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________________ रहती है। अतः घर में किसी पदार्थ का बाहुल्य होने पर विनयपूर्वक यह भी निवेदन कर सकते हैं कि - गुरुवर ! अमुक पदार्थ आप अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकते हैं। हम पुनः समारम्भ नहीं करेंगे। (12) अमुमन साधु मधुकरवत् अल्प आहार ही लेता है तथापि कभी उनके द्वारा अधिक मात्रा में आहार ले लिया जावे तो पुनः आरम्भ - समारम्भ न करके जो बचा है, उसी में तुष्टि का अनुभव . करें। (13) श्रावक को सुपात्र-दान के समय बराबर याद रखना चाहिये कि निवेदन करना मेरा काम है और लेना अथवा न लेना, यह गुरुवर का काम है। अतः संयम-साधना में उपयोगी हर वस्तु की विनंती करनी चाहिये। (14) वोहराने के बाद सुपात्र दान की पुनः पुनः हार्दिक अनुमोदना करनी चाहिये। सुपात्र दान की अनुमोदना ने ग्वाले संगम को शालिभद्र के रूप में ऋद्धि दी और इससे भी महत्वपूर्ण वह प्रभु महावीर का शिष्य एवं एकावतारी ************** * 168 देव बना। (15) वोहराने की दिव्य-प्रक्रिया में पदार्थों से भी महत्त्वपूर्ण भाव का प्रभाव होता है। चन्दनबाला ने उड़द के बाकुलों से और जीरण सेठ ने वोहराने की उत्कृष्ट भावना से ही अपना साध्य साध लिया। (16) मुनिराज को वस्तु के नाम लेकर विनंती करें परन्तु कभी भी. क्या वोहराऊँ? या क्या खप हैं? ऐसा प्रश्न न करें। (17) कभी-कभी स्थिति ऐसी होती है, जब घर में वोहराने वाले अधिक हो अथवा प्रासुक पदार्थ की बहुलता हो परन्तु मुनिवर की अपेक्षा अत्यल्प हो तब सभी को लाभ प्राप्त हो, इस कारण शास्त्रकारों ने हाथ-स्पर्शना की विधि का मार्गदर्शन किया है। स्वल्प वोहराने वाले के हाथों का अथवा उस पात्र का सभी स्पर्श कर ले, इससे सभी को सुपात्र दान का लाभ प्राप्त हो जाता है। (18) घर का मुखिया अथवा अन्य सदस्य कभी यह सोचकर एक तरफ न हो कि तुम्हीं वोहराओ, मुझे तो लाभ मिल जायेगा ************ ****
SR No.004444
Book TitleJain Jivan Shailee
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar, Nilanjanashreeji
PublisherJahaj Mandir Prakashan
Publication Year2012
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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