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________________ शरीर होता है, रसनादि चार हर एक बूंद में जैसे एक लाख इन्द्रियों का अभाव होने से गूंगे, औषधियाँ समा जाती हैं, वैसे ही यहाँ बहरे, अंधे हैं तो फिर उन्हें कष्ट भी समझ लेना चाहिये। का अनुभव किस प्रकार हो सकता है? प्र.226. पृथ्वीकाय आदि में जीव (आत्मा) वे जीव इन्द्रियहीन होने से वेदना को है, यह कैसे माना जाये जबकि कहने, सुनने, देखने में भले ही सक्षम उनमें मनुष्य की भाँति कोई न हो, फिर भी सजीव होने से पीड़ा प्रवृत्ति नजर नहीं आती है, यह अवश्य ही होती हैं। इस संदर्भ में सब कहीं कपोल कल्पना तो नहीं है? आचारांग सूत्र के शस्त्र परिज्ञा नामक उ. नहीं। यह सब आज वैज्ञानिकों के प्रथम अध्ययन मेंउदाहरण दिया गया है- द्वारा प्रमाणित हो चुका हैजन्मतः एक अन्धे, बहरे, गूंगे, रोगी, .. (1)पृथ्वी- मनुष्य का घाव जिस कोमल- मुलायम शिशु के आँख, प्रकार शनैः शनैः वापस भर जाता नाक, मुँह आदि बत्तीस स्थानों का है, उसी प्रकार खोदी हुई खानें भी कोई भाले से तीव्र रूप में छेदन-भेदन भर जाती हैं। पर्वत भी बढते हैं, करे, तब उसे जो पीड़ा होती है, वैसी यह वैज्ञानिकों के द्वारा कहा गयाहै। ही पीड़ा पृथ्वीकाय आदि जीवों को भी वैज्ञानिक एच.टी.बर्सटापेट का छेदन-भेदन से होती है। मानना है कि जैसे बालक का प्र.225. पर यह कैसे सम्भव है कि पानी शरीर शनैः शनैः बढता है, वैसे ही की एक बूंद आदि में असंख्य जीव पर्वत भी बढते हैं। उनका कहना है एवं आलू आदि के सुई के अग्र कि न्यूगिनी के पर्वतों ने अभी भाग जितने स्थान में अनन्त जीव अपनी शैशव-अवस्था पार की है। समा जाये? डॉ. बेल्मेन का मानना है कि उ. कोई व्यक्ति लाख औषधियों को आल्पस पर्वतमाला का पश्चिमी एकत्र करके महिनों तक घिस कर भाग अभी भी बढ़ रहा है। लक्षपाक तेल बनाता है, तब उसकी (2)जल- शीतकाल में मनुष्य के मुख
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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