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________________ होकर मरना बाल मरण कहलाता है। (5) यदि साधु संत का सुयोग प्राप्त हो। प्र.567.मरते समय प्राण किन रास्तों से तो भोजन, वस्त्र आदि प्रदान निकलते हैं? करना एवं मांगलिक श्रवण करना उ. प्राण निकलने के पाँच रास्ते स्थानांग चाहिये। यथासम्भव कृतपापों का तथा उत्तराध्ययन सत्र में बताये गये हैं प्रायश्चित्त लेना चाहिए। (1)पाँवों से प्राण निकलने वाले नरक (6)पद्मावती आलोयणा का श्रवण में जाते हैं। ___ करना चाहिये। (2)जंघा से प्राण निकलने वाले तिर्यंच (7)दुकान, मकान आदि पापकारी योनि में जाते हैं। स्थानों से आसक्ति हटाकर (3)हृदय से प्राण निकलने वाले मनुष्य अठारह पाप स्थानों को त्रिविध बनते हैं। त्रिविध वोसिराना चाहिये। (4)मस्तक से प्राण निकलने वाले (8)मरते समय परभव में धन-साधन देवलोक में जाते हैं। की इच्छा न करते हुए केवल (5) सम्पूर्ण शरीर से प्राण निकलने जिनशासन, जिनवाणी एवं वाले मोक्षगामी होते हैं। जिनेश्वर प्रभु की शरण की कामना प्र.568. मृत्यु को महोत्सव कैसे बनाया जा करनी चाहिये। सकता है? (9)मन और धड़कन में केवल एक ही जीवन की सम्पूर्ण साधना का सार गाथा गूंजनी चाहियेहै- समाधि/पण्डित मरण को प्राप्त होना। इसके लिये निम्नोक्त तथ्य अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। ध्यान में रखने चाहिये तस्मात् कारुण्य भावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर / / हे प्रभो! जीवन भर मैंने पुत्र-परिवार, (1) मृत्यु के समय मन में संसार और पदार्थों की कोई इच्छा नहीं रखनी सत्ता-सम्पति में शरण मानी परन्तु वे चाहिये। त्राण/रक्षण में असमर्थ हैं। अब मैं (2)पंचपरमेष्ठी और नवकार मंत्र का आपकी शरण को स्वीकार करता हूँ। स्मरण करना चाहिये। आप मेरी रक्षा करें। (3)किसी के प्रति वैर-विरोध, राग (10) पंचपरमेष्ठी, सम्यग्ज्ञान- दर्शनद्वेष के भाव न रखकर सम्पूर्ण चारित्र और तप, इन सर्वोत्कृष्ट सृष्टि के साथ मैत्री, प्रेम और नवपदों का उत्तम निष्काम ध्यान करूणा के निर्मल अध्यवसायों में धरना चाहिये। . डूबकी लगानी चाहिये। (11) श्रावक के बारह व्रत(4)हाथ जोड़कर मन ही मन जीवन स्वीकरण-पूर्वक पाप द्वारों को भर के झूठ, माया, लोभ, हिंसा, अवरूद्ध करना चाहिये। अनैतिकता आदि पापों को याद (12) अन्त में तिविहार अथवा चौविहार करके उनका मिच्छामि दुक्कडं अनशन (संथारा) लेकर आत्मदेना चाहिये। कल्याण साधना चाहिये। **************** 234 ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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