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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ५५
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में श्रुतज्ञान का लक्षण और उसके भेदों की ओर संकेत किया गया है
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श्रुतज्ञान की उत्पत्ति श्रुतज्ञान की उत्पत्ति का आन्तरिक कारण श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है । इस क्षयोपशम से आत्मा की जो और जितनी ज्ञान-शक्ति जानने की क्षमता अनावृत होती है, उसे श्रुतज्ञान कहा जाता है ।
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किन्तु जैसा कि सूत्र में कहा गया है 'श्रुतंमतिपूर्वकं' - श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । यद्यपि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम तो युगपत् यानी साथ-साथ होता है, इसीलिए प्रत्येक संसारी जीव को मति और श्रुतज्ञान दोनों ही होते हैं ।
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किन्तु क्रियाकारित्व अथवा उपयोग की अपेक्षा पहले मतिज्ञान और तदनन्तर श्रुतज्ञान होता है । यही प्रस्तुत सूत्र का भाव है ।
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श्रुतज्ञान का लक्षण श्रुतज्ञान का लक्षण है मतिज्ञान द्वारा जाने हुए विषय को विशेष रूप से जानना । यह लक्षण सभी जीवों पर घटित होता है।
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किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय और विशेष रूप से मनुष्य की अपेक्षा श्रुतज्ञान में शब्द विशिष्ट भूमिका निभाता है । अतः किसी भी शब्द ( अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक) को सुनकर उनके वाच्य - वाचक भाव से जो अर्थ की उपलब्धि होती है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
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मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान की विशिष्टता यद्यपि मति और श्रुत दोनों ही ज्ञान संसारी जीवों में पाये जाते हैं, किन्तु इन दोनों में कुछ विशेषताएँ हैं, जो इनमें स्पष्ट भेद दिखाती हैं ।
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(१) मतिज्ञान की सीमा सिर्फ वर्तमान काल तक ही हैं, यानि वह वर्तमान काल की बात ही जान सकता है; जबकि श्रुतज्ञान द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालों की बातें जानी जा सकती हैं ।
(२) मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान का विस्तार अधिक है ।
(३) श्रुतज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की प्रमुखता होती हैं, अतः यह प्रमुख रूप से मन का विषय है ।
(४) श्रुतज्ञान में पूर्वापर संबंध बना रहता है ।
श्रुतज्ञान के दो प्रकार यद्यपि सूत्र में स्पष्ट नहीं है कि श्रुतज्ञान के दो प्रकार कौन-कौन से हैं । किन्तु कई अपेक्षाओं से दो प्रकारो की गणना
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