________________ ___ जैन दर्शन में ईश्वरीय/परमात्म वापस नहीं लौटा जाता, वही मेरा धाम है। सत्ता की व्याख्या की गयी है परन्तु प्र.267.जब ईश्वर न तो सुख देता है, न उसे जगत्कर्ता-धर्ता एवं नियन्ता शक्ति, फिर उनके कीर्तन, अर्चन नहीं माना गया है। हर आत्मा में व स्मरण से क्या लाभ? परमात्मा छिपा है। जब आत्मा समस्त उ. जैसे दर्पण में देखकर व्यक्ति अपने कर्मों से मुक्त हो जाता है, तब वह मुख पर लगे दाग को साफ कर लेता परमात्मा (सिद्ध) बन जाता है। है, उसी प्रकार हम ईश्वर स्वरूप को परमात्म स्वरूप दो पदों की व्याख्या जानकर एवं उन्हें आदर्श मानकर जैनधर्म में की गयी है आत्मा पर लगे मिथ्यात्व, कषाय, 1. अरिहंत 2. सिद्ध। मर्छा, इच्छा के मेल, गंदगी एवं कचरे इनका आलम्बन लेकर जीव क्रमशः को साफ कर सकते हैं अतः ईश्वर का कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करता हुआ ध्यान वैसा बनने के लिये करना स्वयं निरंजन निराकार सिद्ध/परमात्मा चाहिये, न कि संसार की कामना के बन जाता है। लिये। प्र.265. ईश्वर एक है या अनेक? प्र.268. महाराजश्री ! यह तो अब समझ में उ. जो जीव संसार रूप जन्म-मरण के आ चुका है कि जगत् का कोई बंधन से मुक्त हो जाते हैं, वे ईश्वर कर्ता नहीं है एवं यह अनादिकहलाते हैं / अतः ईश्वर एक न होकर अनन्त एवं स्वभाविक है तो फिर अनन्त हैं। जगत का वास्तविक स्वरूप क्या है? प्र.266.ईश्वर बनने के बाद वे फिर से . उ. सामूहिक छह द्रव्यों का नाम जगत हैसंसार में आते हैं अथवा नहीं? 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, ज़ब तक कर्म बीज रहता है, तब तक 3. आकाशास्तिकाय, 4. पुद्गला- ही संसार रूपी वृक्ष होता है। मोह, स्तिकाय, 5. जीवास्तिकाय, 6. काल माया, अज्ञान, इच्छा, राग-द्वेष आदि 1. जीवास्तिकाय के सिवाय शेष पाँच दोषों के कारण ही जीव संसार में अजीव हैं। जन्म-मरण करता है। ईश्वर में 2. पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त मोहादि का अभाव होने से वे पुनः ___ पाँच अरुपी हैं, उनमें वर्ण, गंध, रस संसार में नहीं आते अर्थात् अवतार आदि गुण नहीं हैं। नहीं लेते। गीता में श्रीकृष्ण धनुर्धर 3. पुद्गलास्तिकाय एवं जीव अनन्त अर्जुन को अपना धाम बताते हुए हैं, शेष चार एक-एक ही हैं। कहते हैं- 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते, 1. धर्मास्तिकाय-जो द्रव्य गति करने तद्धाम परमं मम।' जहाँ जाकर