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________________ जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त प्र.294.अनेकान्तवाद से क्या अभिप्राय है? सोच बदल ले कि मैं उनकी अपेक्षा तो उ. अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु का कथन सुखी ही हूँ जिनको किराये का घर भी करना अनेकान्तवाद कहलाता है। नसीब नहीं हुआ है, फुटपाथ पर इसे स्याद्वाद, विभज्यवाद भी कहा जीवन-गुजारा करते हैं। इसके द्वारा जाता है। जैसे एक व्यक्ति अपने हम हर बात को स्पष्ट, पूर्ण एवं माता-पिता की अपेक्षा से पुत्र है तो व्यवस्थित जानकर जीवन यात्रा को अपनी सन्तान की अपेक्षा से पिता है। आनंदमय बना सकते हैं। .. वह विविध अपेक्षाओं से प्र.295. उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य, इन तीन नाना-दोहिता, चाचा-भतीजा, ससुर- बातों को बताओ। दामाद, साला-बहनोई, शत्रु-मित्र उ. हर वस्तु-पदार्थ तीन गुणों से संयुक्त आदि भी हो सकता है। हैयह अनेकान्तवाद का सिद्धान्त एक 1. उत्पाद- उत्पन्न होना। ही पदार्थ व व्यक्ति में विपरीत गुणों 2. व्यय- नष्ट होना / का कथन करता है। एक पाँच फुट 3. ध्रौव्य-स्थिर होना। इसे त्रिपदी वाला व्यक्ति लम्बा है भी और नहीं कहते है। भी। वह 3, 4 फुट वाले की अपेक्षा से जैसे-दूध से दही बनाया तो दूध लम्बा है तथा 6, 7 फुट वाले की का विनाश एवं दही का जन्म हुआ अपेक्षा बौना है। पर गौरस दोनों में ज्यों का त्यों यह अनेकान्त का सिद्धान्त परिवार से बना रहा। स्वर्ण की अंगूठी को लेकर से राष्ट्र तक, झोंपड़ी से पिघलाकर चेन बनायी तो अंगूठी लगाकर महल तक, कृषक से का नाश और चेन की उत्पत्ति हुई लगाकर राजनेता तक एवं व्यक्ति से पर सोना दोनों में स्थिर रहा। लेकर सम्पूर्ण सृष्टि तक सभी को प्र.296. द्रव्य, गुण और पर्याय से क्या सुखी और शान्तिमय बना सकता है। अभिप्राय है? जैसे एक व्यक्ति दुःखी है क्योंकि वह उ. जिसमें गुण और पर्याय रहते हैं, उसे किराये के मकान में रहता है पर वह द्रव्य कहा जाता है। जो द्रव्य से कभी
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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