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________________ प्र.392. परमात्मा ने ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट उ. क्यों बताया? ज्ञान से आत्म-तत्त्व का बोध होता है। ज्ञानी महात्मा हित-अहित को जानकर संवर के द्वारा कर्म-आगमन के द्वारों को बन्द कर देते हैं तथा निर्जरा के द्वारा कर्मों को धो डालते हैं, परन्तु अज्ञानी मनुष्य मानता है कि कुल, जाति, वंश, धन, ये सब मेरे हैं, वे मेरा रक्षण करेंगे परन्तु उन्हें अन्त में शरण और ज्ञान देने वाला कोई नहीं होता। प्र.393. वीतराग भाव को कैसे उपलब्ध किया जा सकता है? स्नेह के बंधन अति भयंकर है। वास्तव में स्वजन-परिजन के स्नेह-पाश को तोड़ना अथाह समुद्र को भुजाओं के बल पर पार करने के समान व लोहे के चने चबाने जैसा दुष्कर कार्य है। इसके लिये पुनः पुनः बारह भावनाओं का चिंतन करें, आत्म-समाधि का विकास करें। जीवन की अनित्यता की अनुप्रेक्षा करें। ये समस्त . काम भोग अन्ततोगत्वा दुःख एवं दुर्गतिदायक है, ऐसा नित्य स्मरण करते रहे। **************** 142 ** ** ***** **
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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