SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है तथा पूर्वोत्पन्न व्याधि नष्ट अशोक वृक्ष, छत्र, चामर आदि व्यंतर हो जाती है। देव स्थापित करते हैं। पूर्व दिशा में 9. विहार के समय काँटे अधोमुखी हो परमात्मा बिराजते हैं एवं शेष तीन जाते हैं, आगे आगे धर्मचक्र दिशाओं में व्यंतर देव प्रभु के सुशोभित होता है। वे देवनिर्मित नव प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं। उनके स्वर्ण कमलों पर चलते हैं। ऊपर तीन-तीन छत्र शोभायमान प्र.33.समवसरण के संदर्भ में आवश्यक होते हैं। जानकारी दीजिये। 8. अर्धमागधी भाषा में तथा मालकोश उ. 1. सर्वप्रथम वायुकुमार देव भूमि को राग में प्रभु पैंतीस गुणों से अलकृत कंकर, कांटे आदि से रहित करते हैं। चौमुखी देशना फरमाते हैं जो कि 2. मेघकुमार देव सुगन्धित नीर की वर्षा करते हैं। एक योजन (13 कि.मी.) तक सुनाई 3. व्यंतर देव स्वर्ण रत्नमयी शिलाओं देती है। से भूमि को शोभित करते हैं एवं जानु 9. समवसरण के प्रथम वलय में प्रमाण खुश्बूमय पुष्पों की वृष्टि करते देवविमान, रथ, पालखी इत्यादि, दूसरे वलय में पशु, पक्षी आदि तथा 4. समवसरण में रजतमय, स्वर्णमय एवं तीसरे वलय में बारह पर्षदा होती हैं। रत्नमय तीन वलयों की संरचना बारह पर्षदा यानि साधु, साध्वी, क्रमशः भवनपति देव, ज्योतिष्क देव पुरूष, स्त्री, वैमानिक-ज्योतिष्कतथा वैमानिक देव करते हैं। भवनपति-व्यंतर देव तथा देवी। 5. तीनों वलयों की चारों दिशाओं में प्र.34.जघन्यतः और उत्कृष्टतः कितने एक-एक द्वार, इस प्रकार कुल तीर्थंकर होते हैं? बारह द्वार होते हैं। प्रत्येक दिशा में उ. 1. महाविदेह क्षेत्र पाँच हैं तथा प्रत्येक एक-एक योजन प्रमाण ध्वज महाविदेह में 32 विजय हैं। उनमें से लहराता है। 6. प्रथम गढ की प्रत्येक दिशा में 8वीं, 9वीं , 24वीं एवं 25वीं विजय में दस-दस हजार सीढियाँ होती हैं। तीर्थंकर परमात्मा का शाश्वत दूसरे व तीसरे गढ की हर दिशा में विचरण होने से जघन्यतः बीस पाँच-पाँच हजार सीढियाँ होती हैं। तीर्थंकर होते हैं। बीस हजार सीढियाँ परमात्मा के 2. पाँच महाविदेह की कुल 160 विजय, अतिशय से व्यक्ति थकान के बिना पाँच भरत एवं पाँच ऐरावत, इनमें अल्प समय में चढ जाता है। एक-एक तीर्थंकर की अपेक्षा से 7. समवसरण में स्वर्ण सिंहासन, उत्कृष्टतः 170 तीर्थंकर होते हैं।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy