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________________ जो व्यक्ति के समस्त गुणों को भस्मीभूत कर नरक के महासागर में फैंक देती है। इस दोष के कारण सिंह गुफावासी मुनि संयम रत्न का त्याग कर नेपाल तक पहुंचे तो वेश्यागमन का सर्वथा त्याग कर स्थूलिभद्र मुनि चौरासी चौबीसी तक संसार में अमर–प्रशंस्य बने। उनके दृढ सदाचरण से कोशा वेश्या श्राविका बनी। 2.परस्त्रीगमन-स्वदारा संतोषव्रत की प्रशंसा में परमात्मा महावीर की वाणी कहती है जो देइ कणय कोडि, अहवा करेइ कणय जिण भवणं। तस्स न ततिअं पुण्णं, जतियं बंभव्वए धारिए।। करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान करने से अथवा स्वर्णमय जिनमंदिर बनाने में जितना फल मिलता है, उससे ज्यादा फल मात्र निर्मल ब्रह्मचर्य के पालन से मिलता है। जो व्यक्ति त्रियोग व त्रिकरण से परस्त्रीगमन का त्याग करता है, वह सुर, नर, किन्नर से पूजित होता है तथा उत्तम कुल, राज्य, यश, निर्मल कीर्ति व स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता हुआ अल्पकाल में जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। सुदर्शन सेठ ने परनारी का त्याग कर परम यश व सुख को प्राप्त किया तो मात्र राजरानी के भोग का प्रत्याख्यान कर वंकचूल पल्लीपति से स्वर्गपति बना। इस सर्वश्रेष्ठ व्रत से ही सुभद्रा, सीता, द्रौपदी आदि सन्नारियाँ महासती के रूप में जग विख्यात हुई। इस महापाप से जीव को इहभव व परभव में महादुःखों का भाजन बनना पड़ता है। नपुंसक, दुर्भागी, भगंदर रोगी, छेदित गुप्तेन्द्रिय, कदर्थना, अपयश, धननाश से लगाकर महादोष रूप भव बंधनों में पुन:पुनः जन्म एवं मरण प्राप्त करता है। 3. शिकार-निरपराधी पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना करके स्वयं के मन में आनंदित होना। ऐसे दुःखवर्द्धक एवं दुर्गति-दायक महापाप रूप शिकार के कारण ही परमात्मा महावीर के परम भक्त श्रेणिक सम्राट् ने नरक के दुःखों को आमंत्रित किया। अतः ऐसे मन को मलिन, आत्मा को भारीकर्मा एवं काया को रोगी बनाने वाले शिकार का अवश्य ही वर्जन करना चाहिए। चेस भी इसी प्रकार का खेल है। ** * 194 ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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