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________________ अयोग्य होने से माँ नहीं बनती है, उसे वंध्या कहा जाता है। वैसे ही अभव्य जीव चारित्र तक स्वीकार कर लेता है, पर सम्यग् श्रद्धा, मुक्ति की झंखना और आत्मसाधना रूपी योग्यता के अभाव में मोक्ष में नहीं जा सकता है। (3)जैसे एक कन्या साध्वी बन गयी। उसमें माँ बनने की योग्यता है पर अब बन नहीं सकती। वैसे ही जातिभव्य जीव में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है परन्तु जिनदर्शन, प्रवचन, चारित्र, ज्ञान आदि निमित्तों का निगोद में अभाव होने से मोक्ष में कभी नहीं जायेगा। प्र.213.निगोद से निकलने के बाद जीव किस प्रकार मोक्ष तक का सफर तय करता है? उ. निगोद से निकलने के बाद वह बादर, त्रस, पंचेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त करता हुआ भवितव्यता के योग से सम्यक्त्व को प्राप्त कर जिनोक्त तत्त्व पर श्रद्धान्वित बनता है और अनादि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक को छोड़कर चतुर्थ गुणस्थान में प्रविष्ट होता है। क्रमशः श्रावकत्व, श्रमणत्व को प्राप्त करके क्षपक श्रेणीपूर्वक चारों घाती कर्मों का क्षय करके तेरहवें गुणठाणे में आकर केवलज्ञानी बनता है। कितने काल तक जीवों को प्रतिबोध देता हुआ निर्वाण काल में वह अंतिम चौदहवें गुणस्थानक में आता हैं तथा / शेष चार अघाती कर्मों का क्षय करके आत्मा की शुद्ध-विशुद्ध कर्महीन अवस्था को प्राप्त करके परम एवं चरम मोक्ष पद को प्राप्त हो जाता है। प्र.214. क्या एक बार निगोद से बाहर आने के बाद जीव पुनः उसमें उत्पन्न हो सकता है? उ. हाँ! उत्पन्न हो सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि मोक्ष मार्ग रूप सम्यग ज्ञान - दर्शन - चारित्र प्राप्त होने पर भी उसमें प्रमाद करके चौदह पूर्वधर भी पुनः निगोद में उत्पन्न हो जाते हैं। परमात्मा महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में गौतम स्वामी के माध्यम से समस्त जगत को प्रतिबोध दिया-'समयं गोयम मा पमायए।' गौतम! क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इसलिये प्रज्ञावान् आत्मा को मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, इन पाँच प्रकार के प्रमादों का त्याग करके साधना में अप्रमत्त बनना चाहिये। प्र.215. वर्तमान काल में सर्वज्ञ का अभाव है तो फिर यह कैसे जाना जा सकता है कि 'मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य? उ. इस प्रश्न का उत्तर परमात्मा आगमों में फरमाते हैं कि तुम्हारे अन्तर में अन्तर्भाव से यदि यह प्रश्न उठे कि 'मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य?' तो निश्चित रूप से तुम भव्य जीव ही हो।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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