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________________ उपाश्रय में कैसा हो आचरण हमारा? प्र.452. उपाश्रय किसे कहते है एवं वहाँ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये? उ. उप अर्थात् निकट! जो आत्मा के अत्यन्त निकट का आलम्बन है, उसे उपाश्रय कहा जाता है। (1)जिनमंदिर की भाँति उपाश्रय गमन में भी ईर्यासमिति का परिपूर्ण पालन करना चाहिये। (2)उपाश्रय में प्रवेश करते समय समस्त सांसारिक कार्य, वार्तालाप के त्याग रूप तीन बार 'निसीहि' का उच्चारण करना चाहिये। (3) गुरु भगवंत को इच्छामि, इच्छकार अब्भुट्ठियो से वंदन और सुखशाता-पृच्छा करने से पूर्व भूमि की तीन बार दुपट्टे या रूमाल से प्रमार्जना करें ! इससे ही जयणा का पालन होता है। (4)गुरु भगवंत किसी से आवश्यक महत्त्वपूर्ण वार्तालाप कर रहे हो तब दूर से ही मंद स्वर से वंदना करें। अन्य मुनिवरों के दर्शन वन्दन का लाभ अवश्य प्राप्त करें। (5)उपाश्रय में न अखबार पढ़े, न परस्पर सांसारिक, सामाजिक, व्यापारिक वार्तालाप करें। (6) गुरु भगवंत किसी कार्य में व्यस्त हो तो नवकार आदि का जाप करें अथवा अन्य मुनिवरों के मुख से धर्म श्रवण अथवा तत्त्व चर्चा करें। (7) गुरु भगवंतों के सामने कुर्सी आदि पर न बैठे। शारीरिक समस्या के कारण कदाच उच्चासन पर बैठना पड़े तो मन में अनुताप का भाव लावे तथा कुर्सी के उपयोग की गुरु भगवंत से आज्ञा प्राप्त करें। (8)जब कुर्सी छोड़कर घर की ओर प्रत्यावर्तित हो तब कुर्सी पुनः उचित स्थान पर रख दें। (9) उपाश्रय में पंखा शुरु न करें। वस्त्रादि से हवा न करें। (10) गुरु मुख से धर्मोपदेश श्रवण हेतु तत्पर-लालायित रहे तथा अवसर मिलने पर अचंचल भाव से एकाग्रतापूर्वक धर्म श्रवण करें। किसी प्रकार की जिज्ञासा होने पर 'मत्थएण वंदामि' पूर्वक पृच्छना करें। (11) बोलते समय मुखवस्त्रिका या रूमाल का प्रयोग करें।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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