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________________ जीव के चारों तरफ अजीव रूपी पानी है। (3)पुण्य- नौका को जब अनुकूल वायु एवं जल प्रवाह मिलता है तब वह सही दिशा में चलती है, वैसे ही पुण्य रूप निरोगी शरीर, अनुकूल सामग्री आदि मिलने पर जीव संसार में सुखपूर्वक जीवन यात्रा करता है। (4)पाप- जिस प्रकार प्रतिकूल वायु, जल-प्रवाह होने पर नौका को खैना कठिन होता है, वैसे ही पाप रूप गरीबी, अपयश, रोग आदि प्रतिकूलता होने पर जीवन यात्रा कठिन हो जाती है। . (5)आश्रव- जैसे नौका में छिद्र होने पर पानी भरने लगता है और वह डूबने लगती है, वैसे ही आत्मा में राग, द्वेष, प्रमाद, कषाय आदि छिद्र हाने पर जीव कर्मों के भार से संसार रूपी सागर में डूबता जाता है। (6)संवर-जिस प्रकार कुशल नाविक छिद्रों को बंद करके नाव को डूबने से बचाता है, वैसे ही सम्यक्त्वी जीव त्याग, प्रत्याख्यान, अप्रमाद के द्वारा दोष रूपी छिद्रों को बंद करके कर्म-नीर का आगमन रोक देता है। (7)निर्जरा- नाव में भरे पानी को निकालने की भाँति जीवात्मा पूर्वकृत पाप कर्मों का जल तप रूपी बाल्टी से बाहर फेंकता है। (8)बंध- जिस प्रकार तट को पाये बिना नाव दिन-रात पानी में रहती है, इसी प्रकार मुक्ति पर्यन्त कर्म भी आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् जुड़े * रहते हैं। (9) मोक्ष-जैसे सुज्ञ नाविक सुरक्षित नाव को अच्छी तरह किनारे तक पहुँचा देता है, वैसे ही अहिंसा, संयम एवं तप से आत्मा मोक्ष रूपी मंजिल तक पहुँच जाता है।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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