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________________ चौदह गुणस्थानक (V) प्र.357.गुणस्थानक किसे कहते है ? उ. गुणों की अधिकता या अल्पता के आधार पर जीवों का विभाजन करना गुण स्थानक कहलाता है। यह जैन दर्शन की विशिष्टता है कि इसमें जीवों का विभाजन धन, सत्ता, ऐश्वर्य आदि के अल्पाधिक्य पर न करके गुणों की कमी-वृद्धि के आधार पर किया गया है। प्र.358. चौदह गुणस्थानक कौनसे हैं ? उ. (i) मिथ्यादृष्टि-इस गुणस्थानक में जीव कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता रहता है। (ii) सास्वादन-सम्यक्त्व से पतित जीव जब प्रथम गुणस्थानक में जाता है, तब मिथ्यात्वी बनने से पहले जो थोड़ा बहुत सम्यक्त्व का आस्वाद आत्मा में रहता है, उसे सास्वादन कहते है। (iii) मिश्र दृष्टि-जिस प्रकार नालिकेर द्वीप के मनुष्यों को अन्न पर प्रीति और अप्रीति, दोनों नहीं होती है उसी प्रकार मिश्र दृष्टि को जैन धर्म पर न प्रीति होती है, न अप्रीति। (iv)अविरत सम्यग्दृष्टि - इस गुणस्थानक में जीव सुदेव-सुगुरु -सुधर्म पर श्रद्धा करके सम्यक्त्वी बनता है पर व्रत धारण नहीं कर पाता है। (v) देशविरत - इस गुणस्थानक में जीव व्रत धारण करता हुआ श्रावक बनता है। (vi) प्रमत्तसंयत - इस गुणस्थानक में जीव महाव्रत लेता है पर प्रमादवश दोष लगाता है। (vii) अप्रमत्तसंयत-इस गुणस्थानक में जीव अप्रमत्त साधु होता है। (viii) अपूर्वकरण-इस गुणठाणे में पूर्व में न __ आये ऐसे शुद्ध अध्यवसाय आते हैं। (ix) अनिवृत्तिकरण - इसमें स्थूल कषाय-उदय होता है तथा समान समय वाले जीवों की विचार-शुद्धि परस्पर समान होती है। (x) सूक्ष्म सम्पराय-इस गुणस्थानक में सूक्ष्म रूप से लोभ सम्पराय (कषाय) * का उदय होता है। (xi) उपशान्त मोह-इस गुणस्थानक में मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है पर इस गुणठाणे में आने वाला जीव अवश्यमेव नीचे गिरता है। (xii) क्षीण मोह-क्षपक क्षेणी में चढने वाला जीव ही दसवें से सीधा बारहवें . गुणठाणे में आकर वीतरागी बनता है और शेष घाती कर्मों का यहाँ सम्पूर्ण क्षय करता है। (xiii) सयोगी केवली-शरीर सहित तीर्थंकर, केवली इस गणठाणे के जीव होते हैं। (xiv) अयोगी केवली-इसमें जीव तीनों योगों को अवरूद्ध करके मोक्ष गामी हो जाता है। *************** 122 ****************
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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