________________ प्र.303.आत्मा चैतन्य स्वरूप और कर्म वरदान की शक्ति निहित है। यह .. जडरूप है तो फिर पारस्परिक आँखों देखी और अनुभव की गयी बात संबंध किस प्रकार संभव है? है कि मदिरा निर्जीव होने पर भी उ. घृत या तेल की बूंदों से युक्त वस्त्र पर पीने वाले को बेहोश, बेभान और वायु प्रवाह में उडकर आने वाली धूल उन्मत्त बना देती है। अमृत बेहोश को चेतना रहित होने पर भी चिपक जाती होश में ले आता है, जहर मार डालता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा पर है, दुध-घी पुष्ट बनाता है, उसी राग-द्वेष की स्निग्धता होने से कार्मण प्रकार जड कर्म भी राग-द्वेष आदि वर्गणा के पुद्गल उससे संयुक्त हो संवेदनों के द्वारा आत्मा से जुडकर जाते हैं। . सुख-दुःख की अनुभूति करवाते हैं। प्र.304. कर्मपुद्गल मूर्त, रूपी है तो फिर प्र.306. महाराजश्री! क्षण–मात्र के लिये वे अमूर्त, अरूपी आत्मा से कैसे स्वीकार कर ले कि पूर्वकृत कर्म बंध सकते हैं? शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं उ. प्रत्येक संसारी आत्मा .परं कर्मपुद्गल पर प्रश्न है कि जीव चैतन्यशील चिपके हुए हैं। वास्तव में कर्मपुद्गलों एवं विवेकी है, वह सुख रूपी पर ही, कर्मपुद्गल से युक्त आत्मा से परिणाम को तो स्वीकार कर लेगा ही कार्मण परमाणु बंध सकते हैं। पर दुःख रूप परिणाम को भला सिद्धात्मा कर्म मुक्त होने से उनसे क्यों स्वीकार करेगा? ... कर्मपुद्गल नहीं बंधते हैं। इसलिये उ. यहाँ स्वीकृति व अस्वीकृति का कोई गहराई से देखा जाये तो मूर्त से मूर्त प्रश्न ही नहीं है क्योंकि शुभाशुभ का ही संयोग होता है, मूर्त से अमूर्त कर्मानुसार जीव की बुद्धि स्वतः उस का नहीं। प्रकार की बन जाती है। वह तदनुसार प्र.305. यदि कर्म जड/निर्जीव है तो अच्छा या बुरा कार्य करके सुख फिर जीव को सुख-दुःख आदि अथवा दुःख को प्राप्त कर लेता है। फल कैसे दे सकते हैं? जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने उ. यद्यपि कर्म जड/निर्जीव है तथापि पर छात्र खेल-कूद, गपशप आदि में उनमें अनुग्रह-निग्रह, अभिशाप- वक्त गंवाकर अनुत्तीर्ण हो जाता है।