________________ तैयार करते हैं और मलिन, अशुद्ध, हिंसा आदि पापों से युक्त अध्यवसायों के परिणाम स्वरूप मेला, काला, नीला आभामण्डल बनता है और इसके द्वारा परस्पर प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। तीर्थंकर परमात्मा के आभामण्डल के प्रभाव से उनके समवसरण में साँप-नेवला, बिल्ली-चूहा, सिंहबकरी आपसी वैरभाव भूल जाते हैं। चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक नये रोग-उपद्रव नहीं होते हैं और पुराने नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यह ध्यातव्य है कि जिसका आभामण्डल प्रभावशाली होगा, वह अप्रभावित रहता हुआ अन्यों को प्रभावित करेगा। सन्तों के सानिध्य में आकर सिंह, सर्पादि अपना क्रोधी स्वभाव त्याग कर शान्त-प्रशान्त हो जाते हैं, यह उनके सौम्य एवं सात्त्विक आभामण्डल का ही प्रभाव है। प्र.383. लेश्या के प्रकारों को प्रकाशित कीजिए। उ. (1)अति क्रोधी, ईर्ष्यालु, पापी, हिंसक, निर्दयी, लोभी, कृतघ्नी जीव का आभामण्डल कृष्ण वर्ण का होने से उसे कृष्ण लेश्या कहते है। **** * ****** 138 (2)स्त्री-लंपट, उग्र-परिणामी, अभिमानी, हठी-कदाग्रही, प्रमादी जीव का नीला आभामण्डल होने से उसे नील लेश्या कहते है। (3)स्वप्रशंसक, परनिंदक, शोकग्रस्त, कलही, आर्तध्यानी का आभामण्डल कापोत/कबूतरवर्णीय होने से कापोत लेश्या कहा जाता है। (4)हिताहित ज्ञाता, विद्वान्, दयालु, परोपकारी व्यक्ति का आभामण्डल दीपकवत् तेजोमय व द्युतियुक्त होने से तेजोलेश्या कहा जाता है। (5)सरल स्वभावी, दानी, अहिंसक, व्रती, : क्षमाशील, निर्लोभी, हित-मित-प्रियभाषी व्यक्ति का आभामण्डल पद्म के समान होने से पद्मलेश्या कहा जाता है। (6)वीतरागी, स्वाध्यायी, साधनाशील, परम निर्मल आत्म ध्याता का आभामण्डल दुग्ध/शंख की भाँति परम श्वेत/शुभ्र होने से शुक्ल लेश्या कहलाता है। इसमें जिस वर्ण का आभामण्डल बनता है, उसे द्रव्य लेश्या एवं उनमें कारण रूप शुद्ध-अशुद्ध, निर्मल-मलिन अध्यवसायों को भाव लेश्या कहा जाता है। ****************