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________________ लगाते हैं ताकि उड़ने वाले संपातिम अधिक सामग्री स्वीकार नहीं करता है जीव-कीट, पतंग, मच्छर आदि और उसमें मोह रहित होने से मुँह में न जाये, थूक न उछले, अपरिग्रही ही है। वायुकाय के जीवों को किलामना प्र.68.गौचरी किसे कहते हैं एवं गौचरी (पीड़ा) न हो। के बारे में क्या-क्या नियम हैं? 3. आसन– बैठते समय उपयोगी उ. जिस प्रकार गाय अलग-अलग स्थानों उपकरण / से थोड़ा-थोड़ा आहार लेती है, उसी 4. पात्र- आहार लाने व करने का प्रकार साधु अनेक घरों से, उपकरण। उच्च-नीच-मध्यम, सभी कुलों से 5. डंडासन- रात्रि में दीपक के समान थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है अतः इसे संयम पालन हेतु उपयोगी गौचरी कहते है। गौचरी को माधुकरी, उपकरण। गर्तपूर्णिका आदि भी कहा जाता है। 6.7. चद्दर-चोलपट्टक (पहनने का साधु निमित्त की, सामने लायी हुई, वस्त्र) (8) डंडा (9) ठवणी (10) सचित्त-संयुक्त आदि बयालीस दोषों पुस्तक (11) नवकारवाली (माला) का त्याग करके एवं दातार की शक्ति, (12) पूंजणी (पात्र प्रतिलेखन हेतु) भक्ति, स्थिति आदि देखकर आहार (13) कामली आदि। ग्रहण करता है। नहीं तो पुनः बनाने से प्र.67.जब साधु को अपरिग्रही कहा गया उसे दोष लग सकता है अथवा वह है तब इतनी वस्तुएँ रखने से कुपित, खिन्न, अश्रद्धान्वित हो सकता उनको परिग्रह का दोष नहीं लगता? साधु अतिभोजन गरिष्ठ, विकारवर्द्धक, उ. नहीं! यह सब जिनाज्ञानुसार ही है। बाजार में बनी एवं स्वादपोषक सामग्री साधु इन्हें संयम पालन के लिये रखता से दूर रहते हैं। है, परन्तु वह यदि इनका व्यवस्थित प्र.69.क्या जैन साधु जैन घरों से ही उपयोग न करें और इनमें मूर्छित हो आहार ले सकते हैं अथवा अन्य जाये तो उसे परिग्रह का दोष लगता घरों से भी? है। शास्त्रों में कहा गया कि साधु वस्त्र, उ. जैन-अजैन कोई भी घर हो, साधु उस पात्र पर तो क्या, शरीर पर भी ममत्व हर घर से आहार ले सकते हैं,जहाँ शुद्ध नहीं रखता है। निर्दोष, प्रासुक (अचित्त) आहार मुनि मूल्यवान्, मर्यादा एवं जरुरत से उपलब्ध हो / केवल उन घरों से
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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