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________________ उ. प्र.341. दर्शनावरणीय कर्मबंध के कारण करना। बताईये। 5. क्षमा धारण करना। कषायों पर ज्ञानावरणीय कर्मबंध के जो कारण हैं, विजय प्राप्त करना। वे दर्शनावरणीय कर्म बंध के भी 6. धर्माचरण पर श्रद्धा एवं त्यागीजनों कारण है। यथा- दर्शन, दर्शनी एवं की सेवा करना। दर्शनोपकरण की निंदा, तिरस्कार, 7. दुःखी को सान्त्वना देना / मरते हुए अविनय, अन्तराय एवं ईर्ष्या करना, को बचाना। दुर्भावना से किसी की निद्रा आदि में प्र.344.अशाता वेदनीय कर्म बंध के अन्तराय करना, इन्द्रियों को क्षति कारण बताओ। पहुँचाना। उ. 1. देव-गुरू का अपमान एवं अविनय प्र.342. दर्शनावरणीय कर्म-क्षय के उपाय करना। बताईये। 2. हिंसा, आरंभ-समारंभ करना। दर्शन, दर्शनी, दर्शनोपकरण का 3. पशुओं पर अधिक बोझ लादना। बहुमान, विनय आदि करना / अंधे को उन्हें दुःखी करना। चक्षु, चश्मा आदि साधन प्रदान 4. व्रत/महाव्रत का खण्डन करना। . करना ।'ओम् ह्रीं नमो दंसणस्स' 5. क्रोधादि कषाय करना। की माला फेरना। 6. पशु पक्षियों को पिंजरे में डालना। प्र.343.शाता वेदनीय कर्म बंध के कारण 7. जीवों को दुःखी करना। अपने बताओ। शौक-मोज के लिये हिंसक कार्य उ. 1. जीवों पर दया करना, उन्हें दुःख न करना। देना, लकड़ी आदि से नहीं पीटना, 8. कर्मचारी, नौकर से अधिक कार्य शोकग्रस्त एवं भयभीत नहीं करना। . करवाना। उन्हें पीडित करना। 2. देव-गुरू की भक्ति , गुणगान, 9. अनन्तकाय, अभक्ष्य पदार्थों का सेवा करना एवं निर्दोष आहार प्रयोग करना। आतिशबाजी करना। आदि दान देना। अभयदान, अनछने पानी का उपयोग करना। सुपात्रदान देना। दीन-हीन, बिना छाने/बीने अन्न का असहाय की सहायता करना। उपयोग करना। साधर्मिक का दुःख दूर करना। 10.दुःखी को देखकर सुखी और सुखी 3. ज्ञानदाता गुरू की सेवा व प्रशंसा को देखकर दुःखी होना।। करना। 11.जीवों के अंगोपांगों का छेदन, 4. अणुव्रतों अथवा महाव्रतों का पालन भेदन करना।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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