________________ करने से प्रभु की आशातना नहीं चाहिये अर्थात् अब द्रव्य पूजा से होती। यदि कोई गुरु को प्रभु मानकर भाव पूजा में प्रवेश करता हूँ | पूजा करें तो जरुर दोष उपस्थित 3. स्वस्तिक (साथिया) बनाते हुए होता है। चैत्यवंदन नहीं करना चाहिये। श्री हेमचन्द्राचार्य ने मंदिर में 4. स्तवन मधुर, भावपूर्ण हो परन्तु गुरु-वंदना की प्ररुपणा की है। जब दूसरों को भक्ति में परेशानी हो, प्रभु के सम्मुख निकटवर्ती गोखलों में इस प्रकार उच्च स्वर से नहीं गाना स्थिति अधिष्ठायक देव-देवी की चाहिये। पूजा की सकती है, तो दादा गुरुदेव 5. सूत्रों का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट, को वंदन क्यों नहीं हो सकता? भावार्थपूर्ण होना चाहिये। प्र.431. देव-देवी के तिलक ही क्यों किया 6. प्रभु भक्ति करते समय प्रभु के सिवाय तीनों दिशाओं का त्याग जाता है? करना चाहिये। उ. सम्यक्त्वी देव-देवी हमारे साधर्मिक प्र.434. ललाट पर तिलक क्यों अंकित बंधु तुल्य हैं, अतः सम्मान तथा किया जाता है? बहुमान का प्रतीक तिलक ललाट - दोनों भृकुटियों के मध्य में आज्ञाचक्र पर अंकित किया जाता है। स्थित है। इस चक्र को शास्त्रों में प्र.432.भावपूजा से क्या अभिप्राय है? तृतीय और दिव्य नेत्र कहा गया उ. चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन के द्वारा प्रभु है। यहीं पर सुषुम्ना, इडा व पिंगला के गुणगान करना भावपूजा कहलाती इन तीन विशिष्ट नाडियों का संगम होता है। नाड़ियों एवं आज्ञाचक्र की प्र.433.भावपूजा किस प्रकार की जानी जागृति से मानव दृढ संकल्पी, चाहिये? आत्मनियंता, नेतृत्व कुशल, प्रसन्नउ. 1. चैत्यवंदन स्थान पर तीन बार चित्त, दीर्घायुषी व हितैषी बनता है। दुपट्टे से भूमि की प्रमार्जना करके जप, तप, ज्ञान, ध्यान आदि की इर्यापथिकी पूर्वक चैत्यवंदन करना एकात्मकता से अवधि ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान तक चाहिये। की उच्च भूमिका तक भी पहुँच 2. चैत्यवंदन करने से पूर्व तीसरी सकता है। निसीहि का उच्चारण करना ****** ********* 155 **** *