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________________ अनन्तकाय का भोजन : अशाता का सर्जन प्र.527.अनन्तकाय किसे कहते है? आदि की सामान्य रक्तवर्णीय कोंपले, उ. जिस एक शरीर में अनन्त जीव रहते जिसे सामान्य तौर पर लोग स्वास्थ्य हैं, उसे अनन्तकाय कहते है। इसे लाभ की दृष्टि से खाते हैं। साधारण वनस्पतिकाय एवं निगोद भी प्र.529.जिनेश्वर परमात्मा ने कंदमूल कहा जाता है। जैसे औषधिरूप छोटी- आदि अनन्तकाय के त्याग का सी गोली में जिस प्रकार सैकड़ों उपदेश क्यों दिया जबकि जीव दवाईयाँ समा जाती हैं, लक्षपाक तेल युक्त भिंडी आदि शार्क एवं फल की प्रत्येक बूंद में लाखों जड़ी-बूटियाँ खा सकते हैं? मिश्रित होती हैं, उसी प्रकार एक उ. जिनेश्वर परमात्मा स्व-ज्ञान से सब शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं। कुछ जानते हैं। उन्होंने केवलज्ञान में प्र.528.अनन्तकाय कितने प्रकार के कहे आलू, प्याज आदि में सुई के नोंक गये हैं? जितने भाग में जो अनन्त जीव देखे उ. यद्यपि संसार में अगणित प्रकार के हैं, उन्हें भी कोई नहीं गिन सकता तो अनन्तकाय हैं तथापि जीवन में विशेष पूरे आलू में कितने जीव होंगे जबकि रूप से काम में आने वाले बत्तीस भिण्डी आदि के जीव गिने जा सकते प्रकार के अनन्तकाय शास्त्रज्ञों ने कहे हैं अतः क्षुधापूर्ति और जीवन निर्वाह हैं-आलू, प्याज, लहसुन, गाजर, यदि अल्प हिंसा से हो सकता है तो शकरकंद, मूली, हरी हल्दी, अदरक फिर उदरपूर्ति के लिये अनन्त जीवों से सभी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त की हिंसा करके भला दुःख रुप जन्म कुछ विशेष रूप से जानने चाहिये एवं मरण का बंधन क्यों करें ! जैसे प्र.530.अनन्तकाय भक्षण से क्या-क्या (1) पालक (2) अंकुरित धान (चना, हानियाँ होती हैं? मूग आदि भिगोने पर जो अंकुरित हो उ. जैन शास्त्रों में ही नहीं, जैनेतर शास्त्रों जाता है, वह भी अनन्तकाय है।) (3) में भी कंदमूल त्याज्य कहा गया है। कुंवारपाठा (4) कोमल पत्ते- नीम कहा गया है जो मूला खाता है, वह ************** 204 *******************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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