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________________ तप के बारह भेद (3)वृत्ति संक्षेप- भोज्य पदार्थों का एवं उनके प्रति राग का संक्षेप करना। (4)रस परित्याग- घी, तेल, दही, दूध का या उनसे निर्मित सरस वस्तुओं का यथासंभव त्याग करना। (5)कायक्लेश- आतापना, लोच आदि का कष्ट सहन करना। (6)संलीनता- मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को संकुचित करना। प्र.488.आभ्यंतर तप कितने प्रकार का होता प्र.485. तप किसे कहते है? उ. जिन उपायों से आत्म-शुद्धि एवं कर्म निर्जरा होती है, उसे तप कहते है। अग्नि का स्पर्श पाकर जिस प्रकार स्वर्ण पर लगा हुआ कचरा, मेल उतर जाता है और वह चमक उठता है, उसी प्रकार तपाग्नि से आत्मा पर विकार, विषय और वासना की जो गंदगी और अशुचि लगी हुई है, वह दूर हो जाती है और आत्मा स्वच्छ, निर्मल और बेदाग हो कुंदन की भाँति चमक उठती है। आगम-सूत्र का फरमान है कि करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, जिससे आत्मा के ज्ञानादि अमल-धवल गुणों 'का प्रकटीकरण होता है। प्र.486. तप कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. दो प्रकार के- (1) बाह्य तप (2) आभ्यन्तर तप। प्र.487.बाह्य तप कितने प्रकार का है? उ. छह प्रकार का (1)अनशन- उपवास आदि करना। (2)ऊणोदरी- भूख से कुछ कम खाना। उ. छह प्रकार का-(1) प्रायश्चित्तजिस क्रिया से चित्त की शुद्धि हो। (2)विनय- आचार्य, उपाध्याय आदि का विनय, सत्कार करना। (3) वेयावच्च - आचार्य, उपाध्याय,. शैक्षक, ग्लान, नवदीक्षित आदि की सेवा करना। (4)स्वाध्याय- तत्त्व-ज्ञान आदि का स्मरण - पुनरावर्तन - चिन्तन एवं प्रवचन करना। (5)ध्यान- आर्त्त-रौद्र ध्यान का त्याग करना। धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान ध्याना।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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