SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकरों के साधुओं के चतुर्थ उ. एक ही स्थान में रहने से आलस्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत को पंचम परिग्रह प्रमाद एवं राग-भाव बढ़ता है। शनैः महाव्रत में शामिल किया शनैः संयम में शिथिलता आ जाती है गया है क्योंकि स्त्री भी एक प्रकार ‘एवं साधु सुखशील बन जाते हैं। कदाच का परिग्रह ही है। उसको पंचम मंगू आचार्य की भाँति दुर्गति भी हो महाव्रत में शामिल करने से चार सकती है। ग्रामानुग्राम विचरण करने महाव्रत ही होते हैं। से संयम में जागरूकता बनी रहती है प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड़ एवं उपदेश, धर्मकथा आदि से धर्म का अर्थात् सरल एवं भोले होने से उनसे प्रचार होता है। संयम का जगत में गलती होनी संभवित हैं एवं महावीर के गुणगान होता है। साधु तर्कबाज होने से कुतर्क करके प्र.79.यदि विहार करने की जिनाज्ञा है तो स्खलना कर सकते हैं, अतः इन चातुर्मास किस कारण? साधुओं के पंच महाव्रत होते हैं। उ. परमात्मा महावीर ने नवकल्पी विहार मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों के साधु का आचरण फरमाया है। चार माह एक सरल एवं प्रज्ञायुक्त होने से प्रायः जगह, शेष आठ महिनों में साधु एक गलती नहीं करते हैं, अतः उनके चार स्थान पर एक माह से अधिक नहीं रूक महाव्रत कहे गये हैं। सकता है। रुग्णता, अध्ययन आदि इसी प्रकार आदिनाथ एवं महावीर के विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक साधुओं के लिये दोष लगे अथवा न स्थिरवास कर सकता है / लगे, प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है चातर्मास में वर्षा के कारण जीवोत्पत्ति * जबकि अजितनाथ से पार्श्वनाथ के विशेष रूप से होती है अतः हिंसा की साधु दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते संभावना अधिक होने से साधु चातुर्मास में विहार नहीं करते हैं। प्र.77.क्या पडिलेहण करनी जरूरी है ? प्र.80.महाराजश्री ! आप पद-विहार क्यों उ... अहिंसा-पालन एवं जीव दया के लिये करते हैं? निजी वाहन में तो हिंसा वस्त्र, पात्र आदि समस्त उपकरणों को होती है पर सार्वजनिक बस, रेल विधिपूर्वक देखने की प्रक्रिया को आदि में कोई बैठे या न बैठे,वह पडिलेहण कहा जाता है। यह दो बार चलती ही है तो क्या उसका अवश्य करणीय है। उपयोग आप नहीं कर सकते? प्र.78. साधुओं को विहार क्यों करना चाहिये? उ. पद - विहार साधु-चर्या का अनिवार्य
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy