________________ रत्नत्रंयी- सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्र.177.रत्नत्रयी से क्या अभिप्राय है? उ. सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रयी कहा जाता प्र.178. सम्यक्दर्शन किसे कहते है? . उ. सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा-आस्था रखना, सम्यक्दर्शन कहलाता है। प्र.179. सम्यक्ज्ञान किसे कहते है? उ. जिसके द्वारा आत्मा को, आत्मा के हित-अहित को जाना जाता है, उसे सम्यक्ज्ञान कहते है। प्र.180. सम्यक्चारित्र किसे कहते है? उ. जो आत्मा में संचित कर्मों को . रिक्त/ खाली करता है, उसे __. सम्यक्चारित्र कहते है। प्र.181. रत्नत्रयी का महत्व समझाईए। उ. 1. सम्यक्दर्शन के कारण जीव को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होता है। मैं शुद्धात्मा हूँ परन्तु मिथ्यात्व, कषाय, प्रमाद आदि कारणों से संसार में भटक रहा हूँ। अब मुझे मुक्ति पद प्राप्त करना है, यह भावना जगाने वाला ************* * 55 सम्यक्दर्शन है। शास्त्रों में इसे ही निर्वाण का मूल कहा गया है। 2. 'पढमं नाणं तओ दया' एवं 'नमो नमः सुयदिवायरस्स' इन सूत्रों में ज्ञान की महिमा गायी गयी है। ज्ञान होने के बाद ही दया तथा संयम धर्म का पालन हो सकता है। श्रुत ज्ञान ही विश्व में धर्म का उद्योत करता है। पूर्वभव में प्रतिदिन पाँच सौ बार पुण्डरिककण्डरिक अध्ययन का आवर्तन करके पालने में ही वज्रस्वामी ने ग्यारह अंगसूत्र कण्ठाग्र कर लिये। ज्ञान की महिमा में यहाँ तक कहा गया है कि प्रतिदिन नया श्रुतज्ञान सीखने वाला जीव तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है। 3. शास्त्रों में कहा गया- चारित्तं खलु धम्मो। वास्तव में चारित्र ही धर्म है। चारित्र बिना कोई भी आत्मा न मोक्ष में गयी है, न जायेगी। यह चारित्र धर्म का ही प्रभाव है, जो ******* ********