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________________ की ग्रंथियाँ उतनी ही गलती जायेगी। को खाने का परिणाम अच्छा नहीं शास्त्रों में कहा भी गया है कि- होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का 'खमावणयाएणं पल्हायण भावं परिणाम भी अच्छा नहीं होता। जणयइ।' क्षमा से आत्मा में अपूर्व काम–भोग में आसक्त होकर भी जीव आनंद की अनुभूति होती है। इसलिये कर्मों का बंधन करता है। कामभोग के क्षमा धर्म ही आराध्य, साध्य और प्यासे चक्रवर्ती भी अन्ततः अतृप्त दशा काम्य है। इसकी नित्य साधना करो। में मरकर दुर्गति में जाते हैं। प्र.389. परमात्मा ने मनुष्य भव को अकामी तथा अभोगी जीव संसार में महत्त्वपूर्ण क्यों कहा? कमल-पत्र की तरह निर्लिप्त रहता उ. 'दुल्लहे खलु, माणुसे भवे। निश्चय हुआ भव-समुद्र से तिर जाता है। ही मनुष्य देह की. प्राप्ति दुर्लभ है। प्र.391. मानव-भव को कैसे सफल करें? . संसार में क्रमशः विकास करते हुए उ. जीवन की सफलता धन, सत्ता और अनन्त पुण्य का संचय होने पर जीव सम्पत्ति के विस्तार में नहीं अपितु मनुष्य भव को एवं अनन्त पुण्यानुबंधी विसर्जन में है। यद्यपि व्यक्ति सोचता पुण्योदय से जिनेश्वर देव के धर्म को है कि कल धर्म करूंगा, सामायिक; प्राप्त करता है। यद्यपि पदार्थ, सौन्दर्य सुपात्र दान, आत्म चिन्तन, साधना, स्वाध्याय करूंगा परन्तु मृत्यु रूपी की अपेक्षा से देव भव उत्कृष्ट है सिंह जीव रूप हरिण को मुँह में दबाये तथापि संचित कर्मों का क्षय एवं मोक्ष ले जाता है और स्वजन-परिजन फल की प्राप्ति मनुष्य देह के द्वारा ही देखते रह जाते हैं। इसलिये जीवन संभव है। की सफलता धर्म-विस्तार एवं इच्छा प्र.390. कामभोग त्याज्य क्यों है? नियंत्रण में है। परमात्मा महावीर . उ. कामभोग अनर्थों की खान है। ये क्षण उत्तराध्ययन सूत्र में फरमाते हैंमात्र सुख देने वाले तथा बहुकाल जरा न जाव पीडेइ, वाही जाव न वढई। तक दुःख देने वाले हैं। कामभोग जाविन्दिया न हायन्ति, ताव धम्म समायरे।। शल्य है, विषरूप है, विषधर सर्प है जब तक बुढ़ापा नहीं आता, व्याधियाँ तथा मधुलिप्त तलवार को चाटने के जोर नहीं पकड़ती, इन्द्रियाँ क्षीण नहीं समान है। जिस प्रकार सुन्दर तथा होती, तब तक धर्म का आचरण कर स्वादिष्ट होने पर भी किंपाक फल लेना चाहिये।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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