Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 487
________________ मोक्ष ४६३ सम्यक्त्व, सुख, ज्ञान, दर्शन, वीर्य की उपलब्धि का यह अर्थ नहीं है कि आत्मा को यह उपलब्धियाँ कही बाहर से प्राप्त होती है; अपितु तथ्य यह है कि सभी शक्तियां आत्मा की स्वयं की हैं, यह इन कर्मों से आवरित हो रही थीं, कर्मों का आवरण दूर होते ही निरावरण होकर अपने सहज स्वाभाविक रूप में प्रगट हो जाती हैं, उद्घाटित हो जाती है। यही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी दशा है और अरिहन्त दशा है। आगम वचन - अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियटिसुक्क झाणं झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारिकम्मं से जुगवं खवेइ। - उत्तरा. २९/७२ ((इसके पश्चात् वह) मुनि समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति अथवा व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम के चतुर्थ शुक्लध्यान का ध्यान करते हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-इन चार कर्मों के अंशों अथवा प्रकृतियों को एक साथ नष्ट करते हैं ।) मोक्ष का स्वरूप - . बंधहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ।२। कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष। ३।। बन्ध के कारणों का अभाव हो जाने और निर्जरा होने से । . कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना, संपूर्णतः नष्ट हो जाना, मोक्ष है।। विवेचन -प्रस्तुत सूत्र में मोक्ष का स्वरूप समझाया गया है कि मोक्ष (आत्मा की मुक्ति) किसे कहना चाहिए ? मोक्ष का अभिप्राय है -आत्मा की कर्मबन्धनों से सम्पूर्णतः मुक्ति आत्मा को इस संसार में रोके रखने वाले दो कारण है- (१) कर्म-बन्धन के हेतु और (२) पूर्वबद्ध कर्म जो आत्मा के साथ संलग्न रहते हैं । कर्म-बन्ध के हेतू मिथ्यात्व आदि हैं, इनका अभाव होने से बन्ध की प्रक्रिया रुक जाती है, संवर हो जाता है, और निर्जरा द्वार पूर्वबद्ध कर्म आत्मा से पृथक होकर जड़ जाते हैं। तब(सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होने से (क्षय होने से) जो आत्मा की विशुद्धतम निर्मल दशा प्रगट होती है, वह मोक्ष है) कर्म आठ हैं । उनमें से चार घाती हैं-मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय । इन चारों का नाश तो अर्हन्त दशा प्राप्त होने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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