3. मन की शान्ति और शरीर का ___ आरोग्य प्राप्त होता है। 4. कषाय, विकार, वासनाओं पर नियन्त्रण होता है। 5. मैत्री , जयणा, अहिंसक भावों में __अभिवृद्धि होती हैं। 6. राग-द्वेष हीनता को प्राप्त होते हैं। 7. लक्ष्य सिद्धि एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। 8. आत्म विश्वास, धैर्य, समता, . अप्रमत्तता आदि गुणों का विकास होता है। हीनता, घुटन, तनाव, आक्रोश, प्रपंच, अहं, ईर्ष्या आदि ग्रन्थियाँ नष्ट होती जाती हैं।
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________________ माला-जाप के प्रयोग प्र.611.जाप प्रक्रिया में किनका आलम्बन लिया जाता है? उ. विविध आलम्बन लिये जाते हैं-आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, हस्तांगुलि, ध्यान इत्यादि। प्र.612.आनुपूर्वी आदि को समझाईये। उ. 1. आनुपूर्वी- क्रमशः जाप करना यथा नमो अरिहंताण, नमो सिद्धाणं इसी प्रकार पढमं हवइ. मंगलम् तक। 2. अनानुपूर्वी- क्रमशः जाप न होकर आगे-पीछे अंकानुसार जाप करना। जहाँ 1 अंक लिखा है, वहाँ नमो अरिहंताणं बोलना, 2 लिखा हैवहाँ नमो सिद्धाणं बोलना। इस प्रकार अंकानुसार जाप करना / 3. पश्चानुपूर्वी- उल्टे क्रम से जाप करना। यथा पढमं हवइ मंगलं, मंगलाणं च सव्वेसिं यावत् नमो अरिहंताणं तक। इसका एक ओर प्रयोग है कि प्रत्येक पद को उल्टा करके बोलना यथा- णं ता हं रिअ मो न (नमो अरिहंताणं का उल्टा)। प्र.613. भिन्न-भिन्न अंगलियों से माला-जाप का क्या प्रभाव होता है? उ. जिस प्रकार केल्कुलेटर के भिन्न-भिन्न बटन दबाने से भिन्न-भिन्न परिणाम आते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग अंगुलियों के पोरवे दबाने से अलग-अलग परिणाम आते हैं। 1. अंगुष्ठ जाप- तर्जनी को छोड़कर शेष तीन अंगुलियाँ मिलाकर मध्यमा और अंगुष्ठ से जाप करना। * अग्नि तत्त्व की प्रधानता होने से अंगुष्ठ ऊर्जा का खजाना है। ऊर्जा व पुरूषार्थ का प्रतीक होने से अंगुष्ठ को मोक्ष दातार कहा जाता है। 2. तर्जनी जाप- तर्जनी में वायु तत्त्व की प्रधानता होने से इससे अस्थिरता, चंचलता बढ़ती है। माला-जाप में एकाग्रता की मुख्यता होने से इससे जाप नहीं करनाचाहिये। 3. मध्यमा जापमध्यमा में आकाश तत्त्व की प्रधानता है।
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________________ जिस प्रकार आकाश सभी को स्थान आरोग्य की, सूत, रूद्राक्ष, देता है, वैसे ही इस अंगुली से जाप फिटकरी की माला से सुख की करने से हृदय की विशालता, प्राप्त होती है। सदभाव, सहयोग की भावना उत्पन्न 2. सभी प्रकार की मालाओं में सूत होती है। फलतः व्यक्ति धन, सुख की माला सर्वोत्कृष्ट कही गयी है। आदि प्राप्त करता है। प्लास्टिक, रेडियम एवं हल्की 4. अनामिका जाप- इसमें पृथ्वी लकड़ी की माला का प्रयोग तत्त्व की प्रधानता है। पृथ्वी में कदापि नहीं करना चाहिये। सहनशीलता, गुरुत्वाकर्षण, 3. माला के सभी मणके बराबर होने क्षमा, धैर्य आदि गुण होते हैं। चाहिये, छोटे-बड़े नहीं। . . अतः इस अंगुली से .. 4. जिस रंग के मणके हो, उसी रंग जाप करके इन गुणों के माध्यम से के रेशम अथवा सूत के धागे में व्यक्ति सुख, शान्ति, धीरज आदि माला पिरोनी चाहिये। को प्राप्त करता है। 5. माला को इधर उधर न रखकर 5. कनिष्ठिका जाप- जल तत्त्व का व्यवस्थित स्थान पर वस्त्र, पॉकेट प्राधान्य होने से कनिष्ठिका के आदि में डालकर रखनी चाहिये। माध्यम से ध्याता में संतोष, 6. माला से पाँव आदि निम्न अंगों का जप,तप, साधना, ज्ञान, चारित्र स्पर्श न हो, गंदे, झूठे हाथ भी न आदि गुण प्रकट होते हैं। जल लगे, इस बात का विशेष ध्यान तत्त्व रस युक्त होने से इस अंगुली के रखना चाहिये। जाप से व्यक्ति में आकर्षण, प्रीति, 7. माला ज्ञान का उपकरण है, अतः स्नेहादि गुण सहज ही विकसित उसके प्रति बहुमान का भाव होते हैं। रखना चाहिये। प्र.614. माला किस प्रकार की होनी प्र.615.माला फेरते समय क्या ध्यान चाहिये? रखना चाहिये? उ. 1. सोने एवं कपूर की माला से उ. 1. ध्यान रहे- माला का वस्त्र एवं सौभाग्य की, चांदी की माला से नाखून से स्पर्श नहीं होना चाहिये। शांति की, मोती की माला से 2. माला हृदय के सन्मुख होनी
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________________ चाहिये। नासिका से ऊपर एवं . नाभि से नीचे नहीं होनी चाहिये। 3. माला अभिमंत्रित होनी चाहिये एवं जमीन पर नहीं रखनी चाहिये। 4. जब तक एक मणके पर जाप पूरा न हो, तब तक दूसरे मणके का स्पर्श न करें। 5. माला के पूर्ण होने पर मेरू का उल्लंघन न करें, ऊर्जा-प्राप्ति हेतु उसका आँख से स्पर्श करके उलटकर फेरे। 6. परमात्मा एवं देवी-देवता के जाप की माला अलग-अलग होनी चाहिये। समय, स्थान, वस्त्र, आसन से संबंधित अध्याय 'जाप से कटते हैं पाप' नामक अध्याय से समझ लेनी चाहिये। ** * **** 271 *
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________________ हस्तांगुली जाप प्र.616. हस्तांगुली जाप किसे कहते हैं? अथवा अनुपयोगी कहने से मृषावाद उ. जिस जाप में अंगूठे को अंगुलियों का दोष लगता है। दोनों जाप पर फिराते हुए मंत्र जाप किया अपने अपने स्थान पर सार्थक एवं जाता है, उसे हस्तांगुली जाप सम्यग् है। परन्तु निष्कर्ष रूप में यह कहते है। अवश्य कहा जा सकता है कि इस जाप में जप माला करमाला जाप में माला का प्रयोग (नवकारवाली) का उपयोग नहीं नहीं होने से कहीं पर भी करना किया जाता है। सम्भव है। प्र.617.इस जाप को अन्य किन नामों से यह जाप अपने आप में श्रेष्ठ एवं पुकारा जाता है? फलदायक है। आवर्त क्रिया से उ. इसे आवर्त जाप और कर माला ध्यान/जाप से मन अधिक स्थिर जाप भी कहा जाता है। आवर्त यानि एवं ध्येय के प्रति एकाग्र बनता है। दोहराना। इसमें अंगूठे को अपने इससे आसन भी जम जाता है। हाथ की चारों अथवा तीन अंगुलियों प्र.619. पांच अंगुलियां कौन कौनसी के पोरवों पर मंत्र को दोहराते हुए पुनः पुनः विधि अनुसार फिराया उ. पांचों अंगुलियों को नामपूर्वक इस जाता है, अतः इसे आवर्त जाप कहा ' प्रकार पहचाना जा सकता है - जाता है। हाथों की अंगुलियों का / 1. अंगुष्ठ - सर्वविदित है। प्रयोग/उपयोग होने से यह कर 2. तर्जनी - अंगुष्ठ के निकट माला जाप के नाम से भी प्रसिद्ध है। ___ वाली अंगुली। प्र.618. क्या यह जाप विधि जपमाला 3. मध्यमा - पांचों अंगुलियों के जाप विधि से ज्यादा बीच वाली अंगुली। प्रभावशाली है? 4. अनामिका - मध्यमा और उ. एकान्त दृष्टि से किसी विधान/ कनिष्ठिका के मध्य. वाली क्रिया/वस्तु को सर्वथा उपयोगी अंगुली।
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________________ 5. कनिष्ठिका - सबसे छोटी का, आठवां तर्जनी के नीचे का,नौवां - अंगुली। मध्यमा के नीचे का, दसवां प्र.620. हस्तांगुली जाप कितने प्रकार अनामिका के नीचे का, ग्यारहवां के कहे गये हैं? अनामिका के मध्य का, बारहवां उ. हस्तांगुली जाप के अनेक भेद मध्यमा के मध्य का, ऐसे नौ बार शास्त्रों में वर्णित है यथा आवर्त गिनने से एक पूरी माला होती है। जाप, शंखावर्त जाप, नंद्यावर्त, प्र.622. शंखावर्त जाप की विधि बताईये। ऊँकार दक्षिणावर्त, ऊँकार वामावर्त, उ. लाभही कार आवर्त, नवपद आवर्त, 1. शंख जिस प्रकार शुक्ल, शुभ्र सिद्धावर्त आदि। ओर शुभ माना गया है, उसी प्र.621.आवर्त जाप को बताएँ। प्रकार यह जाप मानसिक उ. लाभ - . कालुष्य, ऊहापोह और व्यग्रता 1. आवर्त जाप शान्ति, तुष्टि एवं को समाप्त कर मन-मानस में पुष्टि प्रदायक है। . नवस्फूर्ति एंव ताजगी का संचार 2. इस जाप के प्रभाव से दुष्ट देव करता है। नहीं सताते। यह जाप भूत-प्रेत 2. यह आवर्त जाप पाप, ताप एवं . भय निवारक कहा गया है। संताप निवारक एवं मनोवांछित3. मनोकामनाएँ शीघ्र फलित होती पूरक कहा गया है। विधि- यह आवर्त अपने दाहिने 4. सुख एवं धैर्य की प्राप्ति होती है। हाथ की अंगुलियों पर ही गिना विधि- दाहिने हाथ की अंगुलियों जाता है। इसकी में से कनिष्ठिका अंगुली के नीचे शुरुआत मध्यमा पोरवे से शुरूआत करें, जिससे अंगुली के मध्य के कनिष्ठिका के तीनों पोरवें, पोरवे से होती चौथा अनामिका के ऊपर है। दूसरा अनामिका का,पांचवां मध्यमा के ऊपर के मध्य का, का,छट्ठा तर्जनी के ऊपर तीसरा अनामिका के नीचे का, का, सातवां तर्जनी के मध्य चौथा कनिष्ठिका के नीचे का, ** * 273 **** ***** -10 O HIND BE
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________________ पांचवां कनिष्ठिका के मध्य का, का, छट्ठा अनामिका के मध्य छट्ठा कनिष्ठिका के ऊपर का, का, सातवां अनामिका के ऊपर का, सातवां अनामिका के ऊपर का, आठवां मध्यमा के ऊपर का, नौवां आठवां मध्यमा के ऊपर का, नौवां मध्यमा के मध्य का, इस तरह बारह तर्जनी के ऊपर का, दसवां तर्जनी बार गिनने से एक माला पूरी के मध्य का, ग्यारहवां तर्जनी के होती है। इसे नंद्यावर्त कहते है। नीचे का, बारहवां मध्यमा के नीचे प्र.624. ऊँकार दक्षिणावर्त जाप किस का। इस तरह नौ दफा गिनने से प्रकार किया जाता है? एक माला पूरी हो जाती है। इस उ. स्वरूपप्रकार गिनने से शंख आकृति का 1. ॐ की अपार महिमा कही गयी निर्माण होता है, अतः इस आवर्त का है। इसे प्रणवाक्षर भी कहा जाता नाम शंखावर्त है। प्र.623. नंद्यावर्त जाप विधान को 2. इसमें पंचपरमेष्ठी के आद्य समझाईये। अक्षरों को मिलाने से ओम बना उ. लाभ है, अतः ऊँकार में पंच परमेष्ठी 1. नंदी अर्थात मंगलकारी, का समावेश होने से इसकी अकुशल एवं अशाता निवारी। महती महत्ता * एवं अद्भुत यह मन, तन और जीवन में चमत्कार है। सर्वत्र मंगल की वर्षा करता है। 3. 'ऊँ' यह ब्रह्म,, सुख एवं आत्म 2. यह जाप तुष्टि, सौम्यता तथा वाचक है। ध्रुव व शाश्वत होने आदर प्रदायक है। से दिव्य शक्तियों का भण्डार है। विधि- इस आवर्त में दाहिने हाथ 4. यह काम बीज, प्रदीप बीज, की तर्जनी अंगुली के ऊपर के पोरवे विनय बीज, पंचपरमेष्ठी बीज से शुरुआत होती है, दूसरा एवं तेजो बीज है। तर्जनी के मध्य का, तीसरा लाभतर्जनी के नीचे का, चौथा 1. इसका उच्च व मधुर ध्वनि से का मध्यमा के नीचे का, प्रतिदिन उच्चारण करने से पांचवां अनामिका के नीचे अस्वस्थ शरीर में स्वस्थता का **** 274 *** **********
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________________ बनने VDEO संचार, खिन्न मन में प्रसन्नता पोरवा, दूसरा मध्यमा के मध्य * एवं आत्मा में अनिर्वचनीय का, तीसरा मध्यमा के नीचे का, आनन्द की अनुभूति होती है। चौथा अनामिका के नीचे का, 2. इस जाप से वातावरण पवित्र पांचवां, छट्ठा, सातवां ___ एवं निर्मल बनता है। कनिष्ठिका के क्रमशः 3. इस जाप से क्षुद्र व्यंतर देव नीचे मध्य व ऊपर का पोरवा, ___पलायन कर जाते हैं। आठवां व नौवां क्रमशः अनामिका व 4. चित्त की एकाग्रता में यह मध्यमा के ऊपर का पोरवा तथा ___ महत्त्वपूर्ण आलम्बन है। दसवां, ग्यारहवां व बारहवां तर्जनी विधि- इसमें प्रथम मध्यमा के मध्य का क्रमशः ऊपर, मध्य व नीचे का का पोरवा, दूसरा पोरवा है। इस प्रकार नौ बार गिनने अनामिका के मध्य का से एक माला पूर्ण होती है। पोरवा, तीसरा अनामिका प्र.625. ही कार आवर्त की प्रक्रिया के ऊपर का पोरबा, चौथा बताईये। मध्यमा के ऊपर का पोरवा, उ उ. स्वरूपपांचवां तर्जनी के ऊपर का ह्रीं कल्याण वाचक है। इसे पोरवा, छट्ठा तर्जनी के मध्य का माया बीज, त्रैलोक्य बीज एवं पोरवा, सातवां तर्जनी के परम तत्त्वबीज भी कहा जाता नीचे का पोरवा, आठवां मध्यमा के नीचे का पोरवा, नौवां अनामिका के लाभ- इस आवर्त जाप से सुख, नीचे का पोरवा, दसवां कनिष्ठिका के नीचे का पोरवा , ग्यारहवां समृद्धि की प्राप्ति एवं विघ्न, कनिष्ठिका के मध्य का पोरवा, अन्तराय की समाप्ति होती है। बारहवां कनिष्ठिका के ऊपर का विधि- ही कार आवर्त की गिनती पोरवा, इस तरह नौ बार गिनने में इस प्रकार है। तर्जनी एक माला पूरी होती है। के ऊपर से चलना | ऊँकार दक्षिणावर्त की अन्य है। मध्यमा, अनामिका, प्रक्रिया इस प्रकार है कनिष्ठिका तक क्रमशः पहला अनामिका के मध्य का ऊपर के चार हुए।
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________________ o पांचवां कनिष्ठिका का मध्य, छट्ठा अनामिका का मध्य, सातवां मध्यमा का मध्य, आठवां तर्जनी का मध्य, नौवां तर्जनी के नीचे,दसवां मध्यमा के नीचे, ग्यारहवां अनामिका के नीचे और बारहवां कनिष्ठिका के नीचे, इस तरह गिनती करने से ही का निर्माण होने इसे ही कार आवर्त कहा जाता है। नौ बार गिनने से माला पूरी होती है। प्र.626. नवपद (नवकार) आवर्त विधि बताओ। उ. महिमा- नवकार का प्रभाव अचिन्त्य अद्भुत है। यह मंत्र शक्ति, ऊर्जा, आनन्द और सिद्धि का भण्डार है। नवकार के जाप से ऋद्धि व समृद्धि मे वृद्धि होती है। ऊँ, हाँ, ही क्लीं, क्लू, श्री, वीं, फुट, हैं, वषट्, ल्वयूं आदि बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानतः नवकार मंत्र से हुई है क्योंकि मातृका ध्वनियाँ इस मंत्र से उत्पन्न हुई हैं। ये बीजाक्षर अन्तःकरण और प्रवृत्ति की शुद्धि के महत्वपूर्ण माध्यम है जिनके समुचित संयोजन, विधि विधान एवं जाप से आत्मशक्ति को जागृत, . देवताओं को आकर्षित एवं आसुरी शक्तियों को समाप्त किया जा सकता है। यहाँ तक कि सर्वोतम मोक्ष पद को भी प्राप्त किया जा सकता है। विधि- श्री नवकार मंत्र का दूसरा नाम नवपद है। इसका जाप नमो अरिहंताणं से प्रारम्भ कर पढमं हवई मंगलं तक नव पदों में किया जाता है। इसका एक-एक पद क्रमशः एक-एक पोरवे पर गिना जाता है। प्रारम्भ मध्यमा के मध्य पोरवे से करें। दूसरा मध्यमा के ऊपर का पोरवा, तीसरा तर्जनी के मध्य का पोरवा, चौथा मध्यमा के नीचे का पोरवा, पांचवां अनामिका के मध्य का पोरवा, छट्ठा तर्जनी के ऊपर का पोरवा, सातवां तर्जनी के नीचे का पोरवा, आठवां अनामिका के नीचे का पोरवा, नौवां अनामिका के ऊपर का पोरवा। इस तरह नवपदों को बारह दफा गिनने में एक माला पूरी होती है। प्र.627. नवपद (सिद्धचक्र) आवर्त की प्रक्रिया को समझाईये। उ. स्वरूप- सिद्धचक्र पद का. दूसरा नाम नवपद भी है। पंचपरमेष्ठी,
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________________ सम्यक्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तर्जनी के मध्य का, नमो - तप, ये नवपद शाश्वत पद हैं। इन उवज्झायाणं का मध्यमा के नीचे पदों की आराधना करके अनन्त का, नमो लोए सव्वसाहूणं का जीव संसार सागर से उत्तीर्ण हो अनामिका के मध्य का, ऊँ ह्रीँ नमो गये। श्रीपाल और मयणा सुन्दरी ने दंसणस्स का तर्जनी के ऊपर सविधि और सश्रद्धा नवपद की का, ऊँ ह्रीँ नमो नाणस्स का तर्जनी साधना की, जिससे श्रीपाल का के नीचे का, ऊँ ह्रीँ नमो चरित्तस्स कुष्ठ रोग विनष्ट हो गया तथा का अनामिका के नीचे का एवं ऊँ ह्रीं काया कंचन की भांति चमक उठी। नमो तवस्स का अनामिका के ऊपर यह अनुभूत सत्य है कि नवपद के का पोरवा, इस प्रकार सिद्धचक्र महान् अनुष्ठान से सारे विघ्न, पद का बारह बार जाप करने से बाधाएँ क्षणार्ध में समाप्त हो जाती हैं एक माला पूर्ण होती है। प्र.628.सिद्धावर्त किस प्रकार किया और जीवन में आनन्द, धैर्य, समता जाता है? एवं साधना की बहार छा जाती है। स्वरूप- यह आवर्त जाप दोनों विधि- इसकी आराधना नवपद / हाथों की अंगुलियों के पोरवों पर नवकार की भाँति ही होती किया जाता है। है परन्तु पदों में यह जाप मुक्ति प्रदायक है। यह परिवर्तन होता है। इसके जाप चौबीस पोरवों पर होने से जाप | सुप्रसिद्ध पदों के नाम करने वाला चौबीस तीर्थंकरों की कृपा क्रमशः इस प्रकार है- प्राप्त करता हुआ आत्मिक गुणों को (1-5) नमो अरिहंताणं प्रकट करता है। इससे विघ्न आदि पाँच पद (6) ऊँ ही नमो उपशान्त हो जाते हैं। यम-नियमदसणस्स (7) ऊँ ह्रीं नमो नाणस्स संयम तथा ज्ञान-ध्यान के क्षेत्र में (8) ऊँ ही नमो चरित्तस्स (9) ऊँ ह्रीँ व्यक्ति आत्म विश्वास के सोपान नमो तवस्स। चढता हुआ अन्तिम सिद्धपद का 1. नमो अरिहंताणं एवं नमो सिद्धाणं वरण करता है। इस आवर्त से नौ का मध्यमा के मध्य व ऊपर का. बार जाप करने पर नवकार की दो पोरवा, नमो आयरियाणं का माला पूर्ण होती हैं। CTT LOGO)
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________________ विधि- नवकार मंत्र के प्रथम पांच परमेष्ठी पद | एवं शेष चार चू लि काएँ कहलाती हैं। इस हस्तांगुली जाप में प्रथम चार पदों का जाप बायें हाथ की तर्जनी, मध्यमा, अनामिका एव कनिष्ठिका के ऊपर के पोरवे पर करने के बाद पंचम पद एवं तीन चूलिका का जाप क्रमशः दायें हाथ की कनिष्ठिका, अनामिका, मध्यमा एवं तर्जनी के ऊपर के पोरवे पर करें। अन्तिम चूलिका पढमं हवइ / मंगलम् का जाप तर्जनी के मध्य के पोरवे पर करें। फिर नवकार के शुरू के तीन पदों का जाप मध्यमा, अनामिका एवं कनिष्ठिका के मध्यवर्ती पोरवों पर करें। शेष दो पदों एव प्रथम दो चूलिकाओं का जाप बायें हाथ की कनिष्ठिका, अनामिका, मध्यमा एवं तर्जनी के मध्यवर्ती पोरवों पर करते हुए अन्तिम दो चूलिका एवं प्रथम दो पदों का क्रमशः तर्जनी, मध्यमा, अनामिका एवं कनिष्ठिका के नीचे के. पोरवों पर करें। तदुपरान्त दायें हाथ की कनिष्ठिका, अनामिका, मध्यमा एवं तर्जनी पर शेष तीन पदों एवं प्रथम चूलिका का जाप करें। उसके बाद पुनः संख्यानुसार आगे का जाप करते जाये।
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________________ ध्यान का विधान प्र.629.ध्यान का प्रारम्भ कैसे करें? उ. पद्मासन, अर्द्धपद्मासन आदि किसी भी आसन में मेरू दण्ड को सीधा करके दोनों घुटनों पर हाथों को ज्ञान-मुद्रा में स्थापित करके बैठो। आँखों को सहज बंद करके दीवार का सहारा लिये बिना स्थिरतापूर्वक बैठ जाओ। शरीर में कहीं भी खिंचाव या तनाव न हो। अंगों को ज्यादा न खींचो, न ढीला छोड़ो। मस्तक व सीने को एक सीध में कर लो। उत्तर, पूर्व अथवा दोनों के मध्य स्थित ईशान कोण के सम्मुख बैठो। वस्त्र ऐसे हो कि शरीर में कहीं कोई खिंचाव या तकलीफ न हो वरना एकाग्रचित्त नहीं हो पाओगे। यदि वस्त्र, आसन श्वेत हो तो अति-उत्तम। ध्यान रहे शरीर के किसी भी अंग में कोई चंचलता न हो। न पलकें झपके, न होंठ फड़के। मक्खी बैठे, मच्छर काटे, किसी भी अंग पर खुजलाहट चले, मन में घबराहट हो, तब भी मन ************ 279 स्थिर हो। मन उठने को करें या इधर-उधर भागने लगे तो तुरन्त उसे पकड़ लो। प्रारंभ में ये सब बाधाएँ आयेगी पर परवाह न करो। हार कर, मैदान छोड़कर भागो मत। ये सब तुम्हारी समत्व एवं एकत्व की परीक्षा लेने को उपस्थित हुई हैं। अब धीरे-धीरे अन्तर्मुखी होना शुरू करो। मन और तन की गतिविधियों से ध्यान को हटाकर स्वयं से कहोमेरा दृढ़ संकल्प है कि जब तक ध्यान पूर्ण नहीं होगा, तब तक मैं न हिलूंगा, न चलूंगा, न बोलूंगा। मैं मन और शरीर का नियंता हूँ। मैं जो भी आदेश दूंगा, वह उसे मानना होगा। इसका पुनः पुनः आवर्तन करो। जब शरीर सहज हो जाये तब मानसिक ध्यान शुरू करेंमैं शांत-प्रशान्त हो रहा हूँ। मेरे चारों तरफ शान्ति ही शान्ति बिखरी हुई है। मेरे मन और विचारों में शान्ति ही शान्ति है। अशान्ति न मेरे दिमाग में है, न दिल में है। ****************
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________________ मैं शान्ति की साक्षात् प्रतिमा हूँ। मेरा ऊर्जा मैत्री और प्रीति से पवित्र हो रही मन, मेरी आत्मा, सम्पूर्ण वातावरण है। सर्वत्र प्रीति का उद्घोष हो रहा शान्त है। कहीं कोई अशांति की लहर है। मेरे वैर-विकार नष्ट हो रहे हैं। नहीं है। अमंगल समाप्त हो रहा है। कलह, ध्यान के प्रारंभ में प्रतिदिन पाँच मिनट कामना और क्रोध शान्त-प्रशान्त हो से दस मिनट इसका ध्यान करें। यह रहे हैं। मेरी आत्मा में विश्व-कल्याण शांतिपाठ वाणी, वर्तन और विचारों की उदात्त भावनाएँ नृत्य कर रही हैं। को परम शांत व सन्तुलित बनाता मेरे हृदय से उठती मंगल, सुख, शान्ति और आरोग्य की तरंगे प्र.630.ध्यान की पवित्रता में विश्व वातावरण में प्रसारित हो रही हैं। सभी कल्याण की कामना कैसे करें? सुखी हो, सम्पूर्ण विश्व दुःख और शान्ति धारा के इस पाठ के पश्चात् शोक से मुक्त बने, हर व्यक्ति अहिंसा, विश्व मैत्री एवं जग कल्याण का ध्यान शान्ति और प्रेम का आचरण करें। ये करें मंगल विचार मैं विश्व के कोने-कोने मित्ती मे सव्वभुएसू-'समस्त जीवों में भेज रहा हूँ। इन विचारों में डूबकी से मेरी मैत्री है। लगाते हुए इतने एकाग्र बनो कि स्वयं वेरं मज्झ न केणइ-किसी से भी को भूल जाओ / प्रतिदिन पांच मिनट मेरा वैर नहीं है। तक विश्व-मंगल का ध्यान करना प्राणी मात्र से मेरा मैत्री भाव है। हर चाहिये। इससे विचार-शुद्धि होती जीव के प्रति मेरी प्रीति है। है। ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय कर्म का मैं किसी का विरोध नहीं करता, किसी विशेष रूप से क्षय होता है। से द्वेष नहीं करता। किसी की प्रगति प्र.631 पंच परमेष्ठि का ध्यान कैसे करें? से मुझे ईर्ष्या नहीं है। पंच परमेष्ठि के ध्यान में सर्व प्रथम मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि शान्ति–पाठ का ध्यान करें। प्राणी मात्र मेरा अपना है। मैं सभी का तत्पश्चात् चिन्तन करेंहितैषी हूँ। परमात्मा महावीर के समवसरण में आ मेरा रोम-रोम, मेरा हृदय, मेरी समस्त गया हूँ। फिर अन्तरात्मा में डूबकी
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________________ लगाकर ध्यान करो–ओ अरिहंत प्रभो! ओ डूबती नैया के खेवनहार | ओ भव्यजनों के उद्धारक! मेरे हृदय में आओ। मेरी आँखों में छा जाओ। समस्त जीवों में शासन का प्रशस्त राग भर दो। क्रमशः ध्यान में आगे बढ़ते रहो। तत्पश्चात् गुणों का ध्यान धरो। ओ दयालु अरिहंत! आपकी कृपा से ही मैंने शासन पाया है। अब मेरा रोम-रोम अरिहंतमय हो गया है। मेरे मन में प्रभु भक्ति और प्रीति के फूल खिलने लगे हैं। मेरी सांसों में आपकी खुश्बू छाने लगी है, मेरी आँखों में आप बस गये हो। मेरी आत्मा और आपकी आत्मा एकरूप एकाकार हो गयी है। सारे भेद मिट गये हैं। अब मुझे छोड़ के न जाओ / मुझे अपनी शरण में लो। ओह! मेरे जन्मों जन्म के पाप नष्ट हो रहे है, मैं पवित्र हो रहा हूँ, शुद्ध हो रहा हूँ, विशुद्ध रहा हूँ, मेरे अन्तर में साधना के हजारों दीप जल रहे हैं, मेरा पोर-पोर उसकी रोशनी में भीग गया रूप अरिहंतमय हो गया है। अरिहंत की खुश्बू से मेरी दुर्गंध नष्ट हो रही है। एक साथ सहस्र फूल मेरी आत्मा के धरातल पर खिल उठे हैं। उनमें से वीतरागता की, ज्ञान और ध्यान की, दया और करूणा की सुरभि उठने लगी है। ओ प्रभो! सभी जीवों में ऐसी ही करूणा भरो। मैत्री का भाव जगाओ। मुझ पर गुण-गांभीर्य-माधुर्य से युक्त हजारों-लाखों अमृत मेघ बरस रहे हैं और मेरे भव-भव की कालिमा धुल रही है। मेरा मान, मेरा गर्व पिघल कर बहने लगा है। मोह-मेरू खण्ड खण्ड होकर नष्ट हो गया है। इस ध्यान में समवसरण आदि का ध्यान किया जा सकता है। इस प्रकार पाँच से सात मिनट तक ध्यान करें। (ii)सिद्ध ध्यान- सिद्ध परमात्मा के आठ गुणों का एवं उनके स्वरूप का ध्यान करें। (ii)आचार्य ध्यान- आचार्य के छत्तीस गुणों का एवं उनकी महिमा का ध्यान करें। (iv)उपाध्याय ध्यान- उपाध्याय के है। अब कषाय की परतें उतरने लगी हैं, मोह की दीवारें गिरने लगी हैं, मेरा
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________________ पच्चीस गुणों का ध्यान धरे एवं ज्ञान गुण में डूबकी लगावे। (V)साधु ध्यान- साधु के सत्ताईस गुणों से एवं चारित्र की महिमा से हृदय को ओतप्रोत करें। प्र.632. महाराजश्री! मैं बहुत ही जल्दी अपने प्रति अविश्वास से भर जाता हूँ। थोड़ी-सी कहीं असफलता हाथ लगती है या सपना साकार नहीं हो पाता है, मेरा मन हीनता से भर जाता है तो क्या ध्यान की प्रक्रिया इस बीमारी में कहीं उपयोगी साबित हो सकती है? ध्यान का अर्थ है कि शान्ति प्राप्त करना। जीवन सुख और दुःख का, धूप और छाँव का मिलन है। सुख और छाँव को व्यक्ति जितना आनंद से स्वीकार करता है, दुःख की धूप में प्रायः उतना ही असंतुलित हो जाता। है। हर बार सफलता मिले, जरूरी नहीं, असफलता भी मिलती है। उस वक्त हीनता, तनाव और चिंता की ग्रन्थियाँ उसके मनोबल को तोड़ देती हैं। ध्यान एक ऐसी अनूठी विधा है, जो चित्त को स्थिर, सहज एवं धीरज देती है एवं मनोबल बढ़ाती है। प्रयोग- पद्मासन, अर्द्धपद्मासन, उ. किसी भी आसन में बैठो। ध्यान रहे मेरूदण्ड सीधा हो, वातारण शान्त हो, मन प्रशान्त हो। अब पूरक, रेचक और कुंभक करें, जिससे श्वास-उच्छवास संतुलित एवं सहज हो जाये। श्वासोच्छ्वास की अनियमितता (कभी धीरे कभी तेज) व्यक्ति को असहज बनाती है। तत्पश्चात् मन की ओर मुड़ो। अन्तर्मुखी होना प्रारंभ करो- मेरी इच्छा शक्ति प्रबल है। कोई भी समस्या उसे हिला नहीं सकती है। मेरा मनोबल मजबूत है। मैं परिस्थितियों का स्वामी हूँ। कोई भी परेशानी मुझे अस्थिर नहीं कर सकती। मेरे मन को तनाव एवं चिन्ता से नहीं भर सकती है। मेरी हीनता की सारी ग्रन्थियाँ नष्ट हो रही हैं। मेरा आत्मविश्वास बढ़ रहा है। मेहनत करना मेरा धर्म है, फल भाग्य का परिणाम है। सफलता और असफलता, दोनों जिन्दगी के अहम् हिस्से हैं। आज असफल हूँ तो क्या हुआ? सफलता मेरे भीतर छिपी है। कल जरूर प्रकट होगी। मैं अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माला हूँ। मुझे स्वयं पर पूरा भरोसा है। मेरा
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________________ पुरूषार्थ अवश्यमेव फलदायी बनेगा। मैं स्वयं के प्रति रूचिवान हूँ, मैं स्वयं से प्रेम करता हूँ, मुझे अपनी शक्तियों का प्रयोग करना है। बाधाएँ आती हैं, असफलता भी एक बाधा ही है। पर उन सभी बाधाओं को पार करके मुझे अलौकिक, अपूर्व एवं सफल व्यक्तित्व का स्वामी होना है। मैं स्वयं से स्नेह करता हूँ। विश्वास करता हूँ, गौरव करता हूँ। मेरी धमनियों में विश्वास और श्रद्धा का रक्त बह रहा है। हीनता, घुटन, बिखराव, असंतुलन, क्रोध की सारी ग्रन्थियाँ खुल रही हैं। मेरे रोम-रोम में आत्म विश्वास के असंख्य सितारें जगमगा उठे हैं। इस प्रकार दस मिनट तक प्रतिदिन जाप करें। शनैः शनैः आपको प्रतीत होगा कि वास्तव में मेरा विश्वास बढ़ा है, बढ़ रहा है। **************** 283 ******* *********
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________________ नवकार मंत्र की साधना प्र.633.मंत्र-साधना की आवश्यकता क्यों है? उ. निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विशेष विधानपूर्वक जो क्रियानुष्ठान किया जाता है, उसे साधना कहते है। कोई भी विद्यार्थी सोलह-सतरह वर्षों की दृढ मेहनत से एम.ए., एम. कॉम. की उपाधि प्राप्त करता है। वैज्ञानिकों ने शोधपूर्वक नये नये निष्कर्ष दुनिया के सम्मुख प्रस्तुत किये, वे उनकी दीर्घकालीन विज्ञानसाधना का ही परिणाम है। किसी भी बीज को वटवृक्ष में रूपान्तरित होने में युगों की अवधि पसार करनी होती है। कोई भी सिद्धि/ उपलब्धि एकाएक सिद्ध नहीं होती, उसके लिए महान् साधना एवं कठोर परिश्रम करना होता है। इस विराट् जगत में ऐसी कोई वस्तु अथवा पदार्थ नहीं, जिसे मंत्र साधना के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सके। हमारे महापुरुषों ने मंत्र को चिन्तामणि रत्न, कामगवी, कल्पवृक्ष तथा कामघट की उपमाएँ दी है। बस! जरूरी है कि इसकी आराधना व जाप सविधि हो, क्रिया ज्ञानयुक्त एंव मानस श्रद्धा से परिपूर्ण हो। प्राचीन महर्षियों द्वारा उक्त आराधना को तो हमने पकड लिया परन्तु सम्यग्ज्ञान एवं समुचित विधि को नहीं जाना, यह साधना की अपूर्णता है, ऐसी अज्ञानदशा में भला कैसे मंत्र साधना फलित हो सकती है! 'हम मंत्र-जप-साधना करते हैं! परन्तु रूक रूककर, कभी आलस्य व प्रमाद से निरन्तरता खण्डित हो जाती है तो कभी हमारी क्रिया व निष्ठा संकल्प-विकल्प में उलझकर रह जाती है। स्वीकृत मंत्र साधना को अदम्य उत्साह, उत्तरोत्तर गुणानुगुणित होती श्रद्धा, मन की उमंग एवं काया की पवित्रता- एकाग्रतापूर्वक पूर्ण प्रण से किया जाये तो साधना निश्चितरूपेण लक्षित ध्येय को प्राप्त करवाती है। . इसमें विघ्नजय, बाधाओं के प्रति
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________________ निर्भयता, शरीर की सुविधा का . त्याग, लक्ष्य शुद्धि तथा धैर्य की उत्तम पूंजी साथ हो तो ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो जाप आराधना की पर्णता में बाधक सिद्ध हो सके। प्र.634.मंत्र के स्वरूप एवं प्रभाव पर प्रकाश डालिये। उ. मंत्र योग साधना का महत्त्वपूर्ण अंग एवं महाविज्ञान है। मंत्र अर्थात् जिसका पुनः पुनः मनन किया जाये। मंत्र चमत्कारिक शक्तियों का भण्डार है। प्राचीन और अर्वाचीन काल में मंत्र साधना का महाप्रभाव सर्वविदित है, जिससे महर्षि स्वलक्ष्य और इष्ट को उपलब्ध करते आये हैं। चौदह पूर्त में से विद्याप्रवाद पूर्व में मंत्र की स्वरूप, संरचना और प्रभावों का ही वर्णन था परन्तु काल प्रभाव से आज लुप्त हो चुका है। शास्त्रों, वेदों, पुराणों आदि में वर्णित अनेक युद्ध मंत्रों के द्वारा लडे गये हैं। महाभारत के युद्ध में मंत्र शक्ति के द्वारा जिन आयुधों का प्रयोग किया गया था, वर्तमानस्थ मिसाइल्स, अणुबम से उनकी तुलना की जा सकती है। श्री विशुद्धानन्द ने मृत कबूतर को **************** 285 मंत्र शक्ति से देखते देखते जीवित कर दिया था। नवकार व दादा गुरूदेव मंत्र के चमत्कार प्रसिद्ध है। इसलिये मंत्र को ब्रह्मा भी कहा गया है। शाप हो चाहे वरदान, दोनों मंत्र शक्ति के ही प्रतिफल है। यहाँ तक की मंत्र के माध्यम से जीव मोक्ष तक प्राप्त कर लेता है। जर्मनी के प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री अरनेस्ट क्लानडी ने वायलिन वादन के अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिखाया है कि हर स्वर, नाद, कम्पन, लय, संगीत विशेष आकार को जन्म देता है। जब जड पदार्थ पर भी मंत्र स्वरों का इतना प्रभाव है तो सचेतन प्रभावित हो, इसमें अतिशयोक्ति को कोई स्थान नहीं है। मंत्र साधना में स्थान का भी प्रभाव हम देखते हैं। शत्रुजय आदि पावन स्थानों पर साधक शीघ्र ही अभीष्ट को सिद्ध कर लेता है। प्र.634. मंत्र से क्या अभिप्राय है? उ. 1. सतत् मनन करने से जो अक्षर हमारी रक्षा करते हैं, उन अक्षरों को मंत्र कहा जाता है। 2. देव द्वारा अधिष्ठित-प्रतिष्ठित अक्षरों की दिव्य संयोजना को **** *********
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________________ मंत्र कहा जाता है। 3. जिन ध्वनियों के परस्पर संयोजन एंव . उच्चारण से अलौकिक ज्योति/प्रभा प्रकट होती है, उसे मंत्र कहा जाता है। प्र.636. मंत्र साधना की कितनी विधियाँ शास्त्रों में वर्णित हैं? मंत्र साधना के लक्ष्य को केन्द्र में रखते हुए पूर्वाचार्यों ने तीन विधियों का कथन किया है। 1. उत्कृष्ट विधि - आत्म शान्ति, कर्म निर्जरा, संवर साधना एवं मोक्षरूप महान् फल की उपलब्धि को लक्ष्य में रखकर की जाने वाली विधि उत्कृष्ट कही गयी है। 2. मध्यम विधि - मानसिक व्यथा एवं चित्त की व्याकुलता को मिटाकर आराधना पथगामिनी विधि मध्यम विधि है। शास्त्रकारों ने उदाहरणपूर्वक इस विधि का उल्लेख इस प्रकार किया है, यथा- कोई दीक्षित होना चाहता है परन्तु परिवारिक प्रतिकूलता, शारीरिक रोग, मानसिक अशान्ति एवं विविध उत्तरदायित्वों से बंधा/घिरा संवेगी, निर्वेदी मुमुक्षु **************** प्रव्रज्या पथ को अंगीकार करने में अक्षम है, तब वह उन सभी बाधाओं/चिन्ताओं से मुक्त होकर विघ्नजयी बनने के लिये मंत्र साधना करता है, वह मध्यम विधि है। 3. जघन्य विधि - यह विधि भवाभिनंदी (संसारार्थी) एवं पुद्गल विलासी जीवों के द्वारा की जाती है। धन, सत्ता, सौन्दर्य, देवगति, यश, सम्मान हेतु की जाने वाली मंत्र विधि जघन्य है। यद्यपि मंत्र की शक्ति शाश्वत सत्ता, सौन्दर्य और शान्ति प्रदायक है परन्तु जो व्यक्ति पुद्गलों से प्रभावित होकर उनकी कामना में अटक कर/भटककर रह जाते हैं, वे पारसमणि-चिन्तामणि दातार को पाकर भी कंकर व कांच की याचना का मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं और जघन्य, अक्षम्य उद्देश्य की सिद्धि में लगे रहते हैं। . अन्ततः पद, पदार्थ छूट ही जाते हैं और शान्ति और साधना दिवास्वप्न की भांति दूर रह जाते हैं, अतः सुज्ञ एवं अप्रमत्तचेता को मंत्र शक्ति का माहात्म्य व रहस्य जानकर संयम, मोक्ष रूप महान् अर्थ की ही कामना **************** 286
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________________ करनी चाहिए। अन्यथा वे स्वयं की गुरूमुख से मंत्र प्राप्त कर्ता साधक कुल्हाड़ी से स्वयं के पांवों पर वार हो सकता है। करने जैसा हास्यास्पद कार्य कर 3. नियम-ब्रह्मचर्य पालन, अभक्ष्य बैठते हैं। व अनन्तकाय वर्जन, अधिकतम मौन, प्र.637. नवकार आदि मंत्र साधना की क्लेश कषाय से बचना, भूमिशयन पूर्व भूमिका समझाईये। करना। उ. 1. स्थान - मंत्र साधना सिद्धि हेतु नियमित दिशा, समय, स्थान, मन्दिर, उपाश्रय, तीर्थभूमि, नदी संख्या, आसन में जाप करना। तट एवं पर्वत का उच्च स्थान, ये पूर्वोक्त जाप विधि में अन्य निर्देशों उत्तम स्थान माने गये हैं। यदि इस प्रकार की अनुकूलता न हो को समझकर उनका पालन करना। तो अलग से कक्ष पसंद करना प्र.638. नवकार मंत्र साधना की विधि करना चाहिए पर ध्यान रहे- कक्ष बताईये। ऐसा हो जहाँ वाय-प्रकाश पर्याप्त उ. पूर्व में बताये गये संकेतों के अनुसार रूप से प्रवेश कर सके एवं शोरगुल पूर्व भूमिका तैयार करें। से सर्वथा मुक्त हो। प्रथम उपधान (अढारिया) किया 2. पात्रता - मानसिक और हुआ हो तो यह साधना शीघ्र फलित शारीरिक बल से परिपूर्ण होना होती है क्योंकि इससे व्यक्ति मन में उद्देश्य पवित्रता व नवकार मंत्र को बोलने की योग्यता स्पष्टता के साथ हो पर कषाय, को प्राप्त करता है। राग व द्वेष की मलिनता न हो। गुरू प्रदत्त शुभ मुहूर्त में आराधना धर्म में श्रद्धावान्, उत्सुक, का शुभारंभ करें। विघ्नजयी, परिमित सात्विक भोजी, आराधना के दिनों में यथाशक्ति प्रसन्न, करूणावान्, परोपकारी, उपवास आदि तप करें | आयम्बिल दयालु, मन को स्थिर करने वाला, तप को महामंगलकारी कहा गया धीर, गंभीर, सत्यवादी, नवकार पर परम श्रद्धावान्, सुदेव-गुरू की तप से त्रियोग की शुद्धि होती है। भक्ति एवं सेवा करने वाला, कषाय और शारीरिक मल नष्ट
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________________ हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति साधना की भूमिका में प्रवेश कर जाता है। 1. नवकार आदि किसी भी मंत्र प्रारंभ करने से आत्म रक्षा स्तोत्र से अपने शरीर के चारों तरफ सुरक्षा कवच का निर्माण करके शरीर की रक्षा करें ताकि जाप के समय कोई भी अनिष्ट शक्ति बाधक न बन सके। 2. माला को हाथ में ग्रहण करने से पूर्वं 'ऊँ नमो अरिहंताणं श्रुतदेवि प्रशस्तहस्ते फट् स्वाहा' इस मंत्र से हाथ की शुद्धि करें। 3. नवकार के अतिरिक्त पार्श्वनाथ, दादा गुरूदेव, नाकोड़ा भैरव, पद्मावती आदि किसी मंत्र को सिद्ध करने के पूर्व प्रथम दिन आत्मशुद्धि के प्रयोजन से मंगलकारी नवकारमंत्र की दस माला का तथा प्रतिदिन जाप को शुरू करने से पूर्व एक माला का जाप करें। इससे मंत्र सिद्ध होता (ii) ऊँ नमः सिद्धेभ्यः (iii)नमोऽर्हत्सिद्धेभ्यः (iv)ॐ श्रीं ह्रीं अर्ह नमः ये तीनों मंत्र मोक्ष फल देने वाले हैं। 5. नवकार ध्यान -' आठ पंखुड़ियों वाले श्वेत कमल का चिन्तन करके उसकी कार्णिका में नमो अरिहंताणं का ध्यान करें। फिर नमो सिद्धाणं आदि चार मंत्र पदों का अनुक्रम से कमलं की कर्णिकाओं की चारों दिशाओं में स्थिर चार पंखुड़ियों में तथा चार विदिशाओं की चार पंखुड़ियों में एसो पंचनमुक्कारो आदि चार चूंलिकाओं का चिन्तन करना चाहिये। इसे आप चित्र के माध्यम से जान सकते हैं। /पढम हवड पच IPIM नमक्कारा नमा लोए सव है। साहणं अरिहताणं आय ना In 4. मंत्र()असिआउसा नमः - इस पंचाक्षरी मंत्र के जाप से चिन्तित फल की प्राप्ति एवं भव भ्रमण की समाप्ति होती है। (FREE m
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________________ नवग्रह दोष निवारण विधि प्र.639. नवग्रह कौन कौनसे हैं? उ. 1. सूर्य, 2. चन्द्र, 3. मंगल 4. बुध, 5. गुरू, 6. शुक्र, 7. शनि, 8. राहु, 9. केतु। प्र.640. नवग्रह पूजा विधि बताईए। उ. 1. ग्रह के वर्णानुरूप पवित्र वस्त्र धारण करना। 2. आसन एवं माला भी उसी वर्ण की धारण करना। 3. प्रभु प्रतिमा, चित्र अथवा फोटो की स्थापना कर उसके सम्मुख नवग्रह पट्ट स्थापित करना। 4. सात प्रकार की शुद्धियों का ध्यान रखना। 5. मुख पूर्व या उत्तर की तरफ रखना। 6. मंत्र जाप से पूर्व आत्म रक्षा स्तोत्र से शरीर का रक्षा कवच तैयार करना। 7. जैन परम्परा के प्रतिष्ठित श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी विरचित श्री नवग्रह शान्ति स्तोत्र का पाठ करना। 8. जाप शुरू करने पूर्व नवकार की एक माला अवश्य गिनना। प्र.641. नवग्रहों के प्रभाव का नवकार आराधना से कैसे निवारण करें? उ. 1. सूर्य - ॐ ह्रीं ह्रीं हैंसूर्याय नमः की एक माला तत्पश्चात, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं का 21 दिनों में 12500 जाप करके मंत्र सिद्ध करें। 2. चन्द्र- ॐ श्रीँ श्रीं श्रौं सोमाय नमः (एक माला) ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं (12500 जाप/21 दिन) 3. मंगल- ॐ क्रीँ क्रीं क्रौं कुजाय नमः (एक माला) ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं (12500 जाप/21 दिन) 4. बुध- ॐ ब्राँ ब्री ब्रौ बुधाय नमः (एक माला) ॐ ह्रीं नमो उवज्झायाणं (12500 जाप/21 दिन) 5. गुरू-ॐ जाँ जी जौँ जीवाय नमः (एक माला) ॐ ह्री नमो आयरियाणं (12500 जाप/21 दिन) 6. शुक्र- ॐ द्रा द्रीं द्रौं शुक्राय
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________________ नमः (एक माला) शांतिः / / (1 माला प्रतिदिन) . ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं (12500 4. बुध - ॐ ह्री शांतिनाथप्रभो जाप/21दिन्) . नमस्तुभ्यम् मम शांतिःशांतिः / / 7. शनि- ॐ षाँ षी षौँ (1 माला प्रतिदिन) शनिश्चराय नमः (एक माला) 6. शुक्र - ॐ ह्रीं सुविधिनाथप्रभो ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहूणं नमस्तुभ्यम् मम शांतिः (12500 जाप/21 दिन) शांतिः।। (1 माला प्रतिदिन) 8. राहु- ॐ भ्राँ भी भ्रौँ राहवे 7. शनि - ॐ ही मुनिसुव्रतप्रभो नमः (एक माला) नमस्तुभ्यम् मम शांतिः ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहूणं शांतिः / / (1 माला प्रतिदिन) (21500 जाप/21 दिन) 8. राहू - ॐ ह्री नेमिनाथायप्रभो 9. केतु-ॐ फ्राँ फ्री फ्रौ केतवे नमस्तुभ्यम् मम शांतिः शांतिः।। (1 माला प्रतिदिन) नमः (एक माला) ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहूणं 9. केतु - ॐ ह्री पार्श्वनाथप्रभो नमस्तुभ्यम् , मम शांतिः (21500 जाप/21 दिन) __ शांतिः।। (1 माला प्रतिदिन) प्र.642. नवग्रहों के कुप्रभाव निवारण के प्रतिदिन पाठ समाप्ति के बाद 'ॐ हीं अ लिये किस भगवान का मंत्र करें? सि आ उ साय नमः' की एक माला उ. 1. सूर्य- ॐ ह्रीं पद्मप्रम नमस्तुभ्यम् का जाप करें। मम शांतिः शांतिः / / (1 माला प्र.643. नवग्रहों में किस वर्ण की माला, प्रतिदिन) आसन व वस्त्रादि का प्रयोग 2. चन्द्र- ॐ ह्री चन्द्रप्रभ नमस्तुभ्यम् करना चाहिए? मम शांतिः शांतिः / / (1 माला उ. 1. सूर्य व मंगल के लिए लाल रंग। प्रतिदिन) 2. चन्द्र व शुक्र के लिए श्वेत रंग। 3. मंगल - ॐ ह्रीं वासुपूज्यप्रभो 3. गुरू के लिए पीला रंग। नमस्तुभ्यम् मम शांतिः 4. बुध व केतु के लिये हरा रंग एवं.। 5. शनि व राहु के लिये नीला रंग। 绕绕绕路發發發發發發發發發器 290 给營路發發發發發發發發發
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________________ स्वास्थ्य मीमांसा 1.प्राणायाम 2. मुद्रा-विज्ञान 3. ध्यान-आसन 4. बन्ध, नाडी और चक्रों का वर्णन
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________________ प्राणायाम प्र.644.प्राणायाम किसे कहते है? परिपूर्ण घड़ा शान्त एवं स्थिर होता उ. प्राणों को नियंत्रित तथा नियमित है, उसी प्रकार शरीर में प्राणवायु करने की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते भर देने से वह शान्त, निष्प्रकंप एवं है। सन्तुलित हो जाता है और प्राणायाम से पांच इन्द्रिय बल प्राण, प्राणवायु शरीर में स्थिर हो जाती तीन योग प्राण, श्वासोच्छवास एवं है। इस प्रकार वायुरूपी पानी से आयुष्य, इन दस प्राणों का नियंता भरे कुम्भ (घड़े) की उपमा से बनता है। न देखना, न सुनना, न उपमित इस प्राणायाम को कुम्भक बोलना, न सोचना, न करना, यह कहा जाता है। इसके आठ भेद आत्म शक्ति प्राणायाम के द्वारा प्रकट कहे गये हैं। होती है, उसमें वृद्धि भी की जा सकती 4. शान्ति- ज्योति प्रकाश करना। 5. समता - ध्येय के स्वरूप में सूक्ष्म प्र.645.प्राणायाम कितने प्रकार के कहे .. व गहन रूप से एकाकार होना। गयें हैं? 6. एकता - आत्मा और गुणों में उ. योग के आठ भेदों में एक भेद है एकत्व का भाव। ___.. प्राणायाम / इसके सात भेद कहे गये 7. लीन भाव - आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन होना। 1. पूरक - नासिका के द्वारा वायु प्र.646.प्राणायाम किस प्रकार करें? / खींचकर छाती, फेफड़े, पेट उ. सर्वप्रथम मेरूदण्ड को सीधा करके आदि को भरना पूरक कहलाता है। पद्मासन अथवा वज्रासन में बैठो 2. रेचक - श्वास के द्वारा भरी हुई तथा दोनों हाथों को घुटनों पर प्राणवायु को प्रश्वास के द्वारा स्थापित करो। मुँह बंद रखो। आँखें नासिका से बाहर निकालना रेचक चाहे खुली हो चाहे बंद हो, परन्तु कहलाता है। सहज हो। 3. कुम्भक - जिस प्रकार पानी से दाहिनी नासिका को अंगूठे से बंद **** * ******* 293 *** * ****
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________________ करके वाम (बायी) नासिका से वायु देह बल क्षीण होता है। को धीरे-धीरे भीतर में ग्रहण करें 6. ये तीन प्राणायाम करते समय बीच अर्थात् पूरक प्राणायाम करें। की दोनों मध्यमा एवं तर्जनी फिर अनामिका अंगुली और अंगूठे से अंगुलियों को मोड दे। दाहिनी दोनों नासिका के छिद्रों को बन्द कर नासिका को अंगूठे एवं बायी दें। श्वास न ले, न निकाले यानि नासिका को अनामिका से बंद कुम्भक प्राणायाम करें। सहजतया करनी चाहिए। जितने समय तक हो सके, प्र.648.प्रणव प्राणायाम कैसे साधा जाता करें, तत्पश्चात् रेचक प्राणायाम करें। दाहिनी नासिका से शनैः-शनैः वायु उ. सीधे खड़े हो जाये। नासिका द्वारा का रेचन इस प्रकार करें कि शरीर को श्वास लेते दोनों हाथों को ऊपर वहाँ इसमें किसी प्रकार का जोर न पड़े। तक उठाते जाओ, जहाँ तक दोनों रेचन के द्वारा प्राणवायु पूरी तरह हथेलियाँ एक दूसरे का स्पर्श न करें। निकल जाने पर पुनः उसी (दाहिनी) इसके साथ-साथ ही पाँव के पीछे का नासिका से प्राणवायु ग्रहण करें। भाग यानि एडी ऊपर उठाये तथा प्र.647.पूरक आदि प्राणायाम करते समय सारा शरीर पाँवों के अग्र भाग पर क्या सावधानी रखे? टिका दे। फिर कुंभक करें। उ. 1. इनमें मुँह खुला न रहे। सहजतया जितनी देर तक कर सके, 2. श्वास (लेना) व उच्छ्वास करें। तत्पश्चात्, श्वास छोड़ते हुए (निकालना) में आवाज नहीं होनी हथेलियों को नीचे लाकर पूर्ववत् चाहिए। स्थिति में आ जाये। 3. इस अभ्यास से प्राणों पर नियंत्रण इससे स्मरण शक्ति बढती है एवं होता है और मन निश्चिन्त होता शरीर ऊर्जापूर्ण बनता है। प्र.649.थकान को प्राणायाम के द्वारा 4. इस प्रक्रिया में श्वास भरने, छोड़ने कैसे दूर किया जाता है? एवं रोकने का अधिकतम पुरूषार्थ उ. शव की भाँति शांतिपूर्वक सीधे लेट करना चाहिये। जाये। आँखें बंद। पूरा शरीर शिथिल 5. रेचक में जल्दबाजी न करें अन्यथा कर लो। कहीं खिंचाव-तनाव न रहे। **-*-*--*-*-*-*-*-*--*-*-294__ *-28-%%*-*-*-*-*-*-*-******
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________________ कोई विचार और चिंता नहीं रहे। अन्य पुरूषों की अपेक्षा तेजस्वी, मांच से दस मिनट करने से क्लान्त ओजस्वी प्रतीत होती है। शरीर शान्त एवं ताजगी से भर जाता प्राणायाम के फल है। सारी थकान छूमन्तर हो जाती है। 1. पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट एवं इसे श्रम नाशक साधन एवं शवासन निरोगी बनता है। भी कहा जाता है। 2. रेचक प्राणायाम से पेट की व्याधि प्र.650. भ्रामरी प्राणायाम कैसे किया ___ एवं कफ का नाश होता है। जाता है? 3. कुम्भक प्राणायाम से हृदय कमल उ. यह कुम्भक के आठ भेदों में से एक तत्काल विकस्वर होता है, बल, है। दोनों हाथों के अंगूठे को कान में वृद्धि एवं वायु स्थिर होती है। डालकर शेष चार अंगुलियों को दोनों प्र.652.प्राणायाम के संदर्भ में कुछ विशेष बंद नेत्रों पर रख दे। फिर नथुनों से जानकारी दीजिये / श्वास लेते हुए फेंफड़ों को वायु उ. प्राणायाम का सर्वोत्तम समय ब्रह्म से भर दे, फिर भ्रमर की तरह मुहूर्त का है। इसके लिये एकान्त, की गुंजन करते हुए उच्छ्वास करें। शान्त एवं निर्मल स्थान का चयन इस विधि से कुम्भक करने पर चित्त करना चाहिये। उस स्थान को हमेशा समाधि को उपलब्ध होता है एवं पवित्र रखे। यह भी जरूरी है कि वहाँ स्मृति-दौर्बल्य दोष नष्ट हो जाता है। वायु का संचार अवश्य हो तथा किसी भ्रामरी प्राणायाम कम से कम तीन बार भी अन्य व्यक्ति का प्रवेश निषिद्ध हो करें। क्योंकि विचार एक-दूसरे को प्र.651.प्राणायाम से क्या लाभ है? प्रभावित करते हैं। उ.. 1. प्राणायाम की सिद्धि से शरीर उस स्थान पर प्रविष्ट होने से पहले रोगमुक्त हो जाता है तथा निरोगी मन को चिंता मुक्त कर दो। सारे काया में स्वच्छ, निर्मल एवं तीव्र तनाव, क्रोध-मान-माया लोभ को बुद्धि का वास होता है। द्वार पर ही छोड़ने से वह स्थान 2. तन व्याधि मुक्त, मन प्रसन्न व सकारात्मक, शुद्ध एवं सात्विक ऊर्जा प्रफुल्लित एवं प्रकृति मधुर बनती से परिपूर्ण बनेगा। फिर जब कभी है। नेत्र, ललाट एवं मुखाकृति हैरान-परेशान हो, तब वहाँ जाओगे
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________________ तो मन स्वस्थ बनेगा। उस स्थान पर गपशप, शयन आदि न करें। यदि अलग कक्ष की व्यवस्था न हो सके तो इच्छित स्थान पर अभ्यास करें। हर अभ्यास पूर्व, उत्तर दिशा में ही करें। चुम्बकीय तत्त्व से परिपूर्ण वायु उत्तर दिशा से प्रसारित होती है। वह शरीर में ऊर्जा, शक्ति एवं आकर्षण बढ़ाती है। प्रत्येक ध्यान एवं प्राणायाम के लिये जो समय निर्दिष्ट किया है, उसमें क्रमशः वृद्धि कर सकते हैं। हर ध्यान/प्राणायाम के मध्य थोड़ाथोड़ा विश्राम लेना अच्छा-लाभकारी होता है। इनसे मन एकाग्र होगा, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी तथा वचन-शुद्धि की प्राप्ति होगी। प्र.653. महाराजश्री! प्राणायाम से वायु विजय संभव है पर मनोजेता बनने की बात कहते हैं, वह किस प्रकार संभव है? उ. मन और पवन का स्थान एक है। जहाँ मन है, वहाँ पवन है और जहाँ पवन हैं, वहाँ मन है। दोनों क्षीरनीर की भाँति परस्पर एकमेक है। उनकी क्रिया भी समान है। मन का संचरण/ अस्थिरता ज्यादा होने पर पवन भी अस्थिर होगा और मन की अचंचलता सिद्ध होने पर पवन भी स्थिर होगा। अतः प्राणायाम के द्वारा शरीरस्थ वायु को सन्तुलित एवं स्थिर किया जाता है और वायु के स्थिर होने पर मन भी संतुलित, चंचलता रहित एवं एकाग्र बनेगा ही। अतः प्राणायाम से मन को सहज ही साधा जा सकता है, इसमें कोई बाधा नहीं है।
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________________ मुद्रा-विज्ञान प्र.654. मुद्रा क्यों की जाये? उ.जिस प्रकार ब्रह्माण्ड पांच तत्त्वों से बना हुआ है, उसी प्रकार अपना शरीर भी पांच तत्त्वों से बना हुआ है। ये पाँच महाभूत तत्त्व अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल माने जाते हैं।हमारी पाँचों अंगुलियाँ इन तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। अंगुली के नाम और उनके तत्त्व Thumb - अंगूठा अग्नि - Fire-Sun _Index - तर्जनी वायु - Air-Wind Centre - मध्यमा आकाश-Ether Ring - अनामिका पृथ्वी - Earth Little - कनिष्ठिका जल - Water आकाश मध्यमा /तर्जनी अग्नि कनिष्ठिका अनामिका
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________________ हाथ में विशेष प्रकार की प्राण ऊर्जा, विद्युत शक्ति और जीवनी-शक्ति (ओरा) निरंतर चलती रहती है। विभिन्न मुद्राएँ शरीर की चेतना शक्ति को जगाने के लिए रिमोट कंट्रोल के बटन की तरह काम करती हैं। ज्ञानमुद्रा मानसिक तनाव दूर करके ज्ञानशक्ति बढ़ाती है। पृथ्वीमुद्रा से शारीरिक शाक्ति बढ़ती है। शंखमुद्रा से 72000 नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है और स्नायुमंडल सशक्त होता है। सुरभिमुद्रा से वात, पित्त और कफ प्रकृति प्रधान मनुष्य को फायदा होता है। प्र. 655. मुद्रा करने के सामान्य नियम बताईये। उ. 1. पांच तत्त्वों के संतुलन से मनुष्य स्वस्थ रह सकता है। अंगूठे के अग्रभाग पर दूसरी अंगुली के अग्रभाग को रखने से उस अंगुली का तत्त्व बढ़ता है और अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाने से वह तत्त्व कम होता है। 2. मुद्रा का प्रयोग स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध और रोगी-निरोगी कोई भी कर सकता है। बायें हाथ से मुद्रा करने से शरीर के दाहिने भाग पर प्रभाव होता है और दाहिने हाथ से करने से शरीर के बायें भाग पर प्रभाव होता है। 3. मुद्रा करते समय अंगुली और अंगूठे का स्पर्श सहज होना चाहिए। अंगूठे से हल्का दबाव देना चाहिए और दूसरी अंगुली सीधी और एक दूसरे से लगी रहनी चाहिए और हथेली आसमान की ओर रहनी चाहिए। अगर अंगुलियाँ सीधी न रहें तो आरामपूर्वक हो सके, उतनी सीधी रखने की कोशिश करनी चाहिए। धीरे-धीरे बीमारी दूर होने पर अंगुलियाँ सीधी होती जाएगी और मुद्रा भी ठीक से हो सकेगी। 4. कोई भी मुद्रा 48 मिनट तक करने पर शीघ्र लाभदायी होती है। अगर एक साथ करना संभव न हो तो सुबह - शाम 15 - 15 मिनिट करके 30 मिनट तक एक मुद्रा करनी चाहिए। सिर्फ वायुमुद्रा भोजन के बाद तुरंत कर सकते हैं, जिससे गैस की तकलीफ दूर होती है। अन्य मुद्राएँ न करें। 5. पृथ्वीमुद्रा और ज्ञानमुद्रा साधक अपनी इच्छा के अनुसार ज्यादा से ज्यादा और लंबे समय तक कर सकते हैं। 6. अन्य किसी भी चिकित्सा के साथ मुद्रा का प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि मुद्रा प्रयोग से चिकित्सा में सहायता मिलती है। 7. मुद्रा करते समय पद्मासन, व्रजासन के प्रयोग से ज्यादा एवं शीघ्र लाभ मिलता है। 8. मुद्रा प्रयोग के समय ऊनी आसन का प्रयोग करना एवं मुख उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ओर
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________________ रखना उत्तम होता है। 9. ध्यान एवं धार्मिक साधना के समय मुद्रा प्रयोग से साधना जल्दी फलित होती है, एकाग्रता बढ़ती है। 10.शारीरिक अनुकूलता न होने पर पट्ट, कुर्सी आदि का भी उपयोग किया जा सकता है। प्र. 656. ज्ञान मुद्रा किस प्रकार करें? उ. विधि :- तर्जनी के अग्रभाग और अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों को एक साथ सीधी रखने से ज्ञानमुद्रा बनती है। लाभ: 1.यह मुद्रा मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को सक्रिय बनाती है जिससे मन ___ शांत होता है और ज्ञान का विकास होता है। 2.इससे मानसिक एकाग्रता, स्मरण शक्ति और प्रसन्नता बढ़ती है। 3.आध्यात्मिकता, स्नायुमंडल की क्षमता और ध्यान में प्रगति होती है। 4. मानसिक रोग जैसे पागलपन, अस्थिरता, अनिश्चितता, उन्माद, बैचेनी, डीप्रेशन, फिट की बीमारी, चंचलता और व्याकुलता दूर होती है। 5. चिन्ता, क्रोध, उत्तेजना, आलस्य, भय जैसे मानसिक तनाव दूर होते हैं। 6. अनिद्रा के रोग में ज्ञानमुद्रा रामबाण उपाय है। जिसे ज्यादा नींद आती हो, उनकी नींद संतुलित होती है। अनिद्रा की पुरानी बीमारी अथवा माइग्रेन जैसे सिरदर्द के लिये ज्ञानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए, जिससे शीघ्र लाभ होता है। इस मुद्रा को व्याख्यान और सरस्वती मुद्रा भी कहते हैं क्योंकि इस मुद्रा से स्वयं का चिंतन और पुस्तक का ज्ञान बढ़ता है। प्र. 657.वायु मुद्रा का विधान बताओ। उ. विधि - तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से उसके पर हल्का सा दबाव रखते हुए और दूसरी अंगुलियाँ सीधी रखने पर वायुमुद्रा बनती है। वायुमुद्रा वज्रासन में बैठकर करने से तुरंत और ज्यादा लाभ मिलता है। लाभ: 1.खाना खाने के बाद बैचेनी या गैस की तकलीफ हो तब तुरंत वज्रासन में बैठकर यह मद्रा करने से राहत मिलती है। 2.वायु के रोग जैसे सायटिका, लकवा (पेरेलिसीस), घुटनों के दर्द में
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________________ राहत मिलती है। 3. वातजन्य गर्दन के रोग में अगर बायीं ओर तकलीफ हो तो दाहिने हाथ से और दाहिनी ओर __ तकलीफ हो तो बायें हाथ से मुद्रा करनी चाहिये। नोट : यह मुद्रा 30 मिनट तक कर सकते हैं। जरूरत हो तो दिन में दो से तीन बार 15-15 मिनट तक कर सकते हैं। जब दर्द दूर हो जाये और वायु सम हो जाये, तब इस मुद्रा का प्रयोग बंद कर देना चाहिए। प्र. 658.आकाश मुद्रा किस प्रकार की जानी चाहिये? उ. विधि- मध्यमा अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर शेष तीनों अंगुलियों __ को सीधी रखते हुए आकाश मुद्रा बनती है। लाभ: 1.इस मुद्रा से भावधारा निर्मल होती है एवं आत्म शक्ति व स्फूर्ति का विकास होता है। 2.दांत की कोई भी तकलीफ दूर हो जाती है एवं दांत मजबूत बनते हैं। 3. उबासी लेते वक्त अगर जबड़ा जम जाये तो इस मुद्रा से ठीक होता है। कान की बीमारी __ अगर शून्य मुद्रा से ठीक न हो तो साथ में आकाश मुद्रा भी करनी चाहिये / मुमुक्षु भाव जगाने में यह प्रभावक मुद्रा है। प्र. 659. शून्य मुद्रा किस प्रकार करें? उ. विधि-मध्यमा के अग्रभाग को अंगूठे के मूल भाग पर लगाकर उसके ऊपर अंगूठा रखकर हल्का दबाव देकर बाकी की अंगुलियाँ सीधी रखते हुए शून्य मुद्रा बनती है। लाभ: कान के दर्द में, कान में सतत आवाज आना, कम सुनाई देना आदि कोई भी बीमारी ठीक न हो तब तक यह मुद्रा निरंतर करनी चाहिये। 5 से 10 मिनट करने से तुरन्त लाभ मिलता है। नोट :- ऊपर बतायी हुई तकलीफ दूर होने के बाद यह शून्यमुद्रा का अभ्यास भी बंद कर देना चाहिए। श्रवण शक्ति बढती है परन्तु उसका फिल्म संगीत आदि के श्रवण में इस मुद्रा का दुरूपयोग न करके हित शिक्षा सुने। प्र. 660. पृथ्वी मुद्रा कैसे करें?
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________________ उ. विधि-अनामिका अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर शेष तीनों अंगुलियाँ तर्जनी, मध्यमा, और कनिष्ठिका सीधी रखकर पृथ्वी मुद्रा बनती है। लाभ: 1. इस मुद्रा के द्वारा शक्ति, कान्ति और तेजस्विता बढ़ती है। बाजार के किसी भी टॉनिक से यह मुद्रा ज्यादा असरकारक है। इस मुद्रा से आंतरिक प्रसन्नता, स्फूर्ति, स्वस्थता, उदारता और विचारशीलता बढ़ती है और विशाल हृदयी बन सकते हैं। नोट :- इस मुद्रा से शक्ति बढ़ती है इसलिए बढ़ी हुई शक्ति का दुरुपयोग न हो, इस बात का ध्यान रहे। प्र. 661. आदिति मुद्रा की विधि एवं लाभ बताओ। उ. विधि - अंगूठे के अग्रभाग को अनामिका के मूल पर रखकर, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका, इन चारों अंगुलियों को एक दूसरे के पास सीधी रखने पर आदिति मुद्रा बनती है। इस मुद्रा में अंगूठा थोड़ा सा तिरछा रहेगा। लाभ : - जिन्हें सुबह उठते ही एक बार-बार छींक आती हो या नियमित छींक की तकलीफ रहती हो, उनके लिये यह मुद्रा अत्यन्त लाभप्रद है। ___ उबासी और छींक इस मुद्रा से रोकी जा सकती है। इस मुद्रा के साथ सत्संग करने से ज्यादा लाभ मिलता है। प्र. 662. सूर्यमुद्रा कैसे करें? उ. विधि-अनामिका के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से अनामिका पर हल्का __सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ सीधी रखते हुए सूर्यमुद्रा बनती है। पद्मासन या सिद्धासन में करने से ज्यादा लाभ होता है। लाभ: 1.इस मुद्रा से सूर्यस्वर शुरू होकर अग्नितत्त्व बढ़ता है, जिसके कफ ___ के हर रोग में यह उपयोगी मुद्रा है। दमा, सर्दी, निमोनिया, टी.बी., प्लुरसी, सायनस और सर्दी में असरकारक है। 2.5 से 15 मिनट करने से सूर्यस्वर शुरू होता है। 3. थॉयराईड ग्रंथि का स्राव संतुलित होता है। . *************** 301 ************* **
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________________ 4. ज्यादा वजन को कम करने में सहायता मिलती है। 6. इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से पाचन शक्ति का विकास होता है। नोट : ज्यादा दुर्बल शरीर वाले इस मुद्रा का प्रयोग न करें। प्र.663.प्राण मुद्रा का प्रयोग किस प्रकार करें? उ. विधि -1. अंगूठे के अग्रभाग पर कनिष्ठिका के अग्रभाग को मिलाकर, कनिष्ठिका के नाखून पर अनामिका का अग्रभाग रखकर, शेष तर्जनी और मध्यमा सीधी रखकर प्राणमुद्रा बनती है। 2. यही मुद्रा करने का दूसरा तरीका : अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ (तर्जनी और मध्यमा) सीधी रखते हुए प्राणमुद्रा बनती है। प्राणवायु मुख्यतया नासिका में, मुख में, हृदय में और नाभि के मध्यभाग में होती है। लाभ: 1. प्राणमुद्रा से प्राणशक्ति का विकास होता है। मेरुदंड सीधा रखते हुए प्राणमुद्रा करने से प्राण ऊर्जा सक्रिय बनकर उर्ध्वमुखी बनती है, जिससे चैतन्य शक्त्यिाँ उर्ध्वगामी होती है। 2. प्राणमुद्रा शरीर में स्फूर्ति, आशा, उमंग और उत्साह पैदा करती है। 3. शारीरिक तौर से दुर्बल व्यक्ति के लिए यह खास मुद्रा है। इससे इतनी शक्ति पैदा होती है कि कमजोर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से शक्तिशाली बनकर रोग के संक्रमण से दूर रह सकता है। 4. इस मुद्रा से विटामिन्स की कमी दूर हो जाती है। 5. इससे आँखों की रोशनी बढ़ती है। आँखों की किसी भी बीमारी में लाभदायक है। 6. थकान के समय करने से शरीर में नवशक्ति का संचार होता है। 7. प्राणमुद्रा से भूख-प्यास की भावना लुप्त होती है। 8. एकाग्रता का विकास होता है। प्र. 664. शंख मुद्रा किस प्रकार करें? उ. विधि- बायें हाथ के अंगूठे को दाहिने हाथ की हथेली पर रखकर दाहिने हाथ के बाएं अंगूठे सहित मुट्ठी बंद करके, बायें हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को दाहिने हाथ के अंगूठे के अग्रभाग को
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________________ मिलाकर, बायें हाथ की मध्यमा अनामिका और कनिष्ठिका, दाहिने हाथ की हथेली के पीछे कीतरफ दाहिने अंगूठे के पास रखकर शंखमुद्रा बनती है। अंगुलियों के अग्रभाग के मिलने के स्थान में हल्का दबाव देना है। इस मुद्रा का आकार शंख की आकृति जैसा होता है। लाभ: 1. यह मुद्रा करने से रोग का उपद्रव दूर होता है, अनिष्ट तत्त्वों का विसर्जन होता है और इष्ट तत्त्वों का सर्जन होता है। 2. थॉयराईड रोग दूर होता है। 3. नाभि के पोइन्ट दबने से हटी हुई नाभि अपने स्थान में आती है। 4. हकलाना,तुतलाना आदि वचन संबंधी दोष इस मुद्रा से नष्ट होते हैं। 5. वाणी की मधुरता और वचन की स्पष्टता बढ़ती है। विशेष : गलत तरीके से करने पर थाइराईड के स्राव में असंतुलन होने से शरीर अशक्त अथवा स्थूल हो सकता है। प्र. 665.ध्यान मुद्रा किस प्रकार साधी जा सकती है? उ. विधि- पद्मासन में बैठकर संभव न हो सके तो सुखासन में बैठकर बायीं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर दोनों अंगूठे एक दूसरे से मिलाकर नाभि के नीचे दोनों हाथ स्थापित करके ध्यान मुद्रा या वीतराग मुद्रा बनती है। इस मुद्रा में दोनों अंगूठे मिलाने से ऊर्जा उत्पन्न होती है। लाभ : यह ध्यान में विशेष लाभदायक है। (1) इससे चंचलता नष्ट होती है (2) आभामण्डल प्रभावशाली और विशुद्ध बनता है। (3) अनिष्टकारी तत्त्व साधना में बाधक नहीं बनते हैं। (4) आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने में परम सहायक है। (5)मानसिक शांति, स्वभाव परिवर्तन, वीर्य ऊर्ध्वगमन, सात्विक-चिंतन आदि में यह अत्यन्त उपयोगी मुद्रा है। प्र. 666.सुरभि (धेनु) मुद्रा किस प्रकार की जाती है? उ. विधि- नमस्कार मुद्रा में हाथ रखकर, एक हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग से मिलाकर, ऐसे ही एक हाथ की तर्जनी को दूसरे हाथ की मध्यमा के अग्रभाग को * ************* 303 ****************
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________________ लगा के (सभी अंगुलियाँ एक दूसरे के आमने-सामने मिलती हैं) दोनों अंगूठे एक दूसरे के आसपास रखते हुए सुरभि या धेनुमुद्रा बनती है। इस मुद्रा में गाय के आंचल जैसी आकृति बनने से इसे धेनुमुद्रा कहा जाता है। लाभ: 1. इसे कामधेनु मुद्रा भी कहा जाता है। जैसे कामधेनु इच्छित फल प्रदान करती है, वैसे सुरभि __मुद्रा से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। 2. वात, पित्त और कफ की प्रकृति का संतुलन होता है। 3. नाभिकेन्द्र स्वस्थ होता है एवं शरीर तथा पेट संबंधी रोग शांत होते हैं। 4. चित्त की निर्मलता बढ़ती है और योगसाधना में सहयोग मिलता है। 5. ध्यान करने के वक्त यह मुद्रा करने से ब्रह्मनाद (दिव्यनाद) सुनाई देता है। दुन्यवी शोरगुल से दूर होकर इस नाद में लीन रह सकते हैं। ** **** * * 304 ****************
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________________ ध्यान - आसन है। प्र.667.आसन किसे कहते है? निभाती है। उ. स्थिरता, एकाग्रता और सुख देने 2. आसन के अभ्यास से राग-द्वेष, वाली, बैठने की विशेष मुद्रा को क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आसन कहा जाता है। आसन वह है, आन्तरिक द्वन्द्व तथा भूख, प्यास, जिसमें सुखपूर्वक निश्चल होकर सर्दी, गर्मी, थकान, अस्थिरता अधिकाधिक ध्यान/जाप में बैठा जा आदि बाह्य द्वन्द्व समाप्त हो जाते सके। प्र.668. आसन कितने प्रकार के कहे गये 3. आसन-साधना से शरीर हल्का, स्वस्थ एवं स्फूर्ति से परिपूर्ण बनता आसन के अनेक भेद कहे गये हैं, उनमें भी चौरासी प्रधान तथा प्रसिद्ध 4. आसन से प्रत्येक नाडी में समुचित हैं। जैसे सिद्धासन, पद्मासन, रूप से रक्त संचरण होता है। भद्रासन, स्वस्तिकासन, योगासन, . इन्द्रियाँ और नाड़ियाँ आलस व मुक्तासन, वज्रासन, गोदुग्धासन जड़ता से मुक्त होकर चैतन्य आदि। शक्ति से युक्त बनती हैं। अलग-अलग साधना के लिये प्र.670.आसन कब व कहाँ करें एवं उस अलग-अलग आसन उपयोगी होते समय शरीर की स्थिति कैसी हैं परन्तु ध्यान सिद्धि के लिये इन होनी चाहिये? सभी आसनों में पद्मासन, उ. आसन आत्मा की अनन्त सुषुप्त . स्वस्तिकासन एवं सिद्धासन शक्तियों को प्रकट करते हैं। इनके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास से तन तंदुरुस्त, मन प्र.669.आसन करने से क्या लाभ हैं? विकस्वर एवं बुद्धि तीक्ष्ण बनती है। उ. 1. योगमार्गारूढ साधक को ध्यान में यदि आसन अविधि, अकाल में किये प्रवृत्त व स्थिर होने से आसन की जाये तो लाभ की बजाय हानि के सिद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका / कारण बन जाते हैं अतः आसन करते
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________________ समय निम्नोक्त बातों का विशेष रूप से ध्यान में रखें। 1. भोजन के छह घण्टे बाद अथवा दूध पीने के दो घण्टे बाद आसन कर सकते हैं। खाली पेट आसन करना सर्वोत्तम मार्ग है। 2. आसन करते समय श्वास मुख से न लेकर श्वसन नासिका से ही ग्रहण करें। 3. मेरूदण्ड, सीना आदि सीधे होने चाहिये। 4. जयणापूर्वक कम्बल आदि बिछाकर करें अन्यथा शरीर में प्रवाहित विद्युत्-प्रवाह रुक सकता है। 5. आसन करते समय शरीर के साथ अत्याचार न करें। सहजता से जितना सधे, उतना धैर्य से करें। 6. आसन करते समय आज्ञा चक्र आदि पर ध्यान करने से महान् लाभ मिलता है। 7. आसन ऐसे स्थान में करें, जो प्रकाश युक्त एवं जीवों के उपद्रव से रहित हो, जहाँ स्त्री, नपुंसक, तिर्यंचआदि का आवागमन न हो। प्र.671.पद्मासन करने का विधि-विधान समझाईये। उ. पद्मासन को कमलासन एवं पर्यंकासन भी कहा जाता है। इस आसन में पाँवों का आकार पद्म अर्थात् कमल तुल्य होने से पद्मासन कहा जाता है। तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा पद्मासन में होती है। विधि- दोनों भृकुटियों के मध्य में जो आज्ञा चक्र है, उस पर ध्यान स्थापित करें। रेचक करते हुए दाहिने पांव को मोडकर बायीं जंघा पर रखें और बायें पांव को मोड कर दाहिनी जंघा पर रखें। ध्यान रहे - घुटने जमीन से लगे रहे। सिर, गर्दन, * सीना, मेरुदण्ड आदि का पूरा भाग सीधा और तना हुआ हो तथा दोनों हाथ दोनों घुटनों पर ज्ञान मुद्रा में स्थापित करें अथवा नाभि के सम्मुख एक दूसरे पर रखें। पांवों में कदाच् झनझनाहट, चित्त में घबराहट हो तब भी अखिन्न मन से अभ्यास जारी रखें। धीरे धीरे आसन सिद्ध हो जायेगा। दृष्टि नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में स्थिर रखें। आँखें आधी खुली आधी बंद, अथवा पूरी तरह बंद रख सकते हैं। इस आसन में ध्यान करें कि आज्ञा
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________________ चक्र में स्थित दर्शन केन्द्र तक कहा गया हैं कि बुरे से बुरे एवं उद्घाटित हो रहा है। निम्न केन्द्र लम्बे से लम्बे सिगरेट, तम्बाकू, में स्थित चेतना (वीर्य) तेज और गांजा, चरस, अफीम, शराब आदि ओज में परिवर्तित होकर ऊर्ध्वगामी व्यसन छूट जाते हैं। हो रही है। 5. पक्षाघात, कुष्ठ, दमा, केंसर, उदर लाभ कृमि, त्वचा के रोग, वात-पित्त1. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य कफ आदि बीमारियाँ शान्त हो स्वरचित योग शास्त्र में इस जाती हैं। आसन के गुणों का कीर्तन करते 6 मानसिक विकार, कषाय, क्रोध, हुए कहते हैं कि जैसे पंक में द्वेष, ईर्ष्या, वैर-विरोध आदि रोगों उत्पन्न और जल से पोषित कमल से छुटने के लिये यह आसन वृद्धि को प्राप्त करके उनसे अमोघ उपाय है। निर्लिप्त (अलग) रहता है, इसी 7. धातु क्षय में यह उपयोगी आसन प्रकार साधक पद्म (कमल) - है। इससे स्मरण शक्ति आसन को साधकर संसार रूप एवं आत्म बल बढता कीचड़ में उत्पन्न होकर एवं भोग है। जल से वृद्धि पाकर भी दोनों से इस आसन की महिमा मुक्त होकर योग रूप अभ्यास अपार है। हठयोग करके आत्मा में स्थित हो जाता है। प्रदीपिका में कहा गया 2. इस आसन के अभ्यास से हैखिन्नता, व्याकुलता एवं चंचलता इदं पद्मासन प्रोक्तुं, सर्वव्याधिविनाशनम् / पलायन कर जाती है। दुर्लभ येन केनापि, धीमता लभ्यते भुवि / / 3. नयन की तेजस्विता, मुख की इस प्रकार सर्वव्याधियों को समाप्त सौम्यता व बुद्धि की तीक्ष्णता करने वाले पद्मासन की प्राप्ति किसी बढती है। चित्त उल्लास से भरा विरल बुद्धिमान् पुरुष को ही होती है। रहता है। चिन्ता, शोक आदि नष्ट ध्यान रहे- दुर्बल व्यक्ति पद्मासन न हो जाते हैं। करें अन्यथा विपरीत परिणाम आ 4. इस आसन से आत्म विश्वास सकते हैं। बढता है। इसका प्रभाव तो यहाँ * *** * 307 ** ** ****** ****
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________________ प्र.672.सिद्धासन किस प्रकार साधा लाभ-इस आसन से नाडियों का जाता है? शुद्धिकरण, नियमित पाचन क्रिया, उ. अलौकिक शक्तियों/सिद्धियों को एकाग्र मन, प्राणों का उर्ध्वारोहण, वीर्य प्रदान करने में समर्थ होने इस रक्षण एवं ब्रह्मचर्य पालन में यह आसन को सिद्धासन कहते है। आसन विशेषोपयोगी है। इस आसन जिस प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ से स्वप्न दोष का निवारण हो जाता है, उसी प्रकार आसनों में सिद्धासन है। दिव्यशक्ति, मेधा विकास, श्रेष्ठ है। इसे सिद्धिप्रिय योगियों मानसिक एकाग्रता आदि जो गुण का आसन कहा गया है। पद्मासन से प्राप्त होते हैं, वे इस विधि- बायें पांव की एडी को योनि आसन से भी मिलते हैं। के मध्य जिसे सीवन स्थान कहा विद्यार्थी लिये यह उतम आसन है। जाता है, वहाँ लगायें। गुदा और इस आसन में बैठकर जो भी पढा जननेन्द्रिय के मध्य का भाग योनि जाये, वह शीघ्र ही कंठस्थ होता हुआ कहलाता है। उस स्थान को एडी से दीर्घावधि पर्यन्त स्मृति में बना रहता दबाकर रखें। तथा दाहिने पांव की एडी को है। इस आसन को सामान्य व्यक्ति न ___ जननेन्द्रिय की करें अन्यथा विपरीत परिणाम हो जड में लगावे और .. सकते हैं। नेत्रों को अचल प्र.673. स्वास्तिकासन किसे कहते हैं? दृष्टि से आज्ञा चक्र उ. स्वस्ति अर्थात् मंगल और शुभ करने में स्थापित करें। वाला। इसे मूलासन भी कहा जाता __श्वासोच्छवास है। समस्त आसनों में सुगम स्वाभाविक, आँखें स्वस्तिकासन कल्याणकारी और खुली हो चाहे बन्द, हाथ नाभि के शान्तिप्रदायक है। सम्मुख उपर-नीचे, चित्त शान्त! विधि- दोनों ओर के जानु (घुटने) परम मौन और निर्विचार! और जंघा के मध्य दोनों पांवों के कोलाहल रहित प्रशान्त वायुमण्डल! तलवों को रखकर स्थिर होने वाला स्वच्छ स्थान! उत्तम दिशा! ढीले आसन स्वस्तिकासन है। शेष बातें वस्त्र। पूर्ववत् जान लेनी. चाहिये। ध्यान **************** 308 ****************
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________________ रहे-इस आसन में बायां पांव नीचे .और दायां पांव उपर रहे तथा दोनों हाथ नाभि के सामने उपर-नीचे / लाभ1. मोक्षार्थी जीवों के लिये यह उत्तम आसन है। 2. इस आसन में बैठने से __आलस/प्रमाद दूर होता है। 3. हर व्यक्ति सहजतया इस आसन को साध सकता है।
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________________ बन्ध, नाडी और चक्रों का वर्णन है। हैं? प्र.674.तीन प्रकार के बंध कौनसे हैं? तरह भीतर खींचे कि वह पीठ से लग उ. (1) मूलबन्ध (2) उड्डीयान बंध जाये और शरीर को थोडा आगे (3) जालन्धर बन्ध। झुकाये, यह उड्डीयान बंध की विधा प्र.675. मूल बंध किस प्रकार किया जाता लाभ-इस बंध से ब्रह्मचर्य पालन उ. एडी से गुदा और जननेन्द्रिय के मध्य तथा कब्ज रोग का विनाश होता है का भाग, जिसे सीवन या योनि कहते और पेट की अनावश्यक चर्बी नष्ट हो हैं, उसे दबाना और गुदाद्वार को जाती है। संकुचित करते हुए (भीतर की ओर प्र.677.जालन्धर बन्ध किसे कहते हैं? खींचते हुए) किया जाने वाला मूलबंध उ. पद्मासन में स्थित होकर पूरकपूर्वक कहलाता है। कुम्भक करके ठुड्डी को झुकाकर लाभ- इस बंधन-विधान से बिगडते सीने के साथ लगाना जालन्धर बन्ध स्वास्थ्य की रक्षा, शरीर में नयी शक्ति कहलाता है। . का संचार, वीर्य की पुष्टि एवं लाभ- इसके अभ्यास से कंठ संबंधी जठराग्नि का प्रदीप्तिकरण होता है। समस्त रोग दूर हो जाते हैं, प्राणों का बालों का श्वेत होना और वीर्य का व्यवस्थित संचरण होता है तथा इडा, विनाश रूक जाता है। पिंगला नाडी बंद होकर प्राण, अपान अपान वायु ऊर्ध्वगति पाकर प्राणवायु सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है। इस आसन के साथ सुषुम्ना में प्रविष्ट होती है, में बैठकर सम्पूर्ण श्वास निकालकर जिससे अनहद आनंद का कोष खुल मूल व उड्डीयान बंध करना। बाद में जाता है। इस बंध से यहाँ तक कि पूरक और कुम्भकपूर्वक जालन्धर बंध बुढ़ापे को भी जीता जा सकता है। करके ऊँकार अथवा इष्ट देव के मंत्र प्र.676. उड्डीयान बंध किसे कहते है? का जाप करने से विकारों का विनाश, उ. सम्पूर्णतया रेचन करके पेट को इस चित्त की स्वस्थता, शोक-रोग से ************** 310 ****************
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________________ मुक्ति एवं आत्म स्वरूप का दर्शन जानना चाहिये / इनका विस्तृत वर्णन होता है। अन्य ग्रन्थों से एव गुरूगम से जानना प्र.678. इडा, पिंगला एवं सुषुम्ना को / चाहिये। समझाईये। . प्र.679. मूलाधार आदि चक्रों को प्राणों को वहन करने वाली बारीक समझाईए। नलिकाओं को नाड़ी कहते हैं। उ. चक्र आध्यात्मिक ऊर्जा के केन्द्र हैं। तन्दुलवेयालिया सूत्र में करोड़ों ये सूक्ष्म शरीर में होने से चर्मचक्षु से नाडियाँ कही हैं, अन्य धर्मावलम्बी दिखते नहीं हैं। अतः स्थूल शरीर में 72000 नाडियाँ मानते हैं, फिर भी स्थित स्नायु केन्द्र, ज्ञान तन्तु आदि से साढे तीन करोड़ रोमावली सर्वमान्य इनकी साम्यता घटित करते हुए है। शरीर में इडा, पिंगला, सुषुम्ना, इनका कथन किया जाता है। ऐसे गांधारी, हस्तिजिव्हा, पूषा, यशस्विनी, सात चक्र हैं। अलम्बुषा, कुहू, शंखिनी, ये दस 1. मूलाधार चक्र - गुदा से दो नाडियाँ मुख्य हैं। इनमें भी प्रथम तीन अंगुल उपर और मेरूदण्ड के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी अन्तिम मणके पास स्थित चक्र उत्पत्ति आज्ञा चक्र से हुई है और को मूलाधार कहा जाता है। इसे सहस्रार चक्र व मेरू से होती हुई गुह्य गणेश चक्र भी कहा जाता है। स्थान से होकर नाभि के केन्द्र में मिल इसका रक्त वर्ण कहा गया है। गयी हैं। . इस चक्र का ध्याता एक वर्ष के शरीर में मेरूदण्ड के दक्षिण (दायीं) अन्दर-अन्दर नहीं पढे हुए दिशा में पिंगला और वाम (बायीं) क्लिष्टतम शास्त्रों और उनके दिशा में इडा नाडी है। इन नाडियों के रहस्यों को आत्मसात् करता है। मध्य में सुषुम्ना (सुखमना) नाडी है। उसके सम्मुख सरस्वती नृत्य जब बायां स्वर (श्वास) चले तब चन्द्र करती है। का उदय एवं दायां स्वर (श्वास) चले 2. स्वाधिष्ठान चक्र - पीतमयी तब सूर्य का उदय जानना चाहिये। उष्मा से युक्त रक्तवर्णीय यह चक्र दोनों स्वर (श्वास) चलने पर सुषुम्ना जननेन्द्रिय के मूल में स्थित है। **** *** ** * ** 311 *************
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________________ इसके ध्यान से व्यक्ति कवि बनता 3. मणिपुर चक्र - नाभिकेन्द्र में स्थित मणिपुर चक्र सूर्य के समान प्रकाशित है। इसके ध्यान से स्वर्ण सिद्धि आदि लब्धियाँ प्राप्त होती हैं एवं देव दर्शन सुलभ होते हैं। 4. अनाहत (अनहद) चक्र - रक्तवर्णीय अनाहत चक्र हृदय में स्थित हैं, जिसके ध्यान से निरंजन, निराकर आत्म स्वरूप का दर्शन होता है। 5. विशुद्धि चक्र - धुएँ के समान वर्ण वाले कण्ठ में स्थित इस चक्र को साधने वाला शास्त्र ज्ञाता, योगी- शिरोमणि बनता है। 6. आज्ञा चक्र - दोनों भृकुटियों के मध्य में स्थित श्वेत वर्ण वाले आज्ञा चक्र के ध्यान से मन की चंचलता नष्ट होती है, व्यक्ति युग पुरुष बनता है। 7. सहस्रार चक्र - मस्तिष्क में चोटी के स्थान में स्थित सहस्रार चक्र के ध्यान से व्यक्ति तेजस्वी बनता है।
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________________ परिशिष्ट पारिभाषिक शब्दकोष 1. अगुरुलघुत्व -जो भारीपन और हल्केपन, दोनों से मुक्त हो। सिद्ध परमात्मा के आठ गुणों __ में से एक गुण / 2. अतिशय - चमत्कार, विशिष्ट, प्रभाव / 3. अध्यवसाय- मन के विचार, परिणाम | 4. अनादि - जिसका प्रारंभ न हो / 5. अनुश्रुति -परम्परा से सुनी जा रही बात। 6. अभक्ष्य - जो पदार्थ खाने योग्य न हो। 7. अभिगम - दर्शनार्थ जाते समय जिन पांच बातों का ध्यान रखा जाये / 8. अमनोज्ञ - अप्रिय, जो मन को अच्छा न लगे / 9. अममत्व - मोह-राग रहित / 10. अरति - संसार के भोग प्राप्त नहीं होने पर या प्राप्त भोग-उपभोग के साधनों का वियोग होने पर दुःख की अनुभूति / 11.अर्जुन - श्वेत वर्ण / 12. अवगाहना-जैन दर्शन में शरीर की ऊँचाई (Height) को अवगाहना कहते है। 13: अविनाभावी- जो तत्त्व जो एक दूसरे के बिना नहीं रहते हो। जैसे जीव तत्त्व के बाहर जीवात्मा (आत्मा) नहीं होती। 14. असंयती- असंयमी / 15. असंख्य - जिसे संख्या में अभिव्यक्त नहीं किया जा सके | 15. आदान - ग्रहण करना / 16. आमलक- आंवला | 17. आश्रव - कर्मों के आने का द्वार | 18. उत्कृष्ट - सर्वाधिक (Maximum) * ***** ***** ** 313 * * * ***
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________________ 19. उदरशूल - पेट दर्द / 20. एषणीय - एषणा (याचना) के योग्य / 21.कल्पनीय - आचार के योग्य / 22. कल्याणक- कल्याण करने वाला / 23. कालातिक्रम- जिसका जो समय है, उससे अधिक हो जाना / 24. काष्ठ - लकडी / 25.गन्तव्य - जाने योग्य, जहाँ पहुँचना है, वह स्थान | 26. ग्राह्य - ग्रहण करने योग्य / 27. छद्मस्थ काल - दीक्षा से केवलज्ञान होने के मध्य का काल | 28. जघन्य - कम से कम (Minimum) 29. जंघाचारण- ऐसे मुनि, जो जंघाओं पर हाथ रखकर आकाश में विचरण करते हैं। 30. त्रियोग - मन, वचन और काया रुपं तीन योग / 31. द्वय - दो 32. धर्मास्तिकाय-छह द्रव्यों में से एक / 33. ध्यातव्य - ध्यान देने योग्य / 34. नववाड - ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिये नौ प्रकार के नियम | 35. निक्षेपण - रखना / 36. निदान - धर्म के बदले में संसार की याचना / जैसे द्रौपदी ने पूर्वभव में याचना की थी। 37. निरवद्य - हिंसा रहित / 38. निर्मद - अभिमान रहित / 39. निर्वाण - मोक्ष / 40. निर्वेद - वैराग्य / 41. पल्य - जैन दर्शन में काल गणना का एक मापदण्ड / असंख्य वर्षों की कालावधि / 42. परठना - गिराना, छोडना, त्याग देना / 43. परिणमनशील- बदलने वाला / ****** 314 *****************
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________________ 44. परीषह - कष्ट 45. पर्युपासना- हर तरह से सेवा, पूजा, सत्कार, उपासना / 46. पर्षदा - सभा / 47. प्रच्छन्न - छिपा हुआ / 48. प्रत्याख्यान- पच्चक्खाण, नियम, मर्यादा। 49. प्रमाद - यथासमय में कार्य आदि न करना और असमय में करना / 50. प्रर्माजना - अच्छी तरह देखना, साफ करना / जैन मुनि आसन आदि बिछाने से पहले और किसी भी पदार्थ को रखने से पहले रजोहरण, डंडासने से भूमि स्वच्छ करते हैं ताकि किसी भी जीव की हिंसा न हो / 51. प्रव्रज्या - दीक्षा / 52. प्रासुक - जीव रहित भोजन-सामग्री। 53. भण्डमत्त-भाण्डोपकरण, बर्तन / 54. मत्सरता- ईर्ष्या, जलन / 55. मिथ्यात्व- गलत धारणा, विपरीत समझ / 56. यथाख्यात- तीर्थंकरों ने जैसा कहा, वैसा चारित्र / 57. युगलिक- एक साथ जन्म लेने वाला नर-नारी युगल | 59. रज्जू - लोक चौदह रज्जू प्रमाण है। असंख्य योजन का एक रज्जू / माप का एक भेद | 60. रति - सांसारिक भोगों में आनंद का भाव / 61. लौहपिण्डाग्नि- लोहे को जब बहुत तपाया जाता है तब लोहा अग्नि-वर्ण का हो जाता है / यानि लोहा और अग्नि एकाकार हो जाते हैं। 62. वर्ण्य - छोड़ने योग्य। 63. वलय - गोल / 63. वाचना. - देशना, प्रवचन, व्याख्यान। 64.विजातीय - विपरीत जाति वाला जैसे स्त्री के लिये पुरुष और पुरुष के लिये स्त्री। 65. वेदत्रिक - पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, इन तीनों को एक साथ बताने वाली संज्ञा /
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________________ 66. वेयावच्च - सेवा, वेयावृत्य / 67. विद्याचरण- वे मुनि, जो विद्या से आकाश में विचरण करते हैं। 68. विभूषा - शृंगार | 69. विराधना - हिंसा / / 70. सज्झाय - स्वाध्याय। 71. समवसरण- जहाँ तीर्थंकर देशना देते हैं, देवनिर्मित वह पावन स्थान। 72. संपातिम - उड़ने वाले छोटे जीव यथा मच्छर आदि / 73. सागरोपम-जिसे सागर की उपमा दी गयी है, ऐसा असंख्य वर्षों का काल | . 74. सावध - हिंसाजन्य / 75. हनन - विनाश। 76. क्षयोपशम- कर्म के कुछ अंशों में क्षय से और कुछ अंशों में शमन से होने वाली प्रक्रिया। 316 *** * ***
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________________ मुनि श्री मनितप्रभसागरजी म. जन्म : मोकलसर, 26 अगस्त 1979 जन्म नाम . अशोक कुमार लूंकड़ पिता श्री बाबूलालजी लूंकड़ माता सौ. कमलादेवी लूंकड़ दीक्षा मोकलसरपौषशुक्ला तृतीया 16 जनवरी 2002 गुरुदेव पू. उपाध्याय प्रवर : श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. परिवार से दीक्षितः पू. उपा. श्री मणिप्रभसागरजी म.सा.-भाई म. पू. माताजी म. रतनमालाश्रीजी म.सा.-ताई म. पू. सा. डॉ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा.-बहिन म. पू.सा.डॉ.नीलांजनाश्रीजी म.सा.-जीजी म. ::::: : व्यवहारिक शिक्षण - जयनारायण व्यास युनिवर्सिटीजोधपुर से प्रथम श्रेणी में एम. कॉम एवं जैन विश्वभारती युनिवर्सिटी लाडनूं से प्रथम श्रेणी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण। संप्रति पंचलिंगी प्रकरण पर शोधरत। जैन ग्रन्थों, आगमों एवं वृत्तियों के अभ्यासी। तत्त्वज्ञान में जीव एवं कर्म पदार्थकातलस्पर्शी अध्ययन / विशेष - संयम के प्रति प्रतिक्षण जागरुक, प्रतिपल अध्ययन-चिन्तन-लेखनरत। तत्त्वज्ञान की विशेष अभिरुचि। लेखन-वक्तृत्वकलामें अनोखीछटा। लेखन - जैन जीवन शैली, प्यासा कंठ मीठा पानी, खुश्बू कहानियों की, गच्छ गौरव गाथा, दस महाश्रावक, जीव विचार साथ-प्रश्नोत्तरी, दण्डक प्रकरण सार्थ-प्रश्नोत्तरी, प्रत्याख्यान भाष्य अर्थप्रश्नोत्तरी, पशम कम गन्हा सार्थ-प्रश्नोत्तरी, प्रवाह (दो भाग) लाईफ मेनेजमेंट, श्रावकाचार, प्रिय-मधुर कहानियाँ आदि लेखन के साथ अनेक पुस्तकोंकासंपदन। 2bA
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________________ जनजीवनला Jain Life Style यानि Whole Life Smile 'जैन जीवन शैली' मात्र पुस्तक नहीं अपितु... * अंधेरे में दीप जलाने वाला गुरु है। * दुःख में धीरज देने वाला दोस्त है। * भटकते कदमों को अनुशासित करने वाला पिता है। * उदासी के क्षणों में खुशी बरसाने वाली माँ है। * यह राह भी है और हमराही भी। * यह सकारात्मक सोच देती है तो पुरुषार्थ की पूंजी भी। Best Life Style cot Bright Smile को सजाकरखिये : * घर की मेज पर * मन के स्टेज पर * दुकान की रॅक में * सामायिक के बेग में * किताबों के शो-केस में * यात्रा के सुटकेस में * पुस्तकालय और वाचनालय में * अन्तःकरण और आचरण में इस Life Style को भेंट में दीजिये :+ जन्मदिन के उपहार में +विवाह दिन की बधाई में + प्रभावना और पुरस्कार में + ज्ञानशाला और संस्कारशाला में