________________ चतुर्विंशतिस्तव और वन्दनक प्र. 138. चतुर्विंशति स्तव से क्या अभिप्राय है? उ. चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति/स्तवना करना चतुर्विंशति स्तव कहलाता है। यह आवश्यक लोगस्स सूत्र के द्वारा किया जाता है। प्र.139.वंदनक से क्या अभिप्राय है? उ. सद्गुरू के चरणों की वंदना एवं उनका गुणोत्कीर्तन करना वंदनक आवश्यक कहलाता है। प्र.140. वंदनक में मुँहपत्ति खुली क्यों रखी जाती है? उ. मुँहपत्ति में गुरू महाराज के चरण युगल की कल्पना करते हुए वंदनक में मुँहपति खुली रखी जाती है। . प्र.141. किसकी वंदना जगत में सुप्रसिद्ध है? उ. वासुदेव श्रीकृष्ण की। प्र. 142. वंदन कितने प्रकार के कहे गये हैं? उ. तीन प्रकार के 1. फेटा वंदन– मार्ग में गुरू भगवंत के दर्शन होने पर मत्थएण वंदामि से किया जानेवाला वंदन। 2. थोभ वंदन- पंचांग प्रणिपात अर्थात् इच्छकार एवं अमुट्ठियो से किया जाने वाला वंदन। 3. द्वादशावत वंदन- वंदनकद्वय (अहो कायं काय) से किया जाने वाला वंदन। प्र.143.अब्भुठ्ठियो का पाठ बोलते समय हाथ खुला रखना चाहिये या बंद? उ. अब्भुट्ठियो बोलते समय व्यक्ति गुरू के प्रति हुए अविनयादि व्यवहार की क्षमायाचना करता है, अतः गुरू महाराज के चरण स्पर्श का भाव धारण करते हुए हाथ खुला रखना चाहिये। प्र.144. ऐसा कौनसा सूत्र है, जिससे भगवान एवं गुरू महाराज, दोनों को वंदना की जाती है? उ. इच्छामि खमासमणो सूत्र। प्र.145. वंदन करते समय क्या . क्या सावधानी बरतनी चाहिये? 1. मार्ग में गुरू महाराज चल रहे हो तो तब मध्य में गुरू वंदन मात्र 'मत्यएणवंदामि कहकर करना चाहिए। 2. गुरू महाराज जब आहार, विहार एवं लघुनीति-बडीनीति हेतु उद्यत हो तब वंदना नहीं करनी चाहिए। 3. 'इच्छामि खमासमणो' बोलते समय 'मत्थएण वंदामि' उच्चारण के साथ सिर का भूमि से स्पर्श . होना चाहिये। 4. जब गुरू प्रशान्त एवं प्रसन्न मुद्रा में हो, आसन पर अप्रमत्त भाव से बिराजमान हो एवं वंदन करने वाले पर उनका ध्यान हो तब गुरू वंदन करना चाहिये। 5. मुनिवर, गुरू आदि से विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त कर रहे हो तो बीच में जाकर वंदन नहीं करके दूर से ही वंदन करना चाहिये।