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________________ देवलोक : सुख का कल्पवृक्ष प्र.241.देव से क्या अभिप्राय है? / अनेक देवता ऐसे होते हैं जो एक ही उ. जिस तरह महापापी जीव नरक में समय में हजार-हजार रूप बनाकर उत्पन्न होकर अतिशय दुःख भोगते पृथक- पृथक् हजार-हजार भाषाएँ हैं, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किये गये बोल सकते हैं। पुण्य-कार्य के परिणामस्वरूप जीव अनेक ऋद्धि सम्पन्न देव मनुष्यों की जहाँ दिव्य-विविध सुखों को भोगते पलकों पर बत्तीस प्रकार के दिव्य हैं, उसे देवलोक कहते है। देवलोकों नाटक दिखा देते हैं पर उन मनुष्यों में उत्पन्न जीव देव कहलाते हैं। कोतनिक भी पीड़ा नहीं होती है। मनुष्यों की अपेक्षा उनका ऐश्वर्य एवं . शक्रेन्द्र की शक्ति के संदर्भ में आगम सुख हजारों-लाखों गुणा ज्यादा कहते हैं कि देव किसी मनुष्य का सिर होता है। काटकर, उसे कूट-पीसकर चूर्ण प्र.242. देवों का रूप-सौंदर्य कैसा होता है? बना दे और तत्काल उससे मस्तक उ. देवों का शरीर मनुष्य एवं तिर्यंच की बनाकर मनुष्य के धड़ से जोड़ने का भाँति मांस, अस्थि आदि से निर्मित न कार्य इतनी दक्षता और शीघ्रता के होकर शुभ पुद्गलों से बनता है। साथ करते हैं कि उसे तनिक भी पीड़ा उनकी काया निरोगी, सुगंधमयी, का अनुभव नहीं होता है। लावण्ययुक्त और द्युतिमयी होती है। प्र.244. देवों की गति तीव्र है अथवा वायु की? मृत्यु के उपरान्त कपूर की भाँति उ. शास्त्रों में कहा गया है कि तीन उनका शरीर बिखर जाता है, मुर्दे के चुटकी बजाने जितने समय में देव रूप में नहीं रहता है। इक्कीस बार जम्बूद्वीप के चक्कर प्र.243. देवों की शक्ति अधिक होती है या लगा सकते हैं। यदि इस गति से देव मनुष्य की? यहाँ आये तो पहुँचने में अनेक वर्ष उ. सामान्य मनुष्य की अपेक्षा उनकी व्यतीत हो जायेंगे। उनके पास ऐसी शक्ति अधिक और आश्चर्यकारी होती दिव्य गति है कि वे स्मरण करते ही है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि यहाँ उपस्थित हो जाते हैं।
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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