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________________ नवतत्त्व : जिनवाणी का सार प्र.189. तत्त्व नौ ही क्यों कहे गये? शाता, समृद्धि, यश आदि प्राप्त करता उ. इन नवतत्त्वों में सम्पूर्ण सृष्टि है, उसे पुण्य कहते है। इसके समाविष्ट हो जाती है। जीव की बयालीस भेद कहे गये हैं। निगोद से लेकर सिद्ध पद की सारी प्र.194. पुण्य कितने प्रकार का कहा गया यात्रा इसमें आ जाती है। समस्त तत्त्वों का इनमें अन्तर्भाव हो जाने से उ. दो प्रकार कानवतत्त्व ही कहे गये। (1)पुण्यानुबंधी पुण्य- जो पुण्य नये प्र.190. नव तत्त्व कौनसे हैं ? पुण्य के बंध में कारण बनता है, उ.. (1) जीव (2) अजीव (3) पुण्य (4) पाप शुभ तथा अच्छे की ओर प्रेरित (5) आश्रव (6) बंध (7) संवर (8) करता है, जैसे किसी को धन निर्जरा (9) मोक्ष / मिला, यह पुण्य का परिणाम है प्र.191.जीव किसे कहते है? और वह उस धन को परोपकार, उ. जो जीवन जीता है, प्राणों को धारण सुपात्रदान में खर्च करता है तो करता है तथा जिसमें चेतना है, उसे नया पुण्य बंधता है, इसे जीव कहते है। चलना-फिरना, रोना पुण्यानुबंधी पुण्य कहा जायेगा। -हँसना, श्वासोच्छवास आदि क्रियाएँ जैसे - पुण्य के उदय से शालिभद्र जिसमें होती है, वह जीव है। अतुल सम्पत्ति का स्वामी बना और प्र.192.अजीव किसे कहते है? अन्त में उनकी नश्वरता का शाश्वत उ.. जीव तत्त्व से विपरीत जिसमें चेतना बोध प्राप्त करके एकावतारी देव बना। नहीं है एवं जिन्हें सुख-दुःख की (2)पापानुबंधी पुण्य- वह पुण्य, जो अनुभूति नहीं होती है, उन्हें अजीव पाप, अशुभ, अनैतिकता, बुराई, कहते हैं। जैसे गाड़ी, कपड़ा, मकान, हिंसा आदि गलत प्रवृत्तियों की फर्नीचर आदि। ओर ले जाता है। जैसे—धनी प्र.193. पुण्य किसे कहते है? व्यक्ति का दुराचार, मदिरापान, उ. जिसके कारण जीव अनुकूलता, व्यसन, हिंसा, आदि में प्रवृत्त
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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