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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ३३
विवेचन न्यास अथवा निक्षेप वस्तु-तत्त्व के कथन तथा हृदयंगम करने की एक शैली है । इससे वस्तु का स्वरूप भली भाँति समझ में आ जाता है ।
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न्यास अथवा निक्षेप का शाब्दिक अभिप्राय 'रखना' अथवा उपस्थित करना' या 'वर्णन करना' है । जैन शास्त्रों में वस्तु का वर्णन करने के चार प्रकार बताये हैं । वे ही ये चारों न्यास अथवा निक्षेप हैं ।
(१) नाम निक्षेप गुण आदि का विचार किये बिना किसी वस्तु या व्यक्ति को संबोधित करने अथवा व्यवहार चलाने के लिए जो संकेत निश्चित कर दिये जाते हैं, वे नाम निक्षेप कहलाते हैं । जैसे किसी बालक की चार भुजाएँ नहीं किन्तु उसका चतुर्भुज नाम रख देना, अथवा अन्धे का नाम नयनसुख रख देना ।
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(२) स्थापना निक्षेप इसमें व्यक्ति या वस्तु की प्रतिकृति अथवा असली वस्तु व्यक्ति का आरोप किया जाता है । इस अपेक्षा से इसके दो भेद हैं (१) तदाकार स्थापना (२) अतदाकार स्थापना ।
आगम वचन.
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तदाकार स्थापना मूर्ति अथवा चित्र को कहते हैं और अतदाकार स्थापना मे व्यक्ति अपने मन से इष्ट का आरोप कर लेता है । उदाहरणार्थ, गोल पत्थर को शालिग्राम मान लेना अतदाकार स्थापना है और श्रीकृष्ण, श्रीराम, गांधीजी आदि के चित्र अथवा मूर्तियां तदाकार स्थापना है ।
(३) द्रव्य निक्षेप इसमें भूत अथवा भविष्य काल को घटनाओं या स्थितियों की प्रमुखता होती है। उदाहरणार्थ, इन्जीनियरिंग के छात्र को इन्जीनियर कहना अथवा जो व्यक्ति पहले सेना में कर्नल रह चुका है उसे कर्नल कहना ।
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(४) भाव निक्षेप इसमें वर्तमान पर्याय की प्रमुखता होती है; जैसे- लकड़ी को लकड़ी कहना, जलकर जब वह कोयला बन गई तब कोयला कहना, और कोयला भी जब राख बन जाये तब राख कहना ।
यह चारों भेद ज्ञेय पदार्थ की अपेक्षा से हैं ।
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दव्वाणं सब्भावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सव्वाहिं नयविहीहिं, वित्थाररुइ त्ति नायव्व ॥
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उत्तरा. २८/२४
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