________________ मिलाकर, बायें हाथ की मध्यमा अनामिका और कनिष्ठिका, दाहिने हाथ की हथेली के पीछे कीतरफ दाहिने अंगूठे के पास रखकर शंखमुद्रा बनती है। अंगुलियों के अग्रभाग के मिलने के स्थान में हल्का दबाव देना है। इस मुद्रा का आकार शंख की आकृति जैसा होता है। लाभ: 1. यह मुद्रा करने से रोग का उपद्रव दूर होता है, अनिष्ट तत्त्वों का विसर्जन होता है और इष्ट तत्त्वों का सर्जन होता है। 2. थॉयराईड रोग दूर होता है। 3. नाभि के पोइन्ट दबने से हटी हुई नाभि अपने स्थान में आती है। 4. हकलाना,तुतलाना आदि वचन संबंधी दोष इस मुद्रा से नष्ट होते हैं। 5. वाणी की मधुरता और वचन की स्पष्टता बढ़ती है। विशेष : गलत तरीके से करने पर थाइराईड के स्राव में असंतुलन होने से शरीर अशक्त अथवा स्थूल हो सकता है। प्र. 665.ध्यान मुद्रा किस प्रकार साधी जा सकती है? उ. विधि- पद्मासन में बैठकर संभव न हो सके तो सुखासन में बैठकर बायीं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर दोनों अंगूठे एक दूसरे से मिलाकर नाभि के नीचे दोनों हाथ स्थापित करके ध्यान मुद्रा या वीतराग मुद्रा बनती है। इस मुद्रा में दोनों अंगूठे मिलाने से ऊर्जा उत्पन्न होती है। लाभ : यह ध्यान में विशेष लाभदायक है। (1) इससे चंचलता नष्ट होती है (2) आभामण्डल प्रभावशाली और विशुद्ध बनता है। (3) अनिष्टकारी तत्त्व साधना में बाधक नहीं बनते हैं। (4) आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने में परम सहायक है। (5)मानसिक शांति, स्वभाव परिवर्तन, वीर्य ऊर्ध्वगमन, सात्विक-चिंतन आदि में यह अत्यन्त उपयोगी मुद्रा है। प्र. 666.सुरभि (धेनु) मुद्रा किस प्रकार की जाती है? उ. विधि- नमस्कार मुद्रा में हाथ रखकर, एक हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग से मिलाकर, ऐसे ही एक हाथ की तर्जनी को दूसरे हाथ की मध्यमा के अग्रभाग को * ************* 303 ****************