SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उ. महाविदेह क्षेत्र में सर्वदा तीर्थंकरों का विचरण होता रहता है, वहाँ वर्तमान में सीमंधर आदि बीस तीर्थंकर धर्मोद्योत कर रहे हैं। प्र.259.महाराजश्री! लोगों के मुख से सुनते हैं कि जैन धर्म कोई स्वतंत्र धर्म नहीं है, यह हिन्दु अथवा बौद्ध धर्म की शाखा है तथा श्री पार्श्वनाथ एवं महावीर प्रभु ने कुछ वर्षों पूर्व ही चलाया है, इसमें सच्चाई क्या है ? यह बताईये। वास्तविकता यह है कि उन लोगों को जैन इतिहास की जानकारी नहीं है। जिन्होंने जैन धर्म की प्राचीनता के संदर्भ में गहराई एवं बारीकी से अध्ययन-शोधन किया है, उन विद्वानों का कहना है कि जैन धर्म असंख्य वर्ष प्राचीन है एवं आदिनाथ से चला आ रहा है। इस बारे में दो तथ्यों को प्रामाणिक माना जाता है - 1. शास्त्र 2. विद्वानों का मन्तव्य / (i) शास्त्र- यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थंकरों के नाम उपलब्ध होते हैं। भागवत पुराण में ऋषभ जैन धर्म के संस्थापक कहे गये हैं। वायु पुराण, वराहमिहिर संहिता, ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य में 'अर्हत्' शब्द **************** 84 का प्रयोग हुआ है ।ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया - अर्हत् इदं दयसे विश्वमम्बम् ।हे अर्हन्!तुम विश्व पर दया करते हो। और अन्य स्थान पर कहा गया- हे अर्हन् ! आप ऐसी आत्मा है, जो रत्न की भांति प्रकाशित एवं मल विमुक्त है तथा विश्व के समस्त पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानती है। योगवाशिष्ठ में 'जिन' का, अग्नि पुराण में 'अर्हत्' मत का, महाभारत शान्ति पर्व अध्याय में ‘स्याद्वाद' का विवेचन उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योगवाशिष्ठ, महाभारत एवं पुराण से पूर्व भी जैन धर्म प्रचलित था। अमर कोषकार ने अर्हत् को मानने वाले को आर्हत् एवं स्याद्वादिक कहा है। शाश्वत कोष एवं शारदीय नाममाला में 'अर्हत्' को जिन का पर्यायवाची कहा गया है। (ii) प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान् डॉ. हर्मन जेकोबी ने लिखा है कि 'जैन धर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है। लोकमान्य पण्डित बाल गंगाधर तिलक, महोपाध्याय सतीशचन्द्र, डॉ. राधाकृष्णन आदि अनेक ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy