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________________ (6)कायोत्सर्ग- देहातीत होकर आत्मा का ध्यान करना। प्र.489.स्वाध्याय कितने प्रकार का कहा गया है? उ. पांच प्रकार का - (1)वाचना-नया ज्ञान प्राप्त करना। (2)पृच्छना- ज्ञान में शंका उपस्थित होने पर समाधान प्राप्त करना (3)परावर्तना- सीखे हुए सूत्र एवं अर्थ के ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने के लिये पुनः पुनः दोहराना। (4)अनुप्रेक्षा- ज्ञान का चिन्तन मनन करना। (5)धर्मकथा- जिनोक्त तत्त्व का उपदेश देना। प्र.490. तप में क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिये? तपश्चरण साधना का महत्वपूर्ण सोपान है। तप–साधना की उत्कृष्टता से ढंढण अणगार नेमिनाथ के अठारह हजार साधुओं में तथा धन्ना अणगार वर्धमान प्रभु के चौदह हजार साधुओं में प्रशंसा और अनुमोदना के पात्र बने तथा प्रभु ने स्वमुख से उनको सर्वोत्कृष्ट साधक बताया। तप में तीन को छोडना और चार की धारणा जरूरी है(1)तीन त्याज्य-शयन करना, दूसरों की निंदा करना तथा जुआ, ताश, टी.वी. आदि विकारवर्द्धक साधनों में समय का दुरुपयोग करना। (2)चार स्वीकार्य- स्वाध्याय, माला- जाप, जिनपूजा–भक्ति एवं सामायिक, प्रतिक्रमण, वैयावच्च इत्यादि। तप को समस्त धर्मों में मोक्ष प्राप्ति में प्रमुख साधन माना है। तप में न तो शक्ति का गोपन करना चाहिये, न उल्लघंन करना उचित है।दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि अपने बल, आरोग्य और श्रद्धा को देखकर एवं क्षेत्र व काल को पहचान कर यथाशक्ति अपनी आत्मा को तप आदि अनुत्तर अनुष्ठानों , में संयोजित करना चाहिये। उत्तर तथा पश्चात् पारणे में गरीष्ठ, नमकीन, तले एवं अति-आहार से बचना चाहिये। रसना पर नियन्त्रण नहीं रखने से तप बिगड जाता है। पेट दर्द, वमन आदि होने पर तप की लोक में निंदा होती है और कदाच तपस्वी भी तप पर वह दोष मढ देता है, जो दोष पारणे में उसकी स्वयं की असावधानी से. उत्पन्न हुआ है।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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