SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयपुर आये। वहाँ मुनि श्री आचार्यश्री तेरापंथ परम्परा में राजसागरजी के चातुर्मास में दीक्षित थे परन्तु बाद में भाद्रपद सुदि चतुर्थी को पौषध आगमिक मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में किया, तब संयम वेश की भावना स्वयं को तेरापंथ से अलग किया इतनी तीव्र हुई कि अगले दिन और पू. आचार्य श्री जिनहरिपंचमी को ही दीक्षा ले ली। सागरसूरिजी म.सा. के शिष्य आगमों का गहन अभ्यास करने बनकर मुनि कान्तिसागर के नाम के उपरान्त आपने सिरोही में से विश्रुत हुए। क्रियोद्धार किया। यह आपके प्रवचन कला का आपको वरदान चारित्र एवं पुण्य बल का ही प्राप्त था। सार्वजनिक प्रवचनों में जब प्रभाव था कि 3-4 साधु- आप हे हिन्द! तुझे किसने बरबाद साध्वियों से चले आपके किया, गौमाता को बचाओ, इन विषयों समुदाय में आज लगभग 300 पर सिंह की भाँति गर्जना करते थे, साधु-साध्वी साधनारत हैं। तब बीस-बीस हजार की मानव-. खरतरगच्छ की यह गौरवशाली मेदिनी आश्चर्य से अभिभूत हो उठती परम्परा श्री भगवानसागरजी, श्री थी। समस्त धर्मों की खूबियों का छगनसागरजी, श्री त्रैलोक्य- प्रवचन में समावेश होने से जैन, हिन्दु, सागरजी, आचार्य श्री जिनहरि- मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सारी सागरसूरिजी, श्री जिनआनंद जैन-जैनेतर जनता आपके प्रवचनों सागरसूरिजी, श्री जिनकवीन्द्र का लाभ उठाती थी। सागरसूरिजी, श्री हेमेन्द्र आपने अनेक दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, सागरजी, श्री जिनउदयसागर उपधान करवाये / आपका मांडवला में सूरिजी आदि यशस्वी आचार्यों स्वर्गवास हुआ। अग्नि संस्कार स्थल की परम्परा के रूप में आज भी पर आपश्री के प्रधान शिष्य पू. अपनी पूरी प्रखरता, उष्मा एवं उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. गरिमा से युक्त है। की प्रेरणा से जहाज मंदिर बना है। (17)आचार्य श्री जिनकान्ति- प्र.603.खरतरगच्छ की साहित्य आदि सागरसूरि - यद्यपि पूज्य संपदाओं पर प्रकाश डालिये।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy