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________________ तो आखिर इस तुच्छ भौतिक सम्पदा का मूल्य क्या है? अतः बाह्य सम्पदा को बटोरने की बजाय जीवन के असली धन की ओर ध्यान दिया जाना चाहिये। आज तक कोई भी व्यक्ति सौन्दर्य, सत्ता और समृद्धि के लिये नहीं पूजा गया। जो वंदनीय बने हैं, वे अपने जीवन की श्रेष्ठता, चिंतन की मौलिकता और आचरण की पवित्रता से ही बने हैं। फकीर होकर भी महावीर पूजे जा रहे हैं और ऋद्धिसम्पन्न होकर भी रावण फूंका जा रहा है। इसका कारण केवल और केवल प्रेरक जीवन और चिन्तन शैली ही है। अपना जीवन इतना प्रेरक, सुन्दर और मधुर बना लो जिस पर आने वाली पीढ़ी कुछ लिख सके अथवा तो कुछ नया लिख जाओ जिसे पढ़कर लोग सुन्दर व मधुर जीवन की प्रेरणा ले सके। जीयो तो ऐसे जीयो कि मरते समय तुम्हारे होंठो पर हँसी और दुनिया की आँखों में आँसू हो। "जैन जीवन शैली' जन से जैन और जैन से जिन बनने की क्रमिक साधना है। जिनेश्वरों द्वारा प्रतिपादित "जैन जीवन शैली" की अपनी विशिष्टता है कि इसे कोई भी व्यवहार के धरातल पर जीता हुआ आत्मसात् कर सकता है। इसका कारण भी है-इस शैली में कहीं भी किसी का विरोध नहीं है, वैसे ही जैसे सागर छोटी-बड़ी, कड़वी-मीठी, हर धारा को स्वयं में समाविष्ट कर लेता है। जिन्होंने राग-द्वेष का समूल क्षय करके जीवन विकास के चरम शिखर को छु लिया, वे जिन हैं और उनमें आस्थावान् जैन। 'जैन' शब्द किसी जाति, समूह और धर्म-पंथ का प्रतीक न होकर स्वसत्ता का / स्वाभाविक दिग्दर्शन है। परमात्मा महावीर आध्यात्मिक बाद में थे, व्यावहारिक पहले। भगवान बाद में थे, वैज्ञानिक पहले। उन्होंने उपदेश देने से पहले जीवन में उसे आत्मसात् किया, | आत्म-मंथन करने के बाद जो अमृत पाया, वह जन-जन के बीच बांट दिया। महाश्रमण महावीर आध्यात्मिक तो है ही, उनमें वैचारिक पवित्रता, सामाजिक एकता, पारिवारिक निष्ठा, व्यावसायिक नीतिमत्ता, शारीरिक स्वस्थता, सैद्धान्तिक वैज्ञानिकता, मानसिक एकाग्रता के सूत्रों की भी अनुगूंज है। यदि उन्हें ईमानदारी से जीवन में उतारा जाये तो व्यक्ति कभी भी अवसादग्रस्त और चिन्ताक्रान्त नहीं हो सकता। परम श्रद्धेय आचार्य देव श्री जिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के जन्म शताब्दी वर्ष (1968-2068) के पावन प्रसंग पर प्रकाशित होना इस ग्रन्थ के
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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