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________________ "प्र.117. प्रतिक्रमण में छह आवश्यक कहाँ- 4. पुस्तक को योग्य स्थान पर कहाँ होते हैं? रखना। उ. सव्वस्सवि से प्रतिक्रमण की स्थापना 5. ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रतिदिन ज्ञान के से प्रतिक्रमण का प्रारम्भ होता है, पाँच खमासमणे देना, यथासंभव उसके बादः पाँच लोगस्स का कायोत्सर्ग 1. करेमि भंते से आठ नवकार के करना। कायोत्सर्ग तक प्रथम आवश्यक। 6. सूत्र का उच्चारण स्पष्ट एवं शुद्ध 2. तत्पश्चात् बोला जाने वाला रूप से करना। लोगस्स द्वितीय आवश्यक। 7. जल्दबाजी में अक्षर पर अक्षर चढ 3. तत्पश्चात् मुँहपत्ति प्रतिलेखन एवं ___ जाये, ऐसे नहीं बोलना। वन्दनक द्वय से तीसरा 8. गुरू भगवंत से गाथा लेने एवं आवश्यक। सुनाने से पूर्व वंदन करना। 4. तत्पश्चात् देवसिअं आलोउं से प्र.119.प्रतिक्रमण के सूत्र प्राकृत में होने आयरिय उवज्झाय तक चौथा से उनका अर्थ तो समझ में आता आवश्यक। नहीं है फिर उनका क्या लाभ है? . 5. तत्पश्चात् दो एवं एक-एक उ. वंदित्तु सूत्र की 38 वीं गाथा में कहा लोगस्स का किया जाने वाला गया है कायोत्सर्ग पाँचवां आवश्यक। जहा विसं कुटुंगयं, मंत मूल विसारया। 6. तत्पश्चात् मुँहपत्ति प्रतिलेखन विज्जाहणन्ति मन्तेहिं, तोतंहवइ निविसं।। द्वारा वंदनक देकर प्रत्याख्यान एक व्यक्ति, जिसे सर्प ने दंश दिया है, करना छट्ठा आवश्यक। वह व्यक्ति यद्यपि गारूडी मंत्राक्षरों प्र.118. सूत्र कंठस्थ करते समय किन का अर्थ नहीं जानता है तथापि उस तथ्यों का विशेष रूप से ध्यान मंत्र से विषमुक्त हो जाता है, वैसे ही रखना चाहिये? प्रतिक्रमण का हर सूत्र मंत्र स्वरूप है। उ. 1. पुस्तक को जमीन अथवा आसन उसका अर्थ नहीं आता है, फिर भी पर न रखकर ठवणी का उपयोग चेतन, मन एवं विचारों पर प्रभाव करना। अवश्यमेव पड़ता है। यदि अर्थ आता 2. पुस्तक को थूक नहीं लगाना। है तो और अधिक आनंद की प्राप्ति 3. पढते समय अवश्यमेव मुँहपत्ति का होती है। अतः अर्थ - बोध का प्रयत्न उपयोग करना। अवश्य करना चाहिये। ****** * *** 40 ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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