________________ मिथ्यात्व का त्याग : सम्यक्त्व का राग उ. प्र.359.मिथ्यात्व किसे कहते है? उ. सही तत्त्व में गलत की बुद्धि अथवा गलत में सही की बुद्धि होना मिथ्यात्व कहलाता है। जिनोक्त तत्त्व को न समझना या विपरीत अर्थ में समझना मिथ्यात्व का परिणाम है। शास्त्रों में मिथ्यात्व को घोर अन्धकार, विष एवं शत्रु की उपमा दी गयी है। इसके कारण जीव आत्महित-अहित एवं अच्छे-बुरे का विवेक प्राप्त नहीं कर पाता है। अविवेक एवं मोह के अधीन होकर जिस प्रकार मदोन्मत्त व्यक्ति पत्नी को माता एवं माता को पत्नी समझने की भूल करता है, वैसे ही मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति सरागी देवों को वीतराग एवं वीतराग को रागी समझ बैठता है। अहिंसा, सत्य आदि को अधर्म एवं हिंसा, असत्य आदि को धर्म समझ बैठता है और अनन्त संसार में परिभ्रमण करता हुआ बार-बार जन्म-मरण का दुःख प्राप्त करता है। प्र.360. मिथ्यात्व कितने प्रकार के कहे गये है? स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के बताये गये हैं(1-2) धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानना। (3-4) सम्यग् ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र रूपी सन्मार्ग (मोक्षमार्ग) को उन्मार्ग मानना एवं मिथ्यात्व, अज्ञान, कषाय आदि भटकाने वाले उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना। (5-6) जीव को अजीव तथा अजीव को जीव मानना। संसार में अनेक प्राणी अज्ञानता के कारण आकाश, पुद्गल आदि को जीव तथा सचित्त पानी, पृथ्वी, अग्नि, वनस्पति, आदि को अजीव मानते हैं। (7-8) साधु को असाधु एवं असाधु को साधु मानना। पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति से युक्त साधु एवं उससे विपरीत असाधु कहलाते हैं। वर्तमान में अनेक व्यक्ति नामधारी साधु को सच्चा साधु मानकर अपना भवभ्रमण बढ़ा रहे हैं। (9-10) मुक्त को अमुक्त एवं अमुक्त को मुक्त मानना / अष्ट कर्मों से युक्त अमुक्त कहलाते हैं। कितने ही