________________ में सहज रूप से सहायक बनता है, उनके समान सुख-दुःख जानकर उसे धर्मास्तिकाय कहते है। जैसे उनके प्रति समत्व व आत्म-तुल्य जल मछली के तैरने में सहज का व्यवहार करना चाहिये। सहायक बनता है। वैज्ञानिकों की 6. काल- जो नये को पुराना व पुराने ईथर की मान्यता इस द्रव्य से मेल को नष्ट करता है, वह काल द्रव्य खाती है। है। शिशु को बाल, बाल को 2. अधर्मास्तिकाय-रुकने/ठहरने किशोर, किशोर को युवा, युवा को में जो द्रव्य सहज भाव से सहायक प्रौढ, प्रौढ को वृद्ध एवं वृद्ध को बनता है, उसे अधर्मास्तिकाय मरणासन्न करना कालद्रव्य का ही कहते है। कार्य है। व्यवहार की अपेक्षा से 3. आकाशास्तिकाय-जो अवकाश/ इसके तीन भेद होते हैं - अतीत, स्थान देता है, उसे आकाशा वर्तमान एवं भविष्यकाल। स्तिकाय कहते है। यहाँ नभ- प्र.269.क्या संसार का कभी विनाश होता है? आकाश को नहीं अपित खाली उ. काल के अनुसार संसार की अवस्था स्थान को आकाश समझना है। (पर्याय-स्वरूप) बदलती है परन्तु 4. पुद्गलास्तिकाय - जो पूरण, मूल रूप से उसका सर्वथा विनाश. गलन, सडन, उत्पन्न, नष्ट आदि कभी नहीं होता। गुणों से युक्त है, जिसमें वर्ण प्र.270: द्रव्य और पर्याय में क्या अन्तर है? गंध-रस-स्पर्श एवं रूप पाये उ. द्रव्य मूल रूप से कभी नहीं बदलता जाते हैं, उसे पुद्गलास्तिकाय है, जबकि पर्याय बदलती है। जैसे कहते है। एक सोने के कडे को पिघलाकर शरीर, दुकान, मकान, दुनिया अंगुठी बना दी जाये तो कडा मिटा का हर पदार्थ पुदगल स्परूप है, और अंगूठी उत्पन्न हुई पर दोनों ही उसकी उत्पत्ति व विनाश गुण दशाओं में सोना बरकरार रहा। इसी जानकर उसके प्रति निःस्पृह, प्रकार मनुष्य मरा, देवलोक में उत्पन्न निरपेक्ष व अनासक्त बनना हुआ पर आत्मा/जीव द्रव्य दोनों में चाहिये। रहा अतः स्पष्ट है कि द्रव्य ध्रुव, नित्य 5. जीवास्तिकाय - अनन्त ज्ञानादि होता है और पर्याय परिणमनशील होने से उत्पन्न व नष्ट होती है। यह गुण संयुक्त, सुख-दुःख का अनुभवी, चेतनावान्, प्राणवान् द्रव्य जानकर प्रज्ञावान् को पदार्थ, सत्ता, को जीवास्तिकाय कहते है। चींटी रूप आदि पर राग अथवा द्वेष नहीं और हाथी में समान आत्मा व करना चाहिये।