________________ प्रथम संस्करण से अभिनन्दनम् राग-द्वेष का जिन्होंने सर्वथा विलय कर दिया, वे 'जिन' हैं और उनके द्वारा / प्ररूपित/प्रतिपादित आचार-विचार के सिद्धांतों को जो अपने जीवन-व्यवहार में क्रियान्वित करता है, वह 'जैन' है। कोई व्यक्ति केवल जन्म से जैन होता है, तो कोई व्यक्ति केवल कर्म से। कोई जन्म और कर्म, दोनों अपेक्षा से जैन होता है। केवल जन्म से जैन होना सद्भाग्य का परिणाम है तो केवल कर्म से जैन होना सद् पुरूषार्थ का परिणाम है। जहाँ जन्म तथा कर्म, उभयापेक्षया व्यक्ति जैनत्व की गरिमा से परिपूर्ण बनता है, वह अनंत पुण्य का परिणाम है। जीवन जीना एक बात है। कैसे व कैसा जीवन जीना, यह सर्वथा भिन्न बात है। जीवन तो पेड-पौधे, पशु-पक्षी भी जीते हैं, पर आज तक उनके जीवन-लक्ष्य निर्धारण अथवा जीवन शैली पर न कोई समीक्षा हुई, न नीति-नियम बने, क्योंकि पशु में न ज्ञान है, न विवेक है, न धर्म। मनुष्य का जीवन सर्वोत्कृष्ट जीवन है, क्योंकि स्व के साथ-साथ संपूर्ण सृष्टि का हित/कल्याण साधने की क्षमता केवल मानव में ही संभव है। आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन, ये चारों ही संज्ञाएँ मनुष्य तथा पशु में समान रूप से पाई जाती हैं। केवल विवेक एवं धर्म दृष्टि ही मनुष्य जीवन की विशिष्टता है, अन्यथा मनुष्य और पशु के जीवन में कोई अंतर नहीं रह जाता। मनुष्य जीवन तो जीता है पर जीवन क्यों जीये, कैसे जीये? आदि प्रश्नों पर कभी विचार नहीं करता। पर कुछ ऐसे महापुरूष होते हैं, जो निश्चित उद्देश्य के साथ विशिष्ट जीवन शैली से जीते हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवन आने वाली कई सदियों के लिए मील का पत्थर, आदर्श का दीप व प्रेरणा का स्तम्भ बन जाता है। ऐसे महापुरूष केवल समय को नहीं जीते, उनके जीवन में जीती-जागती। संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों की परंपरा होती है, जो पीढी दर पीढी संक्रांत होती रहती है। जैन धर्म अपने आप में बहुत ही विलक्षण है। चूंकि यह धर्म आप्त पुरूषों द्वारा प्रणीत है अतः इसका आध्यात्मिक पक्ष जितना मजबूत और सुदृढ है, वैज्ञानिक पक्ष भी उतना ही युक्तियुक्त और तर्कसंगत है। इस धर्म का अपना दर्शन है; अपना