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________________ ध्यान - आसन है। प्र.667.आसन किसे कहते है? निभाती है। उ. स्थिरता, एकाग्रता और सुख देने 2. आसन के अभ्यास से राग-द्वेष, वाली, बैठने की विशेष मुद्रा को क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आसन कहा जाता है। आसन वह है, आन्तरिक द्वन्द्व तथा भूख, प्यास, जिसमें सुखपूर्वक निश्चल होकर सर्दी, गर्मी, थकान, अस्थिरता अधिकाधिक ध्यान/जाप में बैठा जा आदि बाह्य द्वन्द्व समाप्त हो जाते सके। प्र.668. आसन कितने प्रकार के कहे गये 3. आसन-साधना से शरीर हल्का, स्वस्थ एवं स्फूर्ति से परिपूर्ण बनता आसन के अनेक भेद कहे गये हैं, उनमें भी चौरासी प्रधान तथा प्रसिद्ध 4. आसन से प्रत्येक नाडी में समुचित हैं। जैसे सिद्धासन, पद्मासन, रूप से रक्त संचरण होता है। भद्रासन, स्वस्तिकासन, योगासन, . इन्द्रियाँ और नाड़ियाँ आलस व मुक्तासन, वज्रासन, गोदुग्धासन जड़ता से मुक्त होकर चैतन्य आदि। शक्ति से युक्त बनती हैं। अलग-अलग साधना के लिये प्र.670.आसन कब व कहाँ करें एवं उस अलग-अलग आसन उपयोगी होते समय शरीर की स्थिति कैसी हैं परन्तु ध्यान सिद्धि के लिये इन होनी चाहिये? सभी आसनों में पद्मासन, उ. आसन आत्मा की अनन्त सुषुप्त . स्वस्तिकासन एवं सिद्धासन शक्तियों को प्रकट करते हैं। इनके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास से तन तंदुरुस्त, मन प्र.669.आसन करने से क्या लाभ हैं? विकस्वर एवं बुद्धि तीक्ष्ण बनती है। उ. 1. योगमार्गारूढ साधक को ध्यान में यदि आसन अविधि, अकाल में किये प्रवृत्त व स्थिर होने से आसन की जाये तो लाभ की बजाय हानि के सिद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका / कारण बन जाते हैं अतः आसन करते
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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