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________________ सिवाय कोई भी शरणभूत नहीं है, इस प्रकार का चिन्तन करना। (3)संसार भावना- मल्लिनाथ की भाँति संसार की असारता का चिन्तन करना। (4)एकत्व भावना- नमि राजर्षि की भाँति 'मैं एकाकी ही जन्मा तथा एकाकी ही मरूंगा', यह चिन्तन करना। (5)अन्यत्व भावना- सुकोशल मुनि की भाँति 'मैं शुद्ध परमात्म स्वरूप हूँ ज्ञानादि गुणों के अतिरिक्त पुत्रमित्र-कलत्र, सभी पराये हैं, यह चिन्तन करना। (6)अशुचि भावना- सनत्कुमार चक्रवर्ती की भाँति 'यह नश्वर शरीर रोगों का एवं मल, मूत्र आदि अशुद्ध पदार्थों का घर है।' ऐसा चिन्तन करना। (7)आश्रव भावना- समुद्रपाल की भाँति 'हिंसा आदि आश्रव जन्ममरण की परम्परा को बढ़ाने वाले हैं।' ऐसा चिन्तन करना। (8)संवर भावना- मेतारज मुनि की भाँति आत्मा का संवरण करना एवं मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद और योग को रोकने का प्रयास करना। (9)निर्जरा भावना- अर्जुनमाली की भाँति ‘कृतकर्मों का सर्वथा क्षय किये बिना दुःख से मुक्ति नहीं मिलती है', ऐसा चिन्तन करना। (10) धर्म भावना- दान आदि धर्म का पुनः पुनः चिन्तन करना एवं धर्मरूचि अणगार की भाँति धर्मरक्षा के लिये प्राणों का त्याग करना। (11) लोकभावना- शिवराज ऋषि की भाँति लोक स्वरूप का चिन्तन करते हुए वैराग्यवासित बनना। (12) बोधि भावना- ऋषभदेव के 98 पुत्रों की भाँति सम्यक्त्व की दुर्लभता का विचार करते हुए असार संसार का त्याग करके संयम धारण करना। प्र.484. मैत्री आदि चार प्रकार की भावनाओं को समझाओ। (1)मैत्री भावना- मैत्री भावना में विश्वबंधुत्व, शिवमस्तु सर्वजगतः एवं वसुधैव कुटम्बकम् की निःस्वार्थ भावनाओं का पावन संगीत है। जीव मात्र के प्रति निर्मल मैत्री, स्नेह और आत्मीयता का भाव रखते हुए उसके कल्याण की
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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