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________________ उ. (1)आहार संज्ञा पर विजय प्राप्त करने का उत्तम उपाय है- तपश्चर्या में प्रवृत्त होना। भोजन करते समय सोचे कि अनन्तकाल से भोजन करता आया पर तृप्ति नहीं हुई, हो भी नहीं सकती। आत्मा श्रुत-साधना से ही तृप्त हो सकती है। इस आहार संज्ञा रूपी डाकिनी ने गीतार्थ त्यागी मंगू आचार्य, कण्डरिक मुनि को भी दुर्गति के गर्त में धकेल दिया। (2) मित्ती मे सव्व भुएसू' सभी जीवों से मेरी मैत्री है। न किसी से भयभीत होना चाहिये, न किसी को भयभीत करना चाहिये। पूर्व भव में खरगोश को अभयदान देकर मेघकुमार राजकुमार ही नहीं बना अपितु साधनापूर्वक एकावतारी भी बना / (3)कामभोग से तुष्टि-तृप्ति असंभव है। शास्त्रों में मैथुन सेवन की निंदा के लिये कहा गया कि नपुंसकता, इन्द्रिय-छेद, कम्पन, मूर्छा, पाप बंध वाले इस किंपाक फल सदृश अब्रह्म का सेवन कौन करे ! जो ब्रह्मचर्य की साधना साधता है, वह तीनों लोकों में यशस्वी बनता है। विजय सेठ और विजया सेठानी के शील व्रत की प्रशंसा केवली भगवंत ने भी की। (4)परिग्रह अनन्तः दुःख का कारण है। जब तन, धन, समृद्धि आदि सब छोड़कर जाना है तो फिर उन पर आसक्ति क्यों करूँ ? परिग्रह के कारण मम्मण सेठ नरक में गया। पुत्रों से सागर चक्रवर्ती को तृप्ति नहीं हुई, गोधन से कुचिकर्ण को तुष्टि नहीं मिली, धान्य के भण्डारों से तिलक सेठ को संतुष्टि नहीं हुई, राजा नंद को सोने के ढेर से तृप्ति नहीं हुई, यह जानकर पुद्गलों के प्रति अनासक्ति का भाव रखना चाहिये। **** ** ** ** 132 ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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