________________ उ. उ. जो पंचमहाव्रतों का एवं समिति-गुप्ति का जिनाज्ञानुरूप पालन करते हैं, वे सुगुरू कहलाते हैं। आचार्य, उपाध्याय और मुनि सुगुरू कहलाते हैं। प्र.174.सुधर्म किसे कहते है? उ. परमात्मा द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को सुधर्म कहा जाता है। मुख्य रूप से धर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैअहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह / प्र.175. महाराजश्री! वर्तमान में हम देख रहे हैं कि एक जीव को बचाने में, रात्रि भोजन के त्याग में धर्म मान रहा है और दूसरा यज्ञ, बलि, रात्रि भोजन आदि में धर्म कह रहा है, ऐसी स्थिति में सच्चा कौन है, यह कैसे तय किया जा सकता है? हिंसा करना अधर्म है। धर्म उसे कहते है जो दुर्गति में गिरते हुए जीव को धारण करता है। आगम हो या वेद और गीता, बाइबिल, कुरान या गुरू ग्रन्थ साहिब हो, हर ग्रन्थ में कहा गया है कि जो तुम्हें अच्छा नहीं लगता, वह दूसरों के साथ मत करो। जैसे तुम्हें दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है, वैसे ही हर जीव को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। जब हमारे पाँव में एक कांटा चुभता है, तब भी सहन नहीं होता तो फिर किसी जीव के प्राण लेना उसे कैसे सह्य हो सकता है। इसलिए सिद्धांत का निर्णय निर्मल बुद्धि के द्वारा करना चाहिये कि वस्तुतः सत्य क्या है? हर बात को आत्मकल्याण के लक्ष्य से देखना चाहिये, यही धर्म और अधर्म का मापदण्ड है। प्र.176.महाराजश्री! हम तो साक्षात् ही देखते हैं कि बलि, यज्ञ आदि से वांछित फल की प्राप्ति होती है, फिर उन्हें अधर्म कैसे माना जा सकता है? माना कि बलि, यज्ञ आदि से वांछित फल की प्राप्ति होती है पर वह भी पुण्याधीन है। पापकारी तथा हिंसक प्रवृत्तियों से कंदाच् मनोरथ सिद्ध हो जाये परन्तु वे भी अन्ततः दुःख के ही कारण बनते हैं। जैसे किंपाक फल का स्वाद प्रथम क्षण में मधुर एवं स्वादिष्ट प्रतीत होता है परन्तु आने वाले क्षणों में वह जीव को यमलोक भेज देता है। धर्म तो उसे ही कह सकते हैं, जो समस्त इच्छाओं के जाल से मुक्त करके भगवान बना देता है। इसलिए अन्तहीन इच्छाओं की पूर्ति के साधनों को नहीं बल्कि इच्छा मुक्त बनाने वाले साधनों को ही धर्म कह सकते हैं। इसी प्रकार सुदेव भी उन्हें कहा जाता है, जो वीतराग बन चुके हैं और सुगुरू उन्हें ही कहा जा सकता है, जो वीतराग बनने की दिशा में गतिशील रहते हुए सभी को वीतराग बनने की प्रेरणा देते हैं।